गोपाल उत्तर तापनि उपनिषद

गोपाल उत्तर तापनि उपनिषद

गोपालतापनि उपनिषद के पूर्व भाग अर्थात् गोपाल पूर्व तापनि उपनिषद में गोपाल तत्व का प्रतिपादन करने वाले रहस्य आपने पढ़ा । अब इस उपनिषद के उत्तर भाग का विश्लेषण करते हैं । गोपाल उत्तर तापनि उपनिषद में राधा आदि गोपियों का दुर्वासा से संवाद; दुर्वासा के द्वारा श्रीकृष्ण के स्वरूप का वर्णन है।

गोपाल उत्तर तापनि उपनिषद

गोपालोत्तरतापनीयोपनिषद्

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥

अथर्ववेदीय

गोपालोत्तरतापनीयोपनिषद्

शान्तिपाठ

ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।

स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवासस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः ॥

स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।

स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥

ॐ शान्तिः ! शान्तिः !! शान्तिः !!!

इस श्लोक का भावार्थ अथर्वशीर्षोपनिषद् में पढ़ें ।

 गोपाल उत्तरतापनि उपनिषद

Gopal uttar tapani Upanishad

गोपालोत्तरतापिन्युपनिषत्

अथ गोपालोत्तरतापनीयोपनिषद्

ॐ एकदा हि व्रजस्त्रियः सकामाः शर्वरीमुषित्वा

सर्वेश्वरं गोपालं कृष्णंहि ता ऊचिरे ॥ १ ॥

एक समय की बात है, सदा श्रीकृष्ण-मिलन की ही अभिलाषा रखनेवाली व्रज की गोपसुन्दरियाँ उनके साथ रात्रि व्यतीत करके प्रातः काल उन सर्वेश्वर गोपाल से बोलीं तथा वे श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण भी उनसे बोले ॥ १ ॥

उवाच ताः कृष्ण अमुकस्मै ब्राह्मणाय

भैक्ष्यं दातव्यमिति दुर्वासस इति ॥ २ ॥  

उनमें इस प्रकार बातचीत हुई- 'प्यारे श्यामसुन्दर ! तुम हमें बताओ, हमें अपनी अभीष्ट सिद्धि के लिये किस ब्राह्मण को इस समय भोजन देना चाहिये ?' गोपियों का यह प्रश्न सुनकर श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया- 'महर्षि दुर्वासा को भोजन देना उचित है' ॥ २ ॥

कथं यास्यामो जलं तीर्त्वा यमुनायाः ॥ ३ ॥

गोपियों ने पूछा- 'प्यारे ! जहाँ जाने से हमारा कल्याण होगा, वह मुनिवर दुर्वासा का आश्रम तो उस पार है। यमुना का अगाध जल पार किये बिना हम वहाँ कैसे जायँगी ?' ॥ ३ ॥

यतः श्रेयो भवति कृष्णेति ब्रह्मचारीत्युक्त्वा मार्गं

वो दास्यति । यं मां स्मृत्वाऽगाधा गाधा भवति ।

यं मां स्मृत्वाऽपूतः पूतो भवति । यं मां स्मृत्वाऽव्रती

व्रती भवति । यं मां स्मृत्वा सकामो निष्कामो भवति ।

यं मां स्मृत्वाऽश्रोत्रियः श्रोत्रियो भवति ॥ ४ ॥

भगवान् बोले- तुम लोग यमुनाजी के तट पर जाकर कहना - ' श्रीकृष्ण नाम से प्रसिद्ध हमारे श्यामसुन्दर पूर्ण ब्रह्मचारी हैं।' यों कहने पर यमुनाजी तुम्हें पार जाने के लिये मार्ग दे देंगी। मैं वह हूँ, जिससे सबकी उन्नति होती है। मैं वह हूँ, जिसका स्मरण करने से अथाह की भी थाह मिल जाती है। मैं वह हूँ, जिसका स्मरण करके अपवित्र भी पवित्र हो जाता है। मैं वह हूँ, जिसका स्मरण करके व्रतहीन भी व्रतधारी हो जाता है। मैं वह हूँ, जिसका स्मरण करके निष्काम आत्माराम भी सकाम (परम प्रेमी) हो जाता है। तथा मैं वह हूँ, जिसका स्मरण करके वेद-ज्ञान से रहित पुरुष भी वेदज्ञ हो जाता है ॥ ४ ॥

यं मां स्मृत्वाऽगाधतः स्पर्शरहितापि

सर्वा सरिद्गाधा भवति ॥ ५॥

श्रुत्वा तद्वाक्यं हि वै रौद्रं स्मृत्वा तद्वाक्येन तीर्त्वा

तत्सौर्यां हि वै गत्वाश्रमं पुण्यतमं हि वै नत्वा मुनिं

श्रेष्ठतमं हि वै रौद्रं चेति ॥ ६॥

दत्त्वास्मै ब्राह्मणाय

क्षीरमयं घृतमयमिष्टतमं हि वै मृष्टतमं

हि तुष्टः स्नात्वा भुक्त्वा हित्वशिषं प्रयुज्यान्नं ज्ञात्वादात् ।

कथं यास्यामो तीर्त्वा सौर्याम् ॥ ७॥

कहते हैं, भगवान्‌ का यह कथन सुनकर गोपसुन्दरियाँ महादेवजी के अंशभूत दुर्वासा का स्मरण करके- उन्हींको लक्ष्य करके वहाँ से चलीं और श्रीकृष्ण के वचन को दुहराकर सूर्यकन्या यमुना के पार हो मुनि के परम पवित्र आश्रम पर जा पहुँचीं। फिर उन सर्वश्रेष्ठ मुनि को, जो रुद्र के ही अंश थे, प्रणाम करके उन ब्राह्मणदेवता को दूध और घी के बने हुए मीठे और प्रिय पदार्थ देकर गोपाङ्गनाओं ने संतुष्ट किया। प्रसिद्ध महर्षि दुर्वासा ने भोजन करके उच्छिष्ट अन्न का यथास्थान त्याग करके गोपियों को यथेष्ट आशीर्वाद दे घर लौट जाने के लिये आज्ञा दी। तब गोप- सुन्दरियों ने पूछा - 'हम सूर्यकन्या यमुना को कैसे पार करके जायँगी? ' ॥ ५७॥

स होवाच मुनिर्दुर्वासनं

मां स्मृत्वा वो दास्यतीति मार्गम् ॥ ८ ॥

तब वे सुप्रसिद्ध मुनि बोले-मैं केवल दूब का ही भोजन करनेवाला हूँ, इस रूप में मेरा स्मरण करने से यमुनाजी तुम्हें मार्ग दे देंगी ॥ ८ ॥

तासां मध्ये हि श्रेष्ठा

गान्धर्वी ह्युवाच तं तं हि वै तामिः ॥ ९ ॥

एवं कथं कृष्णो ब्रह्मचारी ॥ १० ॥

उन गोपसुन्दरियों में सुन्दर गुण और स्वभाव की दृष्टि से सबसे श्रेष्ठ थीं गान्धर्वी - श्रीराधा। उन्होंने वहाँ आयी हुई उन सभी गोपियों के साथ विचार करके मुनिवर दुर्वासा से इस प्रकार पूछा - 'हमारे साथ नित्य विहार करनेवाले श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण कैसे ब्रह्मचारी हैं? और अभी-अभी इतना पकवान भोजन करनेवाले महर्षि दुर्वासा किस प्रकार केवल दूर्वा ही खाते हैं? ' ॥ ९-१० ॥

कथं दुर्वासनो मुनिः ।

तां हि मुख्यां विधाय

पूर्वमनुकृत्वा तूष्णीमासुः ॥ ११ ॥

श्रीराधा को ही प्रधान बनाकर और उन्हें ही आगे करके अन्य गोपाङ्गनाएँ उन्हींके पीछे चुपचाप खड़ी हो गयी थीं ॥ ११ ॥

शब्दवानाकाशः शब्दाकाशाभ्यां भिन्नः ।

तस्मिन्नाकाशस्तिष्ठति ।

आकाशे तिष्ठति स ह्याकाशस्तं न वेद ।

स ह्यात्मा । अहं कथं भोक्ता भवामि ॥१२॥

दुर्वासा ने कहा - सुनो, आकाश शब्द-गुण से युक्त है; परंतु परमात्मा शब्द और आकाश दोनों से भिन्न हैं। फिर भी वे उक्त गुणवाले आकाश में उसके अन्तर्यामी आत्मा होकर निवास करते हैं। वह शब्दवान् आकाश उन अन्तर्यामी परमात्मा को नहीं जानता; वही परमात्मस्वरूप आत्मा मेँ हूँ, फिर मैं भोजन करनेवाला कैसे हो सकता हूँ।

