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श्रीकृष्ण उपासना विधि
अथर्ववेदीय गोपालपूर्वतापनीयोपनिषद्
के प्रारम्भ में मुनिगण श्रीकृष्ण की स्तुति करते हैं और उन्हें परमदेव के रूप में
स्वीकार करते हैं कृष्ण के नाम का सन्धि-विच्छेद करते हुए 'कृष्' शब्द को सत्तावाचक माना है और 'न' अक्षर को आनन्दबोधक । इन दोनों के मिलन से
सच्चिदानन्द परमेश्वर 'श्रीकृष्ण' के
नाम की सार्थकता प्रकट की गयी है। अब गोपाल पूर्व तापनी उपनिषद् आगे भाग में श्रीकृष्णोपासना
की विधि तथा यन्त्र-निर्माण का प्रकार कहा गया है।
श्रीकृष्णोपासना विधि
Shri Krishna upasana vidhi
श्रीकृष्णोपासनाविधि: गोपालपूर्वतापनीयोपनिषद्
श्रीकृष्ण उपासना विधि
गोपालपूर्वतापनीयोपनिषद्
तदेषः श्लोकः ।
क्लीमित्येतदादावादाय कृष्णाय
गोविन्दाय गोपीजनवल्लभायेति
बृहन्मानव्या सकृदुचरेद्यो
सौगतिस्तस्यास्ति
मङ्क्षु नान्यागतिः स्यादिति ॥१॥
इस विषय में यह श्लोक (मन्त्र) है-
"जो उपासक 'क्लीं' इस कामबीज को आदि में रखकर 'कृष्णाय' इस पद का, 'गोविन्दाय' इस पद का
तथा 'गोपीजनवल्लभाय' इस पद का 'स्वाहा' सहित एक ही साथ उच्चारण करेगा, उसे शीघ्र ही श्रीकृष्ण-मिलनरूपा सद्गति प्राप्त होगी। उसके लिये दूसरी
गति नहीं है।"॥ १ ॥
भक्तिरहस्यमजनम्,
तदिहामुत्रोपाधिनैराश्येनैवामुष्यात्मनः
कल्पनम् ।
एतदेव च नैष्कर्म्यम् ॥२॥
इन श्रीकृष्ण भगवान् की भक्ति ही
भजन है। उस भजन का स्वरूप है - इस लोक तथा परलोक के समस्त भोगों की कामना का
सर्वथा परित्याग करके इन श्रीकृष्ण में ही इन्द्रियों सहित मन को लगा देना। यही
नैष्कर्म्य (वास्तविक संन्यास) भी है। ॥ २ ॥
कृष्णं तं विप्रा बहुधा यजन्ति
गोविन्दं सन्तं बहुधाऽऽराधयन्ति ।
गोपीजनवल्लभो भुवनानि दधे
स्वाहाश्रितो जगदैजत्सुरेताः॥३ ॥
वायुर्यथैको भुवनं प्रविष्टो
जन्येजन्ये पञ्चरूपो बभूव ।
कृष्णस्तथैकोऽपि जगद्धितार्थं
शब्देनासौ पञ्चपदो विभातीति ॥४ ॥
उन सच्चिदानन्दमय भगवान् श्रीकृष्ण का
वेदज्ञ ब्राह्मण नाना प्रकार से यजन करते हैं, 'गोविन्द'
नाम से प्रसिद्ध उन भगवान् की अनेक प्रकार से आराधना करते हैं। वे 'गोपीजनवल्लभ' (जीवमात्र के अकारण सुहृद् एवं प्रियतम
तथा गोप- सुन्दरियों के प्राणाधार) श्यामसुन्दर ही सम्पूर्ण लोकों का पालन करते
हैं और संकल्परूप उत्तम वीर्यवाले उन भगवान्ने ही 'स्वाहा'
(अपनी मायाशक्ति) - का आश्रय लेकर जगत्को उत्पन्न किया है। जैसे
सम्पूर्ण विश्व में फैला हुआ एक ही वायुतत्त्व प्रत्येक शरीर के भीतर प्राण आदि
पाँच रूपों से अभिव्यक्त हुआ है, उसी प्रकार भगवान्
श्रीकृष्ण एक होते हुए भी इस उपर्युक्त मन्त्र में भिन्न-भिन्न नाम से पाँच
नामोंवाले प्रतीत होते हैं- वास्तव में 'कृष्ण' आदि पाँच नामों द्वारा एक ही भगवान् का प्रतिपादन होता है ॥ ३-४ ॥
ते होचुः ।
उपासनमेतस्य परमात्मनो गोविन्दस्या-
खिलाधारिणो ब्रूहीति
॥५ ॥
तत्पश्चात् उन मुनियों ने कहा - 'सम्पूर्ण जगत्के आश्रयभूत परमात्मा गोविन्द की उपासना कैसे होती है?
