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कर्मकाण्ड

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रामगीता

रामगीता 

पुराणेतिहास ग्रन्थों में कई रामगीताएँ पायी जाती हैं। प्रत्येक में वक्ता भगवान् श्रीराम ही हैं, परंतु श्रोता तथा प्रतिपाद्य विषय भिन्न-भिन्न है। अध्यात्मरामायण के उत्तरकाण्ड के पंचम सर्ग के रूप में एक रामगीता प्राप्त होती है। सीता वनवास प्रसंग के अनन्तर एक बार जब लक्ष्मणजी ने भगवान् श्रीरामचन्द्रजी से अज्ञानरूपी सागर को पार करानेवाले ज्ञानोपदेश देने की प्रार्थना की, तब श्रीरघुनाथजी ने उनको जो उपदेश दिया, वही रामगीता कहलाती है। इसमें युक्तियुक्त विवेचन द्वारा आत्मज्ञान को ही विशुद्ध ज्ञान बताकर समस्त इन्द्रियों को विषयों से निवृत्त करके आत्मानुसन्धानहेतु प्रेरित किया गया है। विवेच्य सामग्री गूढ़ वेदान्तिक होते हुए भी सहज तथा सारगर्भित है। इस रामगीता को यहाँ सानुवाद प्रस्तुत किया जा रहा है-

रामगीता

श्रीरामगीता

Ram gita

राम गीता

रामगीता

अध्यात्मरामायण अंतर्गत् रामगीता

॥ पञ्चम सर्गः ॥

श्रीमहादेव उवाच ।

ततो जगन्मङ्गलमङ्गलात्मना

       विधाय रामायणकीर्तिमुत्तमाम् ।

चचार पूर्वाचरितं रघूत्तमो

       राजर्षिवर्यैरभिसेवितं यथा ॥ १॥

श्रीमहादेवजी बोले- पार्वति ! तदनन्तर रघुश्रेष्ठ भगवान् राम संसार के मङ्गल के लिये धारण किये अपने दिव्यमङ्गल देह से रामायणरूप अति उत्तम कीर्ति की स्थापना कर पूर्वकाल में जैसा आचरण राजर्षि श्रेष्ठों ने किया है, वैसा ही स्वयं भी करने लगे ॥ १ ॥

सौमित्रिणा पृष्ट उदारबुद्धिना

       रामः कथाः प्राह पुरातनीः शुभाः ।

राज्ञः प्रमत्तस्य नृगस्य शापतो

       द्विजस्य तिर्यक्त्वमथाह राघवः ॥ २॥

उदारबुद्धि लक्ष्मणजी के पूछने पर वे प्राचीन उत्तम कथाएँ सुनाया करते थे । इसी प्रसङ्ग में श्रीरघुनाथजी ने राजा नृग को प्रमादवश ब्राह्मण के शाप से तिर्यग्योनि प्राप्त करनेका वृत्तान्त भी सुनाया ॥ २ ॥

कदाचिदेकान्त उपस्थितं प्रभुं

       रामं रमालालितपादपङ्कजम् ।

सौमित्रिरासादितशुद्धभावनः

       प्रणम्य भक्त्या विनयान्वितोऽब्रवीत् ॥ ३॥

किसी दिन भगवान् राम, जिनके चरणकमलों की सेवा साक्षात् श्रीलक्ष्मीजी करती हैं, एकान्त में बैठे हुए थे । उस समय शुद्ध विचारवाले लक्ष्मणजी ने (उनके पास जा) उन्हें भक्तिपूर्वक प्रणाम कर अति विनीतभाव से कहा - ॥ ३ ॥

त्वं शुद्धबोधोऽसि हि सर्वदेहिना-

       मात्मास्यधीशोऽसि निराकृतिः स्वयम् ।

प्रतीयसे ज्ञानदृशां महामते

       पादाब्जभृङ्गाहितसङ्गसङ्गिनाम् ॥ ४॥

हे महामते ! आप शुद्धज्ञान स्वरूप, समस्त देहधारियों के आत्मा, सबके स्वामी और स्वरूप से निराकार हैं । जो आपके चरणकमलों के लिये भ्रमररूप हैं, उन परमभागवतों के सहवास के रसिकों को ही आप ज्ञानदृष्टि से दिखलायी देते हैं ॥४॥

अहं प्रपन्नोऽस्मि पदाम्बुजं प्रभो

       भवापवर्गं तव योगिभावितम् ।

यथाञ्जसाऽज्ञानमपारवारिधिं

       सुखं तरिष्यामि तथानुशाधि माम् ॥ ५॥

हे प्रभो ! योगिजन जिनका निरन्तर चिन्तन करते हैं, संसार से छुड़ानेवाले उन आपके चरणकमलों की मैं शरण हूँ, आप मुझे ऐसा उपदेश दीजिये, जिससे मैं सुगमता से ही अज्ञानरूपी अपार समुद्र के पार हो जाऊँ ॥ ५ ॥

श्रुत्वाथ सौमित्रिवचोऽखिलं तदा

       प्राह प्रपन्नार्तिहरः प्रसन्नधीः ।

विज्ञानमज्ञानतमःप्रशान्तये

       श्रुतिप्रपन्नं क्षितिपालभूषणः ॥ ६॥

श्रीलक्ष्मणजी के ये सब वचन सुनकर शरणागतवत्सल भूपालशिरोमणि भगवान् राम सुनने के लिये उत्सुक हुए लक्ष्मण को उनके अज्ञानान्धकार का नाश करने के लिये प्रसन्नचित्त से ज्ञानोपदेश करने लगे ॥ ६ ॥

