अग्निपुराण अध्याय ३८३
अग्निपुराण अध्याय ३८३ में अग्निपुराण
का माहात्म्य का वर्णन है।
अग्निपुराणम् अध्यायः ३८३
अग्निपुराणम् त्र्यशीत्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः
Agni puran chapter 383
अग्निपुराण तीन सौ तिरासीवाँ अध्याय
अग्निपुराण अध्याय ३८३
अग्निपुराणम् अध्यायः ३८३–
आग्न्येयपुराणमाहात्म्यम्
अग्निपुराणम्/अध्यायः ३८३
अथ त्र्यशीत्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः
अग्निरुवाच
आग्नेयं ब्रह्मरूपन्ते पुराणं कथितं
मया ।
सप्रपञ्चं निष्प्रपञ्चं
विद्याद्वयमयं महत् ।। १ ।।
ऋग्यजुःसामाश्चर्वाख्या विद्या
विष्णुर्जगज्जनिः ।
छन्दः शिक्षा व्याकरणं
निधण्टुज्योतिराख्यकाः ।। २ ।।
निरुक्तधर्मशास्त्रादि
मीमांसान्यायविस्तराः ।
आयुर्वेदपुराणाख्या
धनुर्गन्धर्वविस्तराः ।। ३ ।।
विद्या सैवार्थसास्त्राख्या
वेदान्ताऽन्या हरिर्महान् ।
इत्येषा चापरा विद्या
परविद्याऽक्षरं ।। ४ ।।
यस्य भावोऽखिलं विष्णुस्तस्य नो
बाधते कलिः ।
अनिष्ट्वा तु महायज्ञानकृत्वापि
पितृस्वधां ।। ५ ।।
कृष्णमभ्यर्च्चयन्भक्त्या नैनसो
भाजनं भवेत् ।
सर्वकारणमत्यन्तं विष्णुं ध्यायन्न
सीदति ।। ६ ।।
अन्यतन्त्रादिदोषोत्थो
विषयाकृष्टमानसः ।
कृत्वापि पापं गोविन्दं
ध्यायन्पापैः प्रमुच्यते ।। ७ ।।
तद्ध्यानं यत्र गोविन्दः सा कथा
यत्र केशवः ।
तत् कर्म यत्तदर्थीयं
किमन्यैर्बहुभाषितैः ।। ८ ।।
न तत् पिता पु पुत्राय न शिष्याय
गुरुर्द्विज ।
परमार्थं परं ब्रूयाद्यदेतत्ते
मयोदितं ।। ९ ।।
संसारे भ्रमता लभ्यं पुत्रदारधनं
वसु ।
सुहृदश्च तथैवान्ये नोपदेशो
द्विजेदृशः ।। १० ।।
किं पुत्रदारैमित्रैर्वा किं
मित्रक्षेत्रवान्धवैः ।
उपदेशः परो वन्धुरीदृशो यो
विमुक्तये ।। ११ ।।
अग्निदेव कहते हैं—
ब्रह्मन् ! 'अग्निपुराण' ब्रह्मस्वरूप है, मैंने तुमसे इसका वर्णन किया। इसमें
कहीं संक्षेप से और कहीं विस्तार के साथ 'परा' और 'अपरा' – इन दो विद्याओं का
प्रतिपादन किया गया है। यह महापुराण है। ऋक्, यजुः, साम और अथर्व नामक वेदविद्या, विष्णु महिमा, संसार सृष्टि, छन्द, शिक्षा,
व्याकरण, निघण्टु (कोष),
ज्यौतिष, निरुक्त, धर्मशास्त्र
आदि, मीमांसा, विस्तृत न्यायशास्त्र,
आयुर्वेद, पुराण- विद्या, धनुर्वेद, गन्धर्ववेद, अर्थशास्त्र,
वेदान्त और महान् (परमेश्वर) श्रीहरि - यह सब 'अपरा विद्या' है तथा परम अक्षर तत्त्व 'परा विद्या' है। (इस पुराण में
इन दोनों विद्याओं का विषय वर्णित है।) 'यह सब कुछ विष्णु ही
है'- ऐसा जिसका भाव हो, उसे कलियुग
बाधा नहीं पहुँचाता। बड़े-बड़े यज्ञों का अनुष्ठान और पितरों का श्राद्ध न करके भी
यदि मनुष्य भक्तिपूर्वक श्रीकृष्ण का पूजन करे तो वह पाप का भागी नहीं होता।
विष्णु सब के कारण हैं। उनका निरन्तर ध्यान करनेवाला पुरुष कभी कष्ट में नहीं
पड़ता । यदि परतन्त्रता आदि दोषों से प्रभावित होकर तथा विषयों के प्रति चित्त
आकृष्ट हो जाने के कारण मनुष्य पाप-कर्म कर बैठे तो भी गोविन्द का ध्यान करके वह
सब पापों से मुक्त हो जाता है। दूसरी दूसरी बहुत-सी बातें बनाने से क्या लाभ?
