recent

Slide show

[people][slideshow]

Ad Code

Responsive Advertisement

JSON Variables

Total Pageviews

Blog Archive

Search This Blog

Fashion

3/Fashion/grid-small

Text Widget

Bonjour & Welcome

Tags

Contact Form






Contact Form

Name

Email *

Message *

Followers

Ticker

6/recent/ticker-posts

Slider

5/random/slider

Labels Cloud

Translate

Lorem Ipsum is simply dummy text of the printing and typesetting industry. Lorem Ipsum has been the industry's.

Pages

कर्मकाण्ड

Popular Posts

गणेशगीता

गणेशगीता

गणेशगीता गणेशपुराण के क्रीडाखण्ड के अन्तर्गत कुल ग्यारह अध्यायों में विस्तृत है। इसमें मूलरूप से सम्पूर्ण विघ्नों के नाशक गणेशजी द्वारा राजा वरेण्य को दिये गये ब्रह्मविद्यारूपी उपदेशों का वर्णन है, जिसे व्यासजी द्वारा अनादि सिद्धयोग कहा गया है। इसे सुनकर राजा को मुक्तिपद प्राप्त हो गया। इसी परम ज्ञान को व्यासजी ने सूतजी को सुनाया, फिर क्रमश: ऋषि शौनक तथा परमभागवत शुकदेवजी ने इसे प्राप्त किया । इस गीता के  अध्याय १ में साङ्ख्ययोग को कहा गया है ।

गणेशगीता

गणेशगीता पहला अध्याय

भगवान् श्रीगणेशजी द्वारा ब्रह्मविद्या का उपदेश

Ganesh geeta chapter 1

गणेश गीता अध्याय १

सूत-शौनक-संवाद में गणेशगीता का उपक्रम

गणेशगीता प्रथमोऽध्यायः साङ्ख्ययोग

                   ॥ ॐ नमः श्रीगणेशाय ॥

              ॥ अथ श्रीमद्गणेशगीता प्रारभ्यते ॥

॥ प्रथमोऽध्यायः ॥

॥ साङ्ख्यसारार्थ योगः ॥

शुक उवाच

एवमेव पुरा पृष्टः शौनकेन महात्मना ।

स सूतः कथयामास गीतां व्यासमुखाच्छ्रुताम् ॥१ ॥

शुकदेवजी बोले- पूर्वकाल में महात्मा शौनक के पूछने पर सूतजी ने व्यासजी के मुख से श्रवण की हुई गीता का वर्णन किया था ॥ १ ॥

सूत उवाच

अष्टादशपुराणोक्तममृतं प्राशितं त्वया ।

ततोऽतिरसवत्पातुमिच्छाम्यमृतमुत्तमम् ॥२ ॥

सूतजी बोले - हे भगवन्! आपने अष्टादश पुराणों के साररूप अमृत का मुझे पान कराया, परंतु अब उससे भी अधिक रसीले उत्तम अमृत का पान करने की मेरी इच्छा है ॥ २ ॥

येनामृतमयो भूत्वा पुमान्ब्रह्मामृतं यतः ।

योगामृतं महाभाग तन्मे करुणया वद ॥३ ॥

जिस अमृत को पाकर मनुष्य ब्रह्मरूप हो जाते हैं, हे महाभाग ! उस योगामृत का कृपाकर आप मुझसे वर्णन कीजिये॥३॥

व्यास उवाच

अथ गीतां प्रवक्ष्यामि योगमार्गप्रकाशिनीम् ।

नियुक्ता पृच्छते सूत राज्ञे गजमुखेन या ॥४ ॥

व्यासजी बोले - हे सूतजी ! योगमार्ग को प्रकाशित करनेवाली गीता का अब तुमसे वर्णन करता हूँ, जिसको राजा वरेण्य के पूछने पर सम्पूर्ण विघ्नों के नाशक गणेशजी ने कहा था ॥ ४ ॥

