अद्भुत रामायण सर्ग ८

अद्भुत रामायण सर्ग ८

अद्भुत रामायण सर्ग ८ में सीताजी के जन्म का वर्णन किया गया है।

अद्भुत रामायण सर्ग ८

अद्भुत रामायणम् अष्टम: सर्गः

Adbhut Ramayan sarga 8

अद्भुत रामायण आठवाँ सर्ग

अद्भुतरामायण अष्टम सर्ग

अद्भुत रामायण सर्ग ८ - सीता जन्म

अथ अद्भुत रामायण सर्ग ८  

यथा सा शोणितोद्भूता राक्षसीगर्भ संभवा ।

यथा भूमितलोत्पन्ना जानकी च यथा हि सा ।। १ ।।

अब जिस प्रकार वे (लक्ष्मीजी ) रुधिर में से राक्षसी के गर्भ में प्रविष्ट होकर (तथा) पुन: भूमितल से प्रगट हुईं और जनक की पुत्री के रूप में (प्रसिद्ध ) हुई, वह कथा सुनिए ॥ १ ॥

सीता तच्छृणु विपेंद्र वर्णयामि तवानघ ।

दशास्यो रावणो नाम तपस्तप्तुं मनो दधे ॥ २ ॥

सीता के जन्म की घटना सुनिए । हे निष्पाप विप्रेन्द्र ! मैं आप से वर्णन करता हूँ ! दशमुख रावण ने तप करने की इच्छा की ॥ २॥

त्रैलोक्यस्याधिपत्याय अजरामरणाय च ।

बहुवर्षं तपस्तप्त्वा ज्वलनार्कसमोऽज्वलत् ॥३॥

तीनों लोकों के आधिपत्य के लिए तथा अजर-अमर होने के लिए बहुत वर्षो तक तप करके वह अग्नि और सूर्य के समान प्रज्वलित होने लगा ॥ ३ ॥

तत्तेजसा जगत्सर्वं दह्यमानं यदाभवत् ।

तमुवाच तदा ब्रह्मा समागत्य सुरैर्वृतः ॥ ४ ॥

जब उसके तेज से समग्र जगत जलने लगा तब देवताओं के साथ ब्रह्माजी ने आकर उससे कहा- ॥ ४ ॥

पौलस्त्य विरमाद्य त्वं तपसो मम वाक्यतः ।

तपसोग्रेण महता लोका भस्मीकृता इव ॥ ५ ॥

"हे पौलस्त्य ! मेरे कहने से अब तुम तप से विराम करो इस महान् उग्र तप से सारे लोक मानो भस्मीकृत से हो गये हैं ।। ५ ।।

वरं ददामि ते वत्स यसे मनसि वर्तते ।

तपोधन लभस्वाद्य वरदान्मत्त ईप्सितम् ॥ ६ ॥

हे वत्स ! तेरे मन में जो हो सो वर मैं देता हूँ । हे तपोधन ! मुझ वरदाता से आज तुम अपना जो भी अभीप्सित हो, उसे प्राप्त करो ॥ ६ ॥

न्यवारयत चक्षूंषि सूर्यबबावलोकनात् ।

प्रणिप्रत्यजगन्नाथं वरं वव्रे व रावणः ॥ ७ ॥

अब तुम सूर्यबिंब के अवलोकन से नेत्रों को हटा लो ।" (तब) जगत के स्वामी (ब्रह्माजी) को प्रणाम करके रावण ने वर माँगा - ॥ ७ ॥

देहि सर्वामरत्वं मे वरदोऽसि यदि प्रभुः।

तदाकर्ण्य वचो ब्रह्मा पुनः प्राह स रावणम् ॥ ८ ॥

"हे प्रभु ! यदि आप वरदान देनेवाले हैं तो मुझे संपूर्ण अमरत्व दीजिए ।" यह वचन सुनकर ब्रह्माजी ने फिर से रावण को कहा- ॥ ८ ॥

