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अथ चतुरशीतितमोऽध्यायः
ईश्वर उवाच
अथ प्रातः
समुत्थाय कृतस्नानादिको गुरुः।
दध्यार्द्रमांसमद्यादेः
प्रशस्ताऽभ्यवहारिता ।। १।।
गजाश्वारोहणं
स्वप्ने शुभं शुक्लांशुकादिकं ।
तैलाभ्यङ्गादिकं
हीनं होमो घोरेण शान्तये ।। २ ।।
नित्यकर्म्मद्वयं
कृत्वा प्रविश्य मखमण्डपं ।
स्वाचान्तो
नित्यवत् कर्म्म कुर्यान्नैमित्तिके विधौ ।। ३ ।।
ततः संशोध्य
चात्मानं शिवहस्तं तथात्मनि ।
विन्यस्य
कुम्भगं प्राच्चर्य इन्द्रादीनामनुक्रमात् ।। ४ ।।
मण्डलो
स्थण्डिले वाऽपि प्रकुर्वीत शिवार्च्चनं ।
तर्पणं पूजनं
वह्नेः पूर्णान्तं मन्त्रतर्पणं ।। ५ ।।
भगवान् शंकर कहते हैं—स्कन्द ! तदनन्तर प्रातः काल उठकर गुरु स्नान आदि से निवृत्त हो शिष्यों से उनके द्वारा देखे गये स्वप्न को पूछे। स्वप्न में दही, ताजा कच्चा मांस और मद्य आदि का दर्शन या उपयोग उत्तम बताया गया है। ऐसा स्वप्न शुभ का सूचक होता है। सपने में हाथी और घोड़े पर चढ़ना तथा श्वेत वस्त्र आदि का दर्शन शुभ है। स्वप्न में तेल लगाना आदि अशुभ माना गया है। उसकी शान्ति के लिये अघोर- मन्त्र से होम करना चाहिये। प्रातः और मध्याह्न- दो कालों का नित्य कर्म करके यज्ञमण्डप में प्रवेश करे तथा विधिवत् आचमन करके नैमित्तिक विधि में भी नित्य के समान ही कर्म करे। तत्पश्चात् अध्व-शुद्धि करके अपने ऊपर शिवहस्त रखे। फिर कलशस्थ शिव का पूजन करके क्रमशः इन्द्रादि दिक्पालों की भी पूजा करे। मण्डल में और वेदी पर भी भगवान् शिव का पूजन करना चाहिये । इसके बाद तर्पण, अग्निपूजन, पूर्णाहुति पर्यन्त होम एवं मन्त्र - तर्पण करे* ॥ १-५ ॥
*ग्रहणं ताड़नं योगं पूजातर्पणदीपनम् । बन्धनं शान्त्यतीतादेः
शिवकुम्भसमर्पणम् ॥
एवं
कर्मक्रमः प्रोक्तः पाशबन्धे शिवेन तु ।(८०८-८०९अ)
'पहले
तो मन्त्रों का दीपन कहा गया है। फिर सूत्रावलम्बन, उसमें
सुषुम्णा नाड़ी का संयोग, शिष्यचैतन्य का संयोजन, ग्रहण, ताड़न योग, पूजा,
तर्पण, दीपन, शान्त्यतीत
आदि कलाओं का बन्धन तथा शिव-कलश-समर्पण इस प्रकार भगवान् शिव ने पाशबन्धविषयक कर्मकाण्ड
के क्रम का प्रतिपादन किया है।"
• कहीं-कहीं बहितर्पण पाठ भी मिलता है।
दुःस्वप्नदोषमोषाय
शस्त्रेणाष्टाधिकं शतं ।
हुत्वा हूं
सम्पुटेनैव विदध्यात् मन्त्रदीपनं ।। ६ ।।
अन्तर्बलिविधानञ्च
मध्ये स्थण्डिलकुम्भयोः।
कृत्वा
शिष्यप्रवेशाय लब्धानुज्ञो बहिर्व्रजेत् ।। ७ ।।
कुर्य्यात्समयवत्तत्र
मण्डलारोपणादिकं ।
सम्पातहोमं तन्नाडीरूपदर्भकरानुगं
।। ८ ।।
तत्सन्निधानाय
तिस्रो हुत्वा मूलाणुनाऽऽहुतीः।
कुम्भस्थं
शिवमभ्यर्च्च्य पाशसूत्रमुपाहरेत् ।। ९ ।।
स्वदक्षिणोर्ध्वकायस्य
शिष्यस्याभ्यर्च्चितस्य च ।
