अद्भुत रामायण सर्ग १३
अद्भुत रामायण सर्ग १३ में राम का
भक्तियोग कहना वर्णन किया गया है।
अद्भुत रामायणम् त्रयोदश: सर्गः
Adbhut Ramayan sarga 13
अद्भुत रामायण तेरहवाँ सर्ग
अद्भुतरामायण त्रयोदश सर्ग
अद्भुत रामायण सर्ग १३ –भक्तियोग कथन
अथ अद्भुत रामायण सर्ग १३
वक्ष्ये समाहितमना शृणुष्व पवनात्मज
।
येनेदं लभ्यते रूपं येनेदं
संप्रवर्तते ॥ १ ॥
हे महावीर ! जो मैं कहता हूँ सो
सावधान मन होकर सुनो जिससे यह सब रूप प्राप्त होकर प्रवृत्त होता है ।। १ ।।
नाहं तपोभिर्विविधैर्न दानेन च
चेज्यया ।
शक्यो हि पुरुषैर्ज्ञातुमृते
भक्तिमनुत्तमाम् ॥ २ ॥
न मैं अनेक प्रकार के तप न दान न यज्ञ
से पुरुषों के द्वारा जाना जाता हूं केवल जो मेरी भक्ति करते हैं वही मुझको
प्राप्त होते हैं ।। २ ।
अहं हि सर्वभावानामंतस्तिष्ठामि
सर्वगः ॥
मां सर्वसाक्षिणं लोका न जानंति
प्लवंगम ॥ ३ ॥
मैं सर्वगामी सब भावों के अन्त में
स्थित रहता हूँ हे वीर सर्वसाक्षी मुझको लोक जाननेमें समर्थ नहीं होते ।। ३ ।।
यस्मांतरा सर्वमिदं यो हि सर्वांतर
परः ॥
सोऽहं धाता विधाता च
लोकेऽस्मिन्विश्वतोमुखः ॥ ४ ॥
जिसके अन्तर में यह सब हैं और जो
सर्वांतर्यामी परे से परे हैं वह मैं धाता विधाता इस लोक में सब स्थित हो रहा हूँ।।४।।
न मां पश्यंति मुनयः सर्वेऽपि
त्रिदिवौकसः ।
ब्राह्मणा मनवः शका ये चान्ये
प्रथितौजसः ॥ ५ ॥
सब देवता और मुनि मुझे देखने से
समर्थ नहीं होते हैं ब्राह्मण मनु इन्द्र तथा और देवता हैं ।। ५ ।।
गृणंति सततं वेदा मामेकं परमेश्वरम्
।
जयन्ति विविधैरग्नि ब्राह्मणा
वैदिकैर्मखः ॥ ६ ॥
सब वेद मुझ ही एक परमेश्वर का
निरन्तर यजन करते हैं, और कहते हैं
ब्राह्मण अनेक यज्ञों से मेरा यजन करते हैं ।। ६ ।।
सर्वे लोका नमस्यन्ति ब्रह्मलोके
पिता महम् ।
ध्यायंति योगिनो देवं
भूताधिपतिमीश्वरम् ॥७॥
सब लोक ब्रह्मलोक में मह को नमस्कार
करते हैं योगी भूताधिपति ईश्वर को नित्य ध्यान करते हैं ।। ७ ।।
अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता चैव
फलप्रद ।।
सर्वदेवतनुर्भुत्वा सर्वात्मा सर्व
संस्तुतः ॥ ८ ॥
मैं सब यज्ञों का भोक्ता और फल का देनेवाला
हूँ सब देव का शरीर होकर सर्व आत्मा सबसे स्तुति को प्राप्त होता हूँ ॥८॥
मां पश्यंतीह विद्वांसो धार्मिका
वेदवादिनः ।
तेषां संनिहितो नित्यं ये भक्ता
मामुपासते ॥ ९ ॥
धर्मात्मा वेदवादी विद्वान् मुझको
देखते हैं, जो भक्त मेरी उपासना करते हैं
मैं सदा उनके निकट निवास करता हूँ ।। ९ ।।
ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्या
धार्मिका मामुपासते ।
तेषां ददामि तत्स्थानमानंदं परमं
पदम् ॥ १० ॥
ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य धर्मात्मा मेरी
