गणेश गीता अध्याय ११
गणेश गीता गणेशपुराण के क्रीडाखण्ड के
अन्तर्गत कुल ग्यारह अध्यायों में विस्तृत है। इसमें मूलरूप से सम्पूर्ण विघ्नों के
नाशक गणेशजी द्वारा राजा वरेण्य को दिये गये ब्रह्मविद्यारूपी उपदेशों का वर्णन है,
जिसे व्यासजी द्वारा अनादि सिद्धयोग कहा गया है। इसे सुनकर राजा को
मुक्तिपद प्राप्त हो गया। इसी परम ज्ञान को व्यासजी ने सूतजी को सुनाया, फिर क्रमश: ऋषि शौनक तथा परमभागवत शुकदेवजी ने इसे प्राप्त किया । उपदेशों
के विषय प्रायः भगवद्गीता के समान ही हैं। इस गीता में सांख्यसारार्थयोग, कर्मयोग,
विज्ञानप्रतिपादन, वैधसंन्यासयोग, योगावृत्तिप्रशंसन, बुद्धियोग, उपासनायोग,
विश्वरूपदर्शन, क्षेत्रज्ञातृज्ञेयविवेकयोग, उपदेशयोग और अध्याय ११ तप, दान, ज्ञान, कर्म, कर्ता, सुख-दुःख, ब्रह्म एवं
वर्णानुसार कर्मों के भेद तथा गणेशगीता की महिमा आदि अन्यान्य महत्त्वपूर्ण विषयों
का वर्णन है, जो साधन एवं तत्त्वज्ञान की दृष्टि से बड़ा
कल्याणकारी है। इस गीता के अन्त में इसके पाठ तथा मनन करने का माहात्म्य भी वर्णित
है। गाणपत्य सम्प्रदाय के अत्यन्त सम्माननीय इस ग्रन्थ पर संस्कृत तथा मराठी में
कई टीकाएँ भी मिलती हैं, जो इसकी विशिष्टता की परिचायक हैं।
इसी गणेशगीता को यहाँ सानुवाद प्रस्तुत किया जा रहा है-
गणेशगीता ग्यारहवाँ अध्याय
Ganesh geeta chapter 11
गणेश गीता अध्याय ११
श्रीगणेशगीता
गणेशगीता एकादशोऽध्यायः त्रिविधवस्तुविवेकनिरूपणम्
॥ श्रीगणेशगीता ॥
॥ एकादशोऽध्यायः ॥
॥ त्रिविधवस्तुविवेकनिरूपणम् ॥
श्रीगजानन उवाच
तपोऽपि त्रिविधं
राजन्कायिकादिप्रभेदतः ।
ऋजुतार्जवशौचानि ब्रह्मचर्यमहिंसनम्
॥१ ॥
गुरुविज्ञद्विजातीनां पूजनं
चासुरद्विषाम् ।
स्वधर्मपालनं नित्यं कायिकं तप
ईदृशम् ॥२ ॥
श्रीगणेशजी बोले- हे राजन्! कायिक,
वाचिक और मानसिक- इन भेदों से तप भी तीन प्रकार का है। ऋजुता,
आर्जव, पवित्रता, ब्रह्मचर्य,
अहिंसा, गुरु- पण्डित-ब्राह्मण एवं देवता का
पूजन करना तथा नित्य स्वधर्म का पालन करना- यह कायिक तप है ॥ १-२ ॥
मर्मास्पृक्च प्रियं वाक्यमनुद्वेगं
हितं ऋतम् ।
अधीतिर्वेदशास्त्राणां वाचिकं तप
ईदृशम् ॥३ ॥
मर्मस्पर्शी प्रिय वचन बोलना,
उद्वेगरहित हितकारी और सत्य भाषण करना, वेद-शास्त्रों
का पढ़ना - यह वाचिक तप है ॥ ३ ॥
अन्तःप्रसादः शान्तत्वं
मौनमिन्द्रियनिग्रहः ।
निर्मलाशयता नित्यं मानसं तप ईदृशम्
॥४ ॥
अन्तःकरण में प्रसन्नता,
शान्ति, मौन, जितेन्द्रियता,
सदा निर्मल भाव रखना - यह मानसिक तप है ॥ ४ ॥