स्पर्शवान्वायुः स्पर्शवायुभ्यां

भिन्नस्तस्मिन्वायौ तिष्ठति स वायुर्न वेद तं  

स ह्यात्मा । अहं कथं भोक्ता भवामि ॥१३॥

वायु स्पर्श-गुण से युक्त है, किंतु परमात्मा स्पर्श और वायु दोनों से भिन्न हैं; फिर भी वे वायु में उसके अन्तर्यामी आत्मारूप से निवास करते हैं। वह स्पर्शवान् वायुतत्त्व उन अन्तर्यामी परमात्मा को नहीं जानता। वही विशुद्ध आत्मा मैं भी हूँ, अतः मैं भोक्ता कैसे हो सकता हूँ।

रूपवदिदं तेजो रूपाग्निभ्यां भिन्नम् ।

तस्मिन्नग्निस्तिष्ठति ।

अग्नौ तिष्ठति अग्निस्तं न वेद ।

स ह्यात्मा । अहं कथं भोक्ता भवामि ॥१४॥

यह तेज रूप गुण से युक्त है, किंतु परमात्मा रूप और तेज दोनों से भिन्न हैं। फिर भी वे अग्नि में उसके अन्तर्यामी आत्मारूप से निवास करते हैं। वह अग्नि उन अन्तर्यामी परमात्मा को नहीं जानता। वही विशुद्ध आत्मा मैं हूँ । अतः मैं भोक्ता कैसे हो सकता हूँ।

रसवत्य आपो रसाद्भ्यां भिन्नाः ।

तास्वापस्तिष्ठन्ति । आपो न विदुस्तं न वेद ।

स ह्यात्मा । अहं कथं भोक्ता भवामि ॥१५॥

जल रस-गुण से युक्त है; किंतु परमात्मा रस और जल दोनों से भिन्न हैं। तथापि वे उस जल में अन्तर्यामी आत्मारूप से निवास करते हैं। जल उन अन्तर्यामी परमात्मा को नहीं जानता। वही विशुद्ध आत्मा मैं भी हूँ, अतः मैं भोक्ता कैसे हो सकता हूँ।

गन्धवती अप्सु भूमिर्गन्धभूमिभ्यां भिन्ना ।

तस्यां भूमिस्तिष्ठति ।

भूमौ तिष्ठति । भूमिस्तं न वेद ।

स ह्यात्मा । अहं कथं भोक्ता भवामि ॥१६॥

यह पृथिवी गन्ध-गुण से युक्त है, किंतु परमात्मा गन्ध एवं पृथिवी दोनों से भिन्न हैं । तथापि वे भूमि में उसके अन्तर्यामी आत्मारूप से निवास करते हैं। भूमि उन अन्तर्यामी परमात्मा को नहीं जानती। वही विशुद्ध आत्मा मैं हूँ, अतः मैं भोक्ता कैसे हो सकता हूँ।

इदं हि मनसैवेदं मनुते ।

तानिदं हि गृह्णाति ।

यत्र सर्वमात्मैवाभूत्तत्र कुत्र वा मनुते ।

कथं वा गच्छतीति । स ह्यात्मा ।

अहं कथं भोक्ता भवामि ॥१७॥

यह मन ही उन आकाश आदि के विषय में संकल्प-विकल्प करता है, यही उन विषयों को ग्रहण करता है। जहाँ सब कुछ आत्मा ही हो गया है, वहाँ किस विषय का आश्रय लेकर यह मन संकल्प-विकल्प करे अथवा किस विषय की ओर जाय? इसलिये मैं वही विशुद्ध आत्मा हूँ, फिर कैसे भोक्ता हो सकता हूँ ॥ १२ - १७ ॥

अयं हि कृष्णो यो हि प्रेष्ठः

शरीरद्वयकारणं भवति ।

द्वा सुपर्णा भवतो ब्रह्मणोऽहं

संभूतस्तथेतरो भोक्ता भवति ।

अन्यो हि साक्षी भवतीति ॥१८॥

ये श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण, जो तुम्हारे प्रियतम हैं, व्यष्टि और समष्टि के स्थूल और सूक्ष्म दोनों शरीरों के कारण हैं। सदा साथ रहनेवाले दो पक्षियों की भाँति जीवात्मा और परमात्मा एक दूसरे के नित्य सहचर हैं। इनमें जो परमात्मा का अंशभूत इतर जीव है, वह तो भोक्ता होता है; और उससे भिन्न साक्षात् परमात्मा (श्रीकृष्ण) साक्षीमात्र होते हैं।

वृक्षधर्मे तौ तिष्ठतः ।

अतू भोक्तभोक्तारौ ।

पूर्वो हि भोक्ता भवति ॥१९॥

तथेतरोऽभोक्ता कृष्णो भवतीति ।

यत्र विद्याविद्ये न विदाम ।

विद्याविद्याभ्यां भिन्नो विद्यामयो हि

यः कथं विषयी भवतीति ॥२०॥

वृक्ष के समान धर्मवाले नाशवान् शरीर में वे दोनों रहते हैं। इनमें एक भोक्ता है और दूसरा अभोक्ता। पहला (जीवात्मा) तो भोक्ता है और दूसरा स्वतन्त्र ईश्वर ही अभोक्ता है। यह अभोक्ता परमेश्वर ही श्रीकृष्ण हैं। जिनमें मोक्ष और बन्धन देनेवाली विद्या और अविद्या का अस्तित्व हम नहीं जानते, जो विद्या और अविद्या दोनों से विलक्षण हैं तथा जो विद्यामय हैं, वे श्रीकृष्ण विषयी कैसे हो सकते हैं? ।।१९-२०॥

यो ह वै कामेन कामान्कामयते स कामी भवति ।

यो ह वै त्वकामेन कामान्कामयते सोऽकामी भवति ॥२१॥

जन्मजराभ्यां भिन्नः स्थाणुरयमच्छेद्योऽयं ॥२२॥

जो कामना (विषयासक्ति) से नाना प्रकार के भोगों की अभिलाषा करता है, वही कामी होता है; परंतु जो निश्चयपूर्वक कामना के बिना ही केवल प्रेमी भक्तों के प्रेमवश उनके द्वारा अर्पित भोगों को ग्रहण करने की इच्छा करता है, वह अकामी होता है-उसे कामना और आसक्ति से दूर माना जाता है। ये श्रीकृष्ण जन्म और जरा (बुढ़ापा) आदि शारीरिक धर्मों से रहित हैं। ये स्थिर हैं- नित्य हैं, इनका छेदन नहीं हो सकता॥ २१-२२ ॥

योऽसौ सूर्ये तिष्ठति योऽसौ गोषु तिष्ठति ।

योऽसौ गोपान्पालयति । योऽसौ गोपेषु तिष्ठति ॥ २३ ॥

योऽसौ सर्वेषु देवेषु तिष्ठति ।

योऽसौ सर्वैर्देवैर्गीयते ।

योऽसौ सर्वेषु भूतेष्वाविश्य तिष्ठति

भूतानि विदधाति स वो हि स्वामी भवति ॥२४॥

वे जो सूर्यमण्डल में विराजमान हैं, जो गौओं में रहते हैं, जो गौओं की रक्षा करते हैं, जो ग्वालों के भीतर हैं, जो सम्पूर्ण देवताओं में भी अन्तर्यामीरूप से स्थित हैं, सम्पूर्ण वेदों के द्वारा जिनकी महिमा का गान किया जाता है, जो समस्त चराचर भूतों में व्याप्त होकर स्थित हैं तथा जो भूतों की सृष्टि भी करते हैं, वे भगवान् ही तुम्हारे स्वामी हैं ॥ २३-२४ ॥

सा होवाच गान्धर्वीकथं वाऽस्मासु जातोऽसौ गोपालः कथं वा ज्ञातोऽसौ त्वया मुनेकृष्णः को वाऽस्य मन्त्रः किं वाऽस्य स्थानं कथं वा देवक्यां जातः कोवाऽस्य ज्यायान्रामो भवति कीदृशी पूजाऽस्य गोपालस्य भवति साक्षा-त्प्रकृतिपरयोरयमात्मा गोपालः कथमवतीर्णो भूम्यां हि वै ॥२५॥

यह सुनकर वे गान्धर्वी नाम से प्रसिद्ध श्रीराधाजी बोलीं- 'महर्षे! ऐसे अद्भुत, अचिन्त्य महिमावाले गोपाल श्रीकृष्ण हमलोगों के यहाँ कैसे प्रकट हो गये? तथा आपने उन श्रीकृष्ण का तत्त्व कैसे जाना? उनकी प्राप्ति का साधनभूत मन्त्र कौन-सा है? उन भगवान्का निवास स्थान कहाँ है? वे देवकीजी के गर्भ से किस प्रकार उत्पन्न हुए? इनके बड़े भैया बलरामजी कौन हैं? तथा कैसे इन गोपाल की पूजा होती है? प्रकृति से परे जो ये साक्षात् परमात्मा गोपाल हैं, किस प्रकार इस भूमि पर अवतीर्ण हुए? यह सब स्पष्टरूप से बताइये' ॥ २५ ॥