इसका उपदेश दीजिये' ॥ ५ ॥
तानुवाच ।
यत्तस्य पीठं हैरण्या-
ष्टपलाशमम्बुजं
तदन्तरानलाखयुगं तदन्तरालादर्णाखिल
बीजं कृष्णाय नम इति बीजाढ्यं
स ब्राह्मणमादायानङ्ग-गायत्री
यथावदालिख्य
भूमण्डलं मूलवेष्टितं कृत्वा
वासुदेवं
रुक्मिण्यादिस्वशक्तिं
नन्दादिवसुदेवादि-
पार्थादिनिध्यादिवीतं यजेत्सन्ध्यासु
प्रपत्तिभिरुपचारैः ।
तेनास्याखिलं भवत्यखिलं भवति ॥६ ॥
तब ब्रह्माजी ने उन प्रसिद्ध
मुनियों से भगवान् का जो पीठ है, उसका वर्णन
करते हुए कहा- पीठ पर सुवर्णमय अष्टदल कमल बनाये। उसके मध्यभाग (कर्णिका) - में दो
त्रिकोण लिखे, जो एक-दूसरे से सम्पुटित हों। इस प्रकार छ:
कोण होंगे। इन कोणों के मध्यभाग में स्थित जो कर्णिका है, उसमें
आदि- अक्षररूप कामबीज का, जो सम्पूर्ण कार्यों की सिद्धि का अमोघ
साधन है, उल्लेख करे। फिर प्रत्येक कोण में 'क्लीं' बीजसहित 'कृष्णाय नमः'
मन्त्र के एक-एक अक्षर का अङ्कन करे। तत्पश्चात् ब्रह्म-मन्त्र
अर्थात् अष्टादशाक्षर गोपाल-विद्या एवं काम-गायत्री का यथावत् उल्लेख करके आठ
वज्रों से घिरे हुए भूमण्डल का उल्लेख करे। तत्पश्चात् उक्त मन्त्र को अङ्ग,
वासुदेवादि, रुक्मिणी आदि स्वशक्ति एवं इन्द्र
आदि, वसुदेव आदि, पार्थ आदि तथा निधि
आदि आठ आवरणों से आवेष्टित करके उसकी पूजा करे। *
उक्त आवरणों से परिवेष्टित श्रीकृष्णचन्द्र का तीनों संध्याओं के समय ध्यान करके
षोडश आदि उपचारों द्वारा सदा उनका पूजन करना चाहिये। इस प्रकार पूजा करने से उपासक
को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष- सब कुछ
प्राप्त हो जाता है, सब कुछ प्राप्त हो जाता है ॥ ६ ॥
* श्रीकृष्णोपासना विधि- धारण के लिये श्रीकृष्णयन्त्र
* यन्त्र
की स्पष्ट विधि इस प्रकार समझनी चाहिये। अपने घर पर गोबर और जल से भूमि को लीप दे।
फिर उस शुद्ध भूमि में धोया हुआ पीठ स्थापित करके उसके ऊपर सुवर्णमय अष्टदल कमल की
स्थापना करे अथवा घिसे हुए चन्दन में रोली या केसर मिलाकर उसी से अष्टदल कमल का
रेखाचित्र बना ले। तदनन्तर उस अष्टदल कमल के मध्यभाग (बीच की कर्णिका) में परस्पर
सम्पुटित दो त्रिकोण खींच ले। इस प्रकार छः कोण बन जायेंगे। इन कोणों के मध्यभाग में
आदि अक्षररूप कामबीज (क्लीं) का, जो सम्पूर्ण
कार्यों की सिद्धि का बीज है, उल्लेख करे। साथ ही साध्य
