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अगहन बृहस्पति व्रत व कथा
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
भैरवी स्तोत्र
इस त्रिपुर भैरवी स्तोत्र के पाठ करने
से साधक को धन-संपत्ति की कभी कमी नहीं होती, उनकी
सभी कामना सिद्ध होता और अंत में मोक्ष की प्राप्ति होता हैं ।
श्रीभैरवीस्तोत्रम्
Bhairavi stotra
भैरवी स्तव
स्तुत्याऽनया त्वां त्रिपुरे
स्तोष्येऽभीष्टफलाप्तये ।
या व्रजन्ति तां लक्ष्मीं मनुजाः
सुरपूजिताम् ॥१॥
हे त्रिपुरे! मैं वांच्छित फल
प्राप्त होने की आशा से तुम्हारी स्तुति करता हूं । इस स्तुति के द्वारा मनुष्यगण देवताओं
से पूजित कमला को प्राप्त होते हैं ।
ब्रह्मादयः स्तुतिशतैरपि
सूक्ष्मरूपां
जानन्ति नैव जगदादिमनादिमूर्त्तिम्
।
तस्माद्वयं कुचनतां नवकुंकुमाभां
स्थूलां स्तुमः सकलवाङ्मयमातृभूताम्
॥२॥
हे जननि ! तुम जगत्की आद्या हो,
तुम्हारी आदि नहीं है, इसी कारण ब्रह्मादि
देवतागण भी सैंकड़ों स्तुति करके सूक्ष्मरूपिणी तुमको जानने में समर्थ नहीं हैं ।
अर्थात् उनकी ऐसी वाक्सम्पत्ति नहीं है, जो तुम्हारी स्तुति
करने में समर्थ हों। इस कारण हम नवकुंकुंम की समान कांतिवाली वाक्यरचना से जननी
स्वरूपिणी पुष्ट कुचवाली तुम्हारी स्तुति करते हैं ।
सद्यः समुद्यतसहस्रदिवाकराभां
विद्याक्षसूत्रवरदाभयचिह्नहस्ताम् ।
नेत्रोत्पलैस्त्रिभिरलंकृतवक्त्रपद्मां
त्वां हारभाररुचिरां त्रिपुरे भजामः
॥३॥
हे त्रिपुरे ! तुम्हारे देह की
कांति नये उदित हजार सूर्य के समान समुज्ज्वल है, तुम चारों हाथों में विद्या, अक्षसूत्र वर और अभय
धारण करती हो । तुम्हारे तीनों नेत्रकमलों से मुखकमल अलंकृत हुआ है, तुम्हारा कंठ हार के भार से सुशोभित है, ऐसी
तुम्हारी मैं आराधना करता हूं ।
सिन्दूरपूररुचिरं कुचभार नम्रं
जन्मान्तरेषु कृतपुण्यफलैकगम्यम् ।
अन्योन्यभेदकलहाकुलमानसास्ते
जानन्ति किं जडधियस्तव रूपमम्ब ॥४॥
हे जननि ! तुम्हारा रूप सिन्दूर की
समान लालवर्ण है, तुम्हारा देहांश
कुचभार से झुक रहा है, जिन्होंने जन्मान्तर में बहुत पुण्य
संचय किया है, वही उस पुण्य के प्रभाव से तुम्हारा ऐसा रूप
देखने में समर्थ होते हैं, और जो पुरुष निरंतर परस्पर कलह से
कुंठित मन हैं, वह जड़मती पुरुष तुम्हारा ऐसा रूप किस प्रकार
जान सकते हैं ? ।।
स्थूलां वदन्ति मुनयः श्रुतयो
गृणन्ति
सूक्ष्मां वदन्ति वचसामधिवासमन्ये ।
त्वां मूलमाहुरपरे जगतां भवानि
मन्यामहे वयमपारकृपाम्बुराशिम् ॥५॥
हे भवानी ! मुनिगण तुमको स्थूल कहकर
वर्णन करते हैं, श्रुतियें तुमको स्थूल कहकर
स्तुति करती हैं, कोई जन तुमको वाक्य की अधिष्ठात्री देवता
कहते हैं और अपरापर अनेक विद्वान पुरुष जगत् का मूल कारण कहते हैं, किन्तु मैं तुम्हें केवल मात्र दयासागरी जानता हूं ॥
चन्द्रावतंसकलितां शरदिन्दुशुभ्रां
पञ्चाशदक्षरमयीं हृदि भावयन्ति ।
त्वां पुस्तकं जपवटीममृताढ्यकुम्भं
व्याख्याञ्च हस्तकमलैर्द्दधतीं
त्रिनेत्राम् ॥६॥
हे जननि ! तुम चंद्रभूषण से अलंकृत
हो,
तुम्हारे देह की कान्ति शरद् के चंद्रमा के समान शुभ है, तुम्हीं पचास वर्णवाली वर्णमाला हो, तुम्हारे चार
हाथ में पुस्तक, जपमाला, सुधापूर्ण कलश
और व्याख्यानमुद्रा विद्यमान है, तुम्हीं त्रिनेत्रा हो,
साधकगण इस प्रकार से तुमको हृदयकमल में ध्यान करते हैं ।
शम्भुस्त्वमद्रितनया कलितार्द्धभागो
विष्णुस्त्वमन्य कमलापरिबद्धदेहः ।
पद्मोद्भवस्त्वमसि वागधिवासभूमिः
येषां क्रियाश्च जगति त्रिपुरे
त्वमेव ॥७॥
हे जननि ! तुम्हीं अर्द्धनारीश्वर
शंभुरूप से शोभायमान हो, तुम्हीं
कमलाश्लिष्टा विष्णु रूपिणी, तुम्हीं कमलयोनि