वरेण्य उवाच

विघ्नेश्वर महाबाहो सर्वविद्याविशारद ।

सर्वशास्त्रार्थतत्त्वज्ञ योगं मे वक्तुमर्हसि ॥५ ॥

राजा वरेण्य बोले- हे विघ्नेश्वर ! हे महाभुज ! हे सर्वविद्याओं के पण्डित ! हे सम्पूर्ण शास्त्र के तत्त्व को जाननेवाले! आप मुझसे योगमार्ग का वर्णन कीजिये ॥ ५ ॥

श्रीगजानन उवाच

सम्यग्व्यवसिता राजन्मतिस्तेऽनुग्रहान्मम ।

शृणु गीतां प्रवक्ष्यामि योगामृतमयीं नृप ॥६ ॥

श्रीगजानन बोले हे राजन् ! मेरी कृपा से तुम्हारी बुद्धि निर्मल और स्थिर हो गयी है, सुनो, मैं योगामृत से परिपूर्ण गीता तुमसे कहता हूँ ॥ ६ ॥

न योगं योगमित्याहुर्योगो योगो न च श्रियः ।

न योगो विषयैर्योगो न च मात्रादिभिस्तदा ॥७ ॥

'योग' इस शब्द का ही अर्थ योग नहीं, लक्ष्मी की प्राप्ति होने का नाम योग नहीं, विषय- सुख की प्राप्ति होने का नाम योग नहीं और इन्द्रियसम्पन्न होने का नाम भी योग नहीं है ॥ ७ ॥

योगो यः पितृमात्रादेर्न स योगो नराधिप ।

यो योगो बन्धुपुत्रादेर्यश्चाष्टभूतिभिः सह ॥८ ॥

हे राजन् ! माता-पिता के समागम का नाम योग नहीं है। आठ प्रकार की सिद्धि और बन्धुपुत्रादि की प्राप्ति का नाम भी योग नहीं है ॥ ८ ॥

न स योगस्त्रिया योगो जगदद्भुतरूपया ।

राज्ययोगश्च नो योगो न योगो गजवाजिभिः ॥९ ॥

अत्यन्त रूपवती स्त्री की प्राप्ति का नाम योग नहीं है, राज्य की प्राप्ति तथा हाथी-घोड़े की प्राप्ति का नाम भी योग नहीं है ॥ ९ ॥

योगो नेन्द्रपदस्यापि योगो योगार्थिनः प्रियः ।

योगो यः सत्यलोकस्य न स योगो मतो मम ॥१० ॥

इन्द्रपद की प्राप्ति का नाम योग नहीं है, योग द्वारा प्रिय सिद्धि की इच्छा अथवा सत्यलोक की प्राप्ति को भी मैं योग नहीं मानता ॥ १० ॥

शैवस्य योगो नो योगो वैष्णवस्य पदस्य यः ।

न योगो भूप सूर्यत्वं चन्द्रत्वं न कुबेरता ॥११ ॥

हे राजन् ! शिवपद की प्राप्ति होना, वैष्णवपद की प्राप्ति होना, सूर्य-चन्द्र और कुबेर के पद की प्राप्ति होने का भी नाम योग नहीं है ॥ ११ ॥

नानिलत्वं नानलत्वं नामरत्वं न कालता ।

न वारुण्यं न नैरृत्यं योगो न सार्वभौमता ॥१२ ॥

वायुस्वरूप, अग्निस्वरूप, देवस्वरूप, कालस्वरूप, वरुणस्वरूप, निरृतिस्वरूप अथवा सम्पूर्ण पृथ्वी के आधिपत्य पाने का नाम भी योग नहीं है ॥ १२ ॥

योगं नानाविधं भूप युञ्जन्ति ज्ञानिनस्ततम् ।

भवन्ति वितृषा लोके जिताहारा विरेतसः ॥१३ ॥

हे राजन् ! योग अनेक प्रकार का है, परंतु [ यथार्थ योग वही है ] जिसको पाकर ज्ञानी लोग विषयों को जीतकर ब्रह्मचर्यपूर्वक संसार से विरक्त हो जाते हैं ॥ १३ ॥

पावयन्त्यखिलान्लोकान्वशीकृतजगत्त्रयाः ।

करुणापूर्णहृदया बोधयन्त्यपि कांश्चन ॥१४ ॥

ज्ञानीलोग तीनों लोकों को वश में करके सम्पूर्ण जगत्को पवित्र करते हैं, उनका हृदय दया से पूर्ण होता है और वे सत्पात्रों को ज्ञान भी प्रदान करते हैं ॥ १४ ॥