व्यक्ति का तथा उसके कार्य का भी उल्लेख करे (यथा-'अमुकस्य
अमुकं कार्य सिद्ध्यतु')। ऐसा उल्लेख तभी आवश्यक है, जब धारण करने के लिये यन्त्र बनाया गया हो। पूजा के लिये निर्मित यन्त्र में
साध्य और कार्य का नाम आवश्यक नहीं है। इसके बाद जो छहों कोण हैं, उनमें 'क्लीं कृष्णाय नमः ' इस
मन्त्र के एक-एक अक्षर का उल्लेख करे । तत्पश्चात् कोणों के मध्यभाग अर्थात्
कर्णिका में लिखे हुए पूर्वोक्त 'क्लीं' बीज के चारों ओर अष्टादशाक्षर मन्त्र को इस प्रकार लिखे, जिससे वह उसके द्वारा आवेष्टित हो जाय। तदनन्तर छहों कोणों में से जो
पूर्व, नैर्ऋत्य और वायव्यवाले कोण हैं, उनमें श्रीबीज (श्रीं) का उल्लेख करे तथा पश्चिम, अग्रिकोण
और ईशानवाले कोणों में माया-बीज (ह्रीं) को अङ्कित करे। फिर अष्टदलों के केसरों में
तीन-तीन अक्षर के क्रम से चौबीस अक्षरों की काम-गायत्री का उल्लेख करे। कामगायत्री
इस प्रकार है- 'कामदेवाय विद्महे, पुष्पबाणाय
धीमहि, तन्नोऽनङ्गः प्रचोदयात्।' इसके
बाद प्रत्येक दल में छः-छः अक्षर के क्रम से अड़तालीस अक्षरवाले काम मालामन्त्र का
लेखन करे। वह मन्त्र इस प्रकार है- 'नमः कामदेवाय
सर्वजनप्रियाय सर्वजनसंमोहनाय ज्वल ज्वल प्रज्वल सर्वजनस्य हृदयं मम वशं कुरु कुरु
स्वाहा।' इसके बाद अष्टदलों के बाहर गोल रेखा खींचकर उसके
ऊपर अकारादि इक्यावन अक्षरों की पूरी वर्णमाला को इस प्रकार लिखे, जिससे सम्पूर्ण अष्टदल कमल घिर जाय। फिर इस समस्त चक्र के बाह्यभाग में
चौकोर भूमण्डल बनाये। उसके पूर्वादि दिशाओं में तो श्री बीज (श्रीं)- का उल्लेख
करे और कोणों में मायाबीज (ह्रीं) लिखे। तत्पश्चात् इस भूमण्डल की आठ दिशाओं में
आठ वज्र अङ्कित करे। वज्र, शक्ति, दण्ड,
खड्ग, पाश, ध्वज,
गदा और शूल - यह वज्रादि- अष्टक ही आठ वज्र कहे गये हैं। इस प्रकार
जो यन्त्र बनेगा, वह धारण करनेयोग्य होगा। इसी में पूर्वकथित
साध्य और कार्य का उल्लेख आवश्यक है। इसके धारण की विधि यों है- यन्त्र धारण के
समय पहले देव-पूजन करके मन्त्रोच्चारणपूर्वक एक सहस्र घी की आहुतियाँ अग्रि में
डाले। प्रत्येक आहुति का हुतशेष घृत यन्त्र पर ही डाले। आहुतियाँ समाप्त होने पर
यन्त्र का मार्जन करे। फिर दस सहस्र बार अष्टादशाक्षर मन्त्र का जप करके इस उत्तम
