अद्भुत रामायण सर्ग १२
अद्भुत रामायण सर्ग १२ में राम का
उपनिषद कथन वर्णन करना कहा गया है।
अद्भुत रामायणम् द्वादश: सर्गः
Adbhut Ramayan sarga 12
अद्भुत रामायण बारहवाँ सर्ग
अद्भुतरामायण द्वादश सर्ग
अद्भुत रामायण सर्ग १२ – उपनिषद कथन
अथ अद्भुत रामायण सर्ग १२
पुना रामः प्रवचनमुवाच द्विजपुंगवः
।
अव्यक्तादभवत्कालः प्रधानं पुरुषः
परः ॥ १ ॥
फिर रामचन्द्र कहने लगे हे ब्राह्मण
श्रेष्ठ । अव्यक्त से काल हुआ उससे पर प्रधान पुरुष हुआ ।। १ ।।
तेभ्यः सर्वमिदं जातं
तस्मात्सर्वमहं जगत् ।
सर्वतः पाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम्
॥ २ ॥
इनसे यह सब जगत् उत्पन्न हुआ है,
वह सब ओर से हस्त चरण शिर मुखवाला है ।। २ ।।
सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य
तिष्ठति ।
सर्वेन्द्रियगुणाभासं
सर्वेन्द्रियविवर्जितम् ॥ ३ ॥
सब ओर से कर्णवान् और सब ओर से आवृत्त हुआ स्थित है सब इन्द्रियगुणों का आभासरूप, सब इन्द्रियों से वर्जित ।।३।।
सर्वाधारं स्थिरानंदमव्यक्तं
द्वैतवजितम् ।
सर्वोपमानरहितं प्रमाणातीतगोचरम् ॥
४ ॥
सर्वाधार,
स्थिरानंद, अव्यक्त, द्वैतवर्जित,
सब उपमान से रहित, प्रमाण से रहित, तथा इंद्रियों से परे ॥ ४ ॥
निर्विकल्पं निराभासं सर्वाभासं
परामृतम् ।
अभिन्नं भिन्नसंस्थानं शास्वतं
ध्रुवमव्ययम् ॥ ५ ॥
निर्विकल्प निराभास सर्वाभास परामृत
अभिन्न भिन्न संस्थावाले शाश्वत ध्रुव अविनाशी ।। ५ ।।
निर्गुणं परमं व्योम तज्ज्ञानं
सूरयो विदुः ।
स आत्मा सर्वभूतानां स
बाह्याभ्यंतरात्परः ॥ ६ ॥
निर्गुण परम व्योम उसके ज्ञान को
कवि कहते हैं वही सब भूतों का आत्मा बाह्य अन्तर से परे है ।। ६ ।
सोऽहं सर्वत्रगः शांतो ज्ञानात्मा
परमेश्वरः ।
मया ततमिदं विश्वं जगदव्यक्तरूपिणा
।। ७ ।।
सो मैं सर्वत्रगामी शांत ज्ञानात्मा
परमेश्वर हूं मुझे अव्यक्त रूपवाले ने यह सब जगत् विस्तार कर रक्खा है ।।७।।
मत्स्यानि सर्वभूतानि यस्तं वेद स
वेदवित् ।
प्रधानं पुरुषं चैव
तत्त्वद्वयमुदाहृतम् ॥ ८॥
सब प्राणी मेरे स्थान में हैं,
इसको जानता है, वह वेद का जाननेवाला कहता है,
प्रधान और पुरुष यह दो ही तत्त्व कहते हैं ॥ ८ ॥
तयोरनादिनिर्दिष्टः कालः संयोजकः
परः ।
त्रयमेतदनाद्यंतमध्यक्ते समवस्थितम्
॥ ९ ॥
उनका संयोग करनेवाला अनादि
निर्दिष्ट काल है, यह तीनों अनादि अनन्त
अव्यक्तमें स्थित हैं । ९ ।।
तदात्मकं तदन्यत्स्यात्तद्रूपं
मामकं विदुः ।
महदाद्यं विशेषांतं संप्रतूतेऽखिलं
जगत् ॥ १० ॥
तदात्मक अन्य दो परन्तु वह रूप मेरा
ही महत्से लेकर है विशेषपर्यंत सब जगत् को निर्मित करती है ।
या प्रकृतिरुद्दिष्टा मोहिनी सर्व
देहिनाम् ।
पुरुषः प्रकृस्थितोऽपिमुक्ते य:
प्राकृतान्गुणान् ॥ ११ ॥
जो यह प्रकृति सब प्राणियों की
मोहित करनेवाली कही गई है और पुरुष प्रकृति में स्थित हुआ प्रकृति के गुणों को
भोगता है ।।११।।
अहंकारो विविक्तत्वात्प्रोच्यते
पञ्चविंशकः ।
आद्यो विकारः प्रकृतिर्महानात्मेति
कथ्यते ॥ १२ ॥
अहंकार से विविक्त होने से वह पच्चीस
तत्त्व का कहा जाता है आद्य विकार प्रकृति और महान् आत्मा कहा जाता है।।१२।।