आदौ स्ववर्णाश्रमवर्णिताः क्रियाः

       कृत्वा समासादितशुद्धमानसः ।

समाप्य तत्पूर्वमुपात्तसाधनः

       समाश्रयेत्सद्गुरुमात्मलब्धये ॥ ७॥

(वे बोले) सबसे पहले अपने-अपने वर्ण और आश्रम के लिये (शास्त्रों में) बतलायी हुई क्रियाओं का यथावत् पालनकर, चित्त शुद्ध हो जाने पर उन कर्मो को छोड़ दे और शमदमादि साधनों से सम्पन्न हो आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिये सद्गुरु की शरण में जाय ॥ ७ ॥

क्रिया शरीरोद्भवहेतुरादृता

       प्रियाप्रियौ तौ भवतः सुरागिणः ।

धर्मेतरौ तत्र पुनः शरीरकं

       पुनः क्रिया चक्रवदीर्यते भवः ॥  ८॥

कर्म देहान्तर की प्राप्ति के लिये ही स्वीकार किये गये हैं, क्योंकि उनमें प्रेम रखनेवाले पुरुषों से इष्ट- अनिष्ट दोनों ही प्रकार की क्रियाएँ होती हैं। उनसे धर्म और अधर्म दोनों ही की प्राप्ति होती है और उनके कारण शरीर प्राप्त होता है, जिससे फिर कर्म होते हैं । इसी प्रकार यह संसार चक्र के समान चलता रहता है ॥ ८ ॥

अज्ञानमेवास्य हि मूलकारणं

       तद्ध्यानमेवात्र विधौ विधीयते ।

विद्यैव तन्नाशविधौ पटीयसी

       न कर्म तज्जं सविरोधमीरितम् ॥ ९॥

संसार का मूल कारण अज्ञान ही है और इन (शास्त्रीय) विधिवाक्यों में उस (अज्ञान) का नाश ही ( संसार से मुक्त होने का) उपाय बतलाया गया है! अज्ञान का नाश करने में ज्ञान ही समर्थ है, (सकाम) कर्म नहीं, क्योंकि उस (अज्ञान) से उत्पन्न होनेवाला कर्म उसका विरोधी नहीं हो सकता * ॥ ९ ॥

* 'सन्निपातलक्षणो विधिरनिमित्तं तद्विघातस्य' अर्थात् जो कार्य जिस सम्बन्ध से उत्पन्न होता है, वह उस सम्बन्ध के नाश का कारण नहीं हो सकता। इसी न्याय के अनुसार अज्ञान से उत्पन्न कर्म के द्वारा अज्ञान नष्ट नहीं हो सकता।

नाज्ञानहानिर्न च रागसङ्क्षयो

       भवेत्ततः कर्म सदोषमुद्भवेत् ।

ततः पुनः संसृतिरप्यवारिता

       तस्माद्बुधो ज्ञानविचारवान् भवेत् ॥ १०॥

सकाम कर्म द्वारा अज्ञान का नाश अथवा राग का क्षय नहीं हो सकता; बल्कि उससे दूसरे सदोष कर्म की उत्पत्ति होती है, उससे पुनः संसार की प्राप्ति होना अनिवार्य है । इसलिये बुद्धिमान्को ज्ञान-विचार में ही तत्पर होना चाहिये ॥ १० ॥

ननु क्रिया वेदमुखेन चोदिता

       तथैव विद्या पुरुषार्थसाधनम् ।

कर्तव्यता प्राणभृतः प्रचोदिता

       विद्यासहायत्वमुपैति सा पुनः ॥ ११॥

कर्माकृतौ दोषमपि श्रुतिर्जगौ

       तस्मात्सदा कार्यमिदं मुमुक्षुणा ।

ननु स्वतन्त्रा ध्रुवकार्यकारिणी

       विद्या न किञ्चिन्मनसाप्यपेक्षते ॥ १२॥

न सत्यकार्योऽपि हि यद्वदध्वरः

       प्रकाङ्क्षतेऽन्यानपि कारकादिकान् ।

तथैव विद्या विधितः प्रकाशितैः

       विशिष्यते कर्मभिरेव मुक्तये ॥ १३॥

कुछ वितर्कवादी ऐसा कहते हैं कि जिस प्रकार वेद के कथनानुसार ज्ञान पुरुषार्थ का साधक है, वैसे ही कर्म वेदविहित हैं; और प्राणियों के लिये कर्मों की अवश्य कर्तव्यता का विधान भी है, इसलिये वे कर्म ज्ञान के सहकारी जाते हैं। साथ ही श्रुति ने कर्म न करने में दोष भी बतलाया है; इसलिये मुमुक्षु को उन्हें सर्वदा करते रहना चाहिये, और यदि कोई कहे कि ज्ञान स्वतन्त्र है एवं निश्चय ही अपना फल देनेवाला है, उसे मन से भी किसी और की सहायता की आवश्यकता नहीं है तो उसका यह कहना ठीक नहीं; क्योंकि जिस प्रकार (वेदोक्त) यज्ञ सत्य कर्म होने पर भी अन्य कारकादि की अपेक्षा करता ही है, उसी प्रकार विधि से प्रकाशित कर्मों के द्वारा ही ज्ञान मुक्ति का साधक हो सकता है। (अतः कर्मों का त्याग उचित नहीं है) ॥ ११- १३ ॥

केचिद्वदन्तीति वितर्कवादिन-

       स्तदप्यसद्दृष्टविरोधकारणात् ।

देहाभिमानादभिवर्धते क्रिया

       विद्या गताहङ्कृतितः प्रसिद्ध्यति ॥ १४॥

(सिद्धान्ती) ऐसा जो कोई कुतर्की कहते हैं, उनके कथन में प्रत्यक्ष विरोध होने के कारण वह ठीक नहीं है; क्योंकि कर्म देहाभिमान से होता है और ज्ञान अहंकार के नाश होने पर सिद्ध होता है ॥ १४ ॥