ब्रह्मस्वरूपिणी हो, तुम्हीं वागधिष्ठात्री देवी और
ब्रह्मादिक की सृष्टिक्रियाशक्ति भी तुम्ही हो ।
आकुञ्च्य वायुमवजित्य च वैरिषट्क-
मालोक्य निश्चलधियो निजनासिकाग्रम्
।
ध्यायन्ति मूर्ध्नि
कलितेन्दुकलावतंसं
तद्रूपमम्न कृति तस्तरुणार्कमित्रम्
॥८॥
हे अम्ब ! विद्वान् पुरुष वायु
निरोधपूर्वक काम क्रोधादि छ: शत्रुओं को अपनी नासिका का अग्रभाग देखते हुए
चन्द्रभूषण नये उदय हुए सूर्यरूप, तुम्हारे रूप का
सहस्र कमल में ध्यान करते हैं ।
त्वं प्राप्य
मन्मथरिपोर्वपुरर्द्धभागं
सृष्टि करोषि जगतामिति वेदवादः ।
सत्यं तदद्रितनये जगदेकमात-
र्नोचेदशेषजगतः स्थितिरेव न स्यात्
॥९॥
हे पर्वतराजपुत्रि ! तुमने
मदनदमनकारी महादेव के शरीर का अर्द्धांश अवलम्बन करके जगत् को उत्पन्न किया है,
वेद में जो इस प्रकार वर्णन है, वह सत्य ही
जान पड़ता है । हे विश्वजननि ! यदि ऐसा न होता, तो कभी जगत्
की स्थिति संभव नहीं होती ।
पूजां विधाय कुसुमैः सुरपादपानां
पीठे तवाम्ब कनकाचलगह्वरेषु ।
गायन्ति सिद्धवनिताः सह किन्नरीभि-
रास्वादितामृतरसारुणपद्मनेत्राः ॥१०॥
हे जननि ! जो कि सिद्धों की
स्त्रियों ने किन्नरीगणों के सहित एकत्र मिलकर आसव रस पान किया,
इस कारण उनके नेत्रकमलों ने लोहित कांति धारण की है । वह पारिजातादि
सुरतरु के फूलों से तुम्हारी पूजा करती हुई कैलास पर्वत की कन्दराओं में तुम्हारे
नाम को गान करती हैं ।
विद्युद्विलासवपुषं
श्रियमुद्वहन्तीं
यान्तीं स्ववासभवनाच्छिवराजधानीम् ।
सौन्दर्यराशिकमलानि विकाशयन्तीं
देवीं भजे हृदि परामृत सिक्त
गात्राम् ॥१२
हे देवी! जिन्होंने बिजली की रेखा के
समान दीप्तमान् देह धारण किया है, जो अतिशय शोभा
युक्त है, जो अपने वास स्थान मूलाधार पद्म से सहस्रवार कमल में
जाने के समय सुषुम्णा में स्थित पद्मसमूह को विकसित करती है, जिनका शरीर परम अमृत से अभिषिक्त है, वह देवी
तुम्हीं हो। मैं तुम्हारी आराधना करता हूं ।
आनन्दजन्मभवनं भवनं श्रुतीनां
चैतन्यमात्रतनुमम्ब तवाश्रयामि ।
ब्रह्मेशविष्णुभिरुपासित पादपद्मां
सौभाग्यजन्मवसतीं त्रिपुरे यथावत् ॥१३
॥
हे त्रिपुरे! तुम्हारा देह आनंद भवन
है,
तुम्हारे शरीर से ही श्रुतियें उत्पन्न हुई हैं, यह देह चैतन्यमय है, ब्रह्मा, विष्णु
और महादेव तुम्हारे चरणकमलों की आराधना करते हैं, सौभाग्य
तुम्हारे शरीर का आश्रय करके शोभा पाता है, अतएव मैं
तुम्हारे ऐसे शरीर का आश्रय करता हूं ।
सर्व्वार्थभावि भुवनं सृजतीन्दुरूपा
या तद्विभर्त्ति पुरनर्कतनुः
स्वशक्त्या ।
ब्रह्मात्मिका हरति तत् सकलं
युगान्ते
तां शारदां मनसि जातु न विस्मरामि ॥१४॥
हे जननि ! जो चन्द्ररूप से भुवनों की
सृष्टि,
सूर्यरूप से पालन और प्रलय काल में अग्नि रूप से उस सबको ध्वंस करती
हैं, उन शारदा देवीको में कभी न भूलूं ।
नारायणीति नरकार्णवतारिणीति
गौरीति खेदशमनीति सरस्वतीति ।
ज्ञानप्रदेति नयनत्रयभूषितेति
त्वामद्रिराजतनये विबुधा वदन्ति ॥१५॥
हे पर्वतराजकन्ये ! साधकगण तुम्हारी
नारायणी,
नरकार्णवतारिणी (नरकरूप सागर से तारनेवाली), गौरी,
खेदशमनी (दुःखनाशिनी), सरस्वती, ज्ञानदाता, और तीन नेत्रों से भूषिता इत्यादि रूप में
आराधना करते हैं ।
श्रीभैरवीस्तोत्र महात्म्य
ये स्तुवन्ति जगन्मातः श्लोकैर्द्वादशभिः
क्रमात् ।
त्वामनुप्राप्य वासिद्धि
प्राप्नुयुस्ते परां गतिम् ॥१६॥
हे जगन्मातः ! जो पुरुष इन बारह
श्लोकों से तुम्हारी स्तुति करते हैं, वह
तुमको प्राप्त करके वाक्सिद्ध होते हैं, और देह के अंत में
परमगति को प्राप्त होते हैं ।
इति श्री भैरवीतंत्र भैरवभैरवीसंवादे श्रीभैरवीस्तोत्रं संपूर्णम् ।
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