गीता सार
अग्निपुराण अध्याय ३८१ में गीता सार
का वर्णन है।
गीता सार
Gita saar
अग्निपुराण अध्याय ३८१ गीतासार
अग्निपुराणम् अध्यायः ३८१–
गीतासारः
गीता-सार
अथ एकोशीत्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः गीतासारः
अग्निरुवाच
गीतासारं प्रवक्ष्यामि
सर्वगीतोत्तमोत्तमं ।
कृष्णोऽर्जुनाय यमाह पुरा वै
भुक्तिमुक्तिदं ।। १ ।।
अब मैं गीता का सार बतलाऊँगा,
जो समस्त गीता का उत्तम से उत्तम अंश है। पूर्वकाल में भगवान्
श्रीकृष्ण ने अर्जुन को उसका उपदेश दिया था वह भोग तथा मोक्ष दोनों को देनेवाला है
॥ १ ॥
श्रीभगवानुवाच
गतासुरगतासुर्वा न शोच्यो देहवानजः
।
आत्माऽजरोऽमरोऽभेद्यस्तस्माच्छोकादिकं
त्यजेत् ।। २ ।।
श्रीभगवान्ने कहा- अर्जुन! जिसका
प्राण चला गया है अथवा जिसका प्राण अभी नहीं गया है, ऐसे मरे हुए अथवा जीवित किसी भी देहधारी के लिये शोक करना उचित नहीं है;
क्योंकि आत्मा अजन्मा, अजर, अमर तथा अभेद्य है, इसलिये शोक आदि को छोड़ देना
चाहिये ।
ध्यायतो विषयान् पुंसः
सङ्गस्तेषूपजायते ।
सङ्गात् कामस्ततः क्रोधः
क्रोधात्सम्मोह एव च ।। ३ ।।
विषयों का चिन्तन करनेवाले पुरुष की
उनमें आसक्ति हो जाती है; आसक्ति से काम,
काम से क्रोध और क्रोध से अत्यन्त मोह (विवेक का अभाव) होता है।
सम्मोहात् स्मृतिविभ्रंशो बुद्धिनाशात्
प्रणश्यति ।
दुःसङ्गहानिः सत्सङ्गान्मोक्षकामी च
कामनुत् ।। ४ ।।
मोह से स्मरणशक्ति का ह्रास और उससे
बुद्धि का नाश हो जाता है। बुद्धि के नाश से उसका सर्वनाश हो जाता है। सत्पुरुषों का
सङ्ग करने से बुरे सङ्ग छूट जाते हैं - (आसक्तियाँ दूर हो जाती हैं)। फिर मनुष्य
अन्य सब कामनाओं का त्याग करके केवल मोक्ष की कामना रखता है।
कामत्यागादात्मनिष्ठः
स्थिरप्रज्ञस्तदोच्यते ।
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति
संयमी ।। ५ ।।
कामनाओं के त्याग से मनुष्य की
आत्मा अर्थात् अपने स्वरूप में स्थिति होती है, उस
समय वह 'स्थिरप्रज्ञ' कहलाता है।
सम्पूर्ण प्राणियों के लिये जो रात्रि है, अर्थात् समस्त जीव
जिसकी ओर से बेखबर होकर सो रहे हैं, उस परमात्मा के स्वरूप में
भगवत्प्राप्त संयमी (योगी) पुरुष जागता रहता है।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा
पश्यतो मुनेः ।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं
न विद्यते ।। ६ ।।
तथा जिस क्षणभङ्गुर सांसारिक सुख में
सब भूत- प्राणी जागते हैं, अर्थात् जो विषय
भोग उनके सामने दिन के समान प्रकट हैं, वह ज्ञानी मुनि के
लिये रात्रि के ही समान है। जो अपने-आप में ही संतुष्ट है, उसके
लिये कोई कर्तव्य शेष नहीं है।
नैव तस्य कृते नार्थो नाकृते नेह
कश्चन ।
तत्त्ववित्तु महावाहो
गुणकर्मविभागयोः ।। ७ ।।
इस संसार में उस आत्माराम पुरुष को
न तो कुछ करने से प्रयोजन है और न न करने से ही । महाबाहो ! जो गुण विभाग और कर्म
विभाग के तत्त्व को जानता है।
गुणा गुणेषु वर्त्तन्ते इति मत्वा न
सज्जते ।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं
सन्तरिष्यति ।। ८ ।।
वह यह समझकर कि सम्पूर्ण गुण गुणों में
ही बरत रहे हैं, कहीं आसक्त नहीं होता। अर्जुन!