सा गान्धर्वी मुनिमुवाच । सहोवाच तां हि वा एको हि वै पूर्वं नारायणो देवो यस्मिँल्लोका ओताश्चप्रोताश्च तस्य हृत्पद्माज्जातोऽब्जयोनिः । स पिता तस्मै ह वरं ददौ ।। २६ ॥  

तब उन प्रसिद्ध महर्षि दुर्वासा ने श्रीराधा से कहा- यह बात सबको विदित है कि सृष्टि के आदि में एकमात्र भगवान् नारायण ही विराजमान थे, जिनमें ये सम्पूर्ण लोक ओतप्रोत हैं। उनके मानसिक सङ्कल्प से नाभि में जो कमल प्रकट हुआ था, उससे कमलयोनि ब्रह्माजी की उत्पत्ति हुई। भगवान् नारायण ने ब्रह्माजी से तपस्या करवाकर उन्हें वरदान दिया ।। २६ ॥

स कामप्रश्नमेव वव्रे ।

तं हास्मै ददौ ।। २७ ॥

ब्रह्माजी ने इच्छानुसार प्रश्न पूछने का ही वरदान माँगा और भगवान् नारायण ने वैसा वर उन्हें दे दिया ॥ २७ ॥

स होवाचाब्जयोनिः यो वावताराणां

मध्ये श्रेष्ठोऽवतारः को भवति ।

येन लोकास्तुष्टा भवन्ति ।

यं स्मृत्वा मुक्ता अस्मात्संसाराद्भवन्ति ।

कथं वास्यावतारस्य ब्रह्मता भवति ॥ २८ ॥

तदनन्तर उन विश्वविख्यात ब्रह्माजी ने पूछा- 'भगवन्! समस्त अवतारों में कौन-सा अवतार सबसे श्रेष्ठ है, जिससे सब लोक सन्तुष्ट हों, सम्पूर्ण देवता भी सन्तुष्ट हों, जिसका स्मरण करके मनुष्य इस संसार से मुक्त हो जाते हैं? तथा इस श्रेष्ठ अवतार की परब्रह्मरूपता कैसे सिद्ध हो सकती है?' ॥ २८ ॥

स होवाच तं हि वै नारायणो देवः ।

सकाम्या मेरोः शृङ्गे

यथा सप्तपुर्यो भवन्ति तथा निष्काम्याः

सकाम्या भूगोपालचक्रे सप्तपुर्यो भवन्ति ।

तासां मध्ये साक्षाद्ब्रह्म गोपालपुरी भवति ।

सकाम्या निष्काम्या देवानां सर्वेषां

भूतानां भवति । अथास्य भजनं भवति ॥ २९ ॥  

यह प्रश्न सुनकर उन प्रसिद्ध भगवान् नारायण ने उन ब्रह्माजी से कहा- 'वत्स! जैसे मेरु-शिखर पर (यमातिरिक्त सात लोकपालों की) सात पुरियाँ* हैं, जिन्हें सकामभाव से पुण्य करनेवाले पुरुष प्राप्त करते हैं, उसी प्रकार इस भूगोल-चक्र में भी सात पुरियाँ हैं, जो निष्काम तथा सकाम- सभी प्रकार के लोगों द्वारा सेवन करनेयोग्य हैं। (सकामभाव वाले पुरुषों की कामना पूर्ण करने के कारण वे 'सकाम्या' हैं, और निष्काम पुरुषों को मोक्ष देनेवाली होने के कारण 'निष्काम्या' हैं।) उन सबके मध्य में साक्षात् परब्रह्मरूप गोपाल की पुरी मथुरा है; अत: वह सम्पूर्ण देवताओं तथा समस्त भूतों के लिये भी सकाम्या (कामना पूर्ण करनेवाली) और निष्काम्या (मोक्षदायिनी) है' ॥२९ ॥

* वे सात पुरियाँ हैं - अयोध्या, मथुरा, माया (हरिद्वार), काशी, काञ्ची, अवन्ती (उज्जयिनी) तथा द्वारकापुरी।

यथा हि वै सरसि पद्मं तिष्ठति तथा भूम्यां तिष्ठति ।

चक्रेण रक्षिता मथुरा । तस्माद्गोपालपुरी भवति ॥ ३०॥

निश्चय ही जिस प्रकार सरोवर में कमल होता है, उसी प्रकार भूतल पर यह पुरी स्थित है। (कमल की कर्णिका के स्थान पर तो यह पुरी है और दलों के स्थान पर मधुवन आदि वन हैं।) अवश्य ही मथुरापुरी भगवान् गोपाल के चक्र द्वारा सुरक्षित है, इसलिये वह गोपाल-पुरी के नाम से प्रसिद्ध है।

बृहद्बृहद्वनं मधोर्मधुवनं

तालस्तालवनं काम्यं काम्यवनं

बहुला बहुलवनं कुमुदः कुमुदवनं

खदिरः खदिरवनं भद्रो भद्रवनं

भाण्डीर इति भाण्डीरवनं श्रीवनं

लोहवनं वृन्दावनमेतैरावृता पुरी भवति ॥ ३१ ॥  

विशाल बृहद्वन (महावन), मधुदैत्य के नाम पर प्रसिद्ध मधुवन, ताड़ के वृक्षों से सुशोभित तालवन, कमनीय श्रीकृष्ण की विहारस्थली काम्यवन (कामवन), कृष्ण प्रिया बहुला के नाम से प्रसिद्ध बहुलावन, कुमुदवृक्षों से उपलक्षित कुमुदवन, खदिरवृक्षों की अधिकता के कारण प्रसिद्ध खदिरवन, जहाँ बलभद्रजी विचरते हैं-वह भद्रवन, 'भाण्डीर' नामक वट से उपलक्षित भाण्डीरवन, लक्ष्मी का निवासभूत श्रीवन, लोहगन्ध की तपस्या का स्थान लोहवन, वृन्दादेवी से सनाथ हुआ वृन्दावन -इन (कमलदलों के समान सुशोभित) बारह वनों से वह मथुरापुरी घिरी हुई है।

तत्र तेष्वेव गगनेश्वेवं देवा मनुष्या

गन्धर्वा नागाः किंनरा गायन्ति नृत्यन्तीति ॥ ३२ ॥   

उस मथुरामण्डल के अन्तर्गत उपर्युक्त वनों में ही देवता, मनुष्य, गन्धर्व, नाग और किन्नर ( श्रीकृष्ण प्रेम से उन्मत्त हो) गाते और नृत्य करते हैं।

तत्र द्वादशादित्या एकादश रुद्रा

अष्टौ वसवः सप्त मुनयो ब्रह्मा

नारदश्च पञ्च विनायका वीरेश्वरो

रुद्रेश्वरोऽम्बिकेश्वरो गणेश्वरो

नीलकण्ठेश्वरो विश्वेश्वरो

गोपालेश्वरो भद्रेश्वर

इत्यष्टावन्यानि लिङ्गानि चतुर्विंशतिर्भवन्ति ॥ ३३ ॥  

उन बारह वनों में बारह आदित्य, ग्यारह रुद्र, आठ वसु, सप्त ऋषि, ब्रह्मा, नारद, पाँच गणेश एवं वीरेश्वर, रुद्रेश्वर, अम्बिकेश्वर, गणेश्वर, नीलकण्ठ, विश्वेश्वर, गोपालेश्वर तथा भद्रेश्वर आदि चौबीस शिवलिङ्गों का निवास है।

द्वे वने स्तः कृष्णवनं भद्रवनम् ।

तयोरन्तर्द्वादश वनानि पुण्यानि पुण्यतमानि ।

तेश्वेव देवास्तिष्ठन्ति । सिद्धाः सिद्धिं प्राप्ताः ॥ ३४ ॥  

दो प्रमुख वन हैं- कृष्णवन और भद्रवन । इनके बीच में ही पूर्वोक्त बारह वन हैं, जो परम पवित्र एवं पुण्यमय हैं। उन्हीं में देवता रहते हैं। वहीं सिद्धगण तपस्या करके सिद्धि को प्राप्त हुए हैं।

तत्र हि रामस्य राममूर्तिः

प्रद्युम्नस्य प्रद्युम्नमूर्तिरनिरुद्धस्य-

अनिरुद्धमूर्तिः कृष्णस्य कृष्णमूर्तिः ।

वनेश्वेवं मथुरास्वेवं द्वादश मूर्तयो भवन्ति ॥ ३५ ॥   

वहीं बलरामजी की रमणीय राममूर्ति, प्रद्युम्न की प्रद्युम्नमूर्ति, अनिरुद्ध की अनिरुद्धमूर्ति तथा श्रीकृष्ण की श्रीकृष्णमूर्ति विराजती है। इस प्रकार मथुरामण्डल के बारह वनों में भगवान् के बारह अर्चा-विग्रह विराजमान हैं।