यन्त्र को धारण करना चाहिये। इसे विधिपूर्वक धारण करनेवाले पुरुष को त्रिभुवन का
ऐश्वर्य मिल सकता है तथा वह देवताओं के लिये भी आदरणीय हो जाता है।
* श्रीकृष्णोपासना
विधि- पूजन के लिये श्रीकृष्णयन्त्र
जब पूजा के लिये यन्त्र-निर्माण
किया जाय,
तब भी यन्त्र का स्वरूप तो वैसा ही रहेगा; केवल
साध्य और कार्य का नाम नहीं रहेगा। इसके सिवा यन्त्र- पूजा के पहले पीठ की विभिन्न
दिशाओं में कुछ देवताओं का पूजन कर लेना आवश्यक होगा तथा पीठस्थ यन्त्र के चारों ओर
आवरण- देवताओं की भी स्थापना और पूजा आवश्यक होगी। यहाँ पहले पीठ के सब ओर पूजित
होनेवाले देवताओं का क्रम बताया जाता है-
पहले पीठ के उत्तरभाग में वायव्यकोण
से लेकर ईशानकोणतक चतुर्विध गुरुओं का पूजन करे, यथा- 'ॐ गुरुभ्यो नमः, परमगुरुभ्यो
नमः परात्परगुरुभ्यो नमः, परमेष्ठिगुरुभ्यो नमः ।' फिर पीठ के दक्षिण भाग में गणेश का आवाहन-पूजन करे। तत्पश्चात् यन्त्रगत
अष्टदल कमल की कर्णिका के निम्नभाग में आधारशक्ति, प्रकृति,
कमठ, शेष, पृथ्वी,
क्षीरसागर, श्वेतद्वीप, रत्नमण्डप
तथा कल्पवृक्ष - इन नौ की पूजा करे। यह पूजा भावना द्वारा कर्णिका में ही कर ली
जायगी। फिर पीठ (चौकी) के पायों में धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य की पूजा करे। क्रम इस प्रकार होगा- अग्निकोण में धर्म,
नैर्ऋत्यकोण में ज्ञान, वायव्यकोण में वैराग्य
तथा ईशानकोण में ऐश्वर्य की पूजा होगी। इसी प्रकार पीठ के पूर्वादि अवयवों में भी
क्रमशः धर्म आदि की पूजा होगी। इसके बाद कर्णिका में ही क्रमशः 'अनन्ताय नमः', 'पद्माय नमः', 'अं
द्वादशकलाव्याप्तसूर्यमण्डलात्मने नमः, ॐ
षोडशकलाव्याप्तचन्द्रमण्डलात्मने नमः', 'मं
दशकलाव्याप्तवह्निमण्डलात्मने नमः', 'सं सत्त्वाय नमः',
'रं रजसे नमः', 'तं तमसे नमः', 'आं आत्मने नमः', 'अं अन्तरात्मने नमः', 'पं परमात्मने नमः', 'ह्रीं ज्ञानात्मने नमः'-
इन मन्त्रों द्वारा पूजा करे। फिर अष्टदल कमल के प्रत्येक दल में
क्रमशः 'विमलायै नमः', 'उत्कर्षिण्यै
नमः', 'ज्ञानायै नमः', 'क्रियायै नमः',
'योगायै नमः', 'प्रह्वयै नमः', 'सत्यायै नमः', 'ईशानायै नमः ' - इस मन्त्रों से विमला आदि आठ शक्तियों की पूजा करके पुनः कर्णिका में 'अनुग्रहायै नमः ' इस मन्त्र से नवीं शक्ति की पूजा