अकामतः श्रद्धया च यत्तपः
सात्त्विकं च तत् ।
ऋध्यै सत्कारपूजार्थं सदम्भं राजसं
तपः ॥५ ॥
निष्काम भाव और श्रद्धा से जो तप
किया जाता है, वह सात्त्विक है। ऐश्वर्य और
सत्कार- पूजा के निमित्त तथा दम्भसहित जो किया जाता है, वह
राजसी तप है ॥ ५ ॥
तदस्थिरं जन्ममृती प्रयच्छति न
संशयः ।
परात्मपीडकं यच्च तपस्तामसमुच्यते
॥६ ॥
राजसी तप निश्चय ही जन्म- मृत्यु और
अस्थिरता को देनेवाला है और जिसमें दूसरे को तथा अपने को पीड़ा हो,
वह तामस तप कहा गया है ॥ ६ ॥
विधिवाक्यप्रमाणार्थं सत्पात्रे
देशकालतः ।
श्रद्धया दीयमानं यद्दानं
तत्सात्त्विकं मतम् ॥७ ॥
विधियुक्त,
उत्तम देश- काल में सत्पात्र को श्रद्धापूर्वक जो दान दिया जाता है,
वह सात्त्विक दान कहा गया है ॥ ७ ॥
उपकारं फलं वापि काङ्क्षद्भिर्दीयते
नरैः ।
क्लेशतो दीयमानं वा भक्त्या
राजसमुच्यते ॥८ ॥
उपकार या फल की कामना से मनुष्य जो
दान करते हैं तथा ऐसा दान जो क्लेशपूर्वक अथवा भक्ति के कारण दिया जाय,
वह राजसी दान कहलाता है ॥ ८ ॥
अकालदेशतोऽपात्रेऽवज्ञया दीयते तु
यत् ।
असत्काराच्च यद्दत्तं तद्दानं तामसं
स्मृतम् ॥९ ॥
जो देश-कालरहित,
अपात्र में अवज्ञापूर्वक दिया जाता है और जो दान अपमानपूर्वक दिया
जाता है, वह तमोगुणी दान कहा गया है ॥ ९ ॥
ज्ञानं च त्रिविधं राजन् शृणुष्व
स्थिरचेतसा ।
त्रिधा कर्म च कर्तारं ब्रवीमि ते
प्रसङ्गतः ॥ १० ॥
हे राजन्! मन लगाकर सुनो,
ज्ञान भी तीन प्रकार का है, कर्म और कर्ता भी
तीन प्रकार के हैं, वह मैं प्रसंग से कहता हूँ ॥ १० ॥
नानाविधेषु भूतेषु मामेकं वीक्षते
तु यः ।
नाशवत्सु च नित्यं मां तज्ज्ञानं
सात्विकं नृप ॥११ ॥
जो अनेक प्रकार के प्राणियों में एक
मुझको ही देखता है तथा नाशवान् भूतों में मुझ नित्य को जानता है,
हे राजन्! वह सात्त्विक ज्ञान है ॥ ११ ॥
तेषु वेत्ति पृथग्भूतं विविधं
भावमाश्रितः ।
मामव्ययं च तज्ज्ञानं राजसं
परिकीर्तितम् ॥१२ ॥
जो अनेक उन भूतों से मुझे पृथक् भाव
का आश्रय लेकर और अव्यय जानते हैं, इस
ज्ञान का नाम राजस है ॥१२॥
हेतुहीनमसत्यं च देहात्मविषयं च यत्
।
असदल्पार्थविषयं तामसं ज्ञानमुच्यते
॥१३ ॥
हेतुरहित,
असत्य तथा देह और मन के सुख के लिये असत् और अल्प अर्थयुक्त विषयों में
लगना - इस ज्ञान का नाम तामस है ॥ १३ ॥
भेदतस्त्रिविधं कर्म विद्धि राजन्
मयेरितम् ।
कामनाद्वेषदम्भैर्यद्रहितं नित्यकर्म
यत् ।
कृतं विना फलेच्छां यत्कर्म
सात्त्विकमुच्यते ॥ १४ ॥
हे राजन् ! सत्,
रज, तम - इन भेदों से कर्म भी तीन प्रकार का