जीवन्मुक्ता हृदे मग्नाः परमानन्दरूपिणि ।

निमील्याक्षीणि पश्यन्तः परं ब्रह्म हृदि स्थितम् ॥१५ ॥

वे जीवन्मुक्त होकर परमानन्दरूपी सरोवर में मग्न रहते हैं और नेत्र मूँदकर अपने हृदय में स्थित परब्रह्म का दर्शन करते रहते हैं ॥ १५ ॥

ध्यायन्तः परमं ब्रह्म चित्ते योगवशीकृतम् ।

भूतानि स्वात्मना तुल्यं सर्वाणि गणयन्ति ते ॥१६ ॥

योग से वशीभूत किये अपने चित्त में परब्रह्म का ध्यान करते हुए वे सम्पूर्ण प्राणियों को अपने समान समझते हैं ॥ १६ ॥

येन केनचिदाच्छिन्ना येन केनचिदाहताः ।

येन केनचिदाकृष्टा येन केनचिदाश्रिताः ॥१७ ॥

करुणापूर्णहृदया भ्रमन्ति धरणीतले ।

अनुग्रहाय लोकानां जितक्रोधा जितेन्द्रियाः ॥१८ ॥

कहीं किसी प्रकार से स्वयं को छिपाये हुए, कहीं किसी से प्रताडित, कहीं किसी से बुलाये गये और कहीं किसी से आश्रित होकर दयापूर्ण हृदय से क्रोध को जीते हुए जितेन्द्रिय वे योगी लोकों पर अनुग्रह करने के लिये ही पृथ्वी पर विचरते हैं । १७-१८ ॥

देहमात्रभृतो भूप समलोष्टाश्मकाञ्चनाः ।

एतादृशा महाभाग्याः स्युश्चक्षुर्गोचराः प्रिय ॥१९ ॥

तमिदानीमहं वक्ष्ये शृणु योगमनुत्तमम् ।

श्रुत्वा यं मुच्यते जन्तुः पापेभ्यो भवसागरात् ॥२० ॥

प्रिय राजन् ! वे केवल देहमात्र को ही धारण करनेवाले, मिट्टी- पत्थर तथा स्वर्ण में समान दृष्टि रखनेवाले - इस प्रकार के महाभाग पुरुष जिस योग द्वारा दृष्टिगोचर हो जाते हैं, उस श्रेष्ठ योग को मैं तुमसे अब कहता हूँ; सुनो, जिसके श्रवण करने से प्राणी पापों से और भवसागर से मुक्त हो जाता है ॥ १९-२० ॥

शिवे विष्णौ च शक्तौ च सूर्ये मयि नराधिप ।

याऽभेदबुद्धिर्योगः स सम्यग्योगो मतो मम ॥२१ ॥

हे राजन् ! शिव, विष्णु, शक्ति, सूर्य और मुझमें जो अभेदबुद्धिरूप योग है, उसी को मैं यथार्थ योग मानता हूँ ॥ २१ ॥

अहमेव जगद्यस्मात्सृजामि पालयामि च ।

कृत्वा नानाविधं वेषं संहरामि स्वलीलया ॥२२ ॥

मैं ही अपनी लीला से अनेक वेष धारण करता हुआ इस जगत्की उत्पत्ति, पालन और संहार करता हूँ ॥ २२ ॥

अहमेव महाविष्णुरहमेव सदाशिवः ।

अहमेव महाशक्तिरहमेवार्यमा प्रिय ॥२३ ॥

हे प्रिय ! मैं ही महाविष्णु, मैं ही सदाशिव, मैं ही महाशक्ति और मैं ही सूर्य हूँ ॥ २३ ॥