करे। तत्पश्चात् 'ॐ नमो विष्णवे सर्वभूतात्मने वासुदेवाय
सर्वात्मसंयोगाय पद्मपीठात्मने नमः' इस पीठमन्त्र का अष्टदल
कमल के ऊपर विन्यास करके पीठ की पूजा करे। फिर पीठ पर भगवान् श्रीकृष्ण का आवाहन
और ध्यान करके षोडशोपचार से पूजन करना चाहिये। भगवान् का ध्यान इस प्रकार करे-
स्मरेद् वृन्दावने रम्ये मोदयन्तं
मनोरमम् ।
गोविन्दं पुण्डरीकाक्षं गोपकन्याः
सहस्रशः ॥
आत्मनो
वदनाम्भोजप्रेरिताक्षिमधुव्रताः ।
पीडिताः कामबाणेन
चिरमाश्लेषणोत्सुकाः ॥
मुक्ताहारलसत्पीनतुङ्गस्तनभरान्विताः
।
स्रस्तधम्मिल्लवसना मदस्खलितभूषणाः
॥
दन्तपङ्गिप्रभोद्भासिस्पन्दमानाधराञ्चिताः
।
विलोभयन्त्यो
विविधैर्विभ्रमैर्भाविगर्भितैः ॥
फुल्लेन्दीवरकान्तिमिन्दुवदनं
बर्हावतंसप्रियं
श्रीवत्साङ्कमुदारकौस्तुभधरं
पीताम्बरं सुन्दरम् ।
गोपीनां नयनोत्पलार्चिततनुं
गोगोपसंघावृतं
गोविन्दं कलवेणुवादनपरं
दिव्याङ्गभूषं भजे ॥
श्रीकृष्णोपासना विधि- आवरण
पूजन
तत्पश्चात् आवरण-पूजा करनी चाहिये।
यह आवरण पूजा अष्टदल कमल में ही करनी चाहिये। जो इस प्रकार है-
प्रथम आवरण
-छ: कोणों में से आग्नेयकोण में 'हृदयाय नमः',
नैर्ऋत्यकोण में 'शिरसे स्वाहा', वायव्यकोण में 'शिखायै वषट्', ईशानकोण
में 'कवचाय हुम्', अग्रभाग में 'नेत्रत्रयाय वौषट्' तथा पूर्व आदि चारों दिशाओं में 'अस्त्राय फट्' इस प्रकार मन्त्रोच्चारणपूर्वक पूजन
करे।
द्वितीय आवरण-
पूर्वदिशा में 'वासुदेवाय नमः', दक्षिण में 'सङ्कर्षणाय नमः', पश्चिम
में 'प्रद्युम्नाय नमः', उत्तर में 'अनिरुद्धाय नमः '- इन मन्त्रों से पूजा करके
अग्निकोण में 'शक्त्यै नमः', नैर्ऋत्यकोण
में 'श्रियै नमः', वायव्यकोण में 'सरस्वत्यै नमः ' तथा ईशानकोण में 'रत्यै नमः ' – इन मन्त्रों द्वारा शक्ति आदि का पूजन
करे।
तृतीय आवरण-
फिर कमल के आठ दलों में पूर्वादि दिशाओं के क्रम से रुक्मिणी आदि आठ पटरानियों की
स्थापना और पूजा करे—यथा रुक्मिण्यै नमः,
सत्यभामायै नमः, जाम्बवत्यै नमः, नाग्रजित्यै नमः, मित्रविन्दायै नमः, कालिन्यै नमः, लक्ष्मणायै नमः, सुशीलायै नमः ।
चतुर्थ आवरण—यहाँ पूर्व में पीतवर्ण वसुदेव, अग्निकोण में
श्यामवर्णा देवकी, दक्षिण में कर्पूरगौरवर्ण नन्द, नैर्ऋत्य में कुङ्कुम-दृश गौरवर्णा यशोदा, पश्चिम में