है, जिसे मैं बताता हूँ, सुनो, कामना, द्वेष और दम्भरहित जो नित्य कर्म है और फल की
इच्छा से रहित जो कर्म किया जाता है, वह सात्त्विक कहलाता
है॥१४॥
यद्बहुक्लेशतः कर्म कृतं यच्च फलेच्छया
।
क्रियमाणं नृभिर्दम्भात्कर्म
राजसमुच्यते ॥ १५ ॥
अनपेक्ष्य स्वशक्तिं यदर्थक्षयकरं च
यत् ।
अज्ञानात्क्रियमाणं यत्कर्म
तामसमीरितम् ॥ १६॥
जो बहुत क्लेशपूर्वक तथा फल की
इच्छा से किया गया है और जिसको मनुष्य दम्भपूर्वक करते हैं,
वह राजस कर्म कहलाता है और जो अपनी शक्ति के बाहर तथा अर्थ का क्षय
करनेवाला कर्म अज्ञानपूर्वक किया जाता है, वह तामस कर्म कहा
गया है ।। १५-१६ ॥
कर्तारं त्रिविधं विद्धि कथ्यमानं
मया नृप ॥१७ ॥
धैर्योत्साही समोऽसिद्धौ सिद्धौ
चाविक्रियस्तु यः ।
अहंकारविमुक्तो यः स कर्ता
सात्त्विको नृप ॥१८ ॥
इसी प्रकार हे राजन् ! तीन प्रकार के
कर्ता होते हैं, जिन्हें मैं बताता हूँ। हे
राजन्! धैर्य और उत्साहयुक्त, सिद्धि-असिद्धि में समान
दृष्टिवाला, विकार और अहंकार से रहित सात्त्विक कर्ता कहलाता
है ।। १७-१८ ॥
कुर्वन्हर्षं च शोकं च हिंसां
फलस्पृहां च यः ।
अशुचिर्लुब्धको यश्च राजसोऽसौ
निगद्यते ॥१९ ॥
जो हर्ष- शोकसहित कर्म करता है,
हिंसा और फल में इच्छा रखता है, जिसमें
अपवित्रता और लोभ है, वह राजसी कर्ता कहा जाता है ॥ १९ ॥
प्रमादाज्ञानसहितः परोच्छेदपरः शठः
।
अलसस्तर्कवान्यस्तु कर्तासौ तामसो
मतः ॥२० ॥
प्रमाद और अज्ञानयुक्त,
दूसरों का नाश करनेवाला दुष्ट, आलसी और जो
कुतर्क करनेवाला है, वह तामसी कर्ता कहा जाता है ॥ २० ॥
सुखं च त्रिविधं राजन् दुःखं च
क्रमतः शृणु ।
सात्त्विकं राजसं चैव तामसं च
मयोच्यते ॥ २१ ॥
हे राजन् ! इसी प्रकार सुख-दुःख भी
तीन प्रकार के हैं, वह तुम क्रम से
सुनो, इनके भी सात्त्विक, राजस,
तामस भेद हैं, उन्हें मैं कहता हूँ ॥ २१ ॥
विषवद्भासते पूर्वं दुःखस्यान्तकरं
च यत् ।
इच्छमानं तथा वृत्त्या
यदन्तेऽमृतवद्भवेत् ।
प्रसादात्स्वस्य
बुद्धेर्यत्सात्त्विकं सुखमीरितम् ॥ २२॥
जो पहले तो विष के समान प्रतीत हो,
किंतु दुःख का अन्त करनेवाला हो और मनोवृत्ति से इच्छा किया हुआ जो
अन्त में अमृत के समान हो तथा जो अपनी बुद्धि को आनन्द देनेवाला हो, वह सात्त्विक सुख कहा गया है ॥२२॥
विषयाणां तु यो भोगो भासतेऽमृतवत्पुरा
।
हालाहलमिवान्ते यद्राजसं
सुखमीरितम्॥ २३॥
विषयों का जो भोग प्रथम तो अमृत के
समान विदित हो और अन्त में विष के समान फल दे, उसे
राजसी सुख कहते हैं ॥ २३ ॥