तच्छिखायां
निबध्नीयात् पादाङ्गुष्ठावलम्बितं ।। १० ।।
तं निवेश्य
निवृत्तेस्तु व्याप्तिमालोक्य चेतसा ।
ज्ञेयानि
भुवनान्यस्यां शतमष्टाधिकं ततः ।। ११ ।।
दुःस्वप्न-दर्शनजनित
दोष का निवारण करने के लिये 'हूं' सम्पुटित अस्त्र-मन्त्र (हूं फट् हूं)-के द्वारा एक सौ आठ आहुतियाँ
देकर मन्त्र- दीपन करे । वेदी और कलश के मध्यभाग में अन्तर्बलि का अनुष्ठान करके,
शिष्यों के प्रवेश के लिये इष्टदेव से आज्ञा लेकर, गुरु मण्डप से बाहर जाय। वहाँ समय- दीक्षा की ही भाँति मण्डलारोपण आदि करे
। सम्पातहोम तथा सुषुम्णा नाड़ीरूप कुश को शिष्य के हाथ में देने आदि से सम्बद्ध
कार्य का सम्पादन करे। फिर निवृत्तिकला के सांनिध्य के लिये मूल मन्त्र से तीन
आहुतियाँ देकर, कुम्भस्थ शिव की पूजा करके कलापाशमय सूत्र
अर्पित करे। तदनन्तर पूजित शिष्य के ऊपरी शरीर के दक्षिणी भाग में उसकी शिखा में
उस सूत्र को बाँधे और उसे पैर के अँगूठे तक लंबा रखे। इस प्रकार उस पाश का निवेश
करके उसमें मन-ही- मन निवत्तिकला की व्याप्ति का दर्शन करे। उसमें एक सौ आठ भुवन
जानने योग्य हैं ॥ ६-११ ॥
कपालोऽजश्च
बुद्धश्च वज्रदेहः प्रमर्द्दनः ।
विभूतिरव्ययः
शास्ता पिनाकी त्रिदशाधिपः ।। १२ ।।
अग्नी रुद्रो
हुताशी च पिङ्गलः खादको हरः।
ज्वलनो दहनो
बभ्रुर्भस्मान्तकक्षपान्तकौ ।। १३ ।।
याम्यमृत्युहरो
धाता विधाता कार्य्यरञ्जकः।
कालो
धर्म्मेऽप्यधर्मश्च संयोक्ता च वियोगकः ।। १४ ।।
नैर्ऋतो मारणो
हन्ता क्रूरदृष्टिर्भयानकः।
ऊर्द्ध्वांशको
विरूपाक्षो धूम्रलोहितदंष्ट्रवान् ।। १५ ।।
बलश्चातिबलश्चैव
पाशहस्तो महाबलः।
श्वेतश्च
जयभद्रश्च दीर्घबाहुर्जलान्तकः ।। १६ ।।
वडवास्यश्च
भीमश्च दशैते वारुणाः स्मृताः।
शीघ्रो
लघुर्व्वायुवेगः सूक्ष्मस्तीक्ष्णः क्षपान्तकः ।। १७ ।।
पञ्चान्तकः
पञ्चशिखः कपर्द्दी मेघवाहनः।
जटामुकुटधारी
च नानारत्नधरस्तथा ।। १८ ।।
निधीशो
रूपवान् धन्यो सौम्यदेहः प्रसादकृत् ।
प्रकाशोऽप्यथ
लक्ष्मीवान् कामरूपो दशोत्तरे ।। १९ ।।
विद्याधरो
ज्ञानधरः सर्वज्ञो वेदपारगः।
मातृवृत्तश्च
पिङ्गाक्षो भूतपालो बलिप्रियः ।। २० ।।
सर्वविद्याविधाता
च सुखदुःखहरा दश ।
अनन्तः पालको
धीरः पातालाधिपतिस्तथा ।। २१ ।।
वृषो वृषधरो
वीर्य्यो ग्रसनः सर्वतोमुखः।
लोहितश्चैव
विज्ञेया दश रुद्राः फणिस्थिताः ।। २२ ।।
शम्भुर्विभुर्गणाध्यक्षस्त्रयक्षस्त्रिदशवन्दितः।
संहारश्च
विहारश्च लाभो लिप्सुर्विचक्षणः ।। २३ ।।
अत्ता
कुहककालाग्निरुद्रो हाटक एव च ।
कूष्माण्डश्चैव
सत्यश्च ब्रह्मा विष्णुश्च सप्तमः ।। २४ ।।
रुद्रश्चाष्टाविमे
रुद्राः कटाहाभ्यन्तरे स्थिताः।
एतेषामेव
नामानि भुवनानामपि स्मरेत् ।। २५ ।।
१. कपाल, २. अज, ३.
