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कर्मकाण्ड

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माहेश्वरतन्त्र पटल १

माहेश्वरतन्त्र पटल १

माहेश्वरतन्त्र के पटल १ में  मङ्गलाचरण, तत्त्वज्ञान के कथन के लिए ईश्वर से आग्रह, आत्मसाक्षात्कार ही तत्त्व ज्ञान है, आत्मा का स्वरूप, अक्षर ब्रह्म का विराट् स्वरूप का वर्णन है ।

माहेश्वरतन्त्र पटल १

माहेश्वरतन्त्र पटल १

Maheshvar tantra Patal 1

माहेश्वरतन्त्र ज्ञानखण्ड पटल १

नारदपञ्चरात्रान्तर्गतम्

माहेश्वरतन्त्र प्रथम पटल

अथ प्रथमं पटलम्

श्लोक १ से १२ तक मङ्गलाचरण है इसे पढ़ने के लिए देखें-

शिव स्तोत्र

अब इससे आगे –

माहेश्वरतन्त्र पटल १

त्वयाहं दीननाथेन शरीरार्द्धे निरूपिता ।

कृतकृत्याऽस्मि तेनाहं किमन्यदवशेषितम् ॥ १३ ॥

आप दीनों के नाथ के द्वारा मैं आप की शरीरार्द्ध रूप से कही गई हूँ। उसी[अर्द्धाङ्गिनी ही बन जाने ] से ही मैं कृत कृत्य हूँ । मेरे लिए अब शेष ही क्या है ।। १३ ।।

तस्मात्संप्रष्टुमिच्छामि रहस्यं किञ्चिदुत्तमम् ।

यद्यहं ते प्रियतमा ब्रूहि नाथ ! तदाखिलम् ।। १४ ।।

इस लिए मैं कुछ उत्तम रहस्थों को पूछना चाहती हूँ । हे नाथ यदि मैं आपकी प्रियतमा होऊ तो आप उस रहस्य को अशेष रूप से मुझसे कहें ॥ १४ ॥

त्वया प्रोक्तानि तन्त्राणि चतुःषष्टिमितानि भोः ।

न तेषु तत्वविज्ञानं प्रकटीकृतमीश्वर ॥ १५ ॥

हे प्रभो ! आप के द्वारा प्रोक्त चौसठ तन्त्र हैं। हे ईश्वर ! उनमें आपने तत्व-ज्ञान को प्रकट नहीं किया है ।। १५ ।।

तत्प्रकाशय देवेश प्रवक्तुं यदि मन्यसे ॥ १६ ॥

हे देवेश ! यदि आप मुझसे कहने योग्य समझते हैं तो आप उस [ रहस्य ] का प्रकाशन करें ॥ १६ ॥

शिव उवाच

नैतज्ज्ञानं वरारोहे वक्तु योग्यं वरानने ।

राज्यं देयं शिरो देयं देयं सर्वस्वमप्युत ।

न देयं ब्रह्मविज्ञानं सत्यं सत्यं शुचिस्मिते ॥ १७ ॥

शिव ने कहा- हे वरारोहे ! यह [तत्व ] ज्ञान किसी को भी बताने योग्य नहीं हैं । हे सुन्दर मुख वाली ! राज्य दे दे; शिर अर्थात् बड़ी से बड़ी वस्तु भी दे दे अथवा सर्वस्व भी दे दे किन्तु शुद्ध एवं स्मित हास्य वाली प्रिये ! सत्य सत्य ब्रह्म के विज्ञान को कभी नहीं देना चाहिए ॥ १७ ॥

ब्रह्महत्यासहस्राणि कृत्वा यत्पापमाप्नुयात् ।

तत्पाप लभते देवि परमार्थप्रकाशनात् ।। १८ ।।

हजार ब्रह्महत्या करके जो पाप प्राप्त होता है, हे देवि ! वह पाप परमार्थ तत्व के प्रकाशन से प्राप्त होता है ।।१८।।