तन्द्राप्रमादसम्भूतमालस्यप्रभवं च यत्
।
सर्वदा मोहकं स्वस्य सुखं
तामसमीदृशम् ॥ २४ ॥
न तदस्ति यदेतैर्यन्मुक्तं स्यात्त्रिविधैर्गुणैः
॥ २५ ॥
जो तन्द्रा तथा प्रमाद से उत्पन्न
हुआ हो,
आलस्य से भरा हुआ हो तथा अपने को सदा मोह उत्पन्न करता हो, उसका नाम तामसी सुख है। ऐसा कोई भी प्राणी नहीं है, जो
इन तीनों गुणों से मुक्त हो ।। २४-२५ ।।
राजन् ब्रह्मापि
त्रिविधमोन्तत्सदिति भेदतः ।
त्रिलोकेषु त्रिधाभूतमखिलं भूप वर्तते
॥ २६ ॥
हे राजन् ! ब्रह्म भी ओम्,
तत्, सत् - इस भेद से तीन प्रकार का है और हे
राजन् ! इस त्रिलोकी में सब कुछ तीन होकर ही व्याप्त हैं ॥ २६ ॥
ब्रह्मक्षत्रियविट्शूद्राः स्वभावाद्भिन्नकर्मिणः
।
तानि तेषां तु कर्माणि
संक्षेपात्तेऽधुना वदे ॥२७ ॥
ब्राह्मण,
क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र- ये स्वभाव से ही
भिन्न कर्म करनेवाले हैं, इनके कर्म संक्षेप से मैं तुमसे
कहता हूँ ॥ २७ ॥
अन्तर्बाह्येन्द्रियाणां च
वश्यत्वमार्जवं क्षमा ।
नानातपांसि शौचं च द्विविधं
ज्ञानमात्मनः ॥२८ ॥
वेदशास्त्रपुराणानां स्मृतीनां
ज्ञानमेव च ।
अनुष्ठानं तदर्थानां कर्म
ब्राह्ममुदाहृतम् ॥२९ ॥
बाह्य और अन्तः इन्द्रियों को वश में
करना,
सरलता, क्षमा, अनेक प्रकार
के तप, पवित्रता, दोनों प्रकार
(अन्वय-व्यतिरेक)- से आत्मा का ज्ञान, वेद, शास्त्र, पुराण और स्मृतियों का ज्ञान होना तथा उनके
अर्थों का अनुष्ठान करना- ये ब्राह्मण के कर्म हैं ॥ २८-२९ ॥
दार्ढ्यं शौर्यं च दाक्ष्यं च
युद्धे पृष्ठाप्रदर्शनम् ।
शरण्यपालनं दानं धृतिस्तेजः
स्वभावजम् ॥३० ॥
प्रभुता मन औनत्यं सुनीतिर्लोकपालनम्
।
पञ्चकर्माधिकारित्वं क्षात्रं कर्म
समीरितम् ॥३१ ॥
दृढ़ता,
शूरता, चतुरता, युद्ध से
पलायन न करना, शरणागत की रक्षा, दान,
धैर्य, स्वाभाविक तेज, प्रभुता,
मन की उदारता, अच्छी नीति, लोकपालन (तथा राज्यपालन) के पाँच कर्मों में अधिकार- ये क्षत्रियों के स्वाभाविक
कर्म हैं ॥ ३०-३१ ॥
नानावस्तुक्रयो भूमेः कर्षणं रक्षणं
गवाम् ।
त्रिधा कर्माधिकारित्वं वैश्यकर्म
समीरितम् ॥३२ ॥
अनेक प्रकार की वस्तुओं का
क्रय-विक्रय, पृथ्वीकर्षण अर्थात् खेती आदि
करना, गायों की रक्षा करना-ये तीन प्रकार के वैश्य के कर्म कहे
गये हैं ॥ ३२ ॥
दानं द्विजानां शुश्रूषा सर्वदा
शिवसेवनम् ।
एतादृशं नरव्याघ्र कर्म
शौद्रमुदीरितम् ॥३३ ॥
दान, ब्राह्मणों की सेवा, सदा शिवजी की उपासना, हे राजन् ! यह शूद्रों का कर्म कहा गया है ॥ ३३ ॥
स्वस्वकर्मरता एते