'ध्यान' वही है, जिसमें
गोविन्द का चिन्तन होता हो, 'कथा' वही
है, जिसमें केशव का कीर्तन हो रहा हो और 'कर्म' वही है, जो श्रीकृष्ण की
प्रसन्नता के लिये किया जाय। वसिष्ठजी! जिस परमोत्कृष्ट परमार्थतत्त्व का उपदेश न
तो पिता पुत्र को और न गुरु शिष्य को कर सकता है, वही इस
अग्निपुराण के रूप में मैंने आपके प्रति किया है। द्विजवर! संसार में भटकनेवाले
पुरुष को स्त्री, पुत्र और धन-वैभव मिल सकते हैं तथा अन्य
अनेकों सुहृदों की भी प्राप्ति हो सकती है, परंतु ऐसा उपदेश
नहीं मिल सकता। स्त्री, पुत्र, मित्र,
खेती-बारी और बन्धु- बान्धवों से क्या लेना है? यह उपदेश ही सबसे बड़ा बन्धु है; क्योंकि यह संसार से
मुक्ति दिलानेवाला है ॥ १-११ ॥
द्विविधो भूतमार्गोयं दैव आसुर एव च
।
विष्णुभक्तिपरो दैवो
विपरीतस्तथासुरः ।। १२ ।।
एतत् पवित्रमारोग्यं धन्यं
दुःस्वप्ननाशनं ।
सुखप्रीतिकरं नॄणां मोक्षकृद्
यत्तवेरितं ।। १३ ।।
येषां गृहेषु लिखितमाग्नेयं हि
पुराणकं ।
पुस्तकं स्थास्यति सदा तत्र
नेशुरुपद्रवाः ।। १४ ।।
किं तीर्यैर्गोप्रदानैर्वा किं
यज्ञैः किमुपोषितैः ।
आग्नेयं ये हि श्रृण्वन्ति अहन्यहनि
मानवाः ।। १५ ।।
यो ददाति तिलप्रस्थं सुवर्णस्य च
माषकं ।
श्रृणेति श्लोकमेकञ्च आग्नेयस्य
तदाप्नुयात् ।। १६ ।।
अध्यायपठनञ्चास्य गोप्रदानाद्
विशिष्यते ।
अहोरात्रकृतं पापं श्रोतुमिच्छोः
प्रणश्यति ।। १७ ।।
कपिलानां शते दत्ते यद्
भवेज्ज्येष्ठपुष्करे ।
तदाग्नेयं पुराणं हि पठित्वा
फलमाप्नुयात् ।। १८ ।।
प्रवृत्तञ्च निवृत्तञ्च धर्मं
विद्याद्वयात्मकं ।
आग्नेयस्य पुराणस्य शास्त्रस्यास्य
समं न हि ।। १९ ।।
पठन्नाग्नेयकं नित्यं श्रृण्वन्
वापि पुराणकं ।
भक्तो वशिष्ठ मनुजः सर्वपापैः
प्रमुच्यते ।। २० ।।
नोपसर्गा न चानर्था न चौरारिभयं
गृहे ।
तस्मिन् स्याद् यत्र
चाग्नेयपुराणस्य हि पुस्तकं ।। २१ ।।
न गर्भहारिणी भीतिर्न च बालग्रहा
गृहे ।
यत्राग्नेयं पुराणं स्यान्न
पिशाचादिकं भयं ।। २२ ।।
श्रृण्वन् विप्रो वेदवित् स्यात्
क्षत्रियः पृथिवीपतिः ।
ऋद्धिं प्राप्नोति वैश्यश्च
शूद्रश्चारोग्यमृच्छति ।। २३ ।।
यः पठेत् श्रृणुयान्नित्यं
समदृग्विष्णुमानसः ।
ब्रह्माग्नेयं पुराणं सत्तत्र
नश्यन्त्युपद्रवाः ।। २४ ।।
दिव्यान्तरीक्षभौमाद्या
दुःस्वप्नाद्यभिचारकाः ।
यच्चान्यद्दुरितं
किञ्चित्तत्सर्व्वं हन्ति केशवः ।। २५ ।।
पठतः श्रृण्वतः पुंसः पुस्तकं यजतो
महत् ।
आग्नेयं श्रीपुराणं हि हेमन्ते यः
श्रृणोति वै ।। २६ ।।
प्रपूज्य
गन्धपुष्पाद्यैरग्निष्टोमफलं लभेत् ।
शिशिरे पुण्डरीकस्य वसन्ते
चाश्वमेधजम् ।। २७ ।।
ग्रीष्मे तु वाजपेयस्य राजसूयस्य
वर्षति ।
