अद्भुत रामायण सर्ग ११

अद्भुत रामायण सर्ग ११

अद्भुत रामायण सर्ग ११ में राम का सांख्ययोग वर्णन करना कहा गया है।

अद्भुत रामायण सर्ग ११

अद्भुत रामायणम् एकादश: सर्गः

Adbhut Ramayan sarga 11

अद्भुत रामायण ग्यारहवाँ सर्ग

अद्भुतरामायण एकादश सर्ग

अद्भुत रामायण सर्ग ११ - सांख्ययोग दर्शन

अथ अद्भुत रामायण सर्ग ११  

रामः प्राह हनूमन्तमात्मानं पुरुषोत्तमः ।

वत्स वत्स हनूमंस्त्वं भक्तोत्पृष्टवानसिं ॥ १ ॥

पुरुषोत्तम राम हनुमान्से अपना वर्णन करने लगे, हे वत्स हनुमान् ! हमारे भक्त तुम जो हमसे पूछते हो ॥ १ ।। 

तत्तेऽहं संप्रवक्ष्यामि शृणुष्वावहितो मम ।

अवाच्यमेतद्विज्ञानमात्मगुह्यं सनातनम् ॥ २ ॥

सो मैं कहता हूँ तुम सावधान होकर सुनो यह आत्मगुह्य सनातन ज्ञान किसी से कहना नहीं चाहिये ।। २ ।।

या देवा विजानंति यतन्तोऽपि द्विजातयः ।

इदं ज्ञानं समाश्रित्य ब्रह्मभूताद्विजोसमाः ॥ ३ ॥

जिसको यत्न करने पर देवता और द्विजाति भी नहीं जानते हैं, इस ज्ञान को प्राप्त द्विजोत्तम ब्रह्ममय हो जाते हैं ।। ३ ।।

न संसारं प्रपश्यंति पूर्वेऽपि ब्रह्मवा दिनः ॥

गुह्याद्गुह्यतमं साक्षाद्गोपनीयं प्रयत्नतः ॥ ४ ॥

इसके द्वारा पूर्वब्रह्मवादी भी संसार को नहीं देखते हैं यह गुप्त से गुप्त छिपा रखने के योग्य है ।। ४ ।।

वंशे भक्तिमतो ह्यस्य भवंति ब्रह्मवादिनः ।

आत्मा यः केवलः स्वच्छः शांतः सूक्ष्मः सनातनः ॥ ५ ॥

जो जानता है उसके वंश में महात्मा और ब्रह्मवादी होते हैं, आत्मा केवल स्वच्छ शान्त सूक्ष्म सनातन है ।। ५ ।।

अस्ति सर्वान्तरः साक्षाच्चि न्मात्रस्तमसः परः ।

सोऽन्तर्यामी स पुरुषः स प्राणः स महेश्वरः ॥ ६॥

वह सर्वान्तर साक्षात् चिन्मात्र अन्धकार से परे है, वही अन्तर्यामी पुरुष प्राण और महेश्वर है ।। ६ ।।

स कालाग्निस्तदव्यक्तं सद्यो वेदयति श्रुतिः ।

कस्माद्विजायते विश्वमत्रैव प्रविलीयते ॥ ७ ॥

वही कालाग्नि अव्यक्त है यह वेदश्रुति कहती है, इससे संसार उत्पन्न होकर इसी में लय हो जाता है ।। ७ ।।

मायावी मायया बद्धः करोति विविधास्तनूः ॥

न चाप्ययं संसरति नच संसारयेत्प्रभुः ॥ ८ ॥

वही मायावी माया से बद्ध होकर अनेक शरीर धारण करता है, न कोई इसे चला सकता है न यह चलता है ॥८॥

नायं पृथ्वी न सलिलं न तेजः पवनो नभः ॥

न प्राणो न मनो व्यक्तं न शब्दः स्पर्श एव च ॥ ९ ॥

न यह पृथ्वी जल अग्नि वायु आकाश प्राण मन अव्यक्त शब्द स्पर्श है ।। ९ ।।

न रूपरसगन्धश्च नाहङकर्ता न वागपि ॥ 

न पाणिपादौ नो पायुर्न चोपस्थं प्लवंगम ॥ १० ॥

न रूप रस गन्ध और न अहंकार न वाणी है, हे महावीर ! कर चरण उपस्थ पायुरूप भी नहीं है ।। १० ।