नहि सर्वामरत्वं ते वरमन्यं वृणीष्व मे ।

ततः स रावणः प्राह कूट वादी हि राक्षसः ॥ ९ ॥

"संपूर्ण अमरत्व तुझे नहीं मिल सकता । मुझसे कोई दूसरा वरदान माँग ले ।" तब यह कूटवादी राक्षस बोला - ।। ९ ।।

न सुरा नासुरा यक्षाः पिशाचोर गराक्षसाः ।

विद्याधराः किन्नरा वा तथैवाप्सरसां गणाः ॥ १० ॥

"सुर, असुर, यक्ष, पिशाच, नाग, राक्षस, विद्याधर, किन्नर तथा अप्सराओं के गण ॥ १० ॥

न हन्यु कथं चित्ते देहि मे वरमुत्तमम् ।

अन्यच्च ते वृणे ब्रह्मस्तच्छृणुष्व पितामह ।। ११ ।।

कोई भी मुझे किसी प्रकार न मार सकें, यह उत्तम वरदान मुझे दीजिए । हे ब्रह्मन् ! पितामह ! मैं दूसरा भी एक वरदान आपसे माँगता हूँ, (वह) सुनिए ।। ११ ।।

आत्मनो दुहिता मोहादत्यर्थं प्रार्थित भवेत् ।

तदा मृत्युर्मम भवेद्यदि कन्या न कांक्षति ।। १२ ।।

मोह से जब मैं अपनी पुत्री की आकांक्षा करने लगूं और यदि कन्या की इच्छा न हो तो उस समय मेरी मृत्यु हो जाए" ।। १२ ।।

तथेत्युक्त्वा जगामाशु ब्रह्मा लोकपितामहः ।

नरान्नाजीगणद्रक्षो मत्वा तांस्तृणवद्विज ।। १३ ।।

"तथास्तु" कहकर लोक-पितामह ब्रह्माजी शीघ्र अपने लोक में चले गये । हे द्विज ! मनुष्यों को तृण के समान मानकर राक्षस ने उनकी कोई गणना नहीं की ॥ १३ ॥

ब्रह्मदत्तवरो राजा रावणोवर दर्पितः ॥

त्रैलोक्यजयसर्वस्वं प्राप्तवान्बाहुवीर्यतः ॥ १४ ॥

ब्रह्माजी ने जिसे वर दिया था, उस राजा रावण ने वरदान से दर्प-युक्त होकर (अपने) बाहुबल से तीनों लोकों पर संपूर्ण रूप से विजय प्राप्त की ।।१४ ।।

एकदा रावणो राजा दंडकारण्यमागतः ॥

तदवनग्निकल्पांश्च दृष्ट्वा मनचितयत् ।। १५ ।।

एक बार राजा रावण दंडकारण्य में गया । वहाँ अग्नि के समान तेजस्वी ऋषियों को देखकर उसने मन ही मन सोचा ।। १५ ।।

एतान जित्वा हि कथं त्रिलोकीजयभागहम् ॥

एषां वधेन च श्रेयो न पश्यामि महात्मनाम् ॥ १६ ॥

इनको बिना जीते मैं त्रिलोकी को जीत लेनेवाला हो ही कैसे सकता हूँ? और इन महात्माओं का वध करके मैं अपना कल्याण करूं यह भी संभव नहीं दिखता ॥ १६ ॥

दुरात्मा स विचित्यैतत्प्राह तान्मुनिपुंगवान् ॥

अहं सर्वस्य जगतः शास्ताः च जयभागहम् ।। १७ ।।

ऐसा सोचकर उस दुरात्मा ने मुनिश्रेष्ठों से कहा- "मैं समग्र जगत का शासक और (उस पर) जय प्राप्त करनेवाला हूँ ॥१७॥