गोसहस्रस्य शरदि फलं तत्पठतो ह्यृतौ
।। २८ ।।
आग्नेयं हि पुराणं यो भक्ताग्रे
पठते हरेः ।
सोऽर्च्चयेच्च वसिष्ठेह ज्ञानयज्ञेन
केशवम् ।। २९ ।।
यस्याग्नेयपुराणस्य पुस्तकं तस्य वै
जयः ।
लिखितं पूजितं गेहे भुक्तिर्मुक्तिः
करेऽस्ति हि ।। ३० ।।
इति कालाग्निरूपेण गीतं मे हरिणा
पुरा ।
आग्नेयं हि पुराणं वै
ब्रह्मविद्याद्वयास्पदम् ।।
विद्याद्वयं वसिष्ठेदं भक्तेभ्यः
कथयिष्यसि ।। ३१ ।।
प्राणियों की सृष्टि दो प्रकार की
है-'दैवी' और 'आसुरी' जो भगवान् विष्णु की भक्ति में लगा हुआ है, वह 'दैवी सृष्टि के अन्तर्गत है तथा जो भगवान् से विमुख है, वह 'आसुरी सृष्टि' का मनुष्य
है-असुर है। यह अग्निपुराण, जिसका मैंने तुम्हें उपदेश किया
है, परम पवित्र, आरोग्य एवं धन का साधक,
दुःस्वप्न का नाश करनेवाला, मनुष्यों को सुख
और आनन्द देनेवाला तथा भव- बन्धन से मोक्ष दिलानेवाला है। जिनके घरों में हस्तलिखित
अग्निपुराण की पोथी मौजूद होगी, वहाँ उपद्रवों का जोर नहीं
चल सकता। जो मनुष्य प्रतिदिन अग्निपुराण-श्रवण करते हैं, उन्हें
तीर्थ- सेवन, गोदान, यज्ञ तथा उपवास
आदि की क्या आवश्यकता है? जो प्रतिदिन एक प्रस्थ तिल और एक
माशा सुवर्ण दान करता है तथा जो अग्निपुराण का एक ही श्लोक सुनता है, उन दोनों का फल समान है। श्लोक सुनानेवाला पुरुष तिल और सुवर्ण दान का फल
पा जाता है। इसके एक अध्याय का पाठ गोदान से बढ़कर है। इस पुराण को सुनने की
इच्छामात्र करने से दिन-रात का किया हुआ पाप नष्ट हो जाता है। वृद्धपुष्कर- तीर्थ में
सौ कपिला गौओं का दान करने से जो फल मिलता है, वही
अग्निपुराण का पाठ करने से मिल जाता है। 'प्रवृत्ति' और 'निवृत्ति' रूप धर्म तथा 'परा' और 'अपरा' नामवाली दोनों विद्याएँ इस 'अग्निपुराण' नामक शास्त्र की समानता नहीं कर सकतीं। वसिष्ठजी ! प्रतिदिन अग्निपुराण का
पाठ अथवा श्रवण करनेवाला भक्त मनुष्य सब पापों से छुटकारा पा जाता है। जिस घर में
अग्निपुराण की पुस्तक रहेगी, वहाँ विघ्न-बाधाओं, अनर्थों तथा चोरों आदि का भय नहीं होगा। जहाँ अग्निपुराण रहेगा, उस घर में गर्भपात का भय न होगा, बालकों को ग्रह
नहीं सतायेंगे तथा पिशाच आदि का भय भी निवृत्त हो जायगा। इस पुराण का श्रवण
करनेवाला ब्राह्मण वेदवेत्ता होता है, क्षत्रिय पृथ्वी का
राजा होता है, वैश्य धन पाता है, शूद्र
नीरोग रहता है। जो भगवान् विष्णु में मन लगाकर सर्वत्र समानदृष्टि रखते हुए
ब्रह्मस्वरूप अग्निपुराण का प्रतिदिन पाठ या श्रवण करता है, उसके
दिव्य, आन्तरिक्ष और भौम आदि सारे उपद्रव नष्ट हो जाते हैं।
इस पुस्तक के पढ़ने-सुनने और पूजन करनेवाले पुरुष के और भी जो कुछ पाप होते हैं,