न कर्ता न च भोक्ता च न प्रकृतिपुरुषौ ॥

न माया नैव च प्राणश्चैतन्यं परमार्थतः ॥ ११ ॥

कर्त्ता भोक्ता प्रकृति पुरुष माया प्राण भी नहीं है, केवल चैतन्य स्वरूप है ।। ११ ।।

तथा प्रकाशतमसोः सम्बन्धोनोपपद्यते ॥

तद्वदेव न सम्बंधः प्रपञ्चपरमात्मनोः ॥ १२ ॥

जिस प्रकार प्रकाश और अन्धकार का सम्बन्ध नहीं है इसी प्रकार प्रपंच से परमात्मा का कुछ सम्बन्ध नहीं है ।। १२ ।

छायातरू यथा लोके परस्परविलक्षणौ ।

तद्वत्प्रपंच पुरुषो विभिन्नौ परमार्थतः ।। १३ ।।

जैसे लोक में छाया और वृक्ष परस्पर विलक्षण हैं इसी प्रकार प्रपंच और पुरुष परमार्थ से भिन्न हैं ।। १३ ।।

यद्यात्मा मालिनोऽस्वस्थो विकारी स्यात्स्वभावतः ।

नहि तस्य भवेन्मुक्तिर्जन्मांतरशतैरपि ॥ १४ ॥

जो आत्मा की मलिन अवस्था है जो स्वभाव से विकारी हो तो सौ जन्म में भी मुक्ति नहीं हो सकती ।। १४ ।।

पश्यंति मुनयो मुक्ताः स्वात्मानं परमार्थतः ।

विकारहीनं निर्बु:खमानंदात्मानमव्ययम् ॥ १५ ॥

मुनिजन परमार्थ से अपने आत्मा को मुक्त देखते हैं, विकारहीन दुःखरहित आनंद अविनाशी देखते हैं ।। १५ ।।

अहं कर्ता सुखी दुःखी कृशः स्थूलेति या मतिः ।

साप्यहंकृतिसम्बंधादात्मन्यारोप्यते जनैः । १६ ।

मैं कर्ता सुखी दुखी हूं, स्थूल कृश हूँ, यह बुद्धि अहंकार के सम्बंध से प्राणी आत्मा में आरोपण करते हैं ।। १६ ।।

वदंति वेद विद्वांसः साक्षिणं प्रकृतेः परम् ।

भोक्तारमक्षयं बुवा सर्वत्र समवस्थितम् ॥ १७ ॥

वेद के जाननेवाले उसको प्रकृति से परे कहते हैं, वही भोक्ता अक्षय सर्वत्र स्थित है ।। १७ ।।

तस्मादज्ञान मूलोयं संसार: सर्व देहि नाम् ।

अज्ञानादन्यथा ज्ञातं तच्च प्रकृतिसङ्गतम् ॥ १८ ॥

इस कारण सब देहधारियों को यह संसार अज्ञान से प्रतीत होता है, ज्ञान से अन्यथा दीखता है और वह भी प्रकृति से संग से ऐसा है ।। १८ ।।

नित्योदितः स्वयंज्योतिः सर्वगः पुरुषः परः ।

अहं काराविवेकेन कर्ताहमिति मन्यते ।। १९ ।।

वह सर्वांतर्यामी पुरुष नित्य उदित स्वयं ज्योति सर्वगामी पुरुष पर है, उसके बिना जाने यह पुरुष अहंकार के विवेक करने से अपने आपको कर्ता मानता है ।। १९ ।।

पश्यंति ऋषयो व्यक्तं नित्यं सदसदामकम् ।

प्रधानं प्रकृति बुवा कारणं ब्रह्मवादिनः ॥ २० ॥

ऋषिजन उस सदात्मक सर्वगामी चैतन्य को यथार्थं देखते हैं, ब्रह्मवादी उस प्रधान प्रकृति कारण ब्रह्म को जानकर मुक्त होते हैं ।

तेनात्र सङ्गतो ह्यात्मा कूटस्थोऽपि निरंजनः ।

आत्मानमक्षरं ब्रह्म नावबुद्धयंति तत्त्वतः ॥ २१ ॥

उससे संगति को प्राप्त हुआ कूटस्थ निरंजन पुरुष तत्त्व से अक्षर ब्रह्मरूप अपने आत्मा को नहीं जानता है ।।२१।।

अनात्मन्यात्मविज्ञानांतस्माद्दुखं तथेतरत् ।

रागद्वेषादयो दोषाः सर्वभ्रांतिनिबंधनाः ॥ २२ ॥

अनात्मा में आत्मा को जानकर दुःखी होता है, राग द्वेषादि यह सब भ्रांति के निबंधन हैं ॥ २२ ॥