एकां हि रुद्रा यजन्ति ।

द्वितीयां हि ब्रह्मा यजति ।

तृतीयां ब्रह्मजा यजन्ति ।

चतुर्थीं मरुतो यजन्ति ।

पञ्चमीं विनायका यजन्ति ।

षष्ठीं च वसवो यजन्ति ॥ ३६ ॥   

सप्तमीमृषयो यजन्ति ।

नवमीमप्सरसो यजन्ति ।

दशमी वै ह्यन्तर्धाने तिष्ठति ।

एकादशीति-स्वपदानुगा ।

द्वादशीति भूम्यां तिष्ठति ॥ ३७ ॥   

इनमें से प्रथम मूर्ति का पूजन रुद्रगण करते हैं। दूसरी मूर्ति का पूजन स्वयं ब्रह्माजी करते हैं। तीसरी की पूजा ब्रह्माजी के पुत्र सनकादि मुनि करते हैं। चौथे विग्रह की आराधना मरुद्गण करते हैं। पाँचवें स्वरूप की अर्चना विनायकगण करते हैं। छठे विग्रह की पूजा वसुगण करते हैं। सातवें की आराधना ऋषि करते हैं। आठवीं मूर्ति की पूजा गन्धर्व करते हैं। नवें विग्रह का पूजन अप्सराएँ करती हैं। दसवीं मूर्ति आकाश में गुप्तरूप से स्थित है। ग्यारहवीं अन्तरिक्ष में स्थित है और बारहवीं भूगर्भ में विराजती है।

तां हि ये यजन्ति ते मृत्युं तरन्ति ।

मुक्तिं लभन्ते ।

गर्भजन्मजरामरणतापत्रयात्मकदुःखं तरन्ति ॥ ३८ ॥   

अर्चा-विग्रहों का जो लोग पूजन करते हैं, वे मृत्यु से तर जाते हैं, मोक्ष पा लेते हैं, गर्भवास, जन्म, जरावस्था, मृत्यु तथा आध्यात्मिक आदि त्रिविध ताप के दुःख को लाँघ जाते हैं ॥ ३० - ३८ ॥

तदप्येते श्लोका भवन्ति ।

इस विषय में श्लोक भी हैं, जिनका भाव इस प्रकार है-

सम्प्राप्य मथुरा रम्यां सदा ब्रह्मादिवन्दिताम् ।

शङ्खचक्रगदाशार्ङ्गरक्षितां मुसलादिभिः ॥ ३९॥

जो ब्रह्मा आदि देवताओं से सदा सेवित है; भगवान्के शङ्ख, चक्र, गदा और शार्ङ्ग- धनुष निरन्तर जिसकी रक्षा में रहते हैं; जो बलभद्रजी के मुसल आदि शस्त्रों से भी सदा सुरक्षित है, उस परम रमणीय मथुरापुरी में पहुँचकर (भगवान् श्रीकृष्ण का चिन्तन करे)

यत्रासौ संस्थितः कृष्णः स्त्रीभिः शक्त्या समाहितः ।

रमानिरुद्धप्रद्युम्नै रुक्मिण्या सहितो विभुः ॥

चतुःशब्दो भवेदेको ह्योंकारश्च उदाहृतः ॥ ४०॥

यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण अपने अन्य तीन विग्रह-बलराम, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्ध के साथ एवं अपनी अन्तरङ्गा शक्ति श्रीरुक्मिणीजी के साथ सदा समाहित (भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये सतत सावधान) रहते हैं। भगवान् श्रीकृष्ण एकमात्र पूर्ण परमात्मा हैं तो भी वे प्रणव की मात्राओं के भेद से चार नामों से प्रसिद्ध होते हैं। (ॐकार की चार मात्राएँ हैं-, , म् तथा अर्धमात्रा।) इनमें अकारात्मक विश्वरूप तो बलरामजी हैं, उकारात्मक तैजसरूप प्रद्युम्न हैं, मकारात्मक प्राज्ञरूप अनिरुद्धजी हैं तथा अर्धमात्रात्मक तुरीयरूप भगवान् वासुदेव हैं ॥४०॥

तस्मादेव परो रजसेति सोऽहमित्य

वधार्यात्मानं गोपालोऽहमिति भावयेत् ।

स मोक्षमश्नुते । स ब्रह्मत्वमधिगच्छति ।

स ब्रह्मविद्भवति ॥४१॥

अतः रजोगुण से अर्थात् त्रिगुणमयी प्रकृति से परे जो भगवान् गोपाल हैं, 'वह मैं ही हूँ'– इस प्रकार निश्चय करके अपने आत्मा में गोपाल की भावना करे। जो यों करता है, वह मोक्ष सुख का अनुभव करता है, ब्रह्मभाव को प्राप्त होता है तथा ब्रह्मवेत्ता होता है।

स गोपाञ्जीवानात्मत्वेन सृष्टिपर्यन्तमालाति ॥४२॥

स गोपालो ह्यों भवति । तत्सत्सोऽहम् ।

परं ब्रह्म कृष्णात्मको नित्यानन्दैक्यस्वरूपः सोऽहम् ॥४३॥

तत्सद्गोपालोऽहमेव । परं

सत्यमबाधितं सोऽहमित्यत्मानमादाय मनसैक्यं कुर्यात् ।

आत्मानं गोपालोऽहमिति भावयेत् । स एवाव्यक्तोऽनन्तो नित्यो गोपालः ॥४४॥

जो गोपों अर्थात् जीवों को सृष्टि से लेकर प्रलय तक सदा ही आत्मीय मानकर स्वीकार करते तथा सदा उनकी रक्षा एवं पालन में संलग्न रहते हैं, वे प्रणव वाच्य भगवान् ही गोपाल हैं। वे 'तत्, सत्, परब्रह्म श्रीकृष्ण ही मेरे आत्मा हैं; नित्यानन्दैकरूप जो गोपाल हैं, वह मैं हूँ। ॐ वे गोपालदेव ही तीनों कालों से अबाधित परम सत्य हैं। वह मैं हूँ' - इस प्रकार अपने को लेकर मन से भगवान्के साथ एकता करे। अपने को इस भाव से देखे-अपने विषय में यह निश्चय करे कि 'मैं गोपाल हूँ-वे ही गोपाल, जो अव्यक्त, अनन्त एवं नित्य हैं' ॥४१-४४ ॥

मथुरायां स्थितिर्ब्रह्मन्सर्वदा मे भविष्यति ।

शङ्खचक्रगदापद्मवनमालाधरस्य वै ॥ ४५॥

विश्वरूपं परंज्योतिः स्वरूपं रूपवर्जितम् ।

मथुरामण्डले यस्तु जम्बूद्वीपे स्थितोऽपि वा ॥ ४६॥

योऽर्चयेत्प्रतिमां मां च स मे प्रियतरो भुवि ।

तस्यामधिष्ठितः कृष्णरूपी पूज्यस्त्वया सदा ॥ ४७ ॥

चतुर्धा चास्यावतारभेदत्वेन यजन्ति माम् ।

युगानुवर्तिनो लोका यजन्तीह सुमेधसः ॥ ४८ ॥

गोपालं सानुजं कृष्णं रुक्मिण्या सह तत्परम् ॥ ४९ ॥

भगवान् कहते हैं - ब्रह्मन् ! मथुरापुरी में मेरा निवास सदा ही बना रहेगा। निश्चय ही मैं वहाँ शङ्ख, चक्र, गदा, पद्म और वनमाला से विभूषित होकर रहूँगा। ब्रह्मन् ! मेरा स्वरूप चिन्मय है, सर्वोत्कृष्ट और स्वप्रकाशरूप है; इसमें प्राकृत रूप की गन्ध भी नहीं है। इस प्रकार जो सदा मेरे स्वरूप का चिन्तन करता है, वह निश्चय ही मेरे परमधाम को प्राप्त होता है। जो मुख्यतः मथुरामण्डल में अथवा जम्बूद्वीप के किसी भी प्रदेश में रहकर मेरी प्रतिमा का सामग्रियों द्वारा पूजन करता है तथा मेरा भी ध्यान के द्वारा समाराधन करता है, वह इस भूमण्डल पर मुझे सर्वाधिक प्रिय है। ब्रह्मन् ! मथुरा में मैं श्रीकृष्णरूप से ही सदा वास करता हूँ, अतः वहाँ तुम्हें उसी रूप में मेरा पूजन करना चाहिये। अधिकार भेद से विभिन्न युगों का अनुसरण करनेवाले उत्तम बुद्धिसम्पन्न भक्तजन चार रूपों में मेरी उपासना - मेरा पूजन करते हैं। वे पीछे प्रकट हुए प्रद्युम्न और अनिरुद्ध के साथ गोपाल श्रीकृष्ण की और बलराम की पूजा करते हैं (ये ही चार व्यूह हैं ) । इसके सिवा देवी रुक्मिणी के साथ उनके परम प्रियतम भगवान् वासुदेव की भी पूजा करते हैं। (युग-क्रम से सत्ययुग में श्वेतवर्ण बलराम की, त्रेता में रक्तवर्ण प्रद्युम्न की, द्वापर में पीतवर्ण अनिरुद्ध की और कलि में श्यामवर्ण श्रीकृष्ण की आराधना करते हैं) । ४५ - ४९ ॥