बालहत्या सहस्राणि स्त्रीहत्यायुतमेव च ।

गवां लक्षवधात्पाप तथा विश्वासघाततः ।। १९ ।।

मित्रद्रोहाद्गुरुद्रोहात्साधुद्रोहाच्च यद्भवेत् ।

तत्पापं लभते देवि परमार्थप्रकाशनात् ॥ २० ॥

हजार बाल-हत्या करके और अयुत ( हजार ) स्त्री-हत्या करके, तथा लाख - गोवध से जो पाप होता है और जो पाप विश्वासघात से होता है, इसी प्रकार जो पाप मित्रद्रोह, गुरुद्रोह, और सज्जनों से द्रोह ( विरुद्ध आचरण ) करने से होता है वह पाप परमार्थ के प्रकाशन से प्राप्त होता है ।। १९-२० ।।

तस्मात्तु गोपयेद्विद्वान् जननीजारगर्भवत् ।

भक्तासि त्वं प्रियतमा तस्मात्तेऽहं वदामि भोः ।। २१ ।।

इसलिए माता के और व्यभिचारिणी स्त्री के गर्भ को छिपाने के ही समान विद्वान् को इसका भी गोपना करना चाहिए। हे प्रियतमा ! तुम मेरी भक्त हो अतः मैं तुमसे कहता हूँ ।। २१ ।।

ज्ञानं तत्तु विजानीयात् येनात्मा भासते स्फुट: ।

अज्ञानेनावृतो नित्यं मोहरूपेण नित्यदा ।। २२ ।।

तावत्संसारभाव: स्याद्यावदज्ञानमुल्लसेत् ।

तावन्मोहो भ्रमस्तावत्तावदेव भयं भवेत् ॥ २३ ॥

वस्तुतः वही ज्ञान [विज्ञान] है जिससे आत्मा का साक्षात्कार हो जाय । वह स्फुट रूप से भासित होने लगे । वह आत्मा नित्य मोहरूप अज्ञान से आवृत होती है। वस्तुतः तभी तक संसार का भाव साधक में होता है जब तक उसकी आत्मा अज्ञान से आवृत रहती है और तभी तक मोह एवं भ्रम तथा तभी तक भय भी रहता है ।।२२-२३॥

अहं ममेत्य सद्भावो विस्मृतिर्दुःखदर्शनम् ।

नानाधर्मानुरागश्च कर्मणां च फलेषणा ॥ २४ ॥

'यह मेरा है ' 'यह मैं हूँ' - इस प्रकार महंत्व बुद्धि का न होना या उसकी विस्मृति अत्यन्त कठिन है । नाना प्रकार के धर्मों और कार्यों में अनुराग तथा फल की इच्छा का त्याग अत्यन्त कठिन है ॥ २४ ॥

बन्धमोक्षविभागश्व जडदेहाद्यहंकृतिः।

तावदीश्वरभावः स्यात्पाषाणप्रतिमादिषु ।। २५ ।।

बन्धन और विमुक्त [आत्मा] का विभाग तथा जड़ देह में अंहत्व बुद्धि न होने पर ही पाषाण की प्रतिमा आदि में ईश्वर भाव की उत्पत्ति होती है ।। २५ ।।

जलादौ तीर्थभावश्च यावदज्ञानमुल्लसेत् ।

उदिते तु परिज्ञानेनाऽयं लोको न कल्पना ।। २६ ॥

जब तक अज्ञान होता है तभी तक जल आदि में तीर्थ की भावना होती है । किन्तु जभी तत्वज्ञान का उदय साधक में हो जाता है तभी न यह लोक होता है और न तो किसी प्रकार की कल्पना ही उसमें होती है ।। २६ ।

न त्वं नाहं न वै किञ्चिन्निवृत्ते मोहविभ्रमे ।

स्वयमेवात्मनात्मानमात्मन्यात्माभिपद्यते ॥ २७ ॥

मोह रूप विशिष्ट भ्रम के दूर हो जाने पर साधक के लिए न तुम हो न मैं हूँ। वह तो स्वयं ही अपने द्वारा अपने में ही समाहित हो जाता है ।। २७ ।।