कार्ये ह्यस्य भवेदेषा पुण्यापुण्यमिति श्रुतिः ।

तद्वशादेव सर्वेषां सर्वदेहसमुद्भवः ।। २३ ।।

इसी कार्य में यह पुण्य अपुण्य देखा जाता है ऐसी श्रुति है, इसी के वश से सब देहधारियों के देह की उत्पत्ति है ।। २३ ।।

नित्यः सर्वत्रगो ह्यात्मा कूटस्थो दोषवजितः ।

एकः स भिद्यते शक्त्या मायया न स्वभावतः ॥ २४ ॥

आत्मा नित्य और सर्वत्रगामी है, कूटस्थ दोष से वर्जित एक ही वह अपने माया स्वभाव से अनेक प्रकार का दीखता है ।

तस्मादद्वैतमेवाहुर्मुनयः परमार्थतः ।

भेदोऽव्यक्तस्वभावेन सा च मायात्मसंश्रया ।। २५ ।।

इस कारण से मुनिजन परमार्थ से अद्वैत ही कहते हैं, स्वभाव से जो अव्यक्त का भेद है वह माया है ।। २५ ।।

यथाहि धूमसंपर्कानाकाशो मलिनो भवेत् ।

अंतःकरणजैर्भावैरात्मा तद्वन्नलिप्यते ॥ २६ ॥

जैसे धूम के सम्पर्क से आकाश में श्यामता दीखती है, आकाश में दोष नहीं आता इसी प्रकार अन्तःकरण के भावों में आत्मा मलिन नहीं होता है ।। २६ ।।

यथा स्वप्रभया भाति केवलः स्फटिकोपलः ।

उपाधिहीनो विमलस्तथैवात्मा प्रकाशते ॥ २७ ॥

जैसे स्फटिक मणी केवल अपनी कांति से ही शोभा को प्राप्त होती है उपाधिहीन होने से निर्मल है उसी प्रकार आत्मा प्रकाशित होता है ।। २७ ।।

ज्ञानस्वरूपमेवाहुर्जगदेत- द्विचक्षणाः ।।

अर्थस्वरूपमेवाज्ञाः पश्यंत्यन्ये कुबुद्धयः ॥ २८ ॥

बुद्धिमान् इस जगत्को ज्ञानरूप कहते हैं, कुबुद्धि अज्ञानी इसको अर्थस्वरूप देखते हैं ।। २८ ।।

कूटस्थो निर्गुणो व्यापी चैतन्यात्मा स्वभावतः ॥

दृश्यते हार्थरूपेण पुरुष प्रतिदृष्टिभिः ।। २९ ।।

वह कूटस्थ निर्गुण व्यापी आत्मा स्वभाव से चैतन्य है, भ्रांति दृष्टिवाले पुरुषों को यह अर्थरूप दीखता है ।। २९ ।।

यथा संलक्ष्यते व्यक्तः केवलः स्फटिको जनैः ।

रक्तिकाव्यवधानेन तद्वत्परम पुरुषः ॥ ३० ॥

जैसे मनुष्यों को केवल स्फटिक प्रत्यक्ष दीखता है और व्यवधान सहित होने से लालिमा आदि दीखती है इसी प्रकार परम पुरुष है पृथक् शुद्ध है देह में व्याप्त होन से उपाधिमान् दीखता है ।। ३० ।।

तस्मादात्माक्षरः शुद्धो नित्यः सर्वगतो ऽव्ययः ॥

उपासितव्यो मंतव्यः श्रोतव्यश्च मुमुक्षुभिः ॥ ३१ ॥

इस कारण आत्मा अक्षर शुद्ध नित्य सर्वतक अविनाशी है वही उपासना करने योग्य मानने योग्य और मुमुक्षुओंके सुनने योग्य है ।

यदा मनसि चैतन्यं भाति सर्वत्रगं सदा ॥

योगिनोऽव्यवधानेन तदा संपद्यते स्वयम् ।। ३२ ॥

जिस समय मन में सर्वगामी चैतन्य का प्रादुर्भाव होता है तब योगी व्यवधानरहित हो उसको प्राप्त होता है ।। ३२ ।।

यदा सर्वाणि भूतानि स्वात्मन्येवाभि पश्यति ।

सर्वभूतेषु चात्मानं ब्रह्म संपद्यते स्वयम् ॥ ३३ ॥

जिस समय सम्पूर्ण प्राणियों को अपनी आत्मा में देखता है और अपने को सब भूतों में देखता है तब उस ब्रह्म को प्राप्त होता है ।। ३३ ।।