अहिर्बुध्न्य, ४. वज्रदेह, ५. प्रमर्दन,
६. विभूति, ७. अव्यय, ८.
शास्ता, ९. पिनाकी, १०. त्रिदशाधिपये
दस रुद्र पूर्व दिशा में विराजते हैं। ११. अग्निभद्र, १२.
हुताश, १३. पिङ्गल, १४. खादक, १५. हर, १६. ज्वलन, १७. दहन,
१८. बभ्रु १९. भस्मान्तक, २०. क्षपान्तक- ये
दस रुद्र अग्निकोण में स्थित हैं । २१. दम्य, २२. मृत्युहर,
२३. धाता, २४. विधाता, २५.
कर्ता, २६. काल, २७. धर्म, २८. अधर्म, २९. संयोक्ता, ३०.
वियोजक- ये दस रुद्र दक्षिण दिशा में शोभा पाते हैं। ३१. नैर्ऋत्य, ३२. मारुत, ३३. हन्ता, ३४.
क्रूरदृष्टि, ३५. भयानक, ३६. ऊर्ध्वकेश,
३७. विरूपाक्ष, ३८. धूर ३९. लोहित, ४० दंष्ट्री - ये दस रुद्र नैर्ऋत्यकोण में स्थित हैं। ४१. बल, ४२. अतिबल, ४३. पाशहस्त, ४४.
महाबल, ४५. श्वेत, ४६. जयभद्र, ४७. दीर्घबाहु ४८. जलान्तक, ४९. वडवास्य, ५०. भीम- ये दस रुद्र वरुणदिशा में स्थित बताये गये हैं । ५१. शीघ्र,
५२. लघु ५३. वायुवेग, ५४. सूक्ष्म, ५५. तीक्ष्ण, ५६. क्षमान्तक, ५७.
पञ्चान्तक, ५८. पञ्चशिख, ५९. कपर्दी,
६२० मेघवाहन- ये दस रुद्र वायव्यकोण में स्थित हैं। ६१. जयमुकुटधारी,
६२. नानारत्नधर, ६३. निधीश, ६४. रूपवान् ६५. धन्य,६६. सौम्यदेह, ६७. प्रसादकृत् ६८ प्रकाम, ६९. लक्ष्मीवान् ७०.
कामरूप- ये दस रुद्र उत्तर दिशा में स्थित हैं । ७१. विद्याधर ७२. ज्ञानधर, ७३. सर्वज्ञ, ७४. वेदपारग, ७५.
मातृवृत्त, ७६. पिङ्गाक्ष, ७७. भूतपाल,
७८. बलिप्रिय, ७९. सर्वविद्याविधाता, ८०. सुख-दुःखकर ये दस रुद्र ईशानकोण में स्थित हैं। ८१. अनन्त, ८२. पालक, ८३. धीर, ८४.
पातालाधिपति, ८५. वृष, ८६. वृषधर ८७.
वीर, ८८. ग्रसन, ८९. सर्वतोमुख,
९०. लोहित- इन दस रुद्रों की स्थिति नीचे की दिशा पाताललोक में
समझनी चाहिये। ९१. शम्भु ९२. विभु ९३. गणाध्यक्ष, ९४.
त्र्यक्ष, ९५. त्रिदशवन्दित ९६. संवाह ९७. विवाह, ९८. नभ ९९. लिप्सु १०० विचक्षण- ये दस रुद्र ऊर्ध्व दिशा में विराजमान
हैं। १०१. हूहुक, १०२. कालाग्निरुद्र, १०३.