तदा सुखसमुद्रस्य स्वरूपनिरतो भवेत् ।

लयाश्चात्यन्तिको देवि कदाचिद्वा भविष्यति ॥ २८ ॥

उस समय वह साधक सुख के साक्षात् समुद्र में रहता है। हे देवि ! उस सुख समुद्र का आत्यन्तिक लय शायद ही कभी होगा ॥ २८ ॥

तदेवात्माक्षरः साक्षादेक एवावशिष्यते ।

स शिवो विष्णुरेवेन्द्रः स एवामरदानवाः ॥ २९ ॥

वह आत्मा ही साक्षात् अक्षर ब्रह्म है। वही एक शेष रहती है। वही शिव विष्णु और इन्द्र भी है । वही देव और दानव भी है ।। २९ ।।

स एव यक्षरक्षांसि सिद्धचारणकिन्नरा: ।

सनकाद्याश्च मुनयो ब्रह्मपुत्राश्च मानसाः ॥ ३० ॥

वही यक्ष और राक्षस, सिद्ध चारण या किन्नर (मनुष्य और देवों के बीच की योनि विशेष) भी है । वही [ आत्मा ] सनकादि ऋषि है और ब्रह्मा के [ नारदादि] मानस पुत्र भी वही हैं ।। ३० ।।

पशवः पक्षिणश्चैव पर्वतास्तृणवीरुधः ।

स ए वेदं जगत्सर्वं स्थूलसूक्ष्ममयं च यत् ॥ ३१ ॥

पशु-पक्षी, पर्वत, तृणादिक लता, पल्लव नादि भी वह [ आत्मारूप ब्रह्म ] ही हैं । वही यह सम्पूर्ण दृश्यमान स्थूल या सूक्ष्म जगत् भी हैं ।। ३१ ।।

अज्ञानाद्रजतं भाति शुक्तिकायां यथा प्रिये ।

ज्ञानात्तद्रजतं देवि तस्यामेव विलीयते ॥ ३२ ॥

तथाक्षरे परे ब्रह्मण्याभाति सकलं जगत् ।

मोहने केनचिद्देवि मोहनाशे तु शाङ्करि ।। ३३ ॥

हे प्रिये ! जैसे अज्ञान के कारण सीपी में चांदी का भान होता है और हे देवि ! उसी रजत का ज्ञान होने पर उसी में उसका विलय [भी] हो जाता है। उसी प्रकार अक्षर रूप परब्रह्म में सम्पूण जगत् का भान होता है। अतः हे देवि! मोह का कारण जगत् है और मोह रूप अज्ञान के विनष्ट होने पर हे शाङ्करि! वह जगत् भी बिलीन हो जाता है ।। ३२-३३ ।।

अवशिष्यते परं ब्रह्म साक्षादक्षरमव्ययम् ।

नवं नाहं तदा विष्णुर्लक्ष्मीर्ब्रह्मासरस्वती ॥ ३४ ॥

साक्षात् अक्षर रूप परब्रह्म अध्यय ही अवशिष्ट रहता है। न 'तुम' और न 'मैं' रहता हूँ। वस्तुतः उस [तत्व ज्ञान के] समय विष्णु और लक्ष्मी तथा ब्रह्म एवं सरस्वती भी नहीं होती हैं ।। ३४ ।।

नेश्वरो न शिवश्चापि यथापूर्वं भविष्यति ।

मृदुद्भवानि कार्याणि मृच्छेशाणि यथाप्रिये ।। ३५ ।।

उस समय साधक के लिए न तो ईश्वर होते हैं और न ही शिव जैसे पहले हुए थे । वस्तुतः यह जगत् उसी प्रकार है जैसे हे प्रिये ! मिट्टी के [ बने घट आदि ] कार्यों का अन्ततः शेष मिट्टी ही होता है ।। ३५ ।।