अहमेको नृणां नाथो जातः पञ्चविधः पुरा ।

अज्ञानान्मा न जानन्ति जगत्कारणकारणम् ॥२४ ॥

एकमात्र मैं ही मनुष्यों का स्वामी हूँ, [ विष्णु, शिव, शक्ति, सूर्य तथा गणेश—] इन पाँच प्रकार से मैं पूर्वकाल में उत्पन्न हुआ हूँ, मैं जगत् के कारण का भी कारण हूँ, मुझको अज्ञानी लोग नहीं जानते ॥ २४ ॥

मत्तोऽग्निरापो धरणी मत्त आकाशमारुतौ ।

ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च लोकपाला दिशो दश ॥२५ ॥

वसवो मनवो गावो मनवः पशवोऽपि च ।

सरितः सागरा यक्षा वृक्षाः पक्षिगणा अपि ॥२६ ॥

तथैकविंशतिः स्वर्गा नागाः सप्त वनानि च ।

मनुष्याः पर्वताः साध्याः सिद्धा रक्षोगणास्तथा ॥२७ ॥

अग्नि, जल, पृथ्वी, आकाश, वायु, ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, लोकपाल और दसों दिशाएँ, आठ वसु, मुनि, गौ, मनु, पशु, नदी, समुद्र, यक्ष, वृक्ष, पक्षियों के समूह, इक्कीस स्वर्ग, नाग, सात वन, मनुष्य, पर्वत, साध्य, सिद्ध, राक्षस इत्यादि सब मुझसे ही उत्पन्न हुए हैं । २५-२७ ॥

अहं साक्षी जगच्चक्षुरलिप्तः सर्वकर्मभिः ।

अविकारोऽप्रमेयोऽहमव्यक्तो विश्वगोऽव्ययः ॥२८ ॥

मैं ही सबका साक्षी, सम्पूर्ण जगत्का नेत्र, सभी कर्मों से अलिप्त, निर्विकार, अप्रमेय, अव्यक्त, सम्पूर्ण जगत्‌ में व्याप्त और अविनाशी हूँ ॥ २८ ॥

अहमेव परं ब्रह्माव्ययानन्दात्मकं नृप ।

मोहयत्यखिलान्माया श्रेष्ठान्मम नरानमून् ॥२९ ॥

हे राजन् ! मैं ही अव्यय आनन्दस्वरूप परब्रह्म हूँ, मेरी माया सम्पूर्ण जगत्‌ को तथा श्रेष्ठ पुरुषों को भी मोहित करती है ॥ २९ ॥

सर्वदा षड्विकारेषु तानियं योजयेत् भृशम् ।

हित्वाजापटलं जन्तुरनेकैर्जन्मभिः शनैः ॥३० ॥

विरज्य विन्दति ब्रह्म विषयेषु सुबोधतः ।

अच्छेद्यं शस्त्रसङ्घातैरदाह्यमनलेन च ॥३१ ॥

अक्लेद्यं भूप भुवनैरशोष्यं मारुतेन च ।

अवध्यं वध्यमानेऽपि शरीरेऽस्मिन्नराधिप ॥३२ ॥

वह माया सदा काम-क्रोधादि छः विकारों में इन प्राणियों को लगा देती है। (योग) - से जब शनैः-शनैः अनेक जन्म के माया के कपाट दूर हो जाते हैं, तब यह प्राणी विषयों से जागकर और उनसे विरक्त होकर [इस] ब्रह्म को जानता है, जो ब्रह्म शस्त्रसमूहों से कट नहीं सकता और अग्नि से दग्ध नहीं हो सकता, जल से गल नहीं सकता, पवन से सूख नहीं सकता और हे राजन्! जो इस शरीर के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता ॥ ३०-३२ ॥

यामिमां पुष्पितां वाचं प्रशंसन्ति श्रुतीरिताम् ।

त्रयीवादरता मूढास्ततोऽन्यन्मन्वतेऽपि न ॥३३ ॥

वेदत्रयी में श्रद्धा रखनेवाले तथा केवल कर्म करनेवाले मूढ लोग श्रुति में कही हुई फलप्रतिपादक वाणी की ही प्रशंसा करते हैं, दूसरी बात को स्वीकार नहीं करते ॥ ३३ ॥