तुम ज्ञानरूपी नौका का सहारा लेने से निश्चय ही सम्पूर्ण पापों को तर जाओगे।
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्
कुरुतेऽर्जुन ।
ब्रह्मण्याधाय कर्माणि
सङ्गन्त्यक्त्वा करोति यः ।। ९ ।।
ज्ञानरूपी अग्नि सब कर्मों को जलाकर
भस्म कर डालती है। जो सब कर्मों को परमात्मा में अर्पण करके आसक्ति छोड़कर कर्म
करता है।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा
।
सर्वभूतेषु चात्मानां सर्वभूतानि
चात्मनि ।। ११ ।।
वह पाप से लिप्त नहीं होता-ठीक उसी
तरह जैसे कमल का पत्ता पानी से लिप्त नहीं होता। जिसका अन्तःकरण योगयुक्त है-
परमानन्दमय परमात्मा में स्थित है तथा जो सर्वत्र समान दृष्टि रखनेवाला है।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र
समदर्शनः ।
शुचीनां श्रीमतां गेहे
योगभ्रष्टोऽभिजायते ।। ११ ।।
वह योगी आत्मा को सम्पूर्ण भूतों में
तथा सम्पूर्ण भूतों को आत्मा में देखता है। योगभ्रष्ट पुरुष शुद्ध आचार-विचारवाले
श्रीमानों (धनवानों) के घर में जन्म लेता है।
न हि कल्याणकृतं कश्चिद्दुर्गतिं
तात गच्छति ।
देवी ह्येषा गुणमयी मम माया
दुरत्यया ।। १२ ।।
तात ! कल्याणमय शुभ कर्मों का
अनुष्ठान करनेवाला पुरुष कभी दुर्गति को नहीं प्राप्त होता । "मेरी यह त्रिगुणमयी माया अलौकिक है; इसका पार पाना
बहुत कठिन है।
मामेव ये प्रपद्यन्ते
मायामेतान्तरन्ति ते ।
आर्त्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च
भरतर्षभ ।। १३ ।।
चतुर्विधा भजन्ते मां ज्ञानी
चैकत्वमास्थितः ।
अक्षरं ब्रह्म परमं
स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते ।। १४ ।।
जो केवल मेरी शरण लेते हैं,
वे ही इस माया को लाँघ पाते हैं। भरतश्रेष्ठ ! आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी और ज्ञानी- ये चार प्रकार के
मनुष्य मेरा भजन करते हैं। इनमें से ज्ञानी तो मुझसे एकीभूत होकर स्थित रहता है।
अविनाशी परम तत्त्व (सच्चिदानन्दमय परमात्मा) 'ब्रह्म'
है, स्वभाव अर्थात् जीवात्मा को 'अध्यात्म' कहते हैं,
भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः
।
अधिभूतं क्षरो भावः
पुरुषश्चाधिदैवतं ।। १५ ।।
भूतों की उत्पत्ति और वृद्धि
करनेवाले विसर्ग का (यज्ञ दान आदि के निमित्त किये जानेवाले द्रव्यादि के त्याग का)
नाम 'कर्म' है, विनाशशील पदार्थ 'अधिभूत' है तथा पुरुष (हिरण्यगर्भ ) 'अधिदैवत' है।
अधियज्ञोहमेवात्र देहे देहभृतां वर
।
अन्तकाले स्मरन्माञ्च मद्भावं
यात्यसंशयः ।। १६ ।।
देहधारियों में श्रेष्ठ अर्जुन! इस
देह के भीतर मैं वासुदेव ही 'अधियज्ञ'
हूँ। अन्तकाल में मेरा स्मरण करनेवाला पुरुष मेरे स्वरूप को प्राप्त
होता है, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है।
यं यं भावं स्मारन्नन्ते
त्यजेद्देहन्तमाप्नुयात् ।
प्राणं न्यस्य भ्रुवोर्मध्ये अन्ते