मय्यर्प्याखिलकारिणः ।
मत्प्रसादात्स्थिरं स्थानं यान्ति
ते परमं नृप ॥ ३४॥
हे राजन्! ये सब वर्ण अपने-अपने
कर्म यथावत् करते हुए और सम्पूर्ण कर्म मुझे अर्पण करते हुए मेरी कृपा से निश्चल
परम स्थान को प्राप्त करते हैं ॥ ३४ ॥
इति ते कथितो
राजन्प्रसादाद्योगौत्तमः ।
सांगोपांगः सविस्तारोऽनादिसिद्धो
मया प्रिय ॥ ३५ ॥
प्रिय राजन् ! इस प्रकार तुम्हारे
स्नेह से मैंने अंग-उपांगसहित विस्तार- पूर्वक अनादिसिद्धयोग का वर्णन किया,
यह योग परमोत्तम है ॥ ३५ ॥
युङ्क्ष्व योगं मयाख्यातं नाख्यातं
कस्यचिन्नृप ।
गोपयैनं ततः सिद्धिं परां
यास्यस्यनुत्तमाम् ॥३६ ॥
हे राजन् ! मेरे द्वारा कहे गये इस
योग को धारण करो और किसी से इसे मत कहो, तुम
इसे गुप्त रखोगे तो परम उत्तम सिद्धि को प्राप्त करोगे ॥ ३६ ॥
व्यास उवाच
इति तस्य वचः श्रुत्वा प्रसन्नस्य
महात्मनः ।
गणेशस्य वरेण्यः स चकार च यथोदितम्
॥३७ ॥
व्यासजी बोले- इस प्रकार
प्रसन्नचित्त महात्मा गणेशजी के वचन सुनकर राजा वरेण्य ने उनके वचन के अनुसार आचरण
किया ॥ ३७ ॥
त्यक्त्वा राज्यं कुटुम्बं च
कान्तारं प्रययौ रयात् ।
उपदिष्टं यथा योगमास्थाय
मुक्तिमाप्नवान् ॥३८ ॥
राज्य और कुटुम्ब को त्यागकर वेग से
वह वन को चला गया और उपदेश किये गये योग में स्थित होकर मुक्त हो गया ॥ ३८ ॥
इमं गोप्यतमं योगं शृणोति श्रद्धया
तु यः ।
सोऽपि कैवल्यमाप्नोति यथा योगी तथैव
सः ॥ ३९ ॥
इस महागुप्त योग का जो कोई श्रद्धा से
श्रवण करता है, वह भी मुक्ति को प्राप्त हो
जाता है, जिस प्रकार योगी होते हैं ॥ ३९ ॥
य इमं श्रावयेद्योगं कृत्वा स्वार्थं
सुबुद्धिमान् ।
यथा योगी तथा सोऽपि परं
निर्वाणमृच्छति ॥४० ॥
जो बुद्धिमान् इस योग को स्वयं
प्राप्त करके दूसरों को सुनाता है, वह
भी योगी के समान मुक्त हो जाता है ॥४०॥
यो गीतां सम्यगभ्यस्य ज्ञात्वा
चार्थं गुरोर्मुखात् ।
कृत्वा पूजां गणेशस्य प्रत्यहं पठते
तु यः ॥४१ ॥
एककालं द्विकालं वा त्रिकालं वापि
यः पठेत् ।
ब्रह्मीभूतस्य तस्यापि
दर्शनान्मुच्यते नरः ॥४२ ॥
जो इस गीता का भली प्रकार अभ्यास कर
तथा गुरुमुख से इसका अर्थ जानकर गणेशजी की पूजाकर प्रतिदिन एक काल,
दो काल अथवा तीनों काल में पाठ करता है, वह
ब्रह्मस्वरूप को प्राप्त हो जाता है और उसके दर्शन से भी मनुष्य मुक्त हो जाता है
॥ ४१-४२ ॥
न यज्ञैर्न
व्रतैर्दानैर्नाग्निहोत्रैर्महाधनैः ।
न वेदैः सम्यगभ्यस्तैः सहाङ्गकैः
॥४३ ॥
पुराणश्रवणैर्नैव न शास्त्रैः
साधुचिन्तितैः ।
प्राप्यते ब्रह्म परममनया प्राप्यते