शङ्ख, कुन्द एवं चन्द्र के समान उज्ज्वल वर्णवाले बलदेव,
वायव्यकोण में मयूरपिच्छतुल्य श्यामवर्णा सुभद्रा, उत्तर में गोपगण तथा ईशानकोण में गोपाङ्गनाओं की क्रमशः पूजा करनी चाहिये।
इनके नाम को चतुर्थ्यन्त करके 'नमः' लगा
देने से पूजा का मन्त्र हो जाता है।
पञ्चम आवरण-
कमल के मध्यभाग में क्रमशः अर्जुन, निशठ,
उद्भव, दारुक, विष्वक्सेन,
सात्यकि, गरुड, नारद तथा
पर्वत की पूजा नाम मन्त्रों से ही करे।
षष्ठ आवरण–
पूर्व में ‘इन्द्रनिधये नमः', अग्रिकोण में 'नीलनिधये नमः', दक्षिण
में 'स्कन्दाय नमः', नैर्ऋत्यकोण में 'मकराय नमः', पश्चिम में 'आनन्दाय
नमः', वायुकोण में 'कच्छपाय नमः',
उत्तर में 'शङ्खाय नमः' तथा
ईशानकोण में 'पद्मनिधये नमः - इस प्रकार पूजन करे।
सप्तम आवरण-
पूर्व में पीतवर्ण इन्द्र, अग्निकोण में
रक्तवर्ण अग्नि, दक्षिण में नीलोत्पलवर्ण यम, नैर्ऋत्यकोण में कृष्णवर्ण राक्षसाधिपति निर्ऋति, पश्चिम
में शुक्लवर्ण वरुण, वायव्य में धूम्रवर्ण वायु, उत्तर में नीलवर्ण कुबेर तथा ईशानकोण में श्वेतवर्ण ईशान का नाम मन्त्र द्वारा
ही पूजन करे।
अष्टम आवरण–
पूर्व और ईशान के मध्य में गोरोचनवर्ण ब्रह्मा, नैर्ऋत्यकोण और पश्चिम के मध्य में शुक्लवर्ण शेषनाग, पूर्व दल में पीतवर्ण वज्र, अग्निकोणवाले दल में
शुक्लवर्णा शक्ति, दक्षिण दल में नीलवर्ण दण्ड, नैर्ऋत्य दल में श्वेतवर्ण खड्ग, पश्चिम दल में
विद्युद्वर्ण पाश, वायव्य दल में रक्तवर्ण ध्वज, उत्तर दल में नीलवर्णा गदा तथा ईशान दल में शुक्लवर्ण त्रिशूल की नाम
मन्त्र द्वारा ही पूजा करे।
गोपालपूर्वतापनीयोपनिषद्
श्रीकृष्णोपासना विधि
तदिह श्लोका भवन्ति–
इस विषय में ये श्लोक हैं-
एको वशी सर्वगः कृष्ण ईड्य
एकोऽपि सन् बहुधा यो विभाति ।
तं पीठस्थं येऽनुयजन्ति धीरा-
स्तेषां सुखं शाश्वतं नेतरेषाम् ॥ ७
॥
'एकमात्र सबको वश में रखनेवाले
सर्वव्यापी भगवान् श्रीकृष्ण सर्वथा स्तवन करनेयोग्य हैं। वे एक होते हुए भी अनेक
रूपों में प्रकाशित हो रहे हैं। जो धीर भक्तजन पूर्वोक्त पीठ पर विराजमान उन
भगवान् का प्रतिदिन पूजन करते हैं, उन्हीं को शाश्वत सुख
प्राप्त होता है, दूसरों को नहीं ॥ ७ ॥
नित्यो नित्यानां चेतनश्चेतनाना-
मेको बहूनां यो विदधाति कामान् ।
तं पीठगं येऽनुयजन्ति धीरा-
स्तेषां सिद्धिः शाश्वती नेतरेषाम्