तथैवाखिललोकोऽयं ब्रह्मभूतो भविष्यति ।

यथा वायुवशाददेवि समुद्रे तरलोर्मय ।

प्रादुर्भवन्ति देवेशि तस्मिन् शान्ते तु पूर्ववत् ।। ३६ ।।

साधक का यह सम्पूर्ण संसार ब्रह्ममय होगा । जैसे वायु के कारण, हे देवि, समुद्र में तरल उमियाँ ( लहरें ) प्रादुर्भूत होती हैं । हे देवेशि ! वही समुद्र शान्त होकर पूर्ववत् हो जाता है ।। ३६ ।।

तथा विस्मारितज्ञानान्मोहाद्भ्रान्तं चराचरम् ।

चतुर्विंशतितत्त्वोत्थं सत्यमित्येव रूपितम् ॥ ३७ ॥

इस प्रकार ज्ञान के पुनः विस्मृत हो जाने से मोह के कारण समस्त चराचर जगत् [ अंहकार आदि ] चौबीस तत्त्वों से प्रादुर्भूत हो [जाता है जो ] सत्य के समान ही लगता है ।। ३७ ।।

तत्र जाता इमे लोकाश्चतुर्दश महेश्वरि ।

अधः सप्त तथा चोर्ध्वमेवं संख्याश्चतुर्दश ।। ३८ ।।

हे महेश्वरि ! उसमें ये चौदह लोक प्रादुर्भूत होते हैं । जो सात नीचे और सात ऊपर के क्रम से संख्या में चौदह हैं ।। ३८ ।।

अतलं वितलं चैवं सुतलं च तलातलम् ।

रसातलं च पातालं भूर्भुवः स्वस्तथोपरि ॥ ३९ ॥

महर्जनस्तप इति सत्यं वैकुण्ठ इत्यपि ।

शिवलोको देवलोकस्तथाऽवान्तर्गता अपि ॥ ४० ॥

नीचे १. अतल, २. वितल, ३. सुतल, ४. तलातल, ५. महातल, ६. रसातल, एवं ७. पाताल - ये सात लोक हैं और ऊपर १. भूः, २. भुव:, ३. स्व:, ४. महः, ५. जनः, ६. तपः, और ७. सत्य- ये सात लोक हैं, तथा [ इससे अतिरिक्त ] वैकुण्ठ भी है । उसी वैकुण्ठ लोक के अन्तर्गत शिवलोक और देवलोक भी हैं ।। ३९-४० ।।

मोहशान्तौ भविष्यन्ति सर्वे ब्रह्ममया इमे ।

यावत्सर्पमयी भ्रान्ती रज्जौ तावद्भयं प्रिये ॥ ४१ ॥

मोह रूप अज्ञान के नष्ट हो जाने पर ये सभी ब्रह्ममय होंगे। हे प्रिये ! वस्तुतः [मृत्यु से] भय तभी तक रहता हैं जब तक कि रस्सी में सर्प की भ्रान्ति (सन्देह ) हो रहा हो ।। ४१ ।।

रज्जुत्वेन तु विज्ञाता भयं नोद्वहते पुनः ।

अप्रपञ्चे प्रपञ्चोऽयं मोहादुन्मीलति स्फुटः ॥ ४२ ॥

रस्सी का ज्ञान होते ही पुनः यह भय नहीं होता । मोह के उन्मीलित होते ही यह ज्ञान स्पष्टतः होता है कि अप्रपञ्च में यह सम्पूर्ण सृष्टि का प्रपञ्च है ।। ४२ ।।

तावद्भयप्रदोऽज्ञानं यावन्मोहं न विन्दते ।

द्विधा त्रिधा पञ्चधा च चतुर्विंशतिधा पुनः ॥ ४३ ॥

एकधा च पुनस्त्रेधा बहुधा च पुनः स्वयम् ।

विस्तीर्णः स तु मोहोऽयं आवृत्य परमेश्वरम् ॥ ४४ ॥

जब तक मोह नहीं हटता तभी तक अज्ञान भयप्रद होता है। दो, तीन और पांच-पांच करके अथवा चौबीस करके, पुनः एक और फिर तीन और बार-बार फिर वही यह मोह है जो स्वयमेव परमेश्वर को आवृत करके विस्तृत हो जाता है ।। ४३-४४ ॥