भवतां जयमाकांक्षे जयं दत्त द्विजर्षभाः ।

इत्युक्त्वा स शराग्रेण क्षताच्छोणितमंगतः ॥ १८ ॥

मैं आपको जीतने की इच्छा रखता हूँ । हे द्विजश्रेष्ठो ! मुझे जय दीजिए।" ऐसा कहकर बाण की नोक से (उन्हें) घायल करके उनके शरीर से रुधिर ।। १८ ॥

बलादाकृष्य तेषां वै कलशेऽस्थापयत्प्रभुः ।

तत्र गृत्समदो नाम शतपुत्रपिता द्विजः ।। १९ ।।

बलपूर्वक निकालकर एक कलश में उस राजा ने स्थापित किया । वहाँ सौ पुत्रों के पिता 'गृत्समद' नामक एक ब्राह्मण था ॥ १९ ॥

दुहित्रर्थे भार्यया स प्रार्थितो भगवान् मुनिः ।

लक्ष्मीमें दुहिता भूयादित्यसौ कलशे विभुः ॥ २० ॥

 (उसकी) पत्नी ने पुत्री के लिए उससे प्रार्थना की ।'लक्ष्मी मेरी पुत्री हो' ऐसी इच्छा से वह मुनि कलश में ।।२०॥

दुग्धं चाहरहस्तत्र कुशाग्रेण समंत्रतः ।

स्थापयत्येष नियत स्तदहनिर्ययौ वनम् ।। २१ ।।

प्रतिदिन नियत होकर मंत्रोच्चार सहित कुशाग्र से दूध डालता था । एक दिन वह वन में गया था ।। २१ ।।

तद्दिने दैवयोगेन कलशे तत्र रावणः ॥

मुनीनां शोणितं स्थाप्य गृहीत्वा स्वगृहं ययौ ॥ २२ ॥

दैवयोग से उसी दिन रावण ने उसी कलश में मुनियों का रुधिर रखा और (कलश) लेकर अपने घर चला गया ॥ २२ ॥

भार्या मंदोदरीं प्राह कलशं रक्ष सुंदरि ॥

विषादप्यधिकं विद्धि शोणितं कलशे स्थितम् ॥ २३ ॥

(अपनी) पत्नी मंदोदरी से उसने कहा- "हे सुन्दरि ! इस कलश की सुरक्षा करो । (इस) कलश में स्थित रुधिर को विष से भी अधिक तीक्ष्ण (समझना) ॥ २३ ॥

न देयं नापि वा भक्ष्यं सुनीनां शोणितं त्विदम् ।

त्रैलोक्यजयलाभेन रावणो लोकरावणः ॥ २४ ॥

मुनियों का यह शोणित किसी को देना भी नहीं चाहिए (और) इसका भक्षण भी नहीं करना चाहिए ।" त्रिलोक के जय के लोभ से लोगों को रुलानेवाला रावण ॥ २४ ॥

देवदानवयक्षाणां गंधर्वाणां च कन्यकाः ।

आहृत्य रमयामास मंदरे सह्यपर्वते ।। २५ ।।

देव, दानव, यक्ष तथा गंधर्वो की कन्यायों का हरण करके 'मंदर' तथा 'सह्य' पर्वत पर रमण करने लगा ।।२५॥

हिमवन्मेविध्यातो रमणीयवने तथा ॥

मंदोदरी तथा दृष्ट्वा पति सा हि मनस्विनी ॥ २६ ॥

हिमालय, मेरु, विन्ध्याचल तथा रमणीय वन में (वह विहार करने लगा । तब) पति को इस प्रकार देखकर मनस्विनी मंदोदरी ॥ २६ ॥

आत्मानं गर्हयामास भर्तुः स्नेहमपश्यती ।

धिग्जीवितं हि नारीणां यौवनं कुलमेव च ।। २७ ।।

पति का अपने ऊपर स्नेह न देखकर स्वयं को तिरस्कृत करने लगी- "उन नारियों के जीवन को, यौवन को एवं कुल को धिक्कार हो ॥ २७ ॥