प्राप्नोति मत्परम् ।। १७ ।।
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म वदन् देहं
त्यजन्तथा ।
मनुष्य अन्तकाल में जिस-जिस भाव का
स्मरण करते हुए अपने देह का परित्याग करता है, उसी
को वह प्राप्त होता है। मृत्यु के समय जो प्राणों को भौंहों के मध्य में स्थापित
करके 'ओम्'- इस एकाक्षर ब्रह्म का
उच्चारण करते हुए देहत्याग करता है, वह मुझ परमेश्वर को ही
प्राप्त करता है।
ब्रह्मादिस्तम्भपर्यन्ताः सर्वे मम
विभूतयः ।। १८ ।।
श्रीमन्तश्चोर्जिताः सर्वे ममांशाः
प्राणिनः स्मृताः ।
अहमेको विश्वरुप इति ज्ञात्वा
विमुच्यते ।। १९ ।।
ब्रह्माजी से लेकर तुच्छ कीट तक जो
कुछ दिखायी देता है, सब मेरी ही
विभूतियाँ हैं जितने भी श्रीसम्पन्न और शक्तिशाली प्राणी हैं, सब मेरे अंश हैं। 'मैं अकेला ही सम्पूर्ण विश्व के
रूप में स्थित हूँ' - ऐसा जानकर मनुष्य मुक्त हो जाता
है" ॥ १२-१९ ॥
क्षेत्रं शरीरं यो वेत्ति
क्षेत्रज्ञः स प्रकीर्त्तिः ।
क्षेत्रक्षएत्रज्ञयोर्ज्ञानं
यत्तज्ज्ञानं मतं मम ।। २१ ।।
"यह शरीर 'क्षेत्र' है जो इसे जानता है, उसको
'क्षेत्रज्ञ' कहा गया है 'क्षेत्र' और 'क्षेत्रज्ञ को जो
यथार्थरूप से जानना है, वही मेरे मत में 'ज्ञान' है।
महाभूतान्यहङ्गारो बुद्धिरव्यक्तमेव
च ।
इन्द्रियाणि दशौकञ्च पञ्च
चेन्द्रियगोचराः ।। २१ ।।
इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं
सङ्घातश्चेतना धृतिः ।
एतत्क्षेत्रं समासेन
सविकारमुदाहृतम् ।। २२ ।।
पाँच महाभूत,
अहंकार, बुद्धि, अव्यक्त
(मूलप्रकृति), दस इन्द्रियाँ, एक मन,
पाँच इन्द्रियों के विषय, इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, स्थूल शरीर, चेतना और धृति यह विकारों सहित 'क्षेत्र' है, जिसे यहाँ
संक्षेप से बतलाया गया है।
अमानित्वमदम्भित्वमहिसा
क्षान्तिरार्जवं ।
आचार्योपासनं शौचं
स्थौर्य्यमात्मविनिग्रहः ।। २३ ।।
इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहङ्कार एव
च ।
जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनं
।। २४ ।।
अभिमानशून्यता,
दम्भ का अभाव, अहिंसा, क्षमा,
सरलता, गुरुसेवा, बाहर-भीतर
की शुद्धि, अन्तःकरण की स्थिरता, मन,
इन्द्रिय एवं शरीर का निग्रह, विषय भोगों में
आसक्ति का अभाव, अहंकार का न होना, जन्म,
मृत्यु, जरा तथा रोग आदि में दुःखरूप दोष का
बारंबार विचार करना ।
आसक्तिरनभिष्वङ्गः पुत्रदारगृहादिषु
।
नित्यञ्च
समचित्तत्त्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु ।। २५ ।।
मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी
।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि ।।
२६ ।।
अध्यात्मज्ञाननिष्ठत्वन्तत्त्वज्ञानानुदर्शनं
।
ओतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं
यदतोऽन्यथा ।। २७ ।।
पुत्र,