॥ ८ ॥
जो नित्यों के भी नित्य हैं,
चेतनों के भी परम चेतन हैं और एक ही सबकी कामनाएँ पूर्ण करते हैं,
उन भगवान् श्रीकृष्ण को पूर्वोक्त पीठ में स्थापित करके जो धीर
पुरुष निरन्तर उनका पूजन करते हैं, उन्हीं को सनातन सिद्धि
प्राप्त होती है, दूसरों को नहीं॥ ८ ॥
एतद् विष्णोः परमं पदं ये
नित्योद्युक्ताः संयजन्ते न कामात्
।
तेषामसौ गोपरूपः प्रयत्नात्
प्रकाशयेदात्मपदं तदैव ॥ ९ ॥
जो नित्य उत्साहपूर्वक उद्यत रहकर श्रीविष्णु
के परमपदस्वरूप इस मन्त्र की विधिपूर्वक पूजा करते हैं तथा भगवान्के सिवा दूसरी
किसी वस्तु की कामना नहीं करते, उनके लिये वे
गोपालरूपधारी भगवान् श्यामसुन्दर अपना स्वरूप तथा अपना परम धाम तत्काल ही
प्रयत्नपूर्वक प्रकाशित कर देते हैं॥ ९ ॥
यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्वं
यो विद्यास्तस्मै गापयति स्म कृष्णः
।
तं ह देवमात्मबुद्धिप्रकाशं
मुमुक्षुर्वै शरणमनुव्रजेत् ॥ १० ॥
जो श्रीकृष्ण सृष्टि के प्रारम्भ में
ब्रह्माजी को उत्पन्न करते हैं तथा निश्चय ही जो उनको वेदविद्या का उपदेश करके
उनसे उसका गान करवाते हैं, समस्त जीवों की
बुद्धि को प्रकाश (ज्ञान) देनेवाले उन भगवान् की शरण में मुमुक्ष पुरुष अवश्य जाय
॥ १० ॥
ॐकारेणान्तरितं ये जपन्ति
गोविन्दस्य पञ्चपदं मनुं तम् ।
तेषामसौ दर्शयेदात्मरूपं
तस्मान्मुमुक्षुरभ्यसेन्नित्यशान्त्यै
॥ ११ ॥
जो साधक भगवान् गोविन्द के उस पाँच
पदवाले सुप्रसिद्ध अष्टादशाक्षर मन्त्र को ॐकार से सम्पुटित करके जपते हैं,
उन्हीं को वे भगवान् शीघ्र अपने स्वरूप का साक्षात्कार कराते हैं;
अतः संसार-बन्धन से छूटने की इच्छा रखनेवाला मनुष्य नित्य-शान्ति की
प्राप्ति के लिये अवश्य ही उक्त मन्त्र का जप करे' ॥ ११ ॥
एतस्मा एव पञ्चपदादभूवन्गोविन्दस्य
मनवो मानवानाम् ।
दशार्णाद्यास्तेऽपि
संक्रन्दनाद्यैरभ्यस्यन्ते भूतिकामैर्यथावत् ॥ १२ ॥
इस पाँच पदवाले मन्त्र से ही और भी
दशाक्षर आदि मन्त्र उत्पन्न हुए हैं, जो
मनुष्यों के लिये कल्याणकारी हैं। उन दशाक्षर आदि मन्त्रों को भी ऐश्वर्य की
इच्छावाले इन्द्र आदि देवता न्यास, ध्यान आदि यथावत् विधि के
साथ जपते रहते हैं ॥ १२ ॥
शेष आगे जारी..... गोपालपूर्वतापनीयोपनिषद् भाग 3
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