विशुद्धविज्ञानविरोचनाञ्चिता

       विद्यात्मवृत्तिश्चरमेति भण्यते ।

उदेति कर्माखिलकारकादिभिः

       निहन्ति विद्याखिलकारकादिकम् ॥ १५॥

(वेदान्तवाक्यों का विचार करते-करते) विशुद्ध विज्ञान के प्रकाश से उद्भासित जो चरम आत्मवृत्ति होती है, उसी को विद्या (आत्मज्ञान) कहते हैं। इसके अतिरिक्त कर्म सम्पूर्ण कारकादि की सहायता से होता है, किन्तु विद्या समस्त कारकादि का (अनित्यत्व की भावना द्वारा) नाश कर देती है ॥ १५ ॥

तस्मात्त्यजेत्कार्यमशेषतः सुधीः

       विद्याविरोधान्न समुच्चयो भवेत् ।

आत्मानुसन्धानपरायणः सदा

       निवृत्तसर्वेन्द्रियवृत्तिगोचरः ॥ १६॥

इसलिये समस्त इन्द्रियों के विषयों से निवृत्त होकर निरन्तर आत्मानुसन्धान में लगा हुआ बुद्धिमान् पुरुष सम्पूर्ण कर्मों का सर्वथा त्याग कर दे क्योंकि विद्या का विरोधी होने के कारण कर्म का उसके साथ समुच्चय नहीं हो सकता ॥ १६ ॥

यावच्छरीरादिषु माययात्मधी-

       स्तावद्विधेयो विधिवादकर्मणाम् ।

नेतीति वाक्यैरखिलं निषिध्य तत्

       ज्ञात्वा परात्मानमथ त्यजेत्क्रियाः ॥ १७॥

जबतक माया से मोहित रहने के कारण मनुष्य का शरीरादि में आत्मभाव है, तभीतक उसे वैदिक कर्मानुष्ठान कर्तव्य है। 'नेति- नेति' आदि वाक्यों से सम्पूर्ण अनात्म वस्तुओं का निषेध करके अपने परमात्म- स्वरूप को जान लेने पर फिर उसे समस्त कर्मों को छोड़ देना चाहिये ॥ १७ ॥

यदा परात्मात्मविभेदभेदकं

       विज्ञानमात्मन्यवभाति भास्वरम् ।

तदैव माया प्रविलीयतेऽञ्जसा

       सकारका कारणमात्मसंसृतेः ॥ १८॥

जिस समय परमात्मा और जीवात्मा के भेद को दूर करनेवाला प्रकाशमय विज्ञान अन्तःकरण में स्पष्टतया भासित होने लगता है। उसी समय आत्मा के लिये संसार प्राप्ति की कारण माया अनायास ही कारकादि के सहित लीन हो जाती है ॥ १८ ॥

श्रुतिप्रमाणाभिविनाशिता च सा

       कथं भविष्यत्यपि कार्यकारिणी ।

विज्ञानमात्रादमलाद्वितीयत-

       स्तस्मादविद्या न पुनर्भविष्यति ॥ १९॥

श्रुति-प्रमाण से उसके नष्ट कर दिये जाने पर फिर वह अपना कार्य करने में समर्थ भी किस प्रकार हो सकेगी? क्योंकि परमार्थतत्त्व एकमात्र ज्ञानस्वरूप, निर्मल और अद्वितीय है। अतः (बोध हो जाने पर) फिर अविद्या उत्पन्न नहीं होगी ॥ १९ ॥

यदि स्म नष्टा न पुनः प्रसूयते

       कर्ताहमस्येति मतिः कथं भवेत् ।

तस्मात्स्वतन्त्रा न किमप्यपेक्षते

       विद्या विमोक्षाय विभाति केवला ॥ २०॥

जब एक बार नष्ट हो जाने पर अविद्या का फिर जन्म ही नहीं होता तो बोधवान्‌ को 'मैं इस कर्म का कर्ता हूँ'- ऐसी बुद्धि कैसे हो सकती है ? इसलिये ज्ञान स्वतन्त्र है, उसे जीव के मोक्ष के लिये किसी और (कर्मादि)- की अपेक्षा नहीं है, वह स्वयं अकेला ही उसके लिये समर्थ है ॥ २० ॥

सा तैत्तिरीयश्रुतिराह सादरं

       न्यासं प्रशस्ताखिलकर्मणां स्फुटम् ।

एतावदित्याह च वाजिनां श्रुतिः

       ज्ञानं विमोक्षाय न कर्म साधनम् ॥ २१॥

इसके सिवा तैत्तिरीय शाखा की प्रसिद्ध श्रुति भी आग्रहपूर्वक स्पष्ट कहती है कि समस्त कर्मों का त्याग करना ही अच्छा है तथा 'एतावत्' इत्यादि वाजसनेयी शाखा की श्रुति भी कहती है कि मोक्ष का साधन ज्ञान ही है कर्म नहीं ॥ २१ ॥

विद्यासमत्वेन तु दर्शितस्त्वया

       क्रतुर्न दृष्टान्त उदाहृतः समः ।

फलैः पृथक्त्वाद्बहुकारकैः क्रतुः

       संसाध्यते ज्ञानमतो विपर्ययम् ॥ २२॥

और तुमने जो ज्ञान की समानता में यज्ञादि का दृष्टान्त दिया सो ठीक नहीं है, क्योंकि उन दोनों के फल अलग-अलग हैं। इसके अतिरिक्त यज्ञ तो (होता, ऋत्विक्, यजमान आदि) बहुत-से कारकों से सिद्ध होता है और ज्ञान इससे विपरीत है (अर्थात् वह कारकादि से साध्य नहीं है) ॥ २२ ॥

सप्रत्यवायो ह्यहमित्यनात्मधी-

       रज्ञप्रसिद्धा न तु तत्त्वदर्शिनः ।

तस्माद्बुधैस्त्याज्यमविक्रियात्मभिः

       विधानतः कर्म विधिप्रकाशितम् ॥ २३॥

(कर्म के त्याग करने से) मैं अवश्य प्रायश्चित्त-भागी होऊँगा- ऐसी अनात्म- बुद्धि अज्ञानियों को हुआ करती है, तत्त्वज्ञानी को नहीं । इसलिये विकाररहित चित्तवाले बोधवान् पुरुष को विहित कर्मों का भी विधिपूर्वक त्याग कर देना चाहिये ॥ २३ ॥