कालमायांश योगेन ब्रह्माण्डमसृजत्प्रभुः ।

कोटि ब्रह्माण्डलक्षाणां स निर्माताक्षरो विभुः ॥ ४५ ॥

काल और माया के अंश के योग से प्रभु ने इस ब्रह्माण्ड की रचना की। वह विभु करोड़ो ब्रह्माण्डों का निर्माता अक्षर ब्रह्म [आत्मा ] है ।। ४५ ।।

न तस्येच्छा न कर्त्तव्या निर्गुणः प्रकृतेः परः ।

तथापि बलवत् क्रीडन् कोटि ब्रह्माण्डसंहतीः ॥ ४६ ॥

उसे कोई इच्छा नहीं होती, उसके कोई कर्तव्य नहीं होते, वह निर्गुण और प्रकृति से परे है। फिर भी वह बालक के समान खेलता हुआ करोड़ों ब्रह्माण्ड की संहतियों [समूहों] को रचता रहता है और उन ब्रह्माण्डों का संहार किया करता है ।। ४६ ।।

सृजते संहरत्येषः कटाक्षाक्षेपमात्रतः ।

चिन्मात्रः परमः शुद्धः कूटस्थः पुरुषः परः ॥ ४७ ॥

चिन्मात्र, परम, शुद्ध कूटस्थ यह परम पुरुष अपने कटाक्ष के आक्षेप मात्र से ही ब्रह्माण्डों का सृजन और संहार किया करता है ।। ४७ ।।

विराट् तस्य वपुः स्थूलं पञ्चधा तु समुद्भवम् ।

पातालं पादमूलेऽस्य पार्ष्णिदेशे रसातलम् ॥ ४८ ॥

उसका शरीर विराट् और स्थूल है जो पांच गुना करके समुद्भुत है । उस विराट् पुरुष के पैर के तलवे में पाताल है, एड़ियां और (पंजे ) रसातल हैं ॥ ४८ ॥

गुल्फे महातलं तस्य जङ्घयोश्च तलातलम् ।

जङ्घयोपरि सुतलं वितलं कट्युत्तरं प्रिये ॥ ४९ ॥

कटिमध्येऽतलमस्ति मर्त्यलोकोदरे तथा ।

पार्श्वदेशेभुवर्लोकस्तदूर्ध्वं च स्वरादयः ॥ ५० ॥

गुल्फ (एड़ी की ऊपर की गाँठों में) महातल उसकी जांघों ( पिंडली ) में तलातल है । जङ्घाओं के ऊपर सुतल और हे प्रिये ! कटि के उत्तर में वितल है । कटि के मध्य में अतल और उदर में मर्त्यलोक है। पीठ में भुवर्लोक है और और उसके ऊपर 'स्व:' आदि लोक हैं ॥ ४९-५० ।।

ज्योतींष्यस्योरःस्थले च ग्रीवायां च महस्तथा ।। ५१ ।

इसके वक्षस्थल में स्वर्गलोक एवं ग्रीवा में महर्लोक हैं ।। ५१ ।।

वदने जनलोकोऽस्य तपोलोको ललाटके ।

सत्यलोको ब्रह्मरन्ध्रे बाह्वोरिन्द्रादयः सुराः ।। ५२ ।।

मुख में जन लोक है और इनके ललाट में तपोलोक हैं। इन विराट् पुरुष के ब्रह्मरन्ध्र में [ शिर में शिखा के पास जो 'ब्रह्मरन्ध्र' नामक महीन सा छिन्द्र होता है उसमें ] सत्यलोक है । इन्द्र आदि देवता इनकी भुजाएँ हैं ॥ ५२ ॥