वंचिताः पतिना याः स्युस्तस्मान्म मरणं वरम् ।

पुरा रावणसंदिष्टं शोणितं क्ष्वेडतोऽधिकम् ॥ २८ ॥

"जो पति से वंचित होती हैं । अतः मेरे लिए मरण ही अच्छा है । पहले रावण ने कहा था कि यह रुधिर विष से भी अधिक (तीक्ष्ण है)" ॥ २८ ॥

पपौ मरणमांकांक्ष्य पतिना वंचिता सती ।

लक्ष्मीशरणदुग्धेन मिश्रिताच्छोणितादभूत् ।। २९ ।।

पति से वंचित होकर मरण की इच्छा करके सती ने (उस रुधिर का) पान कर लिया । लक्ष्मी के आश्रयभूत दूध से मिश्रित उस शोणित से ।। २९ ।।

सद्यो रावणकांताया गर्भो ज्वलनसन्निभः ।

ततो विस्मयमापन्ना सा हि मंदोदरी शुभाः ॥ ३० ॥

शीघ्र ही रावण की पत्नी के उदर में अग्नि के समान तेजस्वी गर्भ (का आधान) हो गया । तब विस्मयपूर्ण होकर उस शुभ मंदोदरी ने ॥ ३० ॥

पीतं विषाधिकं रक्तंगर्भस्तेनाभवन्मम ।

इति सचितयामास भर्ता विप्रेषितो मम ॥ ३१ ॥

सोचा - " विष से भी अधिक (तीक्ष्ण) रक्त मैंने पी लिया है । इससे मुझमें गर्भ की धारणा हो गई है । मेरे पति (भी इस समय) मुझसे दूर हैं ।। ३१ ।।

कामिनीभिः क्रीडतं स कामी भर्ता हि रावणः ।

संवत्सरमिमं भन्ना सह मे वसतिर्नहि ॥ ३२ ॥

 (मेरे) कामी पति रावण कामिनियों के साथ क्रीड़ा करते (रहते) हैं । एक साल हो गया, मैं पति का सहवास नहीं कर पाई हूँ ॥ ३२ ॥

किं वक्तव्यं मया साध्या गर्भिण्या भर्त संसदि ।

चितया बग्धगात्रीव तीर्थसेवनछद्मना ।। ३३ ।।

विमानवरमारुह्य कुरुक्षेत्रं जगाम सा

तत्र गर्भ विनिष्कृष्य निचखान भुवस्तले ॥ ३४ ॥

पति के सामने साध्वी गर्भवती मैं क्या कहूँगी? (इस प्रकार की) चिता से दग्ध अंगोंवाली वह तीर्थ सेवन के बहाने श्रेष्ठ विमान पर चढ़कर कुरुक्षेत्र गई । वहाँ गर्भपात करके (उस भ्रूण को) पृथ्वी में गाड़ दिया ।। ३३-३४ ॥

स्नात्वा सरस्वतीतोये पुनरागात्स्वमालयम् ।

न चोदितं तत्कस्मैजिद्रहः कार्य सुगोपितम् ॥ ३५ ॥

सरस्वती के जल में स्नान करके वह पुनः अपने घर लौटी । यह गुप्त रहस्यमय कार्य उसने किसी को भी बताया नहीं ।। ३५ ।।

कालेन कियता ब्रह्मञ्जनकषि महामनाः ।

कुरुक्षेत्रं समासाद्य जांगले यज्ञमावहन् ।। ३६ ।।

हे ब्रह्मन् ! कुछ समय के बाद महात्मा जनक ने कुरुक्षेत्र में आकर कुरुजांगल में यज्ञ किया ॥ ३६ ॥

स्वर्णलांगलमादाय यज्ञभूमि चखान सः ।

स्वर्णलांगलसोतांतः कन्यका प्रोत्थिताभवत् ॥ ३७ ॥

और सोने का हल लेकर यज्ञभूमि खोदी । सुवर्ण के हल की नोक से खोदने पर ज़मीन में से एक कन्या का प्रादुर्भाव हुआ ॥ ३७ ॥