श्रद्धान्वितस्तत्त्वमसीति वाक्यतो

       गुरोः प्रसादादपि शुद्धमानसः ।

विज्ञाय चैकात्म्यमथात्मजीवयोः

       सुखी भवेन्मेरुरिवाप्रकम्पनः ॥ २४॥

फिर शुद्धचित्त होकर श्रद्धापूर्वक गुरु की कृपा से 'तत्त्वमसि' इस महावाक्य के द्वारा परमात्मा और जीवात्मा की एकता जानकर सुमेरु के समान निश्चल एवं सुखी हो जाय ॥ २४ ॥

आदौ पदार्थावगतिर्हि कारणं

       वाक्यार्थविज्ञानविधौ विधानतः ।

तत्त्वम्पदार्थौ परमात्मजीवका-

       वसीति चैकात्म्यमथानयोर्भवेत् ॥ २५॥

यह नियम ही है कि प्रत्येक वाक्य का अर्थ जानने में पहले उसके पदों के अर्थ का ज्ञान ही कारण है । (इस 'तत्त्वमसि' महावाक्य के) 'तत्' और 'त्वम्' पद क्रम से परमात्मा और जीवात्मा के वाचक हैं और 'असि' उन दोनों की एकता करता है॥ २५ ॥

प्रत्यक्परोक्षादिविरोधमात्मनोः

       विहाय सङ्गृह्य तयोश्चिदात्मताम् ।

संशोधितां लक्षणया च लक्षितां

       ज्ञात्वा स्वमात्मानमथाद्वयो भवेत् ॥ २६॥

इन दोनों (जीवात्मा और परमात्मा) में जीवात्मा प्रत्यक् (अन्तःकरण का साक्षी) है और परमात्मा परोक्ष (इन्द्रियातीत) है, इस (वाच्यार्थरूप) विरोध को छोड़कर और लक्षणावृत्ति से लक्षित उनकी शुद्ध चेतनता को ग्रहणकर उसे ही अपना आत्मा जाने और इस प्रकार एकीभाव से स्थित हो ॥ २६ ॥

एकात्मकत्वाज्जहती न सम्भवेत्

       तथाऽजहल्लक्षणता विरोधतः ।

सोऽयम्पदार्थाविव भागलक्षणा

       युज्येत तत्त्वम्पदयोरदोषतः ॥ २७॥

इन 'तत्' और 'त्वम्' पदों में एकरूप होने के कारण जहतीलक्षणा नहीं हो सकती और परस्पर विरोध होने के कारण अजहल्लक्षणा भी नहीं हो सकती। इसलिये 'सोऽयम्' (यह वही है ) इन दोनों पदों के अर्थ की भाँति इन 'तत्' और 'त्वम्' पदों में भी भागत्यागलक्षणा ही निर्दोषता से हो सकती है* ॥ २७ ॥

* जहाँ शब्दों के वाच्यार्थ (अर्थात् उनकी शक्तिवृत्ति से सिद्ध होनेवाले अर्थ)- को छोड़कर दूसरा अर्थ लिया जाता है, वहाँ लक्षणावृत्ति होती है। वह जहती, अजहती और जहत्यजहती नाम से तीन प्रकार की हैं। जहतीलक्षणा में शब्द के वाच्यार्थ का सर्वथा त्याग करके उसका बिलकुल नया ही अर्थ किया जाता है। जैसे 'गङ्गायां घोष:' (गंगाजी पर पशुशाला है) इस वाक्य वाच्यार्थ से गंगाजी के प्रवाह पर पशुशाला का होना सिद्ध होता है। परन्तु यह सर्वथा असम्भव है। इसलिये यहाँ 'गंगा' शब्द का अर्थ 'गंगाप्रवाह' न करके 'गंगा- तीर' किया जाता है। परंतु 'तत्' और 'त्वम्' पद के वाच्यार्थ 'ईश्वर' और 'जीव' का सर्वथा त्याग कर देने से उन दोनों की चेतनता का भी त्याग हो जाता है और चेतनता की एकता ही अभीष्ट है; इसलिये जहतीलक्षणा से इन पदों के अर्थ की एकता नहीं हो सकती। अजहतीलक्षणा में वाच्यार्थ का त्याग न करके उसके साथ अन्य अर्थ भी ग्रहण किया जाता है। जैसे 'काकेभ्यो दधि रक्ष्यताम्' (कौओं से दही की रक्षा करो) इस वाक्य का अभिप्राय केवल कौओं से रक्षा कराना ही नहीं है, बल्कि उसके साथ कुत्ता, बिल्ली आदि अन्य जीवों से सुरक्षित रखना भी है। यहाँ 'तत्' और 'त्वम्' पद के वाच्यार्थों में विरोध है, फिर अन्य अर्थ को सम्मिलित करने से भी वह विरोध तो दूर होगा ही नहीं, इसलिये अजहल्लक्षणा से भी इनकी एकता सिद्ध नहीं हो सकती। इन दोनों के सिवा जहाँ कुछ अर्थ रखा जाता है और कुछ छोड़ा जाता है, वह जहत्यजहती (भागत्याग) लक्षणा होती है। जैसे 'सोऽयम्' (यह वही है) इस वाक्य में 'अयम्' पद से कहे जानेवाले पदार्थ की अपरोक्षता और 'सः' पद के वाच्य पदार्थ की परोक्षता का त्याग करके इन दोनों से रहित जो निर्विशेष पदार्थ है, उसकी एकता कही जाती है। इसी प्रकार महावाक्य के 'तत्' पद के वाच्य 'ईश्वर' के गुण सर्वज्ञता, परोक्षता आदि का और 'त्वम्' पद के वाच्य 'जीव' के गुण अल्पज्ञता, प्रत्यक्ता आदि का त्याग करके केवल चेतनांश में एकता बतलायी जाती है।