स्त्री और गृह आदि में आसक्ति और ममता का अभाव, प्रिय और अप्रिय की प्राप्ति में सदा ही समानचित्त रहना (हर्ष – शोक के
वशीभूत न होना), मुझ परमेश्वर में अनन्य भाव से अविचल भक्ति का
होना, पवित्र एवं एकान्त स्थान में रहने का स्वभाव, विषयी मनुष्यों के समुदाय में प्रेम का अभाव, अध्यात्म-ज्ञान
में स्थिति तथा तत्त्व-ज्ञानस्वरूप परमेश्वर का निरन्तर दर्शन यह सब 'ज्ञान' कहा गया है और जो इसके विपरीत है, वह 'अज्ञान' है" ॥ २०-२७
॥
ज्ञेयं यत्तत् प्रवक्ष्यामि यं
ज्ञात्वाऽमृतमश्नुते ।
अनादि परमं ब्रह्म सत्त्वं नाम
तदुच्यते ।। २८ ।।
"अब जो 'ज्ञेय' अर्थात् जानने के योग्य है, उसका वर्णन करूँगा, जिसको जानकर मनुष्य अमृत-स्वरूप
परमात्मा को प्राप्त होता है। ज्ञेय तत्त्व' अनादि है और 'परब्रह्म के नाम से प्रसिद्ध है। उसे न 'सत्'
कहा जा सकता है, न 'असत्'
। ( वह इन दोनों से विलक्षण है।)
सर्वतः पाणिपादान्तं
सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् ।
सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य
तिष्ठति ।। २९ ।।
उसके सब ओर हाथ-पैर हैं,
सब ओर नेत्र, सिर और मुख हैं तथा सब ओर कान
हैं। वह संसार में सबको व्याप्त करके स्थित है।
सर्वेन्द्रियगुणाभासं
सर्वेन्दियविवर्जितम् ।
असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं
गुणभोक्तृ च ।। ३१ ।।
सब इन्द्रियों से रहित होकर भी
समस्त इन्द्रियों के विषयों को जाननेवाला है। सबका धारण-पोषण करनेवाला होकर भी
आसक्तिरहित है तथा गुणों का भोक्ता होकर भी 'निर्गुण'
है।
बहिरन्तश्च भूतानामचरञ्चरमेव च ।
सूक्षमत्वात्तदविज्ञेयं
दूरस्थञ्चान्तिकेऽपि यत् ।। ३१ ।।
वह परमेश्वर सम्पूर्ण प्राणियों के
बाहर और भीतर विद्यमान है। 'चर' और 'अचर' सब उसी के स्वरूप
हैं। सूक्ष्म होने के कारण वह 'अविज्ञेय' है। वही निकट है और वही दूर।
अविभक्तञ्च भूतेषु विभक्तमिव च
स्थितम् ।
भूतभर्तृ च विज्ञेयं ग्रसिष्णु
प्रभविष्णु च ।। ३२ ।।
यद्यपि वह विभागरहित है (आकाश की
भाँति अखण्डरूप से सर्वत्र परिपूर्ण है), तथापि
सम्पूर्ण भूतों में विभक्त पृथक्-पृथक् स्थित हुआ-सा प्रतीत होता है। उसे विष्णुरूप
से सब प्राणियों का पोषक, रुद्ररूप से सबका संहारक और
ब्रह्मा के रूप से सब को उत्पन्न करनेवाला जानना चाहिये।
ज्योतिषामपि तज्जयोतिस्तमसः
परमुच्यते ।
ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि
सर्वस्य घिष्ठितं ।। ३३ ।।
वह सूर्य आदि ज्योतियों की भी
ज्योति (प्रकाशक) है। उसकी स्थिति अज्ञानमय अन्धकार से परे बतलायी जाती है। वह
परमात्मा ज्ञानस्वरूप, जानने के योग्य,
तत्त्वज्ञान से प्राप्त होनेवाला और सबके हृदय में स्थित है" ॥
२८-३३ ॥
ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति
केचिदात्मानमात्मना ।
अन्ये साङ्ख्येन योगेन कर्मयोगेन
चापरे ।। ३४ ।।
"उस परमात्मा को कितने ही