हाटक, १०४. कूष्माण्ड, १०५. सत्य,
१०६. ब्रह्मा १०७. विष्णु तथा १०८. रुद्र- ये आठ रुद्र ब्रह्माण्ड
कटाह के भीतर स्थित हैं। यह स्मरण रखना चाहिये कि इन्हीं के नाम पर एक सौ आठ
भुवनों के भी नाम है ॥ १२ - २५ ॥
भवोद्भवः
सर्वभूतः सर्वभूतसुखप्रदः।
सर्वसान्निध्यकृद्
ब्रह्मविष्णुरुद्रशरार्च्चितः ।। २६ ।।
संस्तुत
पूर्वस्थित ओं साक्षिन् ओं रुद्रान्तक ओं पतङ्ग ओं शब्द ओं सूक्ष्म ओं शिव सर्व
सर्व्वद सर्व्वसान्निध्यकर ब्रह्मविष्णुरुद्रकर ओं नमः शिवाय ओं नमो नमः ।
अष्टाविंशति
पादानि व्योमव्यापि मनो गुह ।
सद्योहृदस्त्रनेत्राणि
मन्त्रवर्णाष्टको मतः ।। २७ ।।
बीजाकारो
मकारश्च नाड्याविडापिङ्गलाह्वये ।
प्राणापानावुभौ
वायू घ्राणोपस्थौ तथेन्द्रिये ।। २८ ।।
गन्धस्तु
विषयः प्रोक्तो गन्धादिगुणपञ्चके ।
पार्थिवं
मण्डलं पीतं वज्राङ्कं चतुरस्रकं ।। २९ ।।
विस्तारो
योजनानान्तु कोटिरस्य शताहता ।
अत्रैवान्तर्गता
ज्ञेया योनयोऽपि चतुर्द्दश ।। ३० ।।
(१)
सद्भावेश्वर, (२)
महातेज:, (३) योगाधिपते, (४) मुञ्च
मुञ्च, (५) प्रमथ प्रमथ, (६) शर्व शर्व,
(७) भव भव, (८) भवोद्भव, (९) सर्वभूतसुखप्रद, (१०) सर्वसांनिध्यकर, (११) ब्रह्मविष्णुरुद्रपर, (१२) अनर्चितानर्चित,
(१३) असंस्तुतासंस्तुत, (१४) पूर्वस्थित
पूर्वस्थित, (१५) साक्षिन् साक्षिन्, (१६)
तुरु तुरु, (१७) पतंग पतंग, (१८) पिङ्ग
पिङ्ग, (१९) ज्ञान ज्ञान, (२०) शब्द
शब्द, (२१) सूक्ष्म सूक्ष्म, (२२) शिव,
(२३) सर्व, (२४) सर्वद, (२५) ॐ नमो नमः, (२६) ॐ नमः, (२७)
शिवाय, (२८) नमो नमः ये अट्ठाईस पद हैं। स्कन्द ! व्यापक
आकाश मन है 'ॐ नमो वौषट्'- ये
अभीष्ट मन्त्रवर्ण हैं। अकार और लकार (अं लं) बीज हैं। इडा और पिङ्गला
नामवाली दो नाड़ियाँ हैं। प्राण और अपान-दो वायु हैं और प्राण तथा उपस्थ-ये दो
इन्द्रियाँ हैं। गन्ध को 'विषय' कहा
गया है तथा इसमें गन्ध आदि पाँच गुण हैं। यह पृथ्वीतत्त्व से सम्बन्धित है। इसका
रंग पीला है। इसकी मण्डलाकृति (भूपुर) चौकोर है और चारों ओर से वज्र से अङ्कित है।
इस पार्थिव मण्डल का विस्तार सौ कोटि योजन माना गया है। चौदह योनियों को भी इसी के
अन्तर्गत जानना चाहिये ॥ २६-३० ॥
प्रथमा
सर्वदेवानां मन्वाद्या देवयोनयः ।
मृगपक्षी च
पशवश्चतुर्द्धा तु सरीसृपाः ।। ३१ ।।
स्थावरं
पञ्चमं सर्वं योनिः षष्ठी अमानुषी ।
पैशाचं
राक्षसं याक्षं गान्धर्व्वं चैन्द्रमेव च ।। ३२ ।।
सौम्यं
प्राणेश्वरं ब्राह्ममष्टमं परिकीर्त्तितं ।
अष्टानां
पार्थिवन्तत्त्वमधिकारास्पदं मतं ।। ३३ ।।
लयस्तु
प्रकृतौ बुद्धौ भोगो ब्रह्मा च कारणं ।
ततो
जाग्रदवस्थानैः समस्तैर्भुवनादिभिः ।। ३४ ।।
निवृत्तिं