कुर्वन्ति सततं कर्म जन्ममृत्युफलप्रदम् ।

स्वर्गैश्वर्यरता ध्वस्तचेतना भोगबुद्धयः ॥३४ ॥

इसी कारण वे जन्म और मृत्यु के फल को देनेवाले कर्मों को सदा करते रहते हैं, वे स्वर्ग के ऐश्वर्यों के भोग में ही लगे रहते हैं, उन भोगबुद्धिवालों की चेतना नष्ट हो जाती है ॥ ३४ ॥

सम्पादयन्ति ते भूप स्वात्मना निजबन्धनम् ।

संसारचक्रं युञ्जन्ति जडाः कर्मपरा नराः ॥३५ ॥

हे राजन्! वे स्वयं ही अपने निमित्त बन्धन बनाते हैं, मूढ़ और कर्मपरायण मनुष्य संसारचक्र में पड़े रहते हैं॥३५॥

यस्य यद्विहितं कर्म तत्कर्तव्यं मदर्पणम् ।

ततोऽस्य कर्मबीजानामुच्छिन्नाः स्युर्महाङ्कुराः ॥३६ ॥

जिसके लिये जो कर्मविधान है, वह कर्म मुझे अर्पण कर देना चाहिये, तभी इन प्राणियों के कर्मरूप बीजों के महान् अंकुर नष्ट हो सकते हैं ॥ ३६ ॥

चित्तशुद्धिश्च महती विज्ञानसाधिका भवेत् ।

विज्ञानेन हि विज्ञातं परं ब्रह्म मुनीश्वरैः ॥३७ ॥

चित्त की शुद्धि ही विज्ञान की प्राप्ति में प्रधान साधन होती है, विज्ञान के द्वारा ही ऋषियों ने परब्रह्म को जाना है ॥३७॥

तस्मात्कर्माणि कुर्वीत बुद्धियुक्तो नराधिप ।

न त्वकर्मा भवेत्कोऽपि स्वधर्मत्यागवांस्तथा ॥३८ ॥

हे राजन् ! इस कारण जो भी कर्म करे, वह बुद्धियुक्त होकर करे । किसी को स्वकर्म और स्वधर्म का त्याग नहीं करना चाहिये ॥ ३८ ॥

जहाति यदि कर्माणि ततः सिद्धिं न विन्दति ।

आदौ ज्ञाने नाधिकारः कर्मण्येव स युज्यते ॥३९ ॥

यदि कोई कर्म का त्याग करेगा तो उससे उसे सिद्धि की प्राप्ति नहीं होगी। ज्ञान में प्रथम अधिकार भी कर्म से ही प्राप्त होता है ॥ ३९ ॥

कर्मणा शुद्धहृदयोऽभेदबुद्धिमुपैष्यति ।

स च योगः समाख्यातोऽमृतत्वाय हि कल्पते ॥४० ॥

कर्म से शुद्ध हृदय होकर (साधक) अभेदबुद्धि को प्राप्त होता है, उसी का नाम योग है, जिससे प्राणी अमर हो जाता है ॥ ४० ॥

योगमन्यं प्रवक्ष्यामि शृणु भूप तमुत्तमम् ।

पशौ पुत्रे तथा मित्रे शत्रौ बन्धौ सुहृज्जने ॥४१ ॥

बहिर्दृष्ट्या च समया हृत्स्थयालोकयेत्पुमान् ।

सुखे दुःखे तथाऽमर्षे हर्षे भीतौ समो भवेत् ॥४२ ॥

हे राजन् ! मैं दूसरा उत्तम योग कहता हूँ, तुम उसे सुनो। पशु, मित्र, पुत्र, शत्रु, बन्धु तथा प्रियजन में समान दृष्टि करनी चाहिये, बाहर-भीतर एक-सी दृष्टि रखते हुए, सुख-दुःख, क्रोध, हर्ष, भय- इनमें समान रहना चाहिये ॥ ४१-४२ ॥

रोगाप्तौ चैव भोगाप्तौ जये वा विजयेऽपि च ।

श्रियोऽयोगे च योगे च लाभालाभे मृतावपि ॥४३ ॥

रोग की प्राप्ति हो चाहे भोग की प्राप्ति हो, जय हो या विजय हो, लक्ष्मी की प्राप्ति हो या अप्राप्ति हो, हानि-लाभ, जन्म-मरण - इन सबमें मन को समान रखना उचित है ॥ ४३ ॥