उन सबको भगवान् केशव नष्ट कर देते हैं। जो मनुष्य हेमन्त ऋतु में
गन्ध और पुष्प आदि से पूजा करके श्रीअग्निपुराण का श्रवण करता है, उसे अग्निष्टोम यज्ञ का फल मिलता है। शिशिर ऋतु में इसके श्रवण से
पुण्डरीक का तथा वसन्त ऋतु में अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है। गर्मी में
वाजपेय का, वर्षा यें राजसूय का तथा शरद् ऋतु में इस पुराण का
पाठ और श्रवण करने से एक हजार गोदान करने का फल प्राप्त होता है। वसिष्ठजी! जो
भगवान् विष्णु के सम्मुख बैठकर भक्तिपूर्वक अग्निपुराण का पाठ करता है, वह मानो ज्ञानयज्ञ के द्वारा श्रीकेशव का पूजन करता है। जिसके घर में
हस्तलिखित अग्निपुराण की पुस्तक पूजित होती है, उसे सदा ही
विजय प्राप्त होती है तथा भोग और मोक्ष दोनों ही उसके हाथ में रहते हैं- यह बात
पूर्वकाल में कालाग्निस्वरूप श्रीहरि ने स्वयं ही मुझसे बतायी थी। आग्नेय पुराण
ब्रह्मविद्या एवं अद्वैतज्ञान रूप है ॥१२-३१॥
वसिष्ठ उवाच
व्यासाग्नेयपुराणं ते रूपं
विद्याद्वयात्मकं ।
कथितं ब्रह्मणो विष्णोरग्निना कथितं
यथा ।। ३२ ।।
सार्द्धं देवैश्च भुनिभिर्मह्यं
सर्व्वार्थदर्शकं ।
पुराणमग्निना गीतमाग्नेयं
ब्रह्मसमिमतं ।। ३३ ।।
यः पठेच्छृणुयाद्व्यास लिखेद्वा
लेखयेदपि ।
श्रावयेत्पाठयेद्वापि
पूजयेद्धारयेदपि ।। ३४ ।।
सर्व्वपापविनिर्मुक्तः प्राप्तकामो
दिवं व्रजेत् ।
लेखयित्वा पुराणं यो
दद्याद्विप्रेभ्य उत्तमं ।। ३५ ।।
स ब्रह्मलोकमाप्नोति कुलानां
शतमुद्धरेत् ।
एकं श्लोकं पठेद्यस्तु
पापपङ्काद्विमुच्यते ।। ३६ ।।
तस्माद्व्यास सदा श्राव्यं
शिष्यभ्यः सर्वदर्शनं ।
शुकाद्यैर्मुनिभिः सार्द्धं
श्रोतुकामैः पुराणकं ।। ३७ ।।
आग्नेयं पठितं ध्यातं शुभं स्याद्
भुक्तिमुक्तिदं ।
अग्नये तु नमस्तस्मै येन गीतं
पुराणकं ।। ३८ ।।
वसिष्ठजी कहते हैं—
व्यास ! यह अग्निपुराण 'परा - अपरा' - दोनों विद्याओं का स्वरूप है। इसे विष्णु ने ब्रह्मा से तथा अग्निदेव ने
समस्त देवताओं और मुनियों के साथ बैठे हुए मुझसे जिस रूप में सुनाया, उसी रूप में मैंने तुम्हारे सामने इसका वर्णन किया है। अग्निदेव के द्वारा
वर्णित यह 'आग्नेय पुराण' वेद के तुल्य
माननीय है तथा यह सभी विषयों का ज्ञान करानेवाला है। व्यास! जो इसका पाठ या श्रवण
करेगा, जो इसे स्वयं लिखेगा या दूसरों से लिखायेगा, शिष्यों को पढ़ायेगा या सुनायेगा अथवा इस पुस्तक का पूजन या धारण करेगा,
वह सब पापों से मुक्त एवं पूर्णमनोरथ होकर स्वर्गलोक में जायगा। जो
इस उत्तम पुराण को लिखाकर ब्राह्मणों को दान देता है, वह
ब्रह्मलोक में जाता है तथा अपने कुल की सौ पीढ़ियों का उद्धार कर देता है। जो एक
