गोपालपूर्वतापनीयोपनिषद
गोपालपूर्वतापनीयोपनिषद में ऋषि-मुनियों द्वारा ब्रह्माजी से सर्वश्रेष्ठ देवता के विषय में पूछने पर ब्रह्मा जी कहते हैं कि श्रीकृष्ण ही सर्वश्रेष्ठ देवता हैं। मृत्यु भी गोविन्द से भयभीत रहती है। गोपीजनवल्लभ के तत्त्व को जान लेने से सभी कुछ सम्यक रूप से ज्ञात हो जाता है। श्रीकृष्ण ही समस्त पापों का हरण करने वाले हैं। वे गौ, भूमि और वेदवाणी के ज्ञात-रूप योगीराज, हरिरूप में गोविन्द हैं। भक्तगण विभिन्न रूपों में उनकी उपासना करते हैं-वेदों को जानने वाले सच्चिदानन्द-स्वरूप श्रीकृष्ण का भिन्न-भिन्न प्रकार से भजन-पूजन करते हैं। गोविन्द नाम से प्रख्यात उन श्रीकृष्ण की विविध रीतियों से स्तुति करते हैं। वे गोपीजनवल्लभ श्यामसुन्दर ही हैं। वे ही समस्त लोकों का पालन करते हैं और माया नामक शक्ति का आश्रय लेकर उन्होंने ही इस जगत् को उत्पन्न किया है। श्रीकृष्ण नित्यों में नित्य और चेतनों में परमचेतन हैं। वे सम्पूर्ण मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाले हैं। उनकी पूजा से सनातन-सुख की प्राप्ति होती है। इस प्रकार इस उपनिषद के भाग १ और भाग २ में कहा गया, अब इससे आगे-
गोपालपूर्वतापिन्युपनिषद्
गोपाल पूर्व तापनी
उपनिषद्
गोपालपूर्वतापनीयोपनिषद- श्रीकृष्ण अष्टादशाक्षर मन्त्र
गोपालपूर्वतापनीयोपनिषद्
अष्टादशाक्षर
का अर्थ
ते पप्रच्छुः
। तदुहोवाच ।
ब्रह्मसदनं
चरतो मे ध्यातः स्तुतः
परमेश्वरः
परार्द्धान्ते सोऽबुध्यत ।
गोपवेषो मे
पुरुष- स्तदाविर्बभूव ।
ततः प्रणतो
मयाऽनुकूलेन हृदा मह्यं
सृष्टयेऽष्टादशार्ण-
स्वरूपं
दत्त्वान्तर्हितः ॥ १॥
'यदि ऐसी बात है तो इन भगवान् श्रीकृष्ण के स्वरूपभूत मन्त्र का अर्थ (अभिप्राय और प्रयोजन) क्या है? यह आप अपनी वाणी द्वारा समझाइये।' इस प्रकार उन सनकादि मुनियों ने पूछा। तब सब लोकों
में विख्यात ब्रह्माजी ने उनके उस प्रश्न के उत्तर में इस प्रकार कहा- 'मुनिवरो! सुनो; मुझ ब्रह्मा की जो दो परार्ध की आयु होती है, उसे व्यतीत करता हुआ मैं पूर्वकाल
में भगवान् का निरन्तर ध्यान और स्तवन करता रहा। इस प्रकार जब
एक परार्ध बीत गया, तब भगवान् का ध्यान मेरी ओर आकृष्ट हुआ; फिर वे दया करके गोपवेषधारी श्यामसुन्दर पुरुषोत्तम
के रूप में मेरे सामने प्रकट हुए। तब मैंने भक्तिपूर्वक उनके चरणों
में प्रणाम किया। तदनन्तर उन्होंने दयार्द्र हृदय
से मुझ पर अनुग्रह करके सृष्टि रचना
के लिये अपने स्वरूपभूत अष्टादशाक्षर मन्त्र
का मुझे उपदेश दिया और तत्काल अन्तर्धान हो गये॥ १॥
पुनस्ते
सिसृक्षतो मे प्रादुरभूवन् ।
तेष्वक्षरेषु
विभज्य भविष्यज्जगद्रूपं प्राकाशयम् ।
तदिह
कात्पृथिवी ततो लादग्निर्बिन्दोरिन्दुस्तत्सम्पातारात्तदर्कमिति ।
क्लींकारादजस्रम्
कृष्णादाकाशं स्वाद्वायुमुत्तरात्सुरभिं
विद्याः
प्रादुरका प्रादुरकार्षमिति ।
तदुत्तरात्स्त्रीपुंसादिभेदं
सकलमिदं सकलमिदमिति । ॥ २॥
फिर जब मेरे
हृदय में सृष्टि की इच्छा हुई, तब अष्टादशाक्षर मन्त्र
के उन सभी अक्षरों में भावी जगत्के स्वरूप