उपासना करते हैं, उनको मैं आनंदमय
परम पद का स्थान देता हूँ ।। १० ॥
अन्येऽपि ये विकर्मस्थाः शूद्राद्या
नीच जातयः ।
भक्तिमतः प्रमुच्यते कालेन मयि
संगताः ॥ ११ ॥
और भी जो शूद्रादि नीच जाति विकर्म में
स्थित हैं वे भक्ति करने के समय मेरे निकट प्राप्त होकर मुक्त हो जाते हैं ।।११।।
न मद्भक्ता विनश्यंते मद्भक्ता
वीतकल्मषाः ॥
आदावेतत्प्रतिज्ञातं न मे भक्तः
प्रणश्यति ॥ १२ ॥
मेरे भक्त पाप रहित हो जाते हैं,
उनका नाश नहीं होता यह पहले ही से मेरी प्रतिज्ञा है कि, मेरे भक्त नाश नहीं होते ।। १२ ।।
यो वा निति तं मूढो देवदेवं स निदति
॥
यो हि तं पूजयेद्भक्त्या स पूजयति
मां सदा ॥ १३ ॥
जो मूढ मेरे भक्त की निन्दा करता है
वह देवदेव की निन्दा करता है और जो उनको भक्तिसे पूजन करता है वह मेरा पूजन करता
है ।। १३ ।।
पत्रं पुष्पं फलं तोयं
मदाराधनकारणात् ॥
यो मे ददाति नियतः स मे भवतः प्रियो
मतः ॥ १४ ॥
जो मेरे पूजन को पत्र पुष्प फल जल
प्रदान करता है वह मेरा भक्त और मेरा प्रिय है ।। १४ ।।
निधाय दत्तवान्वेदानशेषानास्य
निःसृतान् ।। १५ ।।
मैं जगत्के आदि में ब्रह्मा
परमेष्ठी का निर्माण कर सम्पूर्ण वेदों को प्रदान करता हुआ,
जो मेरे मुख से निकले हैं ।। १५ ।।
अहमेव हि सर्वेषां योगिनां
गुरुरव्ययः ॥
धार्मिकाणां च गोप्ताहं निहन्ता
वेदविद्विषाम् ।। १६ ।।
मैं ही सम्पूर्ण योगियों का अविनाशी
गुरु हूँ धर्मात्माओं का रक्षक और वेदद्वेषियों का नाशक हूँ ।। १६ ॥
अहं वै सर्व संसारान्मोचको
योगिनामिह ।
संसारहेतुरेवाहं सर्वसंसारवजितः ॥
१७ ॥
मैं ही योगियों के साथ सब संसार का
मोचक हूँ,
मैं ही सब संसार से रहित सब संसारका हेतु हूँ ।। १७ ।।
अहमेव हि संहर्ता स्रष्टाहं
परिपालकः ॥
मायावी मामिका शक्तिर्माया
लोकविमोहिनी ॥ १८ ॥
मैं ही संहार करनेवाला और निर्माता
तथा परिपालन करनेवाला हूँ मायावी मेरी शक्ति सब लोक को मोहित करती है ।। १८।।
ममैव च परा शक्तिया सा विद्येति
गीयते ।
नाशयामि तया मायां योगिनां हृदि
संस्थितः ।। १९ ।।
वह मेरी ही शक्ति विद्यानाम से गायी
जाती है,
योगियों के हृदय में स्थित हो मैं उस माया को दूर करता हूँ ।। १९ ।।
अहं हि सर्वशक्तीनां प्रवर्तकनिव-
कः ॥
आधारभूतः सर्वासां निधानमनृतस्य च ॥
२० ॥
मैं ही सब शक्तियों का प्रवृत्त
करनेवाला हूँ, सबका आधारभूत हो अमृत का निधान
हूँ ।। २० ।।
एका सर्वांत शक्तिः करोति विविधं
जगत् ॥
भूत्वा नारायनोऽनंतो जगन्नाथ
जगन्मयः ।। २१ ।।
एक ही सर्वांतरा शक्ति जगत् को
अनेक प्रकार से करती है, वह जगन्नाथ अविनाशी
नारायण जगन्नाथ है ।।२१।।
तृतीया महती शक्तिनिर्हति सकलं जगत्
।
तामसी मे समाख्याता कालात्मा
रुद्ररूपिणी ॥ २२ ॥
तीसरी महान् शक्ति सो जगत्को निर्माण