गोपालोऽहमजो नित्यः प्रद्युम्नोऽहं सनातनः ।

रामोऽहमनिरुद्धोऽहमात्मानं चार्चयेद्बुधः ॥ ५०॥

मयोक्तेन स धर्मेण निष्कामेन विभागशः ।

तैरहं पूजनीयो हि भद्रकृष्णनिवासिभिः ॥ ५१॥

विद्वान् पुरुष ऐसी भावना करे कि 'मैं नित्य अजन्मा गोपाल हूँ, सनातन प्रद्युम्न हूँ, बलराम हूँ तथा अनिरुद्ध हूँ।' इस प्रकार अपने आत्मारूप से भगवान्‌ का चिन्तन करके उनकी पूजा करे। मैंने वेद, पाञ्चरात्र तथा अन्यान्य शास्त्रों में जो विभागपूर्वक वर्णाश्रम धर्म का उपदेश दिया है, उसके अनुसार निष्कामभाव से स्वधर्म का अनुष्ठान करते हुए उसके द्वारा मेरा पूजन करना चाहिये । भद्रवन एवं कृष्णवन के निवासियों को वहाँ विराजमान मेरे स्वरूप की आराधना करनी चाहिये ॥ ५०-५१ ॥

तद्धर्मगतिहीना ये तस्यां मयि परायणाः ।

कलिना ग्रसिता ये वै तेषां तस्यामवस्थितिः ॥ ५२॥

जो (सकाम या निष्काम) धर्माचरण से प्राप्त होनेवाली (स्वर्ग-अपवर्गरूप) सद्गति से वञ्चित हैं (अतएव मनुष्यरूप में जन्मे हैं), कलिकाल ने जिन्हें अपना ग्रास बना लिया है तथा जो मथुरा में रहकर मेरे भजन में संलग्न रहते हैं, उनकी वहाँ अवश्य स्थिति होती है। (वे वहाँ रहने के अधिकारी हैं तथा वहाँ रहकर भजन करने से उन्हें निश्चय ही अभीष्टसिद्धि प्राप्त होती है ।)

यथा त्वं सह पुत्रैस्तु यथा रुद्रो गणैः सह ।

यथा श्रियाभियुक्तोऽहं तथा भक्तो मम प्रियः ॥ ५३ ॥

ब्रह्मन् ! जैसे तुम अपने सनक सनन्दन आदि पुत्रों के साथ स्नेहयुक्त सम्बन्ध रखते हो, जैसे महादेवजी प्रमथगणों के साथ स्नेह-सम्बन्ध रखते हैं तथा जैसे लक्ष्मी के साथ मेरा प्रेमपूर्ण सम्बन्ध है, उसी प्रकार मेरा भक्त भी मुझे परम प्रिय है ॥ ५२-५३ ॥

स होवाचाब्जयोनिश्चतुर्भिर्देवैः कथमेको देवः स्यात् ।

एकमक्षरं यद्विश्रुतमनेकाक्षरं कथं संभूतम् ॥ ५४॥

तदनन्तर उन पद्मसम्भव ब्रह्माजी ने पूछा- 'भगवन् ! एक ही देव-आप परमेश्वर चार देवताओं (चतुर्व्यूहों)- के रूप में कैसे हो गये? और इसी प्रकार जो एक अक्षर के रूप में विख्यात ॐकार है, वह अनेक अक्षर- अकार, उकार, मकार तथा अर्धमात्रा आदि के रूप में कैसे हो गया?'

स होवाच हि तं पूर्वमेकमेवाद्वितीयं ब्रह्मासीत् ।

तस्मादव्यक्तमेकाक्षरम् । तस्मदक्षरान्महत् ।

महतोऽहङ्कारः । तस्मादहङ्कारात्पञ्च तन्मात्राणि ।

तेभ्यो भूतानि । तैरावृतमक्षरम् ।

अक्षरोऽहमोंकारोऽयमजरोऽमरोऽभयोऽमृतो ब्रह्माभयं हि वै ।

स मुक्तोऽहमस्मि । अक्षरोऽहमस्मि ॥ ५५॥

यह प्रश्न सुनकर भगवान् नारायण ने उन प्रसिद्ध ब्रह्माजी से कहा- सृष्टि के पूर्व एकमात्र अद्वितीय ब्रह्म ही सर्वत्र विराजमान था । सर्गकाल में उस ब्रह्म से अव्यक्त (अव्याकृत मूल प्रकृति) - का प्रादुर्भाव हुआ। (अक्षर-अविनाशी ब्रह्म से उत्पन्न होने के कारण) अव्यक्त (प्रकृति) भी अक्षर (ब्रह्म) ही है। उस अक्षर अर्थात् अव्यक्त प्रकृति से महत्तत्त्व प्रकट हुआ। महत्तत्त्व से (सात्त्विक, राजस और तामस भेदवाला त्रिविध) अहंकार उत्पन्न हुआ। उस (तामस) अहंकार से शब्द आदि पाँच तन्मात्राएँ प्रकट हुईं और उनसे क्रमशः आकाश आदि पाँच महाभूतों की सृष्टि हुई। (इसी प्रकार राजस अहंकार से इन्द्रियों तथा सात्त्विक अहंकार से उनके अधिष्ठाता देवों की उत्पत्ति हुई ।) इस प्रकार शरीर-इन्द्रिय आदि के रूप में स्थित उन महत्तत्त्व आदि से तथा भूतों से वह अक्षर परमात्मा आवृत है। (इन प्राकृत आवरणों से छिपे हुए अक्षर परमात्मा को प्रायः संसारी मनुष्य देख नहीं पाते। वास्तव में वह अक्षर परमात्मा सबका अन्तर्यामी आत्मा है; अतः उसको अपने से अभिन्न मानकर ऐसी भावना करनी चाहिये कि) 'मैं अक्षर हूँ मैं साक्षात् अविनाशी परमात्मा हूँ; उन परमात्मा का वाचक जो प्रणव () अक्षर है, वह भी मैं हूँ। इसी प्रकार मैं अमर हूँ, निर्भय हूँ,और अमृत हूँ। वह जो भयशून्य ब्रह्म है, निःसंदेह वह मैं हूँ। मैं मुक्त हूँ और अक्षर भी मैं हूँ।' (तात्पर्य यह कि जैसे एक ही ब्रह्म महत्तत्त्वादि रूपों में प्रकट और अनन्त नाम-रूपवाले जगत्के आकार में प्रादुर्भूत हो गया, उसी प्रकार एक ही तत्त्व चतुर्व्यूहरूप में प्रकट हुआ है और एक ही अक्षर से अनेक अक्षरों का भी आविर्भाव हुआ है ।)

सत्तामात्रं चित्स्वरूपं प्रकाशं व्यापकं तथा ।

एकमेवाद्वयं ब्रह्म मायया च चतुष्टयम् ॥ ५६॥

नित्य सत्ता जिसका स्वरूप है, सम्पूर्ण विश्व जिसका ही आकार है तथा जो प्रकाशस्वरूप एवं सर्वत्र व्यापक है, वह एकमात्र अद्वितीय ब्रह्म अपनी लीला से चार व्यूहों के रूपों में प्रकाशित हो रहा है ॥ ५६ ॥

रोहिणीतनयो विश्व अकाराक्षरसंभवः ।

तैजसात्मकः प्रद्युम्न उकाराक्षरसंभवः ॥ ५७ ॥

प्राज्ञात्मकोऽनिरुद्धोऽसौ मकाराक्षरसंभवः ।

अर्धमात्रात्मकः कृष्णो यस्मिन्विश्वं प्रतिष्ठितम् ॥ ५८ ॥

रोहिणीनन्दन बलरामजी प्रणव के '' अक्षर के द्वारा प्रतिपादित होते हैं। ये जाग्रत् अवस्था के अभिमानी होने के कारण 'विश्व' कहे गये हैं। स्वप्नावस्था के अभिमानी प्रद्युम्नजी 'तैजस' कहलाते हैं। प्रणव के '' अक्षर से इनका ही बोध होता है। अनिरुद्धजी सुषुप्ति के अभिमानी'प्राज्ञ' कहे गये हैं। प्रणव के 'म्' अक्षर से इनका ही प्रतिपादन होता है। जहाँ यह सम्पूर्ण विश्व प्रतिष्ठित है, वे श्रीकृष्ण तुरीय तत्त्व हैं। इन्हें अर्धमात्रात्मक नादरूप या प्रणव का सम्पूर्ण स्वरूप बताया गया है। पूर्वोक्त विश्व, तैजस आदि इन्हीं में अन्तर्हित है ॥ ५७-५८ ॥