का दर्शन कराते हुए वे पुनः मेरे सम्मुख प्रकट हो गये। तब मैंने इस मन्त्र
में जो 'क्' अक्षर है, उससे जल की, 'ल्' अक्षर से पृथ्वी की, 'ई' से अग्नि तत्त्व की, अनुस्वार से चन्द्रमा की तथा इन सबके समुदायरूप 'क्लीं' से सूर्य की रचना की । मन्त्र के द्वितीय पद 'कृष्णाय' से आकाश की और आकाश से वायु की सृष्टि की। उसके बाद
वाले 'गोविन्दाय' पद से कामधेनु गौ तथा वेदादि विद्याओं
को प्रकट किया। उसके पश्चात् जो 'गोपीजनवल्लभाय' पद है, उससे स्त्री-पुरुष आदि की रचना की तथा सबसे अन्त
में जो 'स्वाहा' पद है, उससे इस समस्त जड़-चेतनमय चराचर जगत्को उत्पन्न किया ॥ २ ॥
गोपालपूर्वतापनीयोपनिषद्- गोपाल मन्त्र
गोपाल-मन्त्र जप की महिमा; उससे गोलोक-धाम की प्राप्ति
एतस्यैव यजनेन
चन्द्रध्वजो
गतमोहमात्मानं
वेदयति ।
ॐकारान्तरालिकं
मनुमावर्त्तयेत् ।
सङ्गरहितोभ्यानयेत् ॥ ३॥
इन भगवान्
श्रीकृष्ण के ही पूजन तथा उनके ॐ कार
से सम्पुटित अष्टादशाक्षर मन्त्र
के ही जप से पूर्वकाल में राजर्षि चन्द्रध्वज मोहरहित होकर आत्मज्ञान प्राप्त
करके असङ्ग हो गये ॥ ३ ॥
तद्विष्णोः
परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः ।
दिवीव
चक्षुराततम् ॥४॥
तस्मादेनं
नित्यमावर्तयेन्नित्यमावर्तयेदिति ॥ ५॥
भगवान्
श्रीकृष्ण के उस परमधाम गोलोक को ज्ञानी एवं प्रेमी भक्तजन सदा देखते हैं। आकाश
में सूर्य की भाँति वह परम व्योम
में सब ओर व्याप्त तथा प्रकाशमान है। उस परमधाम
की प्राप्ति पूर्वोक्त अष्टादशाक्षर मन्त्र
के जप से ही होती है; इसलिये इसका नित्य जप करे ॥ ४-५॥
गोपाल पूर्व तापनी
उपनिषद् श्रीकृष्ण का स्वरूप एवं उनका स्तवन
तदाहुरेके
यस्य प्रथमपदाद्भूमिद्धितीयपदाजलं
तृतीयपदात्तेजश्चतुर्थपदाद्वायुश्चरमपदाद्वयोमेति
।
वैष्णवं पञ्च
व्याहृतिमयं मन्त्रं कृष्णावभासकं
कैवल्यस्य
सृत्यै सततमावर्त्तयेत्सततमावर्त्तयेदिति ॥ ६॥
उक्त मन्त्र
के विषयमें कुछ मुनिगण यों कहते हैं-
'जिसके प्रथम पद (
क्लीं) से पृथ्वी, द्वितीय पद (कृष्णाय) - से जल, तृतीय पद (गोविन्दाय) से तेज, चतुर्थ पद (गोपीजनवल्लभाय) से वायु तथा अन्तिम पञ्चम पद (स्वाहा) से आकाश की उत्पत्ति हुई है, वह वैष्णव पञ्चमहाव्याहृतियोंवाला अष्टादशाक्षर मन्त्र श्रीकृष्ण
के स्वरूप को प्रकाशित करनेवाला है। उसका मोक्ष प्राप्ति
के लिये सदा ही जप करते रहना चाहिये'
॥ ६ ॥
तदत्र गाथा:-
इस विषय
में यह गाथा प्रसिद्ध है-
यस्य चाद्यपदाद्भूमिर्द्वितीयात्सलिलोद्भवः
।
तृतीयात्तेज उद्भूतं
चतुर्थाद्गन्धवाहनः ॥ ७ ॥
पञ्चमादम्बरोत्पत्तिस्तमेवैकं
समभ्यसेत् ।
चन्द्रध्वजोऽगमद्विष्णोः
परमं पदमव्ययम् ॥ ८ ॥
जिस मन्त्र
के प्रथम पद से पृथ्वी प्रकट हुई, द्वितीय पद से जल का प्रादुर्भाव हुआ, तृतीय पद से तेजस्तत्त्व का प्राकट्य हुआ, चतुर्थ पद से अग्रितत्त्व आविर्भूत हुआ तथा पञ्चम पद
से आकाश की उत्पत्ति हुई, एकमात्र उसी अष्टादशाक्षर मन्त्र
का निरन्तर अभ्यास (जप) करे। उसी के जप से राजर्षि चन्द्रध्वज भगवान् श्रीकृष्ण
के अविनाशी परमधाम गोलोक
को प्राप्त हो गये ॥ ७-८ ॥
ततो विशुद्धं