श्लोक का भी पाठ करता है, उसका पाप पङ्क से छुटकारा हो जाता
है। इसलिये व्यास ! इस सर्वदर्शनसंग्रहरूप पुराण को तुम्हें श्रवण की इच्छा
रखनेवाले शुकादि मुनियों के साथ अपने शिष्यों को सदा सुनाते रहना चाहिये।
अग्निपुराण का पठन और चिन्तन अत्यन्त शुभ तथा भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाला है।
जिन्होंने इस पुराण का गान किया है, उन अग्निदेव को नमस्कार
है ॥ ३२ - ३८ ॥
व्यास उवाच
वसिष्ठेन पुरा गीतं सूतैतत्ते
मयोदितं ।
पराविद्याऽपराविद्यास्वरूपं परमं
पदम् ।। ३९ ।।
आग्नयं दुर्लभं रूपं प्राप्यते
भाग्यसंयुतैः ।
ध्यायन्तो ब्रह्म चाग्नेयं पुराणं
हरिमागताः ।। ४० ।।
विद्यार्थिनस्तथा विद्यां राज्यं
राज्यार्थिनो गताः ।
अपुत्राः पुत्रिणः सन्ति नाश्रया
आश्रयं गताः ।। ४१ ।।
सौभाग्यार्थी च सौभाग्यं मोक्षं
मोक्षार्थिनो गताः ।
लिखन्तो लेखयन्तश्च निष्पापाश्च श्रियं
गताः ।। ४२ ।।
शुकपैलमुखैः सूत आग्नेयन्तु पुराणकं
।
रूपं चिन्तय यातासि भुक्तिं मुक्तिं
न संशयः ।।
श्रावय त्वञ्च शिष्येभ्यो
भक्तेभ्यश्च पुराणकम् ।। ४३ ।।
व्यासजी कहते हैं - सूत ! पूर्वकाल में
वसिष्ठजी के मुख से सुना हुआ यह अग्निपुराण मैंने तुम्हें सुनाया है। 'परा' और 'अपरा' विद्या इसका स्वरूप है। यह परम पद प्रदान करनेवाला है। आग्नेय पुराण परम
दुर्लभ है, भाग्यवान् पुरुषों को ही यह प्राप्त होता है। 'ब्रह्म' या 'वेद स्वरूप'
इस अग्निपुराण का चिन्तन करनेवाले पुरुष श्रीहरि को प्राप्त होते
हैं। इसके चिन्तन से विद्यार्थियों को विद्या और राज्य की इच्छा रखनेवालों को
राज्य की प्राप्ति होती है। जिन्हें पुत्र नहीं है, उन्हें
पुत्र मिलता है तथा जो लोग निराश्रय हैं, उन्हें आश्रय
प्राप्त होता है। सौभाग्य चाहनेवाले सौभाग्य को तथा मोक्ष की अभिलाषा रखनेवाले
मनुष्य मोक्ष को पाते हैं। इसे लिखने और लिखानेवाले लोग पापरहित होकर लक्ष्मी को
प्राप्त होते हैं। सूत! तुम शुक और पैल आदि के साथ अग्निपुराण का चिन्तन करो,
इससे तुम्हें भोग और मोक्ष- दोनों की प्राप्ति होगी- इसमें तनिक भी
संदेह नहीं है। तुम भी अपने शिष्यों और भक्तों को यह पुराण सुनाओ ॥ ३९-४३ ॥
सूत उवाच
व्यासप्रसादादाग्नेयं पुराणं
श्रुतमादरात् ।। ४४ ।।
आग्नेयं ब्रह्मरूपं हि मुनयः
शौनकादयः ।
भवन्तो नैमिषारण्ये यजन्तो
हरिमीश्वरं ।। ४५ ।।
तिष्ठन्तः श्रद्धया
युक्तास्तस्माद्वः समुदीरितम् ।
अग्निना प्रोक्तमाग्नेयं पुराणं
वेदसम्मितं ।। ४६ ।।
ब्रह्मविद्याद्वयोपेतं भुक्तिदं
मुक्तिदं महत् ।
नास्मात्परतरः सारो नास्मात्परतरः
सुहृत् ।। ४७ ।।
नास्मात्परतरो ग्रन्थो