गर्भितां ध्यात्वा स्वमन्त्रेण नियोज्य च ।
ओं हां ह्रूं
हां निवृत्तिकलापाशाय हूं फट तत् ओं हां हां निवृत्तिकलापाशाय
स्वाहेत्यनेनाङ्कुशमुद्रया पूरकेणाकृष्य ओं ह्रूं ह्रां ह्रूं निवृत्तिकलापाशाय
हूं फडित्यनेन संहारमुद्रया कुम्भकेनाधः स्थानादादाय ओं ओं ह्रं हां
निवृत्तिकलापाशाय नम इत्यानेनोद्भवमुद्रया रेचकेन कुम्भे संस्थाप्य ओं हां
निवृत्तिकलापाशाय नम इत्यानेनार्घ्यं दत्वा सम्पूकज्य विमुखेनैव स्वाहान्तेनै
सन्निधानायाहुतित्रयं सन्तपर्णाहुतित्रयं च दत्वा ओं हां ब्रह्मणो नम इति
ब्रह्माणमावाह्य सम्पूज्य च स्वाहान्तेन सन्तर्प्य ।
ब्रह्मन्
तवाधिकारेऽस्मिन् मुमुक्षुं दीक्षयाम्यहं ।। ३५ ।।
भाव्यं
त्वयाऽनुकूलेन विधिं विज्ञापयेदिति ।
प्रथम छः
योनियाँ मृग आदि की हैं और आठ दूसरी देवयोनियाँ हैं। उनका विवरण इस प्रकार है- मृग
पहली योनि है, दूसरी
पक्षी, तीसरी पशु, चौथी सर्प आदि,
पाँचवीं स्थावर और छठी योनि मनुष्य की है। आठ देवयोनियों में प्रथम
पिशाचों की योनि है, दूसरी राक्षसों की, तीसरी यक्षों की, चौथी गन्धर्वो की, पाँचवीं इन्द्र की, छठी सोम की, सातवीं प्रजापति की और आठवीं योनि ब्रह्मा की बतायी गयी है। पार्थिव
तत्त्व पर इन आठों का अधिकार माना गया है। लय होता है प्रकृति में, भोग होता है बुद्धि में और ब्रह्मा कारण हैं। तदनन्तर जाग्रत् अवस्था
पर्यन्त समस्त भुवन आदि से गर्भित हुई निवृत्तिकला का ध्यान करके उसका अपने मन्त्र
में विनियोग करे। वह मन्त्र इस प्रकार है-
'ॐ हां हां हां निवृत्तिकलापाशाय हूं फट् स्वाहा।' इसके बाद 'ॐ हां
हां हों निवृत्तिकलापाशाय हूं फट् स्वाहा।' - इस मन्त्र से
अङ्कुशमुद्रा के प्रदर्शनपूर्वक पूरक प्राणायाम द्वारा उक्त कला का आकर्षण करे।
फिर 'ॐ हूं हां हां हां हूं निवृत्तिकलापाशाय हूं फट्। - इस मन्त्र से संहारमुद्रा एवं कुम्भक प्राणायाम द्वारा उसे नाभि के
नीचे के स्थान से लेकर 'ॐ हां निवृत्तिकलापाशाय नमः। - इस मन्त्र से उद्भव मुद्रा एवं रेचक प्राणायाम के द्वारा उसको कुण्ड में
किसी आधार या आसन पर स्थापित करे। तत्पश्चात् 'ॐ हां
निवृत्तिकलापाशाय नमः।'- इस मन्त्र से अर्घ्यदानपूर्वक
पूजन करके इसी के अन्त में 'स्वाहा'
लगाकर तर्पण और संनिधान के उद्देश्य से पृथक्- पृथक्
तीन-तीन आहुतियाँ दे। इसके बाद 'ॐ हां ब्रह्मणे नमः। - इस मन्त्र से ब्रह्मा का आवाहन और पूजन करके उसके अन्त में 'स्वाहा' जोड़कर तीन आहुतियों द्वारा ब्रह्माजी को
तृप्त करे। तदनन्तर उनसे इस प्रकार विज्ञप्तिपूर्वक प्रार्थना करे- 'ब्रह्मन्! मैं इस मुमुक्षु को आपके अधिकार में दीक्षित कर रहा हूँ। आपको
