गणेशगीता अध्याय १०
गणेशगीता के पुर्व अध्यायों में सांख्यसारार्थयोग,
कर्मयोग, विज्ञानप्रतिपादन, वैधसंन्यासयोग, योगावृत्तिप्रशंसन, बुद्धियोग,
उपासनायोग, विश्वरूपदर्शन, क्षेत्रज्ञातृज्ञेयविवेकयोग को कहा गया है और अब अध्याय
१० में दैवी और आसुरी प्रकृति को बतलाया गया है।
गणेशगीता दसवाँ अध्याय
Ganesh geeta chapter 10
गणेश गीता अध्याय १०
श्रीगणेशगीता
गणेशगीता दशमोऽध्यायः उपदेशयोगः
॥ श्रीगणेशगीता ॥
॥ दशमोऽध्यायः ॥
॥ उपदेशयोगः ॥
श्रीगजानन उवाच
दैव्यासुरी राक्षसी च
प्रकृतिस्त्रिविधा नृणाम् ।
तासां फलानि चिन्हानि
संक्षेपात्तेऽधुना ब्रुवे ॥१ ॥
श्रीगणेशजी बोले –
दैवी, आसुरी, राक्षसी -
तीन प्रकार की मनुष्यों की प्रकृति होती है, उनके फल और
चिह्न संक्षेप से अब तुम्हारे लिये वर्णन करता हूँ ॥ १ ॥
आद्या संसाधयेन्मुक्तिं द्वे परे
बन्धनं नृप ।
चिन्हं ब्रवीमि चाद्यायास्तन्मे
निगदतः शृणु ॥२ ॥
दैवी प्रकृति मुक्ति की साधना करती
है,
आगे की दोनों बन्धन में डालती हैं। इनमें पहले दैवी प्रकृति के
चिह्न कहता हूँ, उन्हें तुम सुनो ॥ २ ॥
अपैशून्यं दयाऽक्रोधश्चापल्यं
धृतिरार्जवम् ।
तेजोऽभयमहिंसा च क्षमा शौचममानिता ।
इत्यादि चिह्नमाद्याया आसुर्याः
शृणु साम्प्रतम् ॥ ३ ॥
चुगली न करना,
दया, अक्रोध, अचपलता,
धैर्य, सरलता, तेज,
अभय, अहिंसा, क्षमा,
शौच, निरभिमानिता इत्यादि चिह्न दैवी प्रकृति समझने
चाहिये। अब आसुरी के चिह्न सुनो ॥ ३ ॥
अतिवादोऽभिमानश्च दर्पो ज्ञानं
सकोपता ।
आसुर्या एवमाद्यानि चिन्हानि
प्रकृतेर्नृप ॥ ४ ॥
हे राजन् ! अतिवाद,
अभिमान, दर्प, अज्ञान और
क्रोध – ये आसुरी प्रकृति के चिह्न हैं ॥ ४ ॥
निष्ठुरत्वं मदो मोहोऽहंकारो गर्व
एव च ॥५ ॥
द्वेषो हिंसाऽदया क्रोध औद्धत्यं
दुर्विनीतता ।
आभिचारिककर्तृत्वं क्रूरकर्मरतिस्तथा
॥६ ॥
(राक्षसी प्रकृति के ये चिह्न हैं
-) निष्ठुरता, मद, मोह,
अहंकार, गर्व, द्वेष,
हिंसा, क्रूरता, क्रोध,
उद्धतता, विनयहीनता, दूसरों
के नाश के निमित्त अभिचारकर्म, क्रूर कर्मों में प्रीति ॥
५-६ ॥
अविश्वासः सतां वाक्येऽशुचित्वं
कर्महीनता ।
निन्दकत्वं च वेदानां
भक्तानामसुरद्विषाम् ॥७ ॥
मुनिश्रोत्रियविप्राणां तथा
स्मृतिपुराणयोः ।
पाखण्डवाक्ये विश्वासः
संगतिर्मलिनान्मनाम् ॥८ ॥
श्रेष्ठ पुरुषों के वाक्य में
अविश्वास,
अपवित्रता, कर्मों का न करना, वेद, भक्त, देवता, मुनि, श्रोत्रिय, ब्राह्मण तथा
स्मृति और पुराण की निन्दा करना, पाखण्ड- वाक्य में विश्वास,
दुष्टों तथा मलिन पुरुषों की संगति करना॥७-८॥
सदम्भकर्मकर्तृत्वं स्पृहा च
परवस्तुषु ।
अनेककामनावत्त्वं सर्वदाऽनृतभाषणम्
॥९ ॥
परोत्कर्षासहिष्णुत्वं
परकृत्यपराहतिः ।
इत्याद्या बहवश्चान्ये राक्षस्याः
प्रकृतेर्गुणाः ॥१० ॥
पाखण्डसहित कर्म करना,
दूसरे की वस्तुओं को पाने की इच्छा, अनेक
कामनायुक्त होना, सदा झूठ बोलना, दूसरे
का उत्कर्ष न सहना, दूसरे के कृत्य को नष्ट करना इत्यादि
बहुत सारे दूसरे भी राक्षसी प्रकृति के गुण हैं ।९-१०॥
पृथिव्यां स्वर्गलोके च परिवृत्य
वसन्ति ते ।
मद्भक्तिरहिता लोका राक्षसीं
प्रकृतिं श्रिताः ॥११ ॥
पृथ्वी और स्वर्गलोक में ये सब गुण
रहते हैं,
जो लोग मेरी भक्ति से रहित हैं, वे ही राक्षसी
प्रकृति को प्राप्त होते हैं ॥११॥
तामसीं ये श्रिता राजन्यान्ति ते
रौरवं ध्रुवम् ।