रसादिपञ्चीकृतभूतसम्भवं

       भोगालयं दुःखसुखादिकर्मणाम् ।

शरीरमाद्यन्तवदादिकर्मजं

       मायामयं स्थूलमुपाधिमात्मनः ॥ २८॥

सूक्ष्मं मनोबुद्धिदशेन्द्रियैर्युतं

       प्राणैरपञ्चीकृतभूतसम्भवम् ।

भोक्तुः सुखादेरनुसाधनं भवेत्

       शरीरमन्यद्विदुरात्मनो बुधाः ॥ २९॥

पृथिवी आदि पंचीकृत भूतों से उत्पन्न हुए, सुख-दुःखादि कर्म- भोगों के आश्रय और पूर्वोपार्जित कर्मफल से प्राप्त होनेवाले इस मायामय आदि-अन्तवान् शरीर को विज्ञजन आत्मा की स्थूल उपाधि मानते हैं और मन, बुद्धि, दस इन्द्रियाँ तथा पाँच प्राण (इन सत्रह अंगों) से युक्त और अपंचीकृत भूतों से उत्पन्न हुए सूक्ष्म शरीर को जो भोक्ता सुख-दुःखादि अनुभव का साधन है, आत्मा का दूसरा देह मानते हैं ।। २८-२९ ॥

अनाद्यनिर्वाच्यमपीह कारणं

       मायाप्रधानं तु परं शरीरकम् ।

उपाधिभेदात्तु यतः पृथक् स्थितं

       स्वात्मानमात्मन्यवधारयेत्क्रमात् ॥ ३०॥

(इनके अतिरिक्त) अनादि और अनिर्वाच्य मायामय कारण- शरीर ही जीव का तीसरा देह है। इस प्रकार उपाधि भेद से सर्वथा पृथक् स्थित अपने आत्मरूप को क्रमशः (उपाधियों का बाध करते हुए) अपने हृदय में निश्चय करे ॥ ३० ॥

कोशेष्वयं तेषु तु तत्तदाकृतिः

       विभाति सङ्गात् स्फटिकोपलो यथा ।

असङ्गरूपोऽयमजो यतोऽद्वयो

       विज्ञायतेऽस्मिन् परितो विचारिते ॥ ३१॥

स्फटिकमणि के समान यह आत्मा भी (अन्नमयादि) भिन्न-भिन्न कोशों में उनके संग से उन्हीं के आकार का भासने लगता है। किन्तु इसका भली प्रकार विचार करने से यह अद्वितीय होने के कारण असंगरूप और अजन्मा निश्चित होता है ॥ ३१ ॥

बुद्धेस्त्रिधा वृत्तिरपीह दृश्यते

       स्वप्नादिभेदेन गुणत्रयात्मनः ।

अन्योन्यतोऽस्मिन् व्यभिचारतो मृषा

       नित्ये परे ब्रह्मणि केवले शिवे ॥ ३२॥

त्रिगुणात्मिका बुद्धि की ही स्वप्न, जाग्रत् और सुषुप्ति-भेद से तीन प्रकार की वृत्तियाँ दिखायी देती हैं, किन्तु इन तीनों वृत्तियों में से प्रत्येक का एक-दूसरी में व्यभिचार होने के कारण ये (तीनों ही) एकमात्र कल्याणस्वरूप नित्य परब्रह्म में मिथ्या हैं (अर्थात् उसमें इन वृत्तियों का सर्वथा अभाव है ) ॥ ३२ ॥

देहेन्द्रियप्राणमनश्चिदात्मनां

       सङ्घादजस्रं परिवर्तते धियः ।

वृत्तिस्तमोमूलतयाज्ञलक्षणा

       यावद्भवेत्तावदसौ भवोद्भवः ॥ ३३॥

बुद्धि की वृत्ति ही देह, इन्द्रिय, प्राण, मन और चेतन आत्मा के संघातरूप से निरन्तर परिवर्तित होती रहती है। यह वृत्ति तमोगुण से उत्पन्न होनेवाली होने के कारण अज्ञानरूपा है और जबतक यह रहती है, तबतक ही संसार में जन्म होता रहता है ॥ ३३ ॥

नेतिप्रमाणेन निराकृताखिलो

       हृदा समास्वादितचिद्घनामृतः ।

त्यजेदशेषं जगदात्तसद्रसं

       पीत्वा यथाम्भः प्रजहाति तत्फलम् ॥ ३४॥

'नेति नेति' आदि श्रुति- प्रमाण से निखिल संसार का बाध करके और हृदय में चिद्घनामृत का आस्वादन करके सम्पूर्ण जगत्को, उसके साररूप सत् (ब्रह्म) को ग्रहण करके त्याग दे, जैसे नारियल के जल को पीकर मनुष्य उसे फेंक देते हैं ॥ ३४ ॥

कदाचिदात्मा न मृतो न जायते

       न क्षीयते नापि विवर्धतेऽनवः ।

निरस्तसर्वातिशयः सुखात्मकः

       स्वयम्प्रभः सर्वगतोऽयमद्वयः ॥ ३५॥

आत्मा न कभी मरता है न जन्मता है; वह न कभी क्षीण होता है और न बढ़ता ही है। वह पुरातन, सम्पूर्ण विशेषणों से रहित, सुखस्वरूप, स्वयंप्रकाश, सर्वगत और अद्वितीय है ॥ ३५ ॥