दिशः कर्ण प्रदेशस्य शब्दस्तच्छ्रोत्रमध्यगः ।

नासयोरस्य नासत्यो मुखे वह्निः समाश्रितः ॥ ५३ ॥

दिशाएँ कान हैं। 'शब्द श्रोत्रेन्द्रिय है । इनकी दोनों नासाओं में नासत्या द्वय हैं और इनका मुख अग्नि है ।। ५३ ।।

सूर्योऽस्य चक्षुषि गतः पक्ष्मणि ह्यहनीशितुः ।

दंष्ट्रायां यमस्तस्य हास्ये माया महेश्वरि ॥ ५४ ॥

इनकी आखें सूर्य हैं। रात और दिन इन प्रभु की दोनों पलकें हैं। दंष्ट्रा (दाँतों) में यमराज हैं। हे महेश्वरि ! उनकी मधुर मुस्कान ही माया है ॥ ५४ ॥

उत्तरोष्ठे स्थिता लज्जा लोभः स्यादधरोष्ठके ।

स्तनयोरस्य वै धर्मः पृष्ठेऽधर्मः समाश्रितः ।। ५५ ।।

लज्जा ऊपर के ओठ ओर नीचे के ओष्ठ लोभ हैं। इनके दोनों स्तनों में धर्म और पृष्ठ भाग में अधर्मं आश्रय करके रहता है ।। ५५ ।।

कुक्षिष्वस्य समुद्रा वै पर्वता ह्यस्थिसन्धिषु ।

आपगा नाडिदेशस्था वृक्षा रोमपथि स्थिताः ।। ५६ ।

इनकी कुक्षि समुद्र है इनके अस्थि की सन्धि अर्थात् जोड़ पर्वत हैं । नाड़ी प्रदेश नदियाँ हैं । रोमों के पथ वृक्ष हैं ।। ५६ ।।

मेघाः केशेषु हृदये चन्द्रमाः परिकीर्तितः ।

इदं स्थूलशरीरं तु ब्रह्मणः परमात्मनः ॥ ५७ ॥

केशों में मेघ हैं और हृदय में चन्द्रमा कहे गये हैं ।" इस प्रकार विराट् पुरुष, परब्रह्म परमात्मा का यह विशालकाय शरीर है ॥ ५७ ॥

इयत्तयाsपरिच्छेद्यमन्तपारविवर्जितम् ।

लिङ्ग नारायणस्तस्य ह्यक्षरस्य चिदात्मनः ॥ ५८ ॥

उस चिदात्मा अक्षररूप ब्रह्म का यह शरीर आदि और अन्त से रहित है एवं वही लिङ्ग है और वही नारायण है ।। ५८ ।

हिरण्यगर्भं जगदीशितारं नारायणं यं प्रवदन्ति सन्तः ।

सर्वस्य धातारमनन्तमाद्यं प्रधानपुंसोरपि हेतुमीशम् ।। ५९ ।।

उसी विराट् पुरुष को सन्त लोग हिरण्यगर्भ, जगत् के ईश और नारायण के रूप में कहा करते हैं। वह सभी की सृष्टि करने वाले हैं, वह अनन्त हैं, प्रधान पुरुष से भी आद्य हैं। वह ईश के भी कारण हैं ।। ५९ ।।

तं सर्वकालावयवं पुराणं परात्परं योगिभिरीड्यपादम् ।

ब्रह्मेशविष्णुप्रमुखैकहेतुं यतः प्रवृत्तो निगमस्य पन्थाः ।। ६० ।।

उन सभी कालों के अवयव, पुराण पुरुष एवं परापर ब्रह्म के पैर योगियों द्वारा स्तुत हैं। वही विराट् पुरुष ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश आदि प्रमुख देवों के भी कारण हैं तथा इन्हीं से वेद भी निकले हैं ॥ ६० ॥

तं देवदेवं जगतां शरण्यं नारायणं यस्य वदन्ति लिङ्गम् ।

यावन्न लिंग प्रलयं प्रयाति स्थूलं वपुश्चापि न शान्तिमेति ॥ ६१ ॥

उन देवों के भी देव, जगत् को शरण प्रदान करने वाले, नारायण रूप जिस लिङ्ग (शरीर) की विद्वज्जन स्तुति किया करते हैं। जब तक उस विराट पुरुष का लिङ्ग शरीर प्रलय को प्राप्त नहीं होता तब तक उनका स्थूल शरीर भी शान्ति को नहीं प्राप्त करता है । ६१ ।।