समो मां वस्तुजातेषु पश्यन्नन्तर्बहिःस्थितम् ।

सूर्ये सोमे जले वह्नौ शिवे शक्तौ तथानिले ॥४४ ॥

द्विजे हृदि महानद्यां तीर्थे क्षेत्रेऽघनाशिनि ।

विष्णौ च सर्वदेवेषु तथा यक्षोरगेषु च ॥४५ ॥

गन्धर्वेषु मनुष्येषु तथा तिर्यग्भवेषु च ।

सततं मां हि यः पश्येत्सोऽयं योगविदुच्यते ॥४६ ॥

सम्पूर्ण वस्तुओं में समान भाव से बाहर-भीतर मुझे स्थित जानना, सूर्य, चन्द्रमा, जल, अग्नि, शिव, शक्ति, वायु, ब्राह्मण, सरोवर, पापहारी महानदी, तीर्थ, क्षेत्र, विष्णु, सम्पूर्ण देवता, यक्ष, उरग, गन्धर्व, मनुष्य और पक्षी - इन सबमें जो मुझे सदा समान दृष्टि से देखता है, वही योग को जाननेवाला कहलाता है ॥ ४४-४६ ॥

सम्पराहृत्य स्वार्थेभ्य इन्द्रियाणि विवेकतः ।

सर्वत्र समताबुद्धिः स योगो भूप मे मतः ॥४७ ॥

हे राजन्! जो ज्ञान द्वारा इन्द्रियों को विषयों से हटाकर सर्वत्र समान बुद्धि रखता है, वही मेरी दृष्टि में योगी है ॥ ४७ ॥

आत्मानात्मविवेकेन या बुद्धिर्दैवयोगतः ।

स्वधर्मासक्तचित्तस्य तद्योगो योग उच्यते ॥४८ ॥

धर्माधरमौ जहातीह तया युक्त उभावपि ।

अतो योगाय युञ्जीत योगो वैधेषु कौशलम् ॥४९ ॥

अपने धर्म में आसक्त चित्तवाले प्राणी की दैवयोग से जो आत्मा और अनात्मा के विचार की बुद्धि उत्पन्न होती है, उस बुद्धि के योग का ही नाम योग है और उसी बुद्धि के न होने से यह प्राणी धर्म-अधर्म का त्याग कर देता है, इस कारण योग में बुद्धि लगाना उचित है, कर्तव्य कर्मों में कुशलता ही योग है ।। ४८-४९ ॥

धर्माधर्मफले त्यक्त्वा मनीषी विजितेन्द्रियः ।

जन्मबन्धविनिर्मुक्तः स्थानं संयात्यनामयम् ॥५० ॥

जितेन्द्रिय और बुद्धिमान् व्यक्ति धर्म और अधर्म के फल का त्याग करके जन्म-बन्धन से मुक्त होकर अनामय परमपद को प्राप्त होता है ॥ ५० ॥

यदा ह्यज्ञानकालुष्यं जन्तोर्बुद्धिः क्रमिष्यति ।

तदासौ याति वैराग्यं वेदवाक्यादिषु क्रमात् ॥५१ ॥

जब इस प्राणी की बुद्धि अविद्या के अन्धकार से – अविद्या से रहित होगी, तब क्रम से इस प्राणी का सकाम वेदवाक्यादिकों में वैराग्य हो जाता है ॥ ५१ ॥

त्रयीविप्रतिपन्नस्य स्थाणुत्वं यास्यते यदा ।

परात्मन्यचला बुद्धिस्तदासौ योगमाप्नुयात् ॥५२ ॥

जब तीनों वेदों में प्रतिपादित किये गये सकाम कर्म से यह बुद्धि पूर्णतः और परमात्मा में लगकर निश्चल हो जाती है, तब इस प्राणी को योग की प्राप्ति होती है ॥ ५२ ॥