यदा सर्वाणि भूतानि स्वात्मन्येव न पश्यति ॥

एकीभूतः परेणासौ तदा भवति केवलः ॥ ३४ ॥

जो सब भूतों को अपने में देखता है तब यह एक एकीभूत केवल ब्रह्मा को प्राप्त होता है ।। ३४ ।

या सर्वे प्रमुच्यन्ते काया येऽस्य हृदि स्थिताः ॥

तदासाव- मृतीभूतः क्षेमं गच्छति पंडितः ।। ३५ ।।

जब इसके हृदय की सब कामना छूट जाती है तब यह पंडित अमृतीभूत होकर क्षेम को प्राप्त होता है ।। ३५ ।।

यदा भृतपृथग्भावमेकस्थमनु पश्यति ॥

तत एव च विस्तारं ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥ ३६ ॥

भूतों को पृथग्भाव को एक स्थान में देखता है उसी समय ब्रह्मविचार के विस्तार को प्राप्त होता है ।। ३६ ॥

यदा पश्यति चात्मायं केवलं परमार्थतः ।

मायामात्रं जगत्कृत्स्नं तदा भवति निर्वृतः ॥ ३७ ॥

जब परमार्थ से अपने को केवल एक देखता है और जगत्‌ को माया मात्र देखता है तब निर्वृति हो जाती है ।३७।।

यदा जन्मजरादुःखव्याधीनामेकभेषजम् ॥

केवलं ब्रह्मविज्ञानं जायतेऽसौ तदा शिवः ।। ३८ ।।

जिस समय जन्म जरा दुःख व्याधियों को एक ही औषधी केवल ब्रह्मज्ञान होता है तब यह शिव होता है ।

यथा नदी नदा लोके सागरेणैकतां ययुः ।।

तद्वदात्माक्षरेणासौ निष्कलेनैकतां व्रजेत् ॥ ३९ ॥

जैसे नदी नद समुद्र में जाकर एकता को प्राप्त होते हैं इसी प्रकार से यह निष्कल आत्मा अक्षर में मिलकर एकता को प्राप्त होता है ।। ३९ ।।

तस्माद्विज्ञानमेवास्ति न प्रपञ्चो न संस्थितिः ॥

अज्ञानेनावृतं लोके विज्ञानं तेन मुह्यति ॥ ४० ॥

इस प्रकार से विज्ञान ही है प्रपंच और स्थिति नहीं है, लोक अज्ञान से व्याकुल होकर विज्ञान से देखता है ।।४०।।

तज्ज्ञानं निर्मलं सूक्ष्मं निर्विकल्पं यदव्ययम् ॥

अज्ञानमिति तत्सर्वं विज्ञानमिति मे मतम् ॥ ४१ ॥

वह ज्ञान निर्मल सूक्ष्म निर्विकल्प अविनाशी है, यह अज्ञान से सब होता है विज्ञान है वही सर्वश्रेष्ठ है एक यही निश्चय है ।

एतत्ते परमं सांख्यं भाषितं ज्ञानमुत्तमम् ।

सर्ववेदान्तसारं हि योगस्तत्रक चित्तता ॥ ४२ ॥

यह परम सांख्य उत्तम ज्ञान है, सब वेदान्त का सारयोग वही है कि एकचित्तता होनी ।। ४२ ।।

योगात्संजायते ज्ञानं ज्ञानाद्योगः प्रजायते ।

योगज्ञानाभियुक्तस्य नावाप्यं विद्यते क्वचित् ॥ ४३ ॥

योग से ज्ञान होता है ज्ञान से योग प्रवृत्त होता है, ज्ञानयोग से युक्त पुरुषों को कुछ भी दुर्लभ नहीं है ।। ४३ ।।

यदेव योगिनो यांति सांख्यं तदभिगम्यते ।

एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स तत्त्ववित् ॥ ४४ ॥

जिस मार्ग से योगी चलते हैं उसी मार्ग से सांख्यवाले जाते हैं, सांख्य योग से जो एकता देखता है वही देखता है ।

अन्ये च योगिनो वत्स ऐश्वर्थासक्तचेतसः ।

मज्जन्ति तत्र तत्रैव सत्त्वात्मैक्यमिति श्रुतिः ॥ ४५ ॥

हे वत्स ! ऐश्यर्य में मन लगानेवाले योगी और हैं वे उन स्थानों में निमज्जित होते हैं, सत्त्वात्मा एक है यह श्रुति है।