विमलं विशोकमशेषलोभादिनिरस्तसङ्गम् ।
यत्तत्पदं
पञ्चपदं तदेव स वासुदेवो न यतोऽन्यदस्ति
॥ ९॥
तमेकं
गोविन्दं सच्चिदानन्दविग्रहं
पञ्चपदं
वृन्दावनसुरभूरुहतलासीनं
सततं
समरुद्गणोऽहं परमया स्तुत्या तोषयामि
॥१०॥
अतः वह जो परम
विशुद्ध,
विमल, शोकरहित, लोभ आदि से शून्य, सब प्रकार की आसक्ति एवं वासना से वर्जित गोलोकधाम है, वह उक्त पाँच पदोंवाले मन्त्र
से अभिन्न है तथा वह मन्त्र साक्षात् वासुदेवस्वरूप ही है,
जिस वासुदेव से भिन्न दूसरा कुछ भी नहीं है। वे एकमात्र भगवान् गोविन्द
पञ्च पद मन्त्रस्वरूप हैं। उनका श्रीविग्रह सच्चिदानन्दमय है। वे वृन्दावन
में कल्पवृक्ष के नीचे रत्नमय सिंहासन
पर सदा विराजमान रहते हैं। मैं मरुद्गणों
के साथ रहकर (इन) उत्तम स्तुतियों द्वारा उन भगवान् को संतुष्ट करता हूँ ॥ ९-१० ॥
अब इससे आगे
गोपाल स्तुति का वर्णन है। इसे पढ़ने के लिए देखें-
अब इससे आगे
गोपालपूर्वतापनीयोपनिषद
अथैवं स्तुतिभिराराधयामि
।
तथा यूयं
पञ्चपदं जपन्तः ।
श्रीकृष्णं
ध्यायन्तः संसृतिं
तरिष्यथेति
होवाच हैरण्यः ॥२३॥
'मुनिवरो! जिस प्रकार मैं इन प्रसिद्ध स्तुतियों द्वारा भगवान्की आराधना करता हूँ,
उसी प्रकार तुमलोग भी पाँच पदों
वाले पूर्वोक्त मन्त्र
का जप और श्रीकृष्ण का ध्यान करते हुए उनकी आराधना
में लगे रहो। इसके द्वारा संसार समुद्र
से तर जाओगे।' इस प्रकार ब्रह्माजी ने उन सनकादि मुनियों
को उपदेश दिया ॥ २३ ॥
अमुं
पञ्चपदमावर्त्तयेद्यः स
यात्यनायासतः
केवलं तत् ।॥ २४॥
अनेजदेको मनसो
जवीयो
नैनद्देवा आप्नुवन्पूर्वमर्षदिति
॥२५॥
तस्मात्कृष्ण
एव परमो देवस्तं
ध्यायेत् तं
रसयेत् तं भजेत्
तं भजेदित्यों
तत्सदित्युपनिषत् ॥२६॥
जो इस
पूर्वोक्त पञ्चपद-मन्त्र का सदा जप करता है, वह अनायास ही भगवान्
के उस अद्वितीय परमपद
को प्राप्त हो जाता है। भगवान्
का वह परमपद गतिशील नहीं-नित्य स्थिर है; फिर भी वह मन से भी अधिक वेगवाला है। भगवत्स्वरूप होने
के कारण ही वह एक- अद्वितीय है। देवता अर्थात् वाणी आदि इन्द्रियाँ वहाँ
तक कभी नहीं पहुँच सकी हैं। इन्द्रियों
की जहाँ-जहाँ गति है, वहाँ-वहाँ वह पहले से ही पहुँचा हुआ है। तात्पर्य यह कि भगवान्
का परमपद नित्य, स्थिर, एक और सर्वव्यापी है। इसलिये भगवान् श्रीकृष्ण ही परमदेव
हैं। उनका ध्यान करे, मन्त्र जप द्वारा उनके नामामृत का रसास्वादन करे तथा उन्हीं
का सदा भजन करे, उन्हीं का सदा भजन करे ॥ २४-२६ ॥
ॐ तत्सत् ॥
गोपालपूर्वतापनीयोपनिषद्
॥ गोपालपूर्वतापिन्युपनिषद् शान्तिपाठः॥
शान्तिपाठ
ॐ भद्रं
कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाঌ सस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः ॥
स्वस्ति न
इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।
स्वस्ति
नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
ॐ शान्तिः !
शान्तिः !!
शान्तिः !!!
इस श्लोक का भावार्थ अथर्वशीर्षोपनिषद् में पढ़ें ।
॥ इति अथर्ववेदीय गोपालपूर्वतापिन्युपनिषत्समाप्ता॥
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