नास्मात्परतरा गतिः ।
नास्मात्परतरं शास्त्रं
नास्मात्परतरा श्रुतिः ।। ४८ ।।
नास्मात्परतरं ज्ञानं नास्मात्परतरा
स्मृतिः ।
नास्मात्परो ह्यागमोऽस्ति
नास्माद्विद्या पराऽस्ति हि ।। ४९ ।।
नास्मात्परः स्यात्सिद्धान्तो
नास्मात्परममङ्गलम् ।
नास्मात्परोऽस्ति वेदान्तः पुराणं
परमन्त्विदं ।। ५० ।।
नास्मात्परतरं भूमौ विद्यते वस्तु
दुर्लभम् ।
आग्नेये हि पुराणेऽस्मिन्
सर्वविद्याः प्रदर्शिताः ।। ५१ ।।
सूतजी कहते हैं—
शौनक आदि मुनिवरो ! मैंने श्रीव्यासजी की कृपा से श्रद्धापूर्वक
अग्निपुराण का श्रवण किया है। यह अग्निपुराण ब्रह्मस्वरूप है। आप सब लोग
श्रद्धायुक्त होकर इस नैमिषारण्य में भगवान् श्रीहरि का यजन करते हुए निवास करते
हैं, अतः (आपको सर्वोत्तम अधिकारी समझकर ) मैंने आपसे इस
पुराण का वर्णन किया है। 'अग्निदेव' इस
पुराण के वक्ता हैं, अतएव यह 'आग्नेय
पुराण' कहलाता है। इसे वेदों के तुल्य माना गया है। यह 'ब्रह्म' और 'विद्या' – दोनों से युक्त है। भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाला श्रेष्ठ साधन है इससे बढ़कर
सर्वोत्तम सार, इससे उत्तम सुहृद्, इससे
श्रेष्ठ ग्रन्थ तथा इससे उत्कृष्ट कोई गति नहीं है। इस पुराण से बढ़कर शास्त्र
नहीं है, इससे उत्तम श्रुति नहीं है, इससे
श्रेष्ठ ज्ञान नहीं है तथा इससे उत्कृष्ट कोई स्मृति नहीं है। इससे श्रेष्ठ आगम,
इससे श्रेष्ठ विद्या, इससे श्रेष्ठ सिद्धान्त
और इससे श्रेष्ठ मङ्गल नहीं है। इससे बढ़कर वेदान्त भी नहीं है। यह पुराण
सर्वोत्कृष्ट है। इस पृथ्वी पर अग्निपुराण से बढ़कर श्रेष्ठ और दुर्लभ वस्तु कोई
नहीं है ॥ ४४-५१ ॥
सर्वे मत्स्यावताराद्या गीता
रामायणन्त्विह ।
हरिवंशो भारतञ्च नव सर्गाः
प्रदर्शिताः ।। ५२ ।।
आगमो वैष्णवो गीतः
पूजादीक्षाप्रतिष्ठया ।
पवित्रारोहणादीनि प्रतिमालक्षणादिकं
।। ५३ ।।
प्रासादलक्षणाद्यञ्च मन्त्रा वै
भुक्तिभुक्तिदाः ।
शैवागमस्तदर्थश्च शाक्तेयः सौर एव च
।। ५४ ।।
मण्डलानि च बास्तुश्च मन्त्राणि
विविधानि च ।
प्रतिसर्गश्चानुगीतो
ब्रह्माण्डपरिमण्डलं ।। ५५ ।।
गीतो भुवनकोषश्च
द्वीपवर्षादिनिम्नगाः ।
गयागङ्गाप्रयागादि-तीर्थमाहात्म्यमीरितं
।। ५६ ।।
ज्योतिश्चक्रं ज्योतिषादि गीतो
युद्धजयार्णवः ।
मन्वन्तरादयो गीताः धर्मा
वर्णादिकस्य च ।। ५७ ।।
अशौचं द्रव्यशुद्धिश्च प्रायश्चित्तं
प्रदर्शितं ।
राजधर्म्मा दानधर्मा व्रतानि
विविधानि च ।। ५८ ।।
व्यवहाराः शान्तयश्च
ऋग्वेदादिविधानकं ।
सूर्यवंशः सोमवंशो धनुर्वेदश्च
वैद्यकं ।। ५९ ।।
गान्धर्व्ववेदोऽर्थशास्त्रं मीमांसा
न्यायविस्तरः ।
पुराणसंख्यामाहात्म्यं छन्दो
व्याकरणं स्मृतं ।। ६० ।।