एवंविधे ज्ञानमये सुखात्मके

       कथं भवो दुःखमयः प्रतीयते ।

अज्ञानतोऽध्यासवशात्प्रकाशते

       ज्ञाने विलीयेत विरोधतः क्षणात् ॥ ३६॥

जो इस प्रकार ज्ञानमय और सुखस्वरूप है, उसमें यह दुःखमय संसार की प्रतीति कैसे हो सकती है? यह तो अध्यास के कारण अज्ञान से ही दिखायी दे रहा है, ज्ञान से तो यह एक क्षण में ही लीन हो जाता है; क्योंकि ज्ञान और अज्ञान का परस्पर विरोध है ॥ ३६ ॥

यदन्यदन्यत्र विभाव्यते भ्रमा-

       दध्यासमित्याहुरमुं विपश्चितः ।

असर्पभूतेऽहिविभावनं यथा

       रज्ज्वादिके तद्वदपीश्वरे जगत् ॥ ३७॥

भ्रम से जो अन्य में अन्य की प्रतीति होती है, उसी को विद्वानों ने अध्यास कहा है। जिस प्रकार असर्परूप रज्जु आदि में सर्प की प्रतीति होती है, उसी प्रकार ईश्वर में संसार की प्रतीति हो रही है ॥ ३७ ॥

विकल्पमायारहिते चिदात्मके-

       ऽहङ्कार एष प्रथमः प्रकल्पितः ।

अध्यास एवात्मनि सर्वकारणे

       निरामये ब्रह्मणि केवले परे ॥ ३८॥

जो विकल्प और माया से रहित है, उस सबके कारण निरामय, अद्वितीय और चित्स्वरूप परमात्मा ब्रह्म में पहले इस 'अहंकार' रूप अध्यास की ही कल्पना होती है ॥ ३८ ॥

इच्छादिरागादिसुखादिधर्मिकाः

       सदा धियः संसृतिहेतवः परे ।

यस्मात्प्रसुप्तौ तदभावतः परः

       सुखस्वरूपेण विभाव्यते हि नः ॥ ३९॥

सबके साक्षी आत्मा में इच्छा, अनिच्छा, राग-द्वेष और सुख- दुःखादिरूप बुद्धि की वृत्तियाँ ही जन्म-मरणरूप संसार की कारण हैं; क्योंकि सुषुप्ति में इनका अभाव हो जाने पर हमें आत्मा का सुखरूप से भान होता है ॥३९॥

अनाद्यविद्योद्भवबुद्धिबिम्बितो

       जीवः प्रकाशोऽयमितीर्यते चितः ।

आत्मा धियः साक्षितया पृथक् स्थितो

       बुद्ध्यापरिच्छिन्नपरः स एव हि ॥ ४०॥

अनादि अविद्या से उत्पन्न हुई बुद्धि में प्रतिबिम्बित यह चेतन का प्रकाश ही 'जीव' कहलाता है। बुद्धि के साक्षीरूप से आत्मा उससे पृथक् है, वह परात्मा तो बुद्धि से अपरिच्छिन्न है ॥ ४० ॥

चिद्बिम्बसाक्ष्यात्मधियां प्रसङ्गत-

       स्त्वेकत्र वासादनलाक्तलोहवत् ।

अन्योन्यमध्यासवशात्प्रतीयते

       जडाजडत्वं च चिदात्मचेतसोः ॥ ४१॥

अग्नि से तपे हुए लोहे के समान चिदाभास, साक्षी आत्मा तथा बुद्धि के एकत्र रहने से परस्पर अन्योन्याध्यास होने के कारण क्रमशः उनकी चेतनता और जडता प्रतीत होती है।(अर्थात् जिस प्रकार अग्नि से तपे हुए लोहपिण्ड में अग्नि और लोहे का तादात्म्य हो जाने से लोहे का आकार अग्नि में और अग्नि की उष्णता लोहे में दिखायी देने लगती है, उसी प्रकार बुद्धि और आत्मा का तादात्म्य हो जाने से आत्मा की चेतनता बुद्धि आदि में और बुद्धि आदि की जडता आत्मा में प्रतीत होने लगती है। इसलिये अध्यासवश बुद्धि से लेकर शरीरपर्यन्त अनात्म-वस्तुओं को ही आत्मा मानने लगते हैं) ॥ ४१ ॥

गुरोः सकाशादपि वेदवाक्यतः ।

       सञ्जातविद्यानुभवो निरीक्ष्य तम् ।

स्वात्मानमात्मस्थमुपाधिवर्जितं

       त्यजेदशेषं जडमात्मगोचरम् ॥ ४२॥

गुरु के समीप रहने से और वेदवाक्यों से आत्मज्ञान का अनुभव होने पर अपने हृदयस्थ उपाधिरहित आत्मा का साक्षात्कार करके आत्मारूप से प्रतीत होनेवाले देहादि सम्पूर्ण जडपदार्थों का त्याग कर देना चाहिये ॥ ४२ ॥

प्रकाशरूपोऽहमजोऽहमद्वयो-

       ऽसकृद्विभातोऽहमतीव निर्मलः ।

विशुद्ध विज्ञानघनो निरामयः

       सम्पूर्ण आनन्दमयोऽहमक्रियः ॥ ४३॥

मैं प्रकाशस्वरूप, अजन्मा, अद्वितीय, निरन्तर, भासमान, अत्यन्त निर्मल, विशुद्ध विज्ञानघन, निरामय, क्रियारहित और एकमात्र आनन्द-स्वरूप हूँ ॥ ४३ ॥

सदैव मुक्तोऽहमचिन्त्यशक्तिमान्

       अतीन्द्रियज्ञानमविक्रियात्मकः ।

अनन्तपारोऽहमहर्निशं बुधैः

       विभावितोऽहं हृदि वेदवादिभिः ॥ ४४॥

मैं सदा ही मुक्त, अचिन्त्यशक्ति, अतीन्द्रिय ज्ञानस्वरूप, अविकृतरूप और अनन्त- पार हूँ। वेदवादी पण्डितजन अहर्निश मेरा हृदय में चिन्तन करते हैं ॥ ४४ ॥