यत्तत्सर्वगतं दिव्यमैश्वर्यमचलं महत् ।

ज्ञानयोगाभियुक्तस्तु देहांते तदवाप्नुयात् ॥ ४६ ॥

जो सर्वंगत दिव्य अचल ऐश्वर्य है ज्ञानयोग युक्त प्राणी उस सबको देहान्त में प्राप्त हो जाते हैं ।। ४६ ।।

एष आत्माहमव्यक्तो मायावी परमेश्वरः ।

कीर्तितः सर्ववेदेषु सर्वत्मा सर्वतोमुखः ।। ४७ ।।

यह में अव्यक्त आत्मा मानवी परमेश्वर हूँ सब वेदों में सर्वात्मा सर्वतोमुख स्थित हो रहा हूँ ।। ४७ ।।

सर्वकामः सर्वरसः सर्वगंधोऽजरोमरः ।

सर्वतः पाणिपादोऽहमंतर्यामी सनातनः ॥ ४८ ॥

सर्वकामयुक्त सर्वरस, सर्वगन्ध अजर अमर सब ओर से पाणिपादयुक्त में अन्तर्यामी सनातन हूँ।

अपाणिपादो जवनो ग्रहीता हृदि संस्थितः ।

अचक्षुरपि पश्यामि तथाऽकर्णः शृणोम्यहम् ॥ ४९ ॥

अपाणिपादवाला वेगवान् सब कुछ ग्रहण करनेवाला हृदय में स्थित हूँ, विना नेत्रों देखता और विना कान के सुनता हूँ ।

वेदाहं सर्वमेवेदं न मां जानाति कश्चन ।

प्राहुर्महान्तं पुरुषं मामेकं तत्त्वर्दाशिनः ॥ ५० ॥

मैं इस सबको जानता हूँ और मुझे कोई नहीं जानता है, तत्वदर्शी मुझको एक महान् पुरुष कहते हैं ।। ५० ।।

निर्गुणामलरूपस्य यत्तवैश्वर्यमुत्तमम् ।

यन्न देवा विजानंति मोहिता मायया मम ॥ ५१ ॥

निर्गुण अमलरूप जो उत्तम ऐश्वर्य है जिसको मेरी माया से मोहित हुए देवता भी मुझको नहीं जानते हैं ।। ५१ ।।

यन्मे गुह्यतमं देहं सर्वगं तत्त्वदर्शिनः ।

प्रविष्टा मम सायुज्यं लभंते योगिनोऽव्ययम् ॥ ५२ ॥

जो मेरा गुह्यरूप सर्वगामी देह है। उसमें तत्त्वदर्शी प्रवेश कर मेरे सायुज्य को प्राप्त होते हैं ।। ५२ ।।

येषां हि न समापन माया वं विश्वरूपिणी ।

लभन्ते परमं शुद्धं निर्वाणं ते मया सह ॥ ५३ ॥

जिनको यह विश्वरूपिणी माया नहीं लिपटी है वे मेरे साथ परम शुद्ध निर्वाण को प्राप्त होते हैं ।। ५३ ।।

न तेषां पुनरावृत्तिः कल्पकोटिशतैरपि ।

प्रसादान्मम ते वत्स एतद्वेदानुशासनम् ॥ ५४ ॥

सौ करोड कल्प में भी उनकी पुनरावृत्ति नहीं होती, हे वत्स ! मेरी कृपा से ऐसा होता है यही वेद का अनुशासन है ।

नापुत्रशिष्ययोगिभ्यो दातव्य हनुमन्कचित् ।

यदुक्तमेतद्विज्ञानं सांख्ययोगसमाश्रयम् ।। ५५ ।।

हे हनुमत् ! अपुत्र अशिष्य अयोगी को यह नहीं देनी चाहिये, जो यह मैंने सांख्ययोग मिश्रित ज्ञान आपसे वर्णन किया है।

इत्यार्थे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदि काव्ये अद्भुतोत्तरकाण्डे सांख्ययोगे नामैकादशः सर्गः ॥ ११ ॥

॥ इति श्रीवाल्मीकिविरचित आदिकाव्य रामायण के अद्भुतोत्तरकाण्ड में श्रीराम द्वारा हनुमान को सांख्ययोग का उपदेश नामक एकादश सर्ग समाप्त ॥ ११ ॥

आगे जारी...........अद्भुत रामायण सर्ग 12

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