मनुष्य सूक्ष्मबुद्धि से ध्यान के द्वारा अपने अन्तःकरण में देखते हैं। दूसरे लोग
सांख्ययोग के द्वारा तथा कुछ अन्य मनुष्य कर्मयोग के द्वारा देखते हैं।
अन्ये त्वेवमजानन्तो
श्रुत्वान्येभ्य उपासते ।
तेपि चाशु तरन्त्येव मृत्युं
श्रुतिपरायणाः ।। ३५ ।।
इनके अतिरिक्त जो मन्द बुद्धिवाले
साधारण मनुष्य हैं, वे स्वयं इस प्रकार
न जानते हुए भी दूसरे ज्ञानी पुरुषों से सुनकर ही उपासना करते हैं। वे सुनकर
उपासना में लगनेवाले पुरुष भी मृत्युरूप संसार – सागर से निश्चय ही पार हो जाते
हैं।
सत्त्वात्सञ्जायते ज्ञानं रजसो लोभ
एव च ।
प्रमादमोहौ तमसो भवतो ज्ञानमेव च ।।
३६ ।।
सत्त्वगुण से ज्ञान,
रजोगुण से लोभ तथा तमोगुण से प्रमाद, मोह और
अज्ञान उत्पन्न होते हैं।
गुणा वर्तन्त इत्येव योऽवतिष्ठति
नेङ्गते ।
मानावमानमित्रारितुल्यस्त्यागी स
निर्गुणः ।। ३७ ।।
गुण ही गुणों में बर्तते हैं- ऐसा
समझकर जो स्थिर रहता है, अपनी स्थिति से
विचलित नहीं होता, जो मान-अपमान में तथा मित्र और शत्रुपक्ष में
भी समानभाव रखता है, जिसने कर्तृत्व के अभिमान को त्याग दिया
है, वह 'निर्गुण' (गुणातीत) कहलाता है।
ऊर्ध्वमूलमधः शाखमश्चत्थं
प्राहुरव्ययं ।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स
वेदवित् ।। ३८ ।।
जिसकी जड़ ऊपर की ओर (अर्थात्
परमात्मा है) और 'शाखा' नीचे की ओर (यानी ब्रह्माजी आदि) हैं, उस संसाररूपी
अश्वत्थ वृक्ष को अनादि प्रवाहरूप से 'अविनाशी' कहते हैं। वेद उसके पत्ते हैं। जो उस वृक्ष को मूलसहित यथार्थरूप से जानता
है, वही वेद के तात्पर्य को जाननेवाला है।
द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन् दैव आसुर
एव च ।
अहिंसादिः क्षमा चैव दैवीसम्पत्तितो
नृणां ।। ३९ ।।
न शौचं नापि वाचारो
ह्यासुरीसम्पदोद्भवः ।
नरकत्वात्
क्रोधकोभकामस्तस्मात्त्रयं त्यजेत् ।। ४१ ।।
इस संसार में प्राणियों की सृष्टि
दो प्रकार की है-एक 'दैवी'- देवताओं के से स्वभाववाली और दूसरी 'आसुरी' –
असुरों के से स्वभाववाली । अतः मनुष्यों के अहिंसा आदि सद्गुण और क्षमा
'दैवी सम्पत्ति' है। 'आसुरी सम्पत्ति' से जिसकी उत्पत्ति हुई है, उसमें न शौच होता है, न सदाचार। क्रोध, लोभ और काम- ये नरक देनेवाले हैं, अतः इन तीनों को
त्याग देना चाहिये ।
यज्ञस्तपस्तथा दानं
सत्त्वाद्यैस्त्रिविधं स्मृतम् ।
आयुः सत्त्वं बलारोग्यसुखायान्नन्तु
सात्त्विकं ।। ४१ ।।
सत्त्व आदि गुणों के भेद से यज्ञ,
तप और दान तीन प्रकार के माने गये हैं (सात्त्विक,
राजस और तामस)। 'सात्त्विक' अत्र आयु, बुद्धि, बल, आरोग्य और सुख की वृद्धि करनेवाला है।
दुःखशोकामयायान्नं तीक्ष्णरूक्षन्तु
राजसं ।
अमेध्योच्छिष्टपूत्यन्नं तामसं
नीरसादिकं ।। ४२ ।।
तीखा और रूखा अन्न 'राजस' है। वह दुःख, शोक और रोग
उत्पन्न करनेवाला है। अपवित्र, जूठा, दुर्गन्धयुक्त