मानसानखिलान्कामान्यदा धीमांस्त्यजेत्प्रिय ।

स्वात्मनि स्वेन सन्तुष्टः स्थिरबुद्धिस्तदोच्यते ॥५३ ॥

हे प्रिय ! जब यह बुद्धिमान् व्यक्ति मन की सम्पूर्ण इच्छाओं का त्याग कर दे और अपने आत्मा में आप ही से सन्तुष्ट हो जाय, तब यह स्थिरबुद्धि कहलाता है ॥ ५३ ॥

वितृष्णः सर्वसौख्येषु नोद्विग्नो दुःखसङ्गमे ।

गतसाध्वसरुड्रागः स्थिरबुद्धिस्तदोच्यते ॥५४ ॥

किसी प्रकार के भी संसारी सुखों में तृष्णा न रखनेवाला, दुःख में अनुद्विग्न, भय, क्रोध और राग से रहित व्यक्ति ही स्थिरबुद्धि कहा गया है ॥ ५४ ॥

यथाऽयं कमठोऽङ्गानि संकोचयति सर्वतः ।

विषयेभ्यस्तथा खानि संकर्पेद्योगतत्परः ॥५५ ॥

जिस प्रकार से कछुआ सब ओर से अपने अंगों को सिकोड़ लेता है, इसी प्रकार से योगी को उचित है कि वह विषयों से इन्द्रियों को समेट ले ॥ ५५ ॥

व्यावर्तन्तेऽस्य विषयास्त्यक्ताहारस्य वर्ष्मिणः ।

विना रागं च रागोऽपि दृष्ट्वा ब्रह्म विनश्यति ॥५६ ॥

भोजन त्यागनेवाले साधक के विषय तो नष्ट हो जाते हैं, परंतु उनका अनुभव बना रहता है। ब्रह्म की प्राप्ति होने से वह राग भी नष्ट हो जाता है ॥ ५६ ॥

विपश्चिद्यतते भूप स्थितिमास्थाय योगिनः ।

मन्थयित्वेन्द्रियाण्यस्य हरन्ति बलतो मनः ॥५७ ॥

हे राजन् ! इन्द्रियगण मोक्ष के लिये प्रयत्न करनेवाले विद्वान् पुरुष का भी मन बलात् हर लेती हैं। इस कारण बुद्धिमान् पुरुष को इन्द्रियों को वश में करने का यत्न करना चाहिये ॥ ५७ ॥

युक्तस्तानि वशे कृत्वा सर्वदा मत्परो भवेत् ।

संयतानीन्द्रियाणीह यस्यासौ कृतधीर्मतः ॥५८ ॥

इन्द्रियों को वश में करके योगी को सदा मेरे परायण होना चाहिये । जिसकी इन्द्रियाँ वश में हो गयी हैं, उसी को स्थितप्रज्ञ कहते हैं ॥ ५८ ॥

चिन्तयानस्य विषयान्संगस्तेषूपजायते ।

कामः संजायते तस्मात्ततः क्रोधोऽभिवर्तते ॥५९ ॥

विषयों का चिन्तन करनेवाले पुरुष को उनमें अनुराग हो जाता है, आसक्ति (अनुराग)- से कामना होती है और उससे क्रोध की उत्पत्ति होती है ॥ ५९ ॥

क्रोधादज्ञानसंभूतिर्विभ्रमस्तु ततः स्मृतेः ।

भ्रंशात्स्मृतेर्मतेर्ध्वंसस्तद्ध्वंसात्सोऽपि नश्यति ॥६० ॥

क्रोध से अज्ञान की उत्पत्ति और इससे स्मृतिभ्रंश होता है, स्मृतिभ्रंश से बुद्धि नष्ट होती है और बुद्धि नष्ट होनेसे वह प्राणी भी नष्ट हो जाता है ॥ ६० ॥

विना द्वेषं च रागं च गोचरान्यस्तु खैश्चरेत् ।

स्वाधीनहृदयो वश्यैः संतोषं स समृच्छति ॥६१ ॥

अनुराग और द्वेष से रहित अपने वश में आयी इन्द्रियों से विषयों का भोग करके भी चित्त को अपने वश में रखनेवाले महापुरुष सन्तोष और शान्ति को प्राप्त होते हैं ॥ ६१ ॥