सदा इसके अनुकूल रहना चाहिये ' ॥ ३१-३५अ ॥
आवाहयेत्ततो
देवीं रक्षां वागीश्वरीं हृदा ।। ३६ ।।
इच्छाज्ञानक्रियारूपां
षड्विधां ह्येककारणं ।
पूजयेत्तर्पयेद्देवीं
प्रकारेणामुना ततः ।। ३७ ।।
वागीश्वरीं विनिःशेषयोनिविक्षोभकारणं
।
हृत्सम्पुटार्थबीजादिहूं
फडन्तशराणुना ।। ३८ ।।
ताडयेद्धृदये
तस्य प्रविशेत्स विधानवित् ।
ततः शिष्यस्य
चैतन्यं हृदि वह्निकणोपमं ।। ३९ ।।
निवृत्तिस्थं
युतं पाशैर्ज्येष्ठया विभजेद्यथा ।
ओं हां हूं हः
हूं फट् ।
ओं हं
स्वाहेत्येनेनाथ पूरकेणाङ्कुशमुद्रया ।। ४० ।।
तदाकृष्य
स्वमन्त्रेण गृहीत्वाऽऽत्मनि योजयेत् ।
ओं हां ह्रूं
हाम् आत्मने नमः।
तदनन्तर
रक्तवर्णा वागीश्वरीदेवी का मन-ही- मन हृदय- मन्त्र से आवाहन करे। वे देवी इच्छा, ज्ञान और क्रियारूपिणी हैं। छः प्रकार के
अध्वाओं की एकमात्र कारण हैं। फिर पूर्वोक्त प्रकार से वागीश्वरीदेवी का पूजन और
तर्पण करे। साथ ही समस्त योनियों को विक्षुब्ध करनेवाले और हृदय में विराजमान
वागीश्वरदेव का भी पूजन और तर्पण करना चाहिये। आदि में अपने बीज और अन्त में 'हूं फट्' से युक्त जो अस्त्र-मन्त्र हैं,
उसी से विधानवेत्ता गुरु शिष्य के हृदय का ताड़न करे और भावना द्वारा
उसके भीतर प्रविष्ट हो। तत्पश्चात् हृदय के भीतर अग्निकण के समान प्रकाशमान जो
शिष्य का जीवचैतन्य निवृत्तिकला में स्थित होकर पाशों से आबद्ध है, उसे ज्येष्ठा द्वारा विभक्त करे। उसके विभाजन का मन्त्र इस प्रकार है-'ॐ हां हूं हः हूं फट्।' 'ॐ हां स्वाहा।' इस मन्त्र से पूरक प्राणायाम और अकुश मुद्रा द्वारा उस जीवचैतन्य को हृदय में
आकृष्ट करके, आत्म- मन्त्र से पकड़कर उसे अपने आत्मा में
योजित करे। वह मन्त्र इस प्रकार है - ॐ हां हां हामात्मने नमः!'
।।३६-४०अ ॥
पित्रोर्विभाव्य
संयोगं चैतन्यं रेचकेन तत् ।। ४१ ।।
ब्रह्मादिकारणत्यागक्रमान्नीत्वा
शिवास्पदं ।
गर्भाधानार्थमादाय
युगपत् सर्वयोनिषु ।। ४२ ।।
क्षिपेद्वागीश्वरीयोनौ
वामयोद्भवमुद्रया ।
ओं हां हां
हां आत्मने नमः ।
पूजयेदप्यनेनैव
तर्पयेदपि पञ्चधा ।। ४३ ।।
अन्ययोनिषु
सर्व्वासु देहशुद्धिं हृदा चरेत् ।
नात्र पुंसवनं
स्त्र्यादिशरीरस्यापि सम्भवात् ।। ४४ ।।
सीमन्तोन्नयनं
वापि दैवान्यङ्गानि देहवत् ।
फिर माता-पिता
के संयोग का चिन्तन करके रेचक प्राणायाम द्वारा ब्रह्मादि कारणों का क्रमशः त्याग
करते हुए उक्त जीवचैतन्य को शिवरूप अधिष्ठान में ले जाय और गर्भाधान के लिये उसे
लेकर एक ही समय सब योनियों में तथा वामा उद्भव – मुद्रा के द्वारा वागीश्वरी योनि में
उसे डाल दे। इसके बाद 'ॐ हां हां हामात्मने नमः।' इसी मन्त्र से पूजन और पाँच बार तर्पण भी करे। इस जीवचैतन्य का