पुष्पवृष्टिश्व महती पपात कन्यकोपरि ।

तद्दृष्ट्वा महदाश्चर्य राजा विस्मयमा गतः ॥ ३८ ॥

तथा कन्या के ऊपर फूलों की बड़ी भारी वर्षा हुई । उस महान आश्चर्य को देखकर राजा आश्चर्यचकित हुए ॥३८॥

कर्तव्ये मूढतामाप ततः खेऽभूत्सर स्वती ।

राजन्गृहाण कन्यां त्वं पालयैनां महाप्रभाम् ।। ३९ ।।

(और) किंकर्तव्यविमूढ़ हो गये । तब आकाशवाणी हुई- "हे राजन् ! इस महाप्रभावशालिनी कन्या को अपनाओ (और) इसका तुम पालन करो ।। ३९ ॥

ज्वलनार्कसमां दिव्यां महत्कार्यं तवालये ।

भविष्यति महाभागा च क्षेमं जगतोऽनया ॥ ४० ॥

अग्नि और सूर्य के समान दिव्य इस (कन्या) का तुम्हारे घर में बड़ा कार्य होगा । यह महाभाग्यशालिनी होगी। इससे जगत का बड़ा कल्याण होगा ॥ ४० ॥

यज्ञ संपाद्यतां राजन्नायं विघ्नस्तवानघ ।

नामास्याः किल सीतेति सीताया उत्थिता यतः ॥ ४१ ॥

हे राजन् ! यज्ञ संपादन करो । हे अनघ ! यह तुम्हारे लिए विघ्न नहीं है । यह हल की नोक से उत्पन्न हुई है । इसलिए इसका नाम सीता होगा ।। ४१ ।

कल्पयैना दुहितरमित्युक्त्वावाक् तिरोहिता ।

तच्छ्रुत्वा प्रीतिमान्राजा यज्ञं कृत्वा महाधनम् ॥४२॥

इसे अपनी कन्या मानो ।" यह कहकर वाणी तिरोहित हो गई । यह सुनकर प्रसन्न होकर राजा ने बहुत धन से युक्त यज्ञ सम्पन्न किया ।। ४२ ।।

जगाम सीतामादाय महर्षिभ्यश्च तां ददौ ।

एतत्ते कथितं विप्र सीताजन्मैककारणम् ॥

श्रुत्वैतत्सर्वपापेभ्यो मुक्तो भवति मानवः ॥४३॥

(वे) सीता को लेकर गये, (तथा) उसे रानियों को दिया । हे विप्र ! सीता के जन्म का यह कारण मैंने आपसे कहा । इसका श्रवण करके मनुष्य सर्वपापों से मुक्त हो जाता है ॥ ४३ ॥

जनकवुहितृजन्म श्रावयित्वा तु भुत्वा न पुनरिह जन्म प्राप्नुयात्पुण्यवांश्च ।

दशरथसुतकांता तस्य गेहं कदाचिद्विसृजति नहि सर्वैः पातकैर्मुच्यते च ॥ ४४ ॥

जानकी के जन्म की कथा का श्रवण एवं कथन करनेवाला पुण्यशाली (मनुष्य) फिर से इस मृत्युलोक में जन्म ग्रहण नहीं करता । दशरथ के पुत्र की पत्नी (लक्ष्मी) उसके घर का कभी त्याग नहीं करती और वह सब पातकों से मुक्त हो जाता है ॥ ४४ ॥

इत्यार्थे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये अद्भुतोत्तरकाण्डे श्रीसीतोत्पत्तिर्नामाष्टमः सर्गः ॥ ८ ॥

॥ इति श्री वाल्मीकि विरचित रामायण के अद्भुतोत्तरकाण्ड में सीतोत्पत्ति नाम अष्टम सर्ग समाप्त ॥ ८ ॥

आगे जारी...........अद्भुत रामायण सर्ग 8

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