त्रिविधस्यापि दुःखस्य संतोषे विलयो भवेत् ।

प्रज्ञया संस्थितश्चायं प्रसन्नहृदयो भवेत् ॥६२ ॥

सन्तोष की प्राप्ति होने से तीनों प्रकार के दुःख नष्ट हो जाते हैं, इसी प्रकार स्थिरप्रज्ञावाले योगी का मन प्रसन्न रहता है ॥ ६२ ॥

विना प्रसादं न मतिर्विना मत्या न भावना ।

विना तां न शमो भूप विना तेन कुतः सुखम् ॥६३ ॥

हे राजन् ! बिना चित्त प्रसन्न हुए बुद्धि की प्राप्ति नहीं होती और बुद्धि के बिना श्रद्धा नहीं होती, श्रद्धा के बिना शान्ति नहीं होती और शान्ति के बिना सुख नहीं होता ॥ ६३ ॥

इन्द्रियाश्वान्विचरतो विषयाननु वर्तते ।

यन्मनस्तन्मतिं हन्यादप्सु नावं मरुद्यथा ॥६४ ॥

पवन जिस प्रकार नाव को जल में डुबो देता है, वैसे ही जो मन विषयों में विचरनेवाले अवशीभूत इन्द्रियरूपी घोड़ों के पीछे भागता है, वह प्रज्ञा को हर लेता है ॥ ६४ ॥

या रात्रिः सर्वभूतानां तस्यां निद्राति नैव सः ।

न स्वपन्तीह ते यत्र सा रात्रिस्तस्य भूमिप ॥६५ ॥

हे राजन् ! अज्ञान से आच्छादित सम्पूर्ण प्राणियों के लिये जो आत्मज्ञान रात्रिस्वरूप है, उसमें इन्द्रिय को वश में करनेवाले संयमी योगी जागते हैं और जिस विषयबुद्धि में सम्पूर्ण प्राणी जागते हैं, वह विषयभोग ज्ञानियों के लिये रात्रिस्वरूप है ॥ ६५ ॥

सरितां पतिमायान्ति वनानि सर्वतो यथा ।

आयान्ति यं तथा कामा न स शान्तिं क्वचिल्लभेत् ॥६६ ॥

जिस प्रकार से [नदियों आदि के] सभी जल समुद्र में प्रवेश कर जाते हैं और उसकी तृप्ति नहीं होती, इसी प्रकार सब कामना पूर्ण होनेवाले को भी शान्ति नहीं होती ॥ ६६ ॥

अतस्तानीह संरुध्य सर्वतः खानि मानवः ।

स्वस्वार्थेभ्यः प्रधावन्ति बुद्धिरस्य स्थिरा तदा ॥६७ ॥

इस कारण प्राणी को उचित है कि सब प्रकार से विषयों की ओर दौड़ती हुई इन्द्रियों को वश में करे, तब उसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है ॥ ६७ ॥

ममताहंकृती त्यक्त्वा सर्वान्कामांश्च यस्त्यजेत् ।

नित्यं ज्ञानरतो भूत्वा ज्ञानान्मुक्तिं स यास्यति ॥६८ ॥

जो ममत्व, अहंकार और सब कामनाओं का त्याग करता है, नित्य ज्ञान में मग्न रहता है, वह ज्ञान से मुक्ति को प्राप्त हो जाता है ॥ ६८ ॥

एवं ब्रह्मधियं भूप यो विजानाति दैवतः ।

तुर्यामवस्थां प्राप्यापि जीवन्मुक्तिं प्रयास्यति ॥६९ ॥

हे राजन्! जो वृद्धावस्था को प्राप्त होकर भी दैवगति से इस ब्रह्मज्ञानयुक्त बुद्धि को प्राप्त हो जाता है, वह जीवन्मुक्त हो जाता है ॥ ६९ ॥

॥ इति श्रीगणेशपुराणे गजाननवरेण्यसंवादे गणेशगीतायां सांख्यसारार्थयोगो नाम प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥

आगे जारी........गणेशगीता अध्याय 2

No comments:

vehicles

[cars][stack]

business

[business][grids]

health

[health][btop]