सभी योनियों में हृदय- मन्त्र से देह-साधन करे। यहाँ पुंसवन संस्कार नहीं होता;
क्योंकि स्त्री आदि के शरीर की भी उत्पत्ति सम्भव है। इसी तरह
सीमन्तोन्नयन भी नहीं हो सकता; क्योंकि दैववश अन्ध आदि के
शरीर से भी उत्पत्ति की सम्भावना है ॥ ४१-४४अ ॥
शिरसा जन्म
कुर्व्वीत जुगुप्सन् सर्व्वदेहिनां ।। ४५ ।।
तथैव
भावयेदेषामधिकारं शिवाणुना ।
भोगं
कवचमन्त्रेण शस्त्रेण विषयात्मना ।। ४६ ।।
मोहरूपमभेदञ्च
लयसञ्ज्ञं विभावयेत् ।
शिवेन
स्रोतसां शुद्धिं हृदा तत्त्वविशोधनं ।। ४७ ।।
पञ्च
पञ्चाहुतीः कुर्य्यात् गर्भाधानादिषु क्रमात् ।
मायया मलकर्मादिपाशबन्धनिवृत्तये
।। ४८ ।।
निष्कृत्यैव
हृदा पश्चाद् यजेत शतमाहुतीः।
मलशक्तिनिरोधेन
पाशानाञ्च वियोजनं ।। ४९ ।।
स्वाहान्तायुधमन्त्रेण
पञ्चपञ्चाहुतीर्यजेत् ।
मायाद्यन्तस्य
पाशस्य सप्तवारास्त्रजप्तया ।। ५० ।।
कर्त्तर्य्या
छेदनं कुर्य्यात् कल्पशस्त्रेण तद्यथा ।
ओं हूं
निवृत्तिकलापाशाय हूं फट् ।
शिरोमन्त्र (स्वाहा)
से एक ही समय समस्त देहधारियों के जन्म की भावना करे। इसी तरह शिव-मन्त्र से भी
भावना करे। कवच- मन्त्र से भोग की और अस्त्र-मन्त्र से विषय और आत्मा में मोहरूप
लय नामक अभेद की भी भावना करे। तदनन्तर शिव-मन्त्र से स्रोतों की शुद्धि और हृदय-
मन्त्र से तत्त्वशोधन करके गर्भाधान आदि संस्कारों के निमित्त क्रमशः पाँच-पाँच
आहुतियाँ दे मायेय (मायाजनित), मलजनित तथा कर्मजनित आदि* पाश
बन्धनों की निवृत्ति के लिये हृदय- मन्त्र से निष्कृति (प्रायश्चित्त अथवा शुद्धि)
कर लेने पर पीछे अग्नि में सौ आहुतियाँ दे । मलशक्ति का तिरोधान (लय) और पाशों का
वियोग सम्पादित करने के लिये 'स्वाहान्त' अस्त्र-मन्त्र से पाँच-पाँच आहुतियों का हवन करे। अन्तःकरण में स्थित मल
आदि पाश का सात बार अस्त्र-मन्त्र के जप से अभिमन्त्रित कटार कला शस्त्र से छेदन
करे। कला-शस्त्र से छेदन का मन्त्र इस प्रकार है-'ॐ हां
हां हां निवृत्तिकलापाशाय हः हूं फट् ॥ ४५-५०अ ॥
*'आदि' पद से
यहाँ 'तिरोधान', 'शक्तिज' और 'बिन्दुज' नामक पाश समझने
चाहिये।
बन्धकत्वञ्च
निर्वर्त्य हस्ताभ्याञ्च शराणुना ।। ५१ ।।
विसृज्य वर्त्तुलीकृत्य
घृतपूर्णे स्रुवे धरेत् ।
दहेदनुकलास्त्रेण
केवलास्त्रेण भस्मसात् ।। ५२ ।।
कुर्यात्
पञ्चाहुतीर्दत्वा पाशाङ्कुशनिवृत्तये ।
ओं हः
अस्त्राय हूं फट्।
प्रायश्चित्तं
ततः कुर्यादस्त्राहुतिभिरष्टभिः ।। ५३ ।।
अथावाह्य
विधातारं पूजयेत्तर्पयेत्तथा ।
तत ओं हां
शब्दस्पर्शशुद्धब्रह्मन् गृहाण स्वाहेत्याहुतित्रयेणाधिकारमस्य समर्पयेत् ।
दग्धनिःशेषपापस्य
ब्रह्मन्नस्य पशोस्त्वया ।। ५४ ।।