कृष्णात्मिका जगत्कर्त्री मूलप्रकृती रुक्मिणी ।

व्रजस्त्रीजनसंभूतः श्रुतिभ्यो ज्ञानसंगतः ॥ ५९ ॥

प्रणवत्वेन प्रकृतित्वं वदन्ति ब्रह्मवादिनः ।

तस्मादोंकारसंभूतो गोपालो विश्वसंस्थितः ॥ ६० ॥

क्लीमोंकारस्यैकतत्वं वदन्ति ब्रह्मवादिनः ।

मथुरायां विशेषेण मां ध्यायन्मोक्षमश्नुते ॥ ६१ ॥

समस्त जगत्की रचना करनेवाली मूलप्रकृतिरूपा देवी रुक्मिणी श्रीकृष्ण की अन्तरङ्गा शक्ति हैं, अतएव श्रीकृष्णस्वरूपा हैं। गोपियों के रूप में प्रकट होनेवाली जो श्रुतियाँ हैं, उनकी अपेक्षा प्रणव के साथ ब्रह्म का अधिक घनिष्ठ सम्बन्ध है; श्रुतियाँ और श्रुतिरूपा गोपियाँ दूर से श्रीकृष्ण का आराधन करती हैं और प्रणव एवं रुक्मिणी आदि शक्तियाँ ब्रह्म के साथ अभिन्नता रखती हैं। अतः ब्रह्म का साक्षात् वाचक प्रणव जिस प्रकार ब्रह्म की प्रकृति है, उसी प्रकार रुक्मिणी को भी ब्रह्म से साक्षात् सम्बन्ध रखने के कारण ब्रह्मवादीजन प्रकृति ही बताते हैं । इसलिये सम्पूर्ण विश्व के आधारभूत भगवान् गोपाल ही ॐकाररूप में प्रतिष्ठित हैं। ब्रह्मवादीजन 'क्लीम्' तथा ॐकार का एक ही अर्थ में पाठ करते हैं। (अतः कृष्ण के बीजभूत 'क्लीम् ' तथा '' में अर्थतः कोई अन्तर नहीं है।) विशेषतः मथुरापुरी में जो चतुर्भुजरूप में मेरा ध्यान करता है, वह मोक्ष सुख का अनुभव करता है ।। ५९-६१ ।।

अष्टपत्रं विकसितं हृत्पद्मं तत्र संस्थितम् ।

दिव्यध्वजातपत्रैस्तु चिह्नितं चरणद्वयम् ॥ ६२ ॥

श्रीवत्सलाञ्छनं हृत्स्थं कौस्तुभं प्रभया युतम् ।

चतुर्भुजं शङ्खचक्रशार्ङ्गपद्मगदान्वितम् ॥६३ ॥

सुकेयूरान्वितं बाहुं कण्ठं मालासुशोभितम् ।

द्युमत्किरीटं वलयं स्फुरन्मकरकुण्डलम् ॥६४ ॥

हिरण्मयं सौम्यतनुं स्वभक्तायाभयप्रदम् ।

ध्यायेन्मनसि मां नित्यं वेणुशृङ्गधरं तु वा ॥६५ ॥

ध्यान का स्वरूप यों है- भक्त का अष्टदल हृदय-कमल प्रसन्नता से विकसित है, उसमें भगवान् विराज रहे हैं। उनके दोनों चरण शङ्ख, ध्वजा और छत्रादि के चिह्नों से सुशोभित हैं । हृदय में श्रीवत्स चिह्न शोभा पा रहा है। वहीं कौस्तुभमणि अपनी अद्भुत प्रभा से प्रकाशित हो रही है। भगवान्‌ के चार हाथ हैं। उनमें शङ्ख, चक्र, शार्ङ्गधनुष, पद्म और गदा-ये सुशोभित हैं। बाँहों में भुजबंद शोभा दे रहा है। कण्ठ में धारण की हुई वनमाला भगवान्‌ की स्वाभाविक शोभा को और भी बढ़ा रही है । मस्तक पर किरीट चमचमा रहा है और कलाइयों में चमकीले कङ्कण शोभा पा रहे हैं। दोनों कानों में मकराकृति कुण्डल झलमला रहे हैं। सुवर्णमय पीताम्बर से सुशोभित श्यामसुन्दर श्रीविग्रह है । भगवान् इस मुद्रा से स्थित हैं, मानो अपने भक्तजनों को अभय प्रदान कर रहे हैं। इस प्रकार प्रतिदिन मेरे चतुर्भुजरूप का मन-ही-मन चिन्तन करे अथवा मुरली तथा सींग धारण करनेवाले मेरे द्विभुजरूप (श्रीकृष्ण-विग्रह) - का ध्यान करे ॥ ६२ - ६५ ॥

मथ्यते तु जगत्सर्वं ब्रह्मज्ञानेन येन वा ।

मत्सारभूतं यद्यत्स्यान्मथुरा सा निगद्यते ॥ ६६ ॥

अष्टदिक्पालकैर्भूमिपद्मं विकसितं जगत् ।

संसारार्णवसंजातं सेवितं मम मानसे ॥ ६७ ॥

जिस ब्रह्मज्ञान से सम्पूर्ण जगत् मथ डाला जाता है, उसके सार (विषय) परब्रह्म-लीला-पुरुषोत्तम जिस पुरी में विराजमान रहते हों, उसे मथुरा कहते हैं । वहाँ आठ दिक्पालरूपी दलों से विभूषित मेरा यह भूमिरूपी कमल जगत्के रूप में प्रकाशित हो रहा है। यह कमल संसार-समुद्र से ही प्रकट हुआ है तथा जिनका अन्तःकरण राग-द्वेष आदि से शून्य-पूर्णतः सम है, वे ही हंस या भ्रमररूप से उस कमल का सेवन करते हैं॥६६-६७॥

चन्द्रसूर्यत्विषो दिव्या ध्वजा मेरुर्हिरण्मयः ।

आतपत्रं ब्रह्मलोकमथोर्ध्वं चरणं स्मृतम् ॥ ६८ ॥

श्रीवत्सस्य स्वरूपं तु वर्तते लाञ्छनैः सह ॥ ६९॥

चन्द्रमा और सूर्य की दिव्य किरणें पताकाएँ हैं और सुवर्णमय पर्वत मेरु मेरा ध्वज है। ब्रह्मलोक मेरा छत्र और नीचे- ऊपर के क्रम से स्थित सात पाताललोक मेरे चरण हैं। लक्ष्मी का निवासभूत जो श्रीवत्स है, वह मेरा स्वरूप ही है। वह लाञ्छन अर्थात् चन्द्राकृति रोम-पङ्कि के चिह्न से युक्त है; इसलिये ब्रह्मवादीजन उसे श्रीवत्स- लाञ्छन कहते हैं।

श्रीवत्सलक्षणं तस्मात्कथ्यते ब्रह्मवादिभिः ।

येन सूर्याग्निवाक्चन्द्रतेजसा स्वस्वरूपिणा ॥ ७०॥

वर्तते कौस्तुभाख्यमणिं वदन्तीशमानिनः ।

सत्त्वं रजस्तम इति अहंकारश्चतुर्भुजः ॥ ७१ ॥

भगवत्स्वरूपभूत जिस तेज से सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि तथा वाक् आदि तेज भी प्रकाश प्राप्त करते हैं, उस चिन्मय आलोक को परमेश्वर के भक्तजन कौस्तुभमणि कहते हैं । सत्त्व, रज, तम और अहंकार-ये ही मेरी चार भुजाएँ हैं।

पञ्चभूतात्मकं शङ्खं करे रजसि संस्थितम् ।

बालस्वरूपमित्यन्तं मनश्चक्रं निगद्यते ॥ ७२॥

आद्या माया भवेच्छार्ङ्गं पद्मं विश्वं करे स्थितम् ।

आद्या विद्या गदा वेद्या सर्वदा मे करे स्थिता ॥ ७३ ॥

मेरे रजोगुणमय हाथ में पञ्चभूतात्मक पाञ्चजन्य नामक शङ्ख स्थित है। अत्यन्त चञ्चल समष्टि-मन ही मेरे हाथ में चक्र कहलाता है, आदिमाया ही शार्ङ्ग नामक धनुष है तथा सम्पूर्ण विश्व ही कमलरूप से मेरे हाथ में विराजमान है। आदिविद्या को ही गदा समझना चाहिये, जो सदा मेरे हाथ में स्थित रहती है।