एवं सदात्मानमखण्डितात्मना

       विचारमाणस्य विशुद्धभावना ।

हन्यादविद्यामचिरेण कारकै

       रसायनं यद्वदुपासितं रुजः ॥ ४५॥

इस प्रकार सदा आत्मा का अखण्डवृत्ति से चिन्तन करनेवाले पुरुष के अन्तःकरण में उत्पन्न हुई विशुद्ध भावना तुरन्त ही कारकादि के सहित अविद्या का नाश कर देती है, जिस प्रकार नियमानुसार सेवन की हुई ओषधि रोग को नष्ट कर डालती है ॥ ४५ ॥

विविक्त आसीन उपारतेन्द्रियो

       विनिर्जितात्मा विमलान्तराशयः ।

विभावयेदेकमनन्यसाधनो

       विज्ञानदृक्केवल आत्मसंस्थितः ॥ ४६॥

(आत्मचिन्तन करनेवाले पुरुष को चाहिये कि) एकान्त देश में इन्द्रियों को उनके विषयों से हटाकर और अन्तःकरण को अपने अधीन करके बैठे तथा आत्मा में स्थित होकर और किसी साधन का आश्रय न लेकर शुद्धचित्त हुआ केवल ज्ञानदृष्टि द्वारा एक आत्मा की ही भावना करे ॥ ४६ ॥

विश्वं यदेतत्परमात्मदर्शनं

       विलापयेदात्मनि सर्वकारणे ।

पूर्णश्चिदानन्दमयोऽवतिष्ठते

       न वेद बाह्यं न च किञ्चिदान्तरम् ॥ ४७॥

यह विश्व परमात्मस्वरूप है, ऐसा समझकर इसे सबके कारणरूप आत्मा में लीन करे; इस प्रकार जो पूर्ण चिदानन्दस्वरूप से स्थित हो जाता है, उसे बाह्य अथवा आन्तरिक किसी भी वस्तु का ज्ञान नहीं रहता ।। ४७ ।।

पूर्वं समाधेरखिलं विचिन्तये-

       दोङ्कारमात्रं सचराचरं जगत् ।

तदेव वाच्यं प्रणवो हि वाचको

       विभाव्यतेऽज्ञानवशान्न बोधतः ॥ ४८॥

समाधि प्राप्त होने के पूर्व ऐसा चिन्तन करे कि सम्पूर्ण चराचर जगत् केवल ओंकार मात्र है। यह संसार वाच्य है और ओंकार इसका वाचक है। अज्ञान के कारण ही इसकी प्रतीति होती है। ज्ञान होने पर इसका कुछ भी नहीं रहता ॥ ४८ ॥

अकारसञ्ज्ञः पुरुषो हि विश्वको

       ह्युकारकस्तैजस ईर्यते क्रमात् ।

प्राज्ञो मकारः परिपठ्यतेऽखिलैः

       समाधिपूर्वं न तु तत्त्वतो भवेत् ॥ ४९॥

(ओंकार में अ, उ और मये तीन वर्ण हैं; इनमें से) अकार विश्व (जागृति अभिमानी) का वाचक है, उकार तैजस (स्वप्न का अभिमानी) कहलाता है और मकार प्राज्ञ (सुषुप्ति के अभिमानी) -को कहते हैं; यह व्यवस्था समाधि लाभ से पहले की है, तत्त्वदृष्टि से ऐसा कोई भेद नहीं है ॥ ४९ ॥

विश्वं त्वकारं पुरुषं विलापये-

       दुकारमध्ये बहुधा व्यवस्थितम् ।

ततो मकारे प्रविलाप्य तैजसं

       द्वितीयवर्णं प्रणवस्य चान्तिमे ॥ ५०॥

नाना प्रकार से स्थित अकाररूप विश्व-पुरुष को उकार में लीन करे और ओंकार के द्वितीय वर्ण तैजसरूप उकार को उसके अन्तिम वर्ण मकार में लीन करे ॥ ५० ॥

मकारमप्यात्मनि चिद्घने परे

       विलापयेद्प्राज्ञमपीह कारणम् ।

सोऽहं परं ब्रह्म सदा विमुक्तिम-

       द्विज्ञानदृङ्मुक्त उपाधितोऽमलः ॥ ५१॥

फिर कारणात्मा प्राज्ञरूप मकार को भी चिद्घनरूप परमात्मा में लीन करे; (और ऐसी भावना करे कि) वह नित्यमुक्त विज्ञानस्वरूप उपाधिहीन निर्मल परब्रह्म मैं ही हूँ ॥ ५१ ॥

एवं सदा जातपरात्मभावनः

       स्वानन्दतुष्टः परिविस्मृताखिलः ।

आस्ते स नित्यात्मसुखप्रकाशकः

       साक्षाद्विमुक्तोऽचलवारिसिन्धुवत् ॥ ५२॥

इस प्रकार निरन्तर परमात्म भावना करते-करते जो आत्मानन्द में मग्न हो गया है तथा जिसे सम्पूर्ण दृश्य-प्रपंच विस्मृत हो गया है, वह नित्य आत्मानन्द का अनुभव करनेवाला जीवन्मुक्त योगी निस्तरंग समुद्र के समान साक्षात् मुक्तस्वरूप हो जाता है ॥ ५२ ॥

एवं सदाभ्यस्तसमाधियोगिनो

       निवृत्तसर्वेन्द्रियगोचरस्य हि ।

विनिर्जिताशेषरिपोरहं सदा

       दृश्यो भवेयं जितषड्गुणात्मनः ॥ ५३॥

इस प्रकार जो निरन्तर समाधियोग का अभ्यास करता है, जिसके सम्पूर्ण इन्द्रियगोचर विषय निवृत्त हो गये हैं तथा जिसने काम-क्रोधादि सम्पूर्ण शत्रुओं को परास्त कर दिया है, उस छहों इन्द्रियों (मन और पाँचों ज्ञानेन्द्रियों) को जीतनेवाले महात्मा को मेरा निरन्तर साक्षात्कार होता है ॥ ५३ ॥