बन्धाय न पुनः
स्थेयं शिवाज्ञां श्रावयेदिति ।
ततो विसृज्य
धातारं नाड्या दक्षिणया शनैः ।। ५५ ।।
बन्धकता की
निवृत्ति के लिये अस्त्र-मन्त्र से दोनों हाथों द्वारा मसलकर गोलाकार करके पाश को घी
से भरे हुए स्रुव में डाल दे। फिर कलामय अस्त्र से अथवा केवल अस्त्र-मन्त्र से
उसको जलाकर भस्म कर डाले। तदनन्तर पाशाङ्कुर की निवृत्ति के लिये पाँच आहुतियाँ दे
आहुति का मन्त्र इस प्रकार है - ॐ हः अस्त्राय हूं फट् स्वाहा।' उक्त आहुति के पश्चात् अस्त्र-मन्त्र से आठ आहुतियाँ देकर प्रायश्चित्त
कर्म सम्पन्न करे। उसके बाद विधाता का आवाहन करके उनका पूजन और तर्पण करे। फिर 'ॐ हां शब्दस्पर्शी शुल्कं ब्रह्मन् गृहाण स्वाहा।' इस मन्त्र से तीन आहुतियाँ देकर शिष्य को अधिकार अर्पित करे। उस समय
ब्रह्माजी को भगवान् शिव की यह आज्ञा सुनावे- 'ब्रह्मन् ! इस
बालक के सम्पूर्ण पाश दग्ध हो गये हैं। अब आपको पुनः इसे बन्धन में डालने के लिये यहाँ
नहीं रहना चाहिये ।' ॥ ५१- ५५ ॥
संहारमुद्रयात्मानं
कुम्भकेन निजात्मना ।
पूजयित्वार्घ्यंपात्रस्थतोयबिन्दुसुधोपमं
।। ५६ ।।
आदाय योजयेत्
सूत्रे रेचकेनोद्भवाख्यया ।
पूजयित्वार्घ्यपात्रस्थतोयबिन्दुं
सुधोपमं ।। ५७ ।।
आप्यायनाय
शिष्यस्य गुरूः शिरसि विन्यसेत् ।
विसृज्य पितरौ
दद्याद्वौषडन्तशिवाणुना ।
पूरणाय विधिः
पूर्णो निवृत्तिरिति शोधिता ।। ५८ ।।
- यों कहकर
ब्रह्माजी को बिदा कर दे और संहारमुद्रा द्वारा एवं कुम्भक प्राणायामपूर्वक
राहुमुक्त एक देशवाले चन्द्रमण्डल के सदृश आत्मा को तत्सम्बन्धी – मन्त्र का
उच्चारण करते हुए दक्षिण नाड़ी द्वारा धीरे-धीरे लेकर रेचक प्राणायाम एवं 'उद्भव' नामक मुद्रा के
सहयोग से पूर्वोक्त सूत्र में योजित करे। फिर उसकी पूजा करके गुरु अर्घ्यपात्र में
स्थित अमृतोपम जलबिन्दु ले, शिष्य की पुष्टि एवं तृप्ति के
लिये उसके सिर पर रखे। तत्पश्चात् माता-पिता का विसर्जन करके 'वौषडन्त' अस्त्र-मन्त्र के द्वारा विधि की
पूर्ति के लिये पूर्णाहुति- होम करे। ऐसा करने से निवृत्तिकला की शुद्धि होती है।
पूर्णाहुति का पूरा मन्त्र इस प्रकार है- 'ॐ हूं हां अमुक
आत्मनो निवृत्तिकलाशुद्धिरस्तु स्वाहा फट् वौषट् ॥ ६४ -
६७ ॥
इत्यादिमहापुराणे
आग्नेये निर्वाणदीक्षायां निवृत्तिकलाशोधनं नाम चतुरशीतितमोऽध्यायः ॥
इस प्रकार आदि
आग्नेय महापुराण में 'निर्वाण- दीक्षा के अन्तर्गत निवृत्तिकला-शोधन' नामक
चौरासीवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ८४ ॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 85
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