धर्मार्थकामकेयूरैर्दिव्यैर्दिव्यमयेरितैः ।

कण्ठं तु निर्गुणं प्रोक्तं माल्यते आद्ययाऽजया ॥ ७४ ॥

माला निगद्यते ब्रह्मंस्तव पुत्रैस्तु मानसैः ।

कूटस्थं सत्त्वरूपं च किरीटं प्रवदन्ति माम् ॥ ७५ ॥

कभी प्रतिहत न होनेवाले धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूपी चार दिव्य केयूरों (भुजबंदों) से मेरी चारों भुजाएँ विभूषित हैं। ब्रह्मन् ! मेरा कण्ठ निर्गुण तत्त्व कहा गया है; वह अजन्मा माया द्वारा मालित (आवृत) होता है, इसलिये तुम्हारे मानस पुत्र सनकादि मुनि उस अविद्या को मेरी माला बताते हैं। मेरा जो कूटस्थ 'सत्' स्वरूप है, उस रूप में मुझको ही किरीट कहते हैं।

क्षीरोत्तरं प्रस्फुरन्तं कुण्डलं युगलं स्मृतम् ।

ध्यायेन्मम प्रियं नित्यं स मोक्षमधिगच्छति ॥ ७६ ॥

क्षर (सम्पूर्ण विनाशी शरीर) और उत्तम (जीव) – ये दोनों मेरे कानों में झलमलाते हुए युगल कुण्डल माने गये हैं। इस प्रकार जो नित्य मन में मेरा ध्यान करता है, वह मोक्ष को प्राप्त होता है।

स मुक्तो भवति तस्मै स्वात्मानं तु ददामि वै ।

एतत्सर्वं मया प्रोक्तं भविष्यद्वै विधे तव ॥

स्वरूपं द्विविधं चैव सगुणं निर्गुणात्मकम् ॥ ७७ ॥

वह मुक्त हो जाता है, निश्चय ही उसे मैं अपने आपको दे डालता हूँ। ब्रह्मन् ! मैंने तुमसे अपने सगुण और निर्गुण-द्विविध स्वरूप के विषय में जो कुछ बताया है, यह सब सत्य है और भविष्य में होनेवाला है ॥ ७७॥

स होवाचाब्जयोनिः ।

र्व्यक्तानां मूर्तीनां प्रोक्तानां

कथं चाभरणानि भवन्ति ।

कथं वा देवा यजन्ति । रुद्रा यजन्ति ।

ब्रह्मा यजति । ब्रह्मजा यजन्ति ।

विनायका यजन्ति । द्वादशादित्या यजन्ति ।

वसवो यजन्ति । गन्धर्वा यजन्ति ।

सपदानुगा अन्तर्धाने तिष्ठन्ति ।

कां मनुष्या यजन्ति ॥ ७८ ॥

तब कमलयोनि ब्रह्माजी ने पूछा- 'भगवन्! आपके द्वारा बतायी हुई जो आपकी व्यक्त मूर्तियाँ हैं, उनका अवधारण (निश्चय) कैसे हो सकता है? कैसे देवता उनका पूजन करते हैं? कैसे रुद्र पूजन करते हैं, कैसे यह ब्रह्मा पूजन कर सकता है? कैसे विनायकगण पूजन करते हैं? कैसे बारह सूर्य पूजन करते हैं? कैसे वसुगण पूजन करते हैं? कैसे अप्सराएँ पूजन करती हैं? कैसे गन्धर्व पूजन करते हैं? जो अपने पद पर ही प्रतिष्ठित रहकर अदृश्यरूप से स्थित है, वह कौन है और उसकी पूजा कैसे होती है? तथा मनुष्यगण किसकी और किस प्रकार पूजा करते हैं?' ॥ ७८ ॥

सहोवाच तं हि वै नारायणो

देव आद्या व्यक्ता द्वादश मूर्तयः

सर्वेषु लोकेषु सर्वेषु देवेषु

सर्वेषु मनुष्येषु तिष्ठन्तीति ॥ ७९ ॥  

तब वे प्रसिद्ध भगवान् नारायण ब्रह्माजी से बोले- मेरी बारह अव्यक्त मूर्तियाँ हैं, जो सबकी आदिभूता हैं। वे सब लोकों में, सब देवों में तथा सब मनुष्यों में स्थित हैं ॥ ७९ ॥

रुद्रेषु रौद्री ब्रह्माणीषु ब्राह्मी देवेषु दैवी

मनुष्येषु मानवी विनायकेषु विघ्नविनाशिनी

आदित्येषु ज्योतिर्गन्धर्वेषु गान्धर्वी ॥ ८० ॥

अप्सरःस्वेवं गौर्वसुष्वेवं काम्या अन्तर्धानेष्वप्रकाशिनी

आविर्भावतिरोभावा स्वपदे तिष्ठन्ति ।

तामसी राजसी सात्त्विकी मानुषी विज्ञानघन

आनन्दसच्चिदानन्दैकरसे भक्तियोगे तिष्ठति ॥ ८१ ॥

वे अव्यक्त मूर्तियाँ इस प्रकार हैं- रुद्रगणों में रौद्री मूर्ति, ब्रह्मा में ब्राह्मी मूर्ति, देवताओं में दैवी मूर्ति, मानवों में मानवी मूर्ति, विनायकगणों में विघ्ननाशिनी मूर्ति, बारह सूर्यों में ज्योतिर्मूर्ति, गन्धर्वों में गान्धर्वी मूर्ति, अप्सराओं में गौ, वसुओं में काम्या तथा अन्तर्धान में अप्रकाशिनी मूर्ति है। इसके सिवा, जो आविर्भाव तिरोभावरूपा केवला मूर्ति है, वह अपने पद में (अपनी महिमा एवं परमधाम में) प्रतिष्ठित है। मानुषी मूर्ति सात्त्विकी, राजसी और तामसी -तीन प्रकार की होती है। केवल सच्चिदानन्दैकरसरूप भक्तियोग में ही विज्ञानघन और आनन्दघन मूर्ति प्रतिष्ठित है ॥ ८०-८१ ॥

ॐ प्राणात्मने ॐ तत्सद् भूर्भुवः स्वस्तस्मै वै प्राणात्मने नमो नमः ॥ ८२ ॥

ॐ सच्चिदानन्दस्वरूप) प्राणात्मा को नमस्कार है । ॐ तत् सत्-इन तीनों नामों से प्रतिपादित होनेवाले 'भूर्भुवः स्वः'- तीनों लोकरूप प्राणात्मा परमेश्वर को बारम्बार नमस्कार है।

ॐ श्रीकृष्णाय गोविन्दाय गोपीजनवल्लभाय ॐ तत्सद् भूर्भुवः स्वस्तस्मै वै नमो नमः ॥ ८३ ॥

ॐ सबका आकर्षण करनेवाले कृष्ण, गौओं के स्वामी गोविन्द एवं गोपीजनों के प्राणवल्लभ उन श्यामसुन्दर को बारम्बार नमस्कार है, जो 'ॐ तत् सत्'- इन तीनों नामों से प्रतिपादित होनेवाले हैं तथा 'भूर्भुवः स्वः' इन तीनों लोकों के रूप में प्रकट हैं।

ॐ अपानात्मने ॐ तत्सद् भूर्भुवः स्वस्तस्मै अपानात्मने वै नमो नमः ॥ ८४ ॥

, तत्, सत्' ये तीन जिनके नाम हैं तथा 'भूः भुवः स्वः' – ये तीनों जिनके रूप हैं, उन अपानवायुस्वरूप अपानात्मा परमेश्वर को बारम्बार नमस्कार है ।

ॐ कृष्णाय प्रद्युम्नायानिरुद्धाय ॐ तत्सद् भूर्भुवः स्वस्तस्मै वै नमो नमः ॥ ८५ ॥

ॐ तत् सत्' – इन तीनों नामों से कहे जानेवाले 'भूर्भुवः स्वः' स्वरूप उन श्रीकृष्ण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध को अवश्य बारम्बार नमस्कार है।

ॐ व्यानात्मने ॐ तत्सद् भूर्भुवः स्वस्तस्मै व्यानात्मने वै नमो नमः ॥ ८६ ॥

'', 'तत् सत्' - इन तीन नामोंवाले तथा 'भूः भुवः और स्वः'- इन तीन रूपोंवाले उन व्यानवायुरूप व्यानात्मा परमेश्वर को बारंबार नमस्कार है।

ॐ श्रीकृष्णाय रामाय ॐ तत्सद् भूर्भुवः स्वस्तस्मै वै नमो नमः ॥ ८७ ॥

'ॐ तत् सत्' – इन तीनों नामों से कहे जानेवाले भूतल, अन्तरिक्ष एवं स्वर्गरूप उन श्रीकृष्ण और बलराम को निश्चय ही अनेक बार नमस्कार है।