अहङ्कारो निघण्टुश्च शिक्षा कल्प
इहोदितः ।
स्मृतः नैमित्तिकः प्राकृतिको लय
आत्यन्तिकः ।। ६१ ।।
इस अग्निपुराण में सब विद्याओं का
प्रदर्शन (परिचय) कराया गया है। भगवान् के मत्स्य आदि सम्पूर्ण अवतार,
गीता और रामायण का भी इसमें वर्णन है। 'हरिवंश'
और 'महाभारत' का भी
परिचय है। नौ प्रकार की सृष्टि का भी दिग्दर्शन कराया गया है। वैष्णव-आगम का भी
गान किया गया है। देवताओं की स्थापना के साथ ही दीक्षा तथा पूजा का भी उल्लेख हुआ
है। पवित्रारोहण आदि की विधि, प्रतिमा के लक्षण आदि तथा
मन्दिर के लक्षण आदि का वर्णन है। साथ ही भोग और मोक्ष देनेवाले मन्त्रों का भी
उल्लेख है। शैव- आगम और उसके प्रयोजन, शाक्त-आगम, सूर्यसम्बन्धी आगम, मण्डल, वास्तु
और भाँति- भौति के मन्त्रों का वर्णन है। प्रतिसर्ग का भी परिचय कराया गया है।
ब्रह्माण्ड-मण्डल तथा भुवनकोष का भी वर्णन है। द्वीप, वर्ष
आदि और नदियों का भी उल्लेख है। गङ्गा तथा प्रयाग आदि तीर्थों की महिमा का वर्णन
किया गया है। ज्योतिश्चक्र (नक्षत्र मण्डल), ज्यौतिष आदि
विद्या तथा युद्धजयार्णव का भी निरूपण है। मन्वन्तर आदि का वर्णन तथा वर्ण और
आश्रम आदि के धर्मो का प्रतिपादन किया गया है। साथ ही अशौच, द्रव्यशुद्धि
तथा प्रायश्चित्त का भी ज्ञान कराया गया है। राजधर्म, दानधर्म,
भाँति-भाँति के व्रत, व्यवहार, शान्ति तथा ॠग्वेद आदि के विधान का भी वर्णन है। सूर्यवंश, सोमवंश, धनुर्वेद, वैद्यक,
गान्धर्व वेद, अर्थशास्त्र, मीमांसा, न्यायविस्तार, पुराण-
संख्या, पुराण- माहात्म्य, छन्द,
व्याकरण, अलंकार, निघण्टु,
शिक्षा और कल्प आदि का भी इसमें निरूपण किया गया है ।। ५२-६१ ॥
वेदान्तं ब्रह्मविज्ञानं योगी
ह्यष्टाङ्ग ईरितः ।
स्तोत्रं पुराणमाहात्म्यं विद्या
ह्यष्टादश स्मृताः ।। ६२ ।।
ऋग्वेदाद्याः परा ह्यत्र पराविद्याक्षरं
परं ।
सप्रपञ्चं निष्प्रपञ्चं ब्रह्मणो
रूपमीरितं ।। ६३ ।।
इदं पञ्चदशसाहस्रं शतकोटिप्रविस्तरं
।
देवलोके दैवतैश्च पुरणं पठ्यते सदा
।। ६४ ।।
लोकानां हितकामेन
संक्षिप्योद्गीतमग्निना ।
सर्वं ब्रह्मेति जानीध्वं मुनयः
शोनकादयः ।। ६५ ।।
श्रृणुयाच्छ्रावयेद्वापि यः
पठेत्पाठयेदपि ।
लिखेल्लेखापयेद्वापि
पूजयेत्कीर्त्तयेदपि ।। ६६ ।।
नैमित्तिक,
प्राकृतिक और आत्यन्तिक लय का वर्णन है। वेदान्त, ब्रह्मज्ञान और अष्टाङ्गयोग का निरूपण है। स्तोत्र, पुराण
महिमा और अष्टादश विद्याओं का प्रतिपादन है। ऋग्वेद आदि अपरा विद्या, परा विद्या तथा परम अक्षरतत्त्व का भी निरूपण है। इतना ही नहीं, इसमें ब्रह्म के सप्रपञ्च (सविशेष) और निष्प्रपञ्च (निर्विशेष) रूप का