ध्यात्वैवमात्मानमहर्निशं मुनि-

       स्तिष्ठेत्सदा मुक्तसमस्तबन्धनः ।

प्रारब्धमश्नन्नभिमानवर्जितो

       मय्येव साक्षात्प्रविलीयते ततः ॥ ५४॥

इस प्रकार अहर्निश आत्मा का ही चिन्तन करता हुआ मुनि सर्वदा समस्त बन्धनों से मुक्त होकर रहे तथा (कर्ता-भोक्तापन के) अभिमान को छोड़कर प्रारब्धफल भोगता रहे। इससे वह अन्त में साक्षात् मुझ ही में लीन हो जाता है ॥ ५४ ॥

आदौ च मध्ये च तथैव चान्ततो

       भवं विदित्वा भयशोककारणम् ।

हित्वा समस्तं विधिवादचोदितं

       भजेत्स्वमात्मानमथाखिलात्मनाम् ॥ ५५॥

संसार को आदि, अन्त और मध्य में सब प्रकार भय और शोक का ही कारण जानकर समस्त वेदविहित कर्मों को त्याग दे तथा सम्पूर्ण प्राणियों के अन्तरात्मारूप अपने आत्मा का भजन करे ॥ ५५ ॥

आत्मन्यभेदेन विभावयन्निदं

       भवत्यभेदेन मयात्मना तदा ।

यथा जलं वारिनिधौ यथा पयः

       क्षीरे वियद्व्योम्न्यनिले यथानिलः ॥ ५६॥

जिस प्रकार समुद्र में जल, दूध में दूध, महाकाश में घटाकाशादि और वायु में वायु मिलकर एक हो जाते हैं, उसी प्रकार इस सम्पूर्ण प्रपंच को अपने आत्मा के साथ अभिन्नरूप से चिन्तन करने से जीव मुझ परमात्मा के साथ अभिन्न भाव से स्थित हो जाता है ॥ ५६ ॥

इत्थं यदीक्षेत हि लोकसंस्थितो

       जगन्मृषैवेति विभावयन्मुनिः ।

निराकृतत्वाच्छ्रुतियुक्तिमानतो

       यथेन्दुभेदो दिशि दिग्भ्रमादयः ॥ ५७॥

यह जो जगत् है वह श्रुति, युक्ति और प्रमाण से बाधित होने के कारण चन्द्रभेद और दिशाओं में होनेवाले दिग्भ्रम के समान मिथ्या ही है - ऐसी भावना करता हुआ लोक (व्यवहार) - में स्थित मुनि इसे देखे ॥ ५७ ॥

यावन्न पश्येदखिलं मदात्मकं

       तावन्मदाराधनतत्परो भवेत् ।

श्रद्धालुरत्यूर्जितभक्तिलक्षणो

       यस्तस्य दृश्योऽहमहर्निशं हृदि ॥ ५८॥

जबतक सारा संसार मेरा ही रूप दिखलायी न दे, तबतक निरन्तर मेरी आराधना करता रहे। जो श्रद्धालु और उत्कट भक्त होता है, उसे अपने हृदय में सर्वदा मेरा ही साक्षात्कार होता है ॥ ५८ ॥

रहस्यमेतच्छ्रुतिसारसङ्ग्रहं

       मया विनिश्चित्य तवोदितं प्रिय ।

यस्त्वेतदालोचयतीह बुद्धिमान्

       स मुच्यते पातकराशिभिः क्षणात् ॥ ५९॥

हे प्रिय ! सम्पूर्ण श्रुतियों के साररूप इस गुप्त रहस्य को मैंने निश्चय करके तुमसे कहा है । जो बुद्धिमान् इसका मनन करेगा, वह तत्काल समस्त पापों से मुक्त हो जायगा ॥ ५९ ॥

भ्रातर्यदीदं परिदृश्यते जग-

       न्मायैव सर्वं परिहृत्य चेतसा ।

मद्भावनाभावितशुद्धमानसः

       सुखी भवानन्दमयो निरामयः ॥ ६०॥

भाई ! यह जो कुछ जगत् दिखायी देता है, वह सब माया है। इसे अपने चित्त से निकालकर मेरी भावना से शुद्धचित्त और सुखी होकर आनन्दपूर्ण और क्लेशशून्य हो जाओ ॥ ६० ॥

यः सेवते मामगुणं गुणात्परं

       हृदा कदा वा यदि वा गुणात्मकम् ।

सोऽहं स्वपादाञ्चितरेणुभिः स्पृशन्

       पुनाति लोकत्रितयं यथा रविः ॥ ६१॥

जो पुरुष अपने चित्त से मुझ गुणातीत निर्गुण का अथवा कभी-कभी मेरे सगुण स्वरूप का भी सेवन करता है, वह मेरा ही रूप है। वह अपनी चरण-रज के स्पर्श से सूर्य के समान सम्पूर्ण त्रिलोकी को पवित्र कर देता है ॥ ६१ ॥

विज्ञानमेतदखिलं श्रुतिसारमेकं

       वेदान्तवेद्यचरणेन मयैव गीतम् ।

यः श्रद्धया परिपठेद् गुरुभक्तियुक्तो

       मद्रूपमेति यदि मद्वचनेषु भक्तिः ॥ ६२॥

यह अद्वितीय ज्ञान समस्त श्रुतियों का एकमात्र सार है। इसे वेदान्तवेद्य भगवत्पाद मैंने ही कहा है। जो गुरुभक्तिसम्पन्न पुरुष इसका श्रद्धापूर्वक पाठ करेगा, उसकी यदि मेरे वचनों में प्रीति होगी तो वह मेरा ही रूप हो जायगा ॥ ६२ ॥

इति रामगीता श्रीमदध्यात्मरामायणे उमामहेश्वरसंवादे उत्तरकाण्डे पञ्चमः सर्गः ॥ ५॥

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