ततः परः कारणमेव तस्य वपुः परस्यात्मन एव मोहः ।

यावद्विमोहः प्रशमं न याति न लिङ्गमुत्सीदति कार्यबद्धम् ।। ६२ ।।

"जब तक उसका कारण रूप शरीर विद्यमान होता है तब तक मोह रहता है और जब तक मोह का नाश नहीं होता तब तक कार्य से आबद्ध लिङ्ग शरीर का मोक्ष भी नहीं होता है ।। ६२ ।।

न कारणं तावदुपैति शान्ति चराचरस्यापि च बीजभूतम् ।

यावन्महाकारणमम्बिके तत् न शान्तिमायाति च बीजबीजम् ।। ६३ ।।

चराचर जगत् का बीजभूत [ विराट् पुरुष रूप ] कारण भी तब तक शान्ति को नहीं प्राप्त करता है, हे अम्बिके ! जब तक बीज का भी बीजभूत महाकारण शान्ति को नहीं प्राप्त करता है ।। ६३ ।।

गुह्याद गुह्यतरं शास्त्रमिदमुक्तं तवानघे ।

न कस्याप्यग्रतो वाच्यं सत्यं सत्यं प्रियंवदे ॥ ६४ ॥

हे अनघे (निष्पाप) ! इस प्रकार गुह्य से भी गुह्यतर इस रहस्य युक्त शास्त्र को मैंने तुमसे कहा । हे प्रियवादिनि ! इसे सच सच ( यथावत् ) किसी के समक्ष नहीं कहना चाहिए ॥ ६४ ॥

न पद्मायै हरिः प्राह प्रार्थितोऽपि पुनः पुनः ।

तन्मयात्र तव स्नेहात्प्रकटीकृतमुच्चकैः ।। ६५ ॥

बारम्बार प्रार्थना करने पर भी भगवान् विष्णु ने इस रहस्य को लक्ष्मी से नहीं कहा । उस रहस्य को मैंने तुम्हें स्नेह से प्रकट कर दिया ॥६५ ॥

न गुह्यायापि पुत्राय गणराजाय नन्दिने ।

सुगोपितमिदं भद्रे तव स्नेहादुदीरितम् ।। ६६ ॥

गणराज, रहस्य का गोपन करने वाले, पुत्र नन्दी से भी इसे मैंने छिपा रक्खा था जिसे, हे भद्रे ! तुम्हारे स्नेह के कारण, मैंने तुमसे कहा है ।। ६६ ॥

तस्माद्गोप्यतरं भद्रे वराङ्गमिव सर्वतः ।

इतीदं ते समाख्यातं किमन्यत्प्रष्टुमिच्छसि । ६७ ।।

इसलिए यह उसी तरह चारों ओर से गोपनीय है जैसे वराङ्गों [= गोपनीय अङ्गों ] का चारों ओर से गोपन किया जाता है । इस प्रकार तुमसे यह सब विषय अच्छी प्रकार से मैंने कह दिया है। अब और तुम क्या पूछना चाहती हो ? ।। ६७ ।।

॥ इति श्रीनारदपञ्चरात्रे माहेश्वरतन्त्रे ज्ञानखण्डे शिव- पार्वतीसंवादे प्रथमं पटलम् ॥ १ ॥

इस प्रकार श्रीनारद-पश्चरात्रागम-गत 'माहेश्वर तन्त्र' के ज्ञानखण्ड में भगवान् शङ्कर एवं माँ जगदम्बा पार्वती के मध्य वार्तालाप की प्रथम पटल की डा० सुधाकर मालवीय कृत हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई ।। १ ।।

आगे जारी........ माहेश्वरतन्त्र पटल 2

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