वर्णन किया गया है। यह पुराण पंद्रह हजार श्लोकों का है। देवलोक में इसका विस्तार
एक अरब श्लोकों में है। देवता सदा इस पुराण का पाठ करते हैं। सम्पूर्ण लोकों का
हित करने के लिये अग्निदेव ने इसका संक्षेप से वर्णन किया है। शौनकादि मुनियो ! आप
इस सम्पूर्ण पुराण को ब्रह्ममय ही समझें। जो इसे सुनता या सुनाता, पढ़ता या पढ़ाता, लिखता या लिखवाता तथा इसका पूजन और
कीर्तन करता है, वह परम शुद्ध हो सम्पूर्ण मनोरथों को
प्राप्त करके कुलसहित स्वर्ग को जाता है ॥ ६२—६६ ॥
पुराणपाठकञ्चैव पूजयेत् प्रयतो नृपः
।
गोभूहिरण्यदानाद्यैर्वस्त्रालङ्कारतर्पणैः
।। ६७ ।।
तं संपूज्य लभेच्चैव पुराणश्रवणात्
फलं ।
पुराणान्ते च वै कुर्य्यादवश्यं
द्विजभोजनं ।। ६८ ।।
निर्म्मलः प्राप्तसर्व्वार्थः सकुलः
स्वर्गमाप्नुयात् ।
शरयन्त्रं पुस्तकाय सूत्रं वै
पत्रसञ्चयं ।। ६९ ।।
पट्टिकाबन्धवस्त्रादि दद्याद् यः
स्वर्गमाप्नुयात् ।
यो दद्याद्ब्रह्म्लोकी स्यात्
पुस्तकं यस्य वै गृहे ।। ७० ।।
तस्योत्पातभयं नास्ति
भुक्तिमुक्तिमवाप्नुयात् ।
यूयं स्मरत चाग्नेयं पुराणं
रूपमैश्वरं ।।७१ ।।
राजा को चाहिये कि संयमशील होकर
पुराण के वक्ता का पूजन करे। गौ, भूमि तथा
सुवर्ण आदि का दान दे, वस्त्र और आभूषण आदि से तृप्त करते
हुए वक्ता का पूजन करके मनुष्य पुराण- श्रवण का पूरा-पूरा फल पाता है। पुराण श्रवण
के पश्चात् निश्चय ही ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिये। जो इस पुस्तक के लिये
शरयन्त्र (पेटी), सूत, पत्र ( पन्ने),
काठ की पट्टी, उसे बाँधने की रस्सी तथा वेष्टन
वस्त्र आदि दान करता है, वह स्वर्गलोक को जाता है जो
अग्निपुराण की पुस्तक का दान करता है, वह ब्रह्मलोक में जाता
है। जिसके घर में यह पुस्तक रहती है, उसके यहाँ उत्पात का भय
नहीं रहता। वह भोग और मोक्ष को प्राप्त होता है। मुनियो ! आपलोग इस अग्निपुराण को
ईश्वररूप मानकर सदा इसका स्मरण रखें ॥ ६७-७१ ॥
सूतो गतः पूजितस्तैः शौनकाद्या हरिं
ययुः ।। ७२ ।।
व्यासजी कहते हैं –
तत्पश्चात् सूतजी मुनियों से पूजित हो वहाँ से चले गये और शौनक आदि
महात्मा भगवान् श्रीहरि को प्राप्त हुए ॥ ७२ ॥
इत्यादिमहापुराणे आग्नेये
आग्नेयपुराणमाहात्म्यं नाम त्र्यशीत्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः ।
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'अग्निपुराण में वर्णित संक्षिप्त विषय तथा इस पुराण के माहात्म्य का वर्णन'
नामक तीन सौ तिरासीयाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३८३ ॥
समाप्तमाग्नेयं पुराणम् ।
॥ अग्निपुराण सम्पूर्ण ॥
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