और नीरस आदि अन्न 'तामस' माना गया है।
यष्टव्यो विधिना यज्ञो निष्कामाय स
सात्त्विकः ।
यज्ञः फलाय दम्भात्मी राजसस्तामसः
क्रतुः ।। ४३ ।।
'यज्ञ करना कर्तव्य है'- यह समझकर निष्कामभाव से विधिपूर्वक किया जानेवाला यज्ञ 'सात्त्विक' है। फल की इच्छा से किया हुआ यज्ञ 'राजस' और दम्भ के लिये किया जानेवाला यज्ञ 'तामस है।
श्रद्धामन्त्रादिविध्युक्तं तपः
शारीरमुच्यते ।
देवादिपूजाऽहिंसादि वाङ्मयं तप
उच्यते ।। ४४ ।।
श्रद्धा और मन्त्र आदि से युक्त एवं
विधि- प्रतिपादित जो देवता आदि की पूजा तथा अहिंसा आदि तप है,
उन्हें 'शारीरिक तप' कहते
हैं। अब वाणी से किये जानेवाले तप को बताया जाता है।
अनुद्धेगकरं वाक्यं सत्यं
स्वाध्यायसज्जपः ।
मानसं
चित्तसंशुद्धेर्मौनमात्मविनिग्रहः ।। ४५ ।।
जिससे किसी को उद्वेग न हो ऐसा सत्य
वचन,
स्वाध्याय और जप - यह 'वाङ्मय तप' है चित्तशुद्धि, मौन और मनोनिग्रह- ये 'मानस तप' हैं।
सात्त्विकञ्च तपोऽकामं
फ्लाद्यर्थन्तु राजसं ।
तामसं परपीड़ायै सात्त्विकं दानमुच्यते
।। ४६ ।।
देशादौ चैव दातव्यमुपकाराय राजसं ।
अदेशादाववज्ञातं तामसं दानमीरितं ।।
४७ ।।
कामनारहित तप 'सात्त्विक' फल आदि के लिये किया जानेवाला तप 'राजस' तथा दूसरों को पीड़ा देने के लिये किया हुआ तप
'तामस' कहलाता है। उत्तम देश, काल और पात्र में दिया हुआ दान 'सात्त्विक' है, प्रत्युपकार के लिये दिया जानेवाला दान 'राजस' है तथा अयोग्य देश, काल
आदि में अनादरपूर्वक दिया हुआ दान 'तामस' कहा गया है।
ओंतत्सदिति निर्देशो
ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः ।
यज्ञदानादिकं कर्म्म
भुक्तिमुक्तिप्रदं नृणं ।। ४८ ।।
'ॐ', 'तत्',
और 'सत्' - ये परब्रह्म
परमात्मा के तीन प्रकार के नाम बताये गये हैं। यज्ञ-दान आदि कर्म मनुष्यों को भोग
एवं मोक्ष प्रदान करनेवाले हैं।
अनिष्टमिष्टं मिशञ्च त्रिविंधं
कर्मणः फलं ।
भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु
सन्न्यासिनां क्कचित् ।। ४९ ।।
जिन्होंने कामनाओं का त्याग नहीं
किया है,
उन सकामी पुरुषों के कर्म का बुरा भला और मिला हुआ-तीन प्रकार का फल
होता है। यह फल मृत्यु के पश्चात् प्राप्त होता है। संन्यासी (त्यागी पुरुषों) के
कर्मों का कभी कोई फल नहीं होता।
तामसः कर्मसंयोगात्
मोहात्क्लेशभयादिकात् ।
राजसः सात्त्विकोऽकामात् पञ्चैते
कर्महेतवः ।। ५१ ।।
मोहवश जो कर्मों का त्याग किया जाता
है,
वह 'तामस' है, शरीर को कष्ट पहुँचने के भय से किया हुआ त्याग 'राजस'
है तथा कामना के त्याग से सम्पन्न होनेवाला त्याग 'सात्त्विक' कहलाता है।
अधिष्ठानं तथा कर्त्ता करणञ्च पृथग्विधम्
।
त्रिविधाश्च पृथक् चेष्टा
दैवञ्चैवात्र पञ्चमं ।। ५१ ।।
अधिष्ठान,
कर्ता, भिन्न-भिन्न करण, नाना प्रकार की अलग-अलग चेष्टाएँ तथा दैव-ये पाँच ही कर्म के कारण हैं।