करती है वह तामसी रुद्ररूपिणी कलात्मा रुद्ररूपवाली है ।। २२ ।।
ध्यानेन मां प्रपश्यंति
केचिज्ज्ञानेन चापरे ।।
अपरे भक्तियोगेन कर्मयोगेन चापरे ।।
सर्वेषामेव भक्तानामेव प्रियतरो मम
॥ २३ ॥
कोई मुझे ध्यान से और कोई ज्ञान से
देखते हैं, कोई भक्तियोग और कोई कर्मयोग से
मुझको देखते हैं सब भक्तों में मुझे यह सबसे अधिक प्रिय है ।। २३ ।।
यो विज्ञानेन मां नित्यमाराधयति
नान्यथा ।।
अन्येच ये त्रयो
भक्तामदाराधनकांक्षिणः ॥ २४ ॥
जो ज्ञान से मेरी नित्य आराधना करता
है और जो दूसरे तीन प्रकार भक्त मेरी आराधना के करनेवाले हैं ।।२४।।
तेऽपि मां प्राप्नुवत्येव नावर्तते
च वै पुनः ।
मया ततमिदं कृत्स्नेमेतद्यो वेद
सोऽसृतः ॥ २५ ॥
वे भी मुझको प्राप्त होकर फिर संसार
में नहीं गिरते हैं, मैंने इस जगत्को
विस्तार कर रक्खा है जो इसे जानता है सो अमृत होता है ।। २५ ।।
पश्याम्यशेषमेवेदं वर्तमानं
स्वभावतः ॥
करोति काले भगवान्महायोगेश्वरः
स्वयम् ॥ २६ ॥
मैं स्वभाव- से इस जगत् को वर्तमान
के समान देखता हूँ, समय पर महायोगेश्वर
भगवान् इसको कहते हैं।।२६।।
योगं संप्रोच्यते योगी मायी
शास्त्रेषु सूरिभिः ॥
योगेश्वरोऽसौ भगवान्महादेवो
महान्प्रभुः ॥ २७ ॥
वही योगी मायी शास्त्रों में योगरूप
से कहा जाता है वह योगरूप से कहा जाता है वह योगेश्वर भगवान् महायोगेश्वर महाप्रभु
है ।। २७ ।।
महत्वात्सर्वसत्त्वानां
परत्वात्परमेश्वरः ।
प्रोच्यते भगवान्ब्रह्मा
महान्ब्रह्ममयो यतः ॥ २८ ॥
महत्तत्त्व होने से सब जीवों का पर
होने से परमेश्वर है, वह महान् ब्रह्ममय
होने से ब्रह्मा कहलाते हैं ।। २८ ।।
यो मामेवं विजानाति
महायोगेश्वरेश्वरम् ॥
सोऽविकंपेन योगेन युज्यते नात्र
संशयः ।। २९ ।।
जो इस प्रकार मुझको महायोगेश्वर
जानता है वह अविकम्पयोग से युक्त होता है इसमें सन्देह नहीं ।। २९ ।।
सोऽहं प्रेरथिता देवः
परमानन्दमाश्रिताः ॥
तिष्ठामि योगी सततं यस्तद्वेद स
वेदवित् ॥ ३० ॥
सो मैं परमानन्दरूप से प्रेरणा किया
हुआ सबके आश्रित हूँ नित्ययोग में स्थित रहता हूँ जो इसको जानता है वह वेद को
जानता है ।। ३० ।
इति गुह्यतमं ज्ञानं सर्ववेदेषु
निश्चितम् ॥
प्रसन्नचेतसे देयं धार्मिका
याहिताग्नये ॥ ३१ ॥
यह गुप्त ज्ञान सब वेदों का सम्मत
है,
यह प्रसन्नचित्तवाले धर्मात्माओं को देना चाहिये जो अग्निहोत्र
करनेवाले हैं ।।३१।।
इत्यार्थे श्रीमद्रामायणे
वाल्मीकीये आदिकाव्ये अद्भुतोत्तरकांडे भक्तियोगो नाम त्रयोदशः सर्गः ॥ १३ ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिविरचित
आदिकाव्य रामायण के अद्भुतोत्तरकाण्ड में भक्तियोग नामक तेरहवाँ सर्ग समाप्त हुआ॥
आगे जारी...........अद्भुत रामायण सर्ग 14
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