ॐ उदानात्मने ॐ तत्सद् भूर्भुवः स्वस्तस्मै उदानात्मने वै नमो नमः ॥ ८८ ॥

ॐ तत् सत्'- इन तीनों नामों से कहे जानेवाले, 'भूर्भुवः स्वः' स्वरूप उन उदानवायु के रूप में प्रकट उदानात्मा परमेश्वर को बारम्बार नमस्कार है।

ॐ कृष्णाय देवकीनन्दनाय ॐ तत्सद् भूर्भुवः स्वस्तस्मै वै नमो नमः ॥ ८९ ॥

'ॐ तत् सत्'- इन त्रिविध नामोंवाले तथा 'भूर्भुव: स्व:' - इन त्रिविध रूपोंवाले उन सच्चिदानन्दमय देवकीनन्दन श्रीकृष्ण को अवश्य ही बारम्बार नमस्कार है। 

ॐ समानात्मने ॐ तत्सद् भूर्भुवः स्वस्तस्मै समानात्मने वै नमो नमः ॥ ९० ॥

, तत्, सत्' – इन नामों से प्रतिपादित होनेवाले, 'भूर्भुवः स्वः' स्वरूप उन समानवायुरूप समानात्मा परमेश्वर को नमस्कार है, नमस्कार है।

ॐ गोपालाय अनिरुद्धाय निजस्वरूपाय ॐ तत्सद् भूर्भुवः स्वस्तस्मै वै नमो नमः ॥ ९१ ॥

, तत्, सत्' – इन नामों से प्रसिद्ध और 'भूर्भुवः स्वः' – इन तीन रूपोंवाले उन स्वरूपभूत सच्चिदानन्दमय गोपाल, अनिरुद्ध को निश्चय ही नमस्कार है, नमस्कार है ।

ॐ योऽसौ प्रधानात्मा गोपालः ॐ तत्सद् भूर्भुवः स्वस्तस्मै वै नमो नमः ॥ ९२ ॥

ॐ जो वे प्रधानात्मा गोपाल हैं, वे ही 'ॐ तत् सत्'- इन तीनों नामों द्वारा प्रतिपादित होनेवाले तथा 'भूर्भुव: स्वः' - इन तीनों लोकों के रूप में प्रकट हैं; उन्हें अवश्य ही नमस्कार है, नमस्कार है।

ॐ योऽसाविन्द्रियात्मा गोपालः ॐ तत्सद् भूर्भुवः स्वस्तस्मै वै नमो नमः ॥ ९३ ॥

ॐ वे जो इन्द्रियात्मा गोपाल हैं, वे ही 'ॐ तत् सत्' नामों से प्रसिद्ध हैं और वे ही भूतल, अन्तरिक्ष एवं स्वर्गरूप हैं; उन्हें निश्चय ही बारम्बार नमस्कार है।

ॐ योऽसौ भूतात्मा गोपालः ॐ तत्सद् भूर्भुवः स्वस्तस्मै वै नमो नमः ॥ ९४ ॥

ॐ वे जो भूतात्मा गोपाल हैं, वे ही 'ॐ तत् सत्' नामों से प्रसिद्ध हैं और वे ही भूतल, अन्तरिक्ष एवं स्वर्गरूप हैं; उन्हें निश्चय ही बारम्बार नमस्कार है।

ॐ योऽसावुत्तमपुरुषो गोपालः ॐ तत्सद् भूर्भुवः स्वस्तस्मै वै नमो नमः ॥ ९५ ॥

ॐ वे जो उत्तम पुरुष (पुरुषोत्तम) गोपाल हैं, वे ही 'ॐ तत् सत्-इन तीनों नामों से कहे जानेवाले और भूतल, अन्तरिक्ष एवं स्वर्गरूप हैं; उनके लिये निश्चय ही बारम्बार नमस्कार है।

ॐ योऽसौ परब्रह्म गोपालः ॐ तत्सद् भूर्भुवः स्वस्तस्मै वै नमो नमः ॥ ९६ ॥

ॐ वे जो परब्रह्म गोपाल हैं, वे ही 'ॐ तत् सत्'- ये तीन नाम धारण करते हैं तथा वे ही 'भूर्भुवः स्वः' - इन तीनों लोकों के रूप में प्रकट होते हैं; उनको निश्चय ही बारम्बार नमस्कार है ।

ॐ योऽसौ सर्वभूतात्मा गोपालः ॐ तत्सद् भूर्भुवः स्वस्तस्मै वै नमो नमः ।। ९७ ।।

ॐ वे जो सर्वभूतात्मा गोपाल हैं, वे ही 'ॐ तत् सत्'- ये तीन नाम धारण करते हैं और वे ही 'भूर्भुवः स्वः ' - इन तीनों लोकों के रूप में प्रकट होते हैं; उनके लिये निश्चय ही मेरा बारम्बार नमस्कार है ।

ॐ योऽसौ जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तिमतीत्य तुर्यातीतः ॐ तत्सद् भूर्भुवः स्वस्तस्मै वै नमो नमः ॥ ९८ ॥

ॐ वे जो जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति - इन तीनों अवस्थाओं को पार करके तुरीय पद से भी अतीत भगवान् गोपाल हैं, वे ही 'ॐ तत् सत्' कहे जाते हैं और वे ही भूतल, अन्तरिक्ष तथा स्वर्गरूप हैं। उनको निश्चय ही मेरा बारम्बार नमस्कार है ।

एको देवः सर्वभूतेषु गूढः

      सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा ।

कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः

     साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च ॥ ९९॥

वे एकमात्र देवता भगवान् गोपाल ही सम्पूर्ण भूतों में अन्तर्यामीरूप से छिपे हुए हैं। वे सर्वत्र व्यापक और सब प्राणियों के अन्तरात्मा हैं। वे ही सम्पूर्ण कर्मों के अध्यक्ष (फलदाता स्वामी), समस्त भूतों के निवास स्थान, सबके साक्षी, चैतन्यस्वरूप, केवल और निर्गुण हैं ॥ ९९ ॥

रुद्राय नमः । आदित्याय नमः । विनायकाय नमः । सूर्याय नमः ।

विद्यायै नमः । इन्द्राय नमः । अग्नये नमः । यमाय नमः ।

निरृतये नमः । वरुणाय नमः । वायवे नमः । कुबेराय नमः ।

ईशानाय नमः । सर्वेभ्यो देवेभ्यो नमः ॥ १००॥

(भगवान् गोपाल की विभूतिस्वरूप देवता भी वन्दनीय हैं—) रुद्र को नमस्कार है। आदित्य को नमस्कार है । विनायक को नमस्कार है। सूर्य को नमस्कार है । विद्या (सरस्वती)- को नमस्कार है। इन्द्र को नमस्कार है। अग्नि को नमस्कार है। यम को नमस्कार है। निर्ऋति को नमस्कार है। वरुण को नमस्कार है। मरुत्को नमस्कार है। कुबेर को नमस्कार है। महादेवजी को नमस्कार है । ब्रह्मा को नमस्कार है और सम्पूर्ण देवताओं को नमस्कार है ॥१००॥

दत्त्वा स्तुतिं पुण्यतमां ब्रह्मणे स्वस्वरूपिणे ।

कर्तृत्वं सर्वभूतानामन्तर्धानो बभूव सः ॥ १०१ ॥

दुर्वासाजी कहते हैं - इस प्रकार वे भगवान् नारायण अपने ही स्वरूपभूत ब्रह्मा को यह परम पवित्र गोपालोत्तरतापनीय स्तुति प्रदान करके तथा सम्पूर्ण भूतों की सृष्टि का सामर्थ्य देकर वहाँ से अन्तर्धान हो गये ॥ १०१ ॥

ब्रह्मणे ब्रह्मपुत्रेभ्यो नारदात्तु श्रुतं मुने ।

तथा प्रोक्तं तु गान्धर्वि गच्छ त्वं स्वालयान्तिकम् ॥ १०२॥ 

राधिके! मैंने ब्रह्मा से, ब्रह्मपुत्र सनकादि मुनियों से तथा श्रीनारदजी से भी जैसे सुना था, वैसे ही यहाँ वर्णन किया है। अब तुम अपने घर की ओर जाओ ॥ १०० ॥

॥ इति॥

गोपालोत्तरतापिन्युपनिषद्

गोपालोत्तरतापिन्युपनिषद्

॥ शान्तिपाठः॥

अथर्ववेदीय गोपालोत्तरतापनीयोपनिषद् शान्तिपाठ

ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।

स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवासस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः ॥

स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।

स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥

ॐ शान्तिः शान्तिः !! शान्तिः !!!

इस श्लोक का भावार्थ अथर्वशीर्षोपनिषद् में पढ़ें ।

॥ इति अथर्ववेदीय गोपालोत्तरतापनीयोपनिषद् समाप्त ॥

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