अनिर्वाच्यं च ते दुःखं भुञ्जते तत्र
संस्थिताः ॥१२ ।
हे राजन्! जो इस तामसी प्रकृति को
प्राप्त हैं, वे रौरव नरक को प्राप्त होते
हैं और वहाँ अकथनीय दुःख को भोगते हैं॥१२॥
दैवान्निःसृत्य नरकाज्जायन्ते भुवि
कुब्जकाः ।
जात्यन्धाः पङ्गवो दीना हीनजातिषु
ते नृप ॥१३ ॥
हे राजन् ! कदाचित् दैववश नरक से
निकलकर पृथ्वी में जन्म लेते हैं तो वे कुबड़े होते हैं या जन्मान्ध,
लँगड़े, दीन और हीन जाति में जन्म लेते हैं ॥
१३ ॥
पुनः पापसमाचारा मय्यभक्ताः पतन्ति
ते ।
उत्पतन्ति हि मद्भक्ता यां
कांचिद्योनिमाश्रिताः ॥१४ ॥
पापाचरण वाले तथा मुझमें भक्ति न
करनेवाले पतित होते हैं, परंतु मेरे भक्त
चाहे किसी योनि में जन्म लें, नष्ट नहीं होते, उनका उद्धार हो जाता है ॥ १४ ॥
लभन्ते स्वर्गतिं
यज्ञैरन्यैर्धर्मश्च भूमिप ।
सुलभास्ताः सकामानां मयि भक्तिः
सुदुर्लभा ॥१५ ॥
हे राजन् ! यज्ञ से अथवा दूसरे
कर्मों से स्वर्ग की प्राप्ति होती है, जो
सकामी पुरुषों को सुलभ है, परंतु मुझमें भक्ति होना दुर्लभ
है ॥ १५ ॥
विमूढा मोहजालेन बद्धाः स्वेन च
कर्मणा ।
अहं हन्ता अहं कर्ता अहं भोक्तेति
वादिनः ॥१६ ॥
मूर्ख लोग मोहजाल तथा अपने कर्मों से
बन्धन में पड़ते हैं, वे मैं ही हन्ता,
मैं ही कर्ता, मैं ही भोक्ता हूँ- ऐसा कहा
करते हैं ॥ १६ ॥
अहमेवेश्वरः शास्ता अहं वेत्ता अहं
सुखी ।
एतादृशी मतिर्नॄणामधः पातयतीह तान्
॥१७ ॥
मैं ही ईश्वर,
मैं शासक, मैं जाननेवाला, मैं सुखी हूँ- इस प्रकार की मति मनुष्यों को नरक में ले जाती है ॥ १७ ॥
तस्मादेतत्समुत्सृज्य दैवीं
प्रकृतिमाश्रय ।
भक्तिं कुरु मदीयां त्वमनिशं
दृढचेतसा ॥१८ ॥
इस कारण इस (तामसी प्रकृति) को
छोड़कर दैवी प्रकृति का आश्रय करो और तुम दृढ़ चित्त से मेरी निरन्तर भक्ति करो ॥
१८ ॥
सापि भक्तिस्त्रिधा राजन्
सात्त्विकी राजसी तमा ।
यद्देवान् भजते भक्त्या सात्त्विकी
सा मता शुभा ॥ १९ ॥
हे राजन् ! वह भक्ति भी सात्त्विकी,
राजसी और तामसी- इन भेदों से तीन प्रकार की है, जिस भक्ति से देवताओं का भजन किया जाता है, वह
कल्याणकारिणी सात्त्विकी भक्ति कही गयी है ॥ १९ ॥
राजसी सा तु विज्ञेया भक्तिर्जन्ममृतिप्रदा
।
यद्यक्षांश्चैव रक्षांसि यजन्ते
सर्वभावतः ॥२० ॥
जन्म- मृत्यु देनेवाली राजसी कही
गयी भक्ति वह है, जिसमें सर्वभाव से
यक्ष और राक्षसों की पूजा होती है ॥ २० ॥
वेदेनाविहितं क्रूरं साहंकारं
सदम्भकम् ।
भजन्ते प्रेतभूतादीन्कर्म कुर्वन्ति
कामुकम् ॥२१ ॥
शोषयन्तो निजं देहमन्तःस्थं मां
दृढाग्रहाः ।
तामस्येतादृशी भक्तिर्नृणां सा
निरयप्रदा ॥२२ ॥
वेदविधान से रहित,
क्रूर, अहंकार तथा दम्भसहित जो प्रेतभूतादिकों
को भजते हैं और कामुक कर्म करते हैं तथा दुराग्रहपूर्वक अपने शरीर और उसमें स्थित
मुझे भी क्लेश पहुँचाते हैं, उनकी यह तामसी भक्ति नरक
देनेवाली है । २१-२२ ॥
कामो लोभस्तथा क्रोधो दम्भश्चत्वार
इत्यमी ।
महाद्वाराणि वीचीनां तस्मादेतांस्तु
वर्जयेत् ॥२३ ॥
काम, लोभ, क्रोध, दम्भ-ये नरक के
चार महाद्वार हैं, इस कारण इनको त्यागना चाहिये ॥ २३ ॥
॥ इति श्रीगणेशपुराणे गजाननवरेण्यसंवादे
गणेशगीतायां उपदेशयोगो नाम दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥
आगे जारी........गणेशगीता अध्याय 11

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