एकं ज्ञानं सात्त्विकं स्यात् पृथग्
ज्ञान्तु राजसं ।
अतत्त्वार्थन्तामसं स्यात्
कर्माकामाय सात्त्विकं ।। ५२ ।।
कामाय राजसं कर्म मोहात् कर्म तु
तामसं ।
सब भूतों में एक परमात्मा का ज्ञान 'सात्त्विक', भेदज्ञान 'राजस'
और अतात्त्विक ज्ञान 'तामस' है। निष्काम भाव से किया हुआ कर्म 'सात्त्विक'
कामना के लिये किया जानेवाला 'राजस' तथा मोहवश किया हुआ कर्म 'तामस' है।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समः कर्त्ता
सात्त्विको राजसोऽत्यपि ।। ५३ ।।
शठोऽलसस्तामसः स्यात्
कार्य्यादिधीश्च सात्त्विकी ।
कार्य्यार्थं सा राजसी
स्याद्विपरीता तु तामसी ।। ५४ ।।
कार्य की सिद्धि और असिद्धि में सम
(निर्विकार) रहनेवाला कर्ता 'सात्त्विक'
हर्ष और शोक करनेवाला 'राजस' तथा शठ और आलसी कर्ता 'तामस' कहलाता
है। कार्य अकार्य के तत्त्व को समझनेवाली बुद्धि 'सात्त्विकी'
उसे ठीक-ठीक न जाननेवाली बुद्धि 'राजसी'
तथा विपरीत धारणा रखनेवाली बुद्धि 'तामसी'
मानी गयी है।
मनोधृतिः सात्त्विकी स्यात्
प्रीतिकामेति राजसी ।
तामसी तु प्रशोकादौ सुखं
सत्त्वात्तदन्तगं ।। ५५ ।।
सुखं तद्राजसञ्चाग्रे अन्ते
दुःखन्तु तामसं ।
अतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन
सर्वमिदन्ततं ।। ५६ ।।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य विष्णुं
सिद्धिञ्च विन्दति ।
कर्मणा मनसा वाचा सर्वावस्थासु
सर्वदा ।। ५७ ।।
ब्रह्मादिस्तम्भपर्यन्तं
जगद्विष्णुञ्च वेत्ति यः ।
सिद्धिमाप्नोति भगवद्भक्तो भागवतो
ध्रुवं ।। ५८ ।।
मन को धारण करनेवाली धृति 'सात्त्विकी', प्रीति की कामनावाली धृति 'राजसी' तथा शोक आदि को धारण करनेवाली धृति 'तामसी' है जिसका परिणाम सुखद हो, वह सत्त्व से उत्पन्न होनेवाला 'सात्त्विक सुख'
है। जो आरम्भ में सुखद प्रतीत होने पर भी परिणाम में दुःखद हो वह 'राजस सुख' है तथा जो आदि और अन्त में भी दुःख- ही
दुःख है, वह आपाततः प्रतीत होनेवाला सुख 'तामस' कहा गया है। जिससे सब भूतों की उत्पत्ति हुई
है और जिससे यह सम्पूर्ण जगत् व्याप्त है, उस विष्णु को
अपने-अपने स्वाभाविक कर्म द्वारा पूजकर मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त कर लेता है। जो
सब अवस्थाओं में और सर्वदा मन, वाणी एवं कर्म के द्वारा
ब्रह्मा से लेकर तुच्छ कीटपर्यन्त सम्पूर्ण जगत्को भगवान् विष्णु का स्वरूप समझता
है, वह भगवान्में भक्ति रखनेवाला भागवत पुरुष सिद्धि को
प्राप्त होता है " ॥ ३४-५८ ॥
इत्यादिमहापुराणे आग्नेये गीतासारो
नामैकाशीत्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः ॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'गीता-सार-निरूपण' नामक तीन सौ इक्यासीवाँ अध्याय
पूरा हुआ ॥ ३८१ ॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 382
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