नरैः ॥४४ ॥
न यज्ञ,
न व्रत, न दान, न
अग्निहोत्र, न महाधन, न सांगोपांग वेदों
के उत्तम ज्ञान और अभ्यास, न पुराणों के श्रवण, न भलीभाँति चिन्तन किये हुए शास्त्रों से भी ऐसे ब्रह्म की प्राप्ति होती
है, जैसे इस गीता से मनुष्यों को प्राप्त होती है ॥ ४३-४४ ॥
ब्रह्मघ्नो मद्यपः स्तेयी
गुरुतल्पगमोऽपि यः ।
चतुर्णां यस्तु संसर्गी
महापातककारिणाम् ॥४५ ॥
स्त्रीहिंसागोवधादीनां कर्तारो ये च
पापिनः ।
ते सर्वे प्रतिमुच्यन्ते गीतामेतां
पठन्ति चेत् ॥४६ ॥
ब्रह्महत्यारा,
मद्यपी, चोर, गुरुदारगामी
तथा इन चारों महापाप करनेवालों का साथ करनेवाले और स्त्रीहिंसा, गोवध आदि करनेवाले पापी भी इस गीता के पढ़ने से पापमुक्त हो जाते हैं ।
४५-४६ ॥
यः पठेत्प्रयतो नित्यं स गणेशो न
संशयः ।
चतुर्थ्यां यः पठेद्भक्त्या सोऽपि
मोक्षाय कल्पते ॥४७ ॥
जो नियम से इसे नित्य पढ़ता है,
वह निःसन्देह श्रीगणेशस्वरूप हो जाता है और जो चतुर्थी के दिन इसे
भक्ति से पढ़ता है, वह भी मुक्त हो जाता है ।। ४७ ।।
तत्तत्क्षेत्रं समासाद्य
स्नात्वाभ्यर्च्य गजाननम् ।
सकृद्गीतां पठन्भक्त्या ब्रह्मभूयाय
कल्पते ॥४८ ॥
उन-उन पुण्यक्षेत्रों में जाकर
स्नान कर गणेशजी का पूजन कर एक बार भी भक्तिपूर्वक इस गीता का पाठ करनेवाला
ब्रह्मस्वरूप को प्राप्त हो जाता है ॥ ४८ ॥
भाद्रे मासे सिते पक्षे चतुर्थ्यां
भक्तिमान्नरः ।
कृत्वा महीमयीं मूर्तिं गणेशस्य
चतुर्भुजाम् ॥४९ ॥
सवाहनां सायुधां च समभ्यर्च्य
यथाविधि ।
यः पठेत्सप्तकृत्वस्तु गीतामेतां
प्रयत्नतः ॥५० ॥
ददाति तस्य सन्तुष्टो गणेशो
भोगमुत्तमम् ।
पुत्रान्पौत्रान्धनं धान्यं
पशुरत्नादिसम्पदः ॥५१ ॥
भाद्रपदमास के शुक्लपक्ष में
चतुर्थी के दिन भक्तिपूर्वक वाहन और आयुधसहित श्रीगणेश की मृत्तिका की चतुर्भुज
मूर्ति बनाकर विधिपूर्वक पूजन करके जो यत्नपूर्वक सात बार इस गणेशगीता का पाठ करता
है, उस पर सन्तुष्ट होकर गणेशजी पुत्र, पौत्र, धन-धान्य, पशु, रत्नादि
सम्पत्ति और उत्तम भोग उसे प्रदान करते हैं ।। ४९-५१॥
विद्यार्थिनो भवेद्विद्या सुखार्थी
सुखमाप्नुयात् ।
कामानन्याँल्लभेत्कामी मुक्तिमन्ते
प्रयान्ति ते ॥५२ ॥
विद्यार्थी को विद्या,
सुखार्थी को सुख, कामार्थी को काम की प्राप्ति
होती है और अन्त में वे मुक्ति को प्राप्त होते हैं ॥ ५२ ॥
॥ इति श्रीगणेशपुराणे
गजाननवरेण्यसंवादे गणेशगीतायां त्रिविधवस्तुविवेक- निरूपणयोगो नामैकादशोऽध्यायः ॥११॥
॥ इति गणेश गीता समाप्ता ॥
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