विज्ञानशक्तिविज्ञानादहंकारस्तदुत्थितः
।
एक एव महानात्मा सोहंकारोऽभिधीयते ॥
१३ ॥
विज्ञान से विज्ञानशक्ति और उससे
अहंकारयुक्त कहा जाता है ।। १३ ।।
स जीवः सोऽन्तरात्मेति गीयते तत्व
चितकैः ।
तेन वेदयते सर्व सुखं दुखं च जन्मसु
॥ १४ ॥
वही जीव अन्तरात्मा नाम से
तत्वविज्ञानियों द्वारा गाया जाता है उसके द्वारा जन्मों का सुख दुःख जाना जाता है।।१४।।
स विज्ञानात्मकस्तस्य मनः
स्यादुपकारकम् ।
तेनाधिवेकतस्तस्मा संसारः पुरुषस्य
तु ।। १५ ।।
विज्ञानात्मक वही है,
मन उसका उपकारी है, उसको अविवेक होन से संसार
प्राप्त हुआ है ।। १५ ।।
स चाविवेकः प्रकृतौ संगाकालेन सोऽभवत्
।
कालः सृजति भूतानि कालः संहरते
प्रजाः ॥ १६ ॥
वह अविवेक प्रकृति के संग से काल
द्वारा प्राप्त हुआ हैं, काल ही प्राणियों को
प्रगट कर संहार कर जाता है ।।१६।
सर्वे कालस्य वशगा न कालः
कस्यचिद्वशे ।
सोऽन्तरा सर्वमेवेदं नियच्छति
सनातनः ॥ १७ ॥
सब काल के वश में हैं,
काल किसी के वश में नहीं है वह सनातन सबके अन्तर में स्थित हुआ वश
करता है।।१७।।
प्रोच्यते भगवान्प्राणः सर्वज्ञः
पुरुषः परः ।
तनेंद्रियेभ्यः परमं मनः
प्राहुर्मनीषिणः ॥ १८ ॥
वही भगवान् प्राण सर्वज्ञ पुरुष
कहाता है,
विद्वान् सब इन्द्रियों से परे मन को कहते हैं ।। १८ ।।
मनसश्चाप्यहंकारमहंकारान्महान् परः
।
महतः परमव्यक्तमव्यक्तात्पुरुषः परः
।। १९ ।।
मन से परे अहंकार, अहंकार से परे महान्, उससे परे अव्यक्त इससे परे पुरुष
।। १९ ।।
पुरुषाद्भगवान्प्राणस्तस्य सर्वमिदं
जगत् ।
प्राणात्परतरं व्योम
व्योमातीतोऽग्निरीश्वरः ॥ २० ॥
पुरुष से परे भगवान् प्राण और उसके
वशीभूत यह सब जगत् है प्राण से परे व्योम और आकाश से परे ईश्वर है ।। २० ।।
सोऽहं सर्वत्रगः शांतो ज्ञानात्मा
परमेश्वरः ।
नास्ति मत्परमं भूतं मां विज्ञाय
विमुच्यते ॥२१॥
सो मैं सर्वत्रगामी शान्त
ज्ञानात्मा परमेश्वर हूँ मुझसे परे और कुछ नहीं, मुझे जानकर प्राणी मुक्त हो जाता है ।। २१ ।।
नित्यं हि नास्ति जगति भूतं स्थावर-
जंगमम् ।
ऋते मामेकमव्यक्तं व्योमरूपं
महेश्वरम् ॥ २२ ॥
स्थावर जंगम जगत्में नित्य हीं
रहेंगे,
केवल एक आकाशरूप महेश्वर में ही स्थित हूँ ।। २२ ।।
सोऽहं सृजामि सकलं संहरामि सदा जगत्
।
मायी मायामयो देवः कालेन सह संगतः ॥
२३ ॥
सो मैं यह सब उत्पन्न करके संहार कर
जाता हूं मैं मायामय देव काल के सम्बन्ध से सब कुछ कहता हूँ ।। २३ ।।
मत्संनिधावेष कालः करोति सकलं जगत्
॥
नियोजयत्यनंतात्मा
ह्येतद्वेदानुशासनम् ॥ २४ ॥
मेरी इच्छा निकटता से यह काल सब जगत्
रकता है और अनन्तात्मा इसके कृत्यमें लगता है, यही
वेदका अनुशासन है ।। २४ ।।
इत्यार्थे श्रीमद्रामायणे
वाल्मीकीये आदि काव्ये अद्भुतोत्तरकाण्डे उपनिषत्वत्कथनं नाम द्वादशः सर्गः ॥ १२ ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिविरचित
आदिकाव्य रामायण के अद्भुतोत्तरकाण्ड में उपनिषत्कथन नामक बारहवाँ सर्ग समाप्त हुआ
।। १२ ।।
आगे जारी...........अद्भुत रामायण सर्ग 13
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