अग्निपुराण अध्याय ८८

अग्निपुराण अध्याय ८८

अग्निपुराण अध्याय ८८ में निर्वाण – दीक्षा की अवशिष्ट विधि का वर्णन है।

अग्निपुराण अध्याय ८८

अग्निपुराणम् अष्टाशीतितमोऽध्यायः

Agni puran chapter 88

अग्निपुराण अठासीवाँ अध्याय

अग्नि पुराण अध्याय ८८     

अग्निपुराणम् अध्यायः ८८ निर्वाणदीक्षाकथनम्

अथ अष्टाशीतितमोऽध्यायः

ईश्वर उवाच

सन्धानं शान्त्यतीतायाः शान्त्या सार्धं विशुद्धया ।

कुर्वीत पूर्ववत्तत्र तत्त्ववर्णादि तद्यथा ॥१॥

ओं हीं क्षौं हौं हां इति सन्धानानि

उभौ शक्तिशिवौ तत्त्वे भुवनाष्टकसिद्धिकं ।

दीपकं रोचिकञ्चैव मोचकं चोर्ध्वगामि च ॥२॥

व्योमरूपमनाथञ्च स्यादनाश्रितनष्टमं ।

ओङ्कारपदमीशाने मन्त्रो वर्णाश्च षोडश ॥३॥

अकारादिविसर्गान्ता बीजेन देहकारकौ ।

कुहूश्च शङ्खिनी नाड्यौ देवदत्तधनञ्जयौ ॥४॥

मरुतौ स्पर्शनं श्रोत्रं इन्द्रिये विषयो नभः ।

शब्दो गुणोऽस्यावस्था तु तुर्यातीता तु पञ्चमी ॥५॥

भगवान् शंकर कहते हैं- स्कन्द ! विशुद्ध शान्तिकला के साथ शान्त्यतीतकला का संधान करे। उसमें भी पूर्ववत् तत्त्व और वर्ण आदि का चिन्तन करना चाहिये, जैसा कि नीचे बताया जाता है। संधानकाल में इस मन्त्र का उच्चारण करे- ॐ हां हाँ हूँ हां।' शान्त्यतीतकला में शिव और शक्ति-दो तत्त्व हैं। आठ भुवन हैं, जिनके नाम इस प्रकार हैं- इन्धक, दीपक, रोचक, मोचक, ऊर्ध्वगामी, व्योमरूप, अनाथ और आठवाँ अनाश्रित । ॐकार पद है, ईशान मन्त्र है, अकार से लेकर विसर्ग तक सोलह अक्षर हैं, नाद और हकार- ये दो बीज हैं, कुहू और शङ्खिनी - दो नाड़ियाँ हैं, देवदत्त और धनञ्जय-दो प्राणवायु हैं, वाक् और श्रोत्र- दो इन्द्रियाँ हैं, शब्द विषय है, गुण भी वही है और अवस्था पाँचवीं तुरीयातीता है ॥१-५॥

हेतुः सदाशिवो देव इति तत्त्वादिसञ्चयं ।

सञ्चिन्त्य शान्त्यतीताख्यं विदध्यात्ताडनादिकं ॥६॥

कलापाशं समाताड्य फडन्तेन विभिद्य च ।

प्रविश्यान्तर्नमोऽन्तेन फडन्तेन वियोजयेत् ॥७॥

शिखाहृत्सम्पुटीभूतं स्वाहान्तं सृणिमुद्रया ।

पूरकेण समाकृष्य पाशं मस्तकसूत्रतः ॥८॥

कुम्भकेन समादाय रेचकेनोद्भवाख्यया ।

हृत्सम्पुटनमोऽन्तेन वह्निं कुण्डे निवेशयेत् ॥९॥

अस्याः पूजादिकं सर्वं निवृत्तेरिव साधयेत् ।

सदाशिवं समावाह्य पूजयित्वा प्रतर्प्य च ॥१०॥

सदा ख्यातेऽधिकारेऽस्मिन्मुमुक्षुं दीक्षयाम्यहं ।

भाव्यं त्वयानुकूलेन भक्त्या विज्ञापयेदिति ॥११॥

सदाशिव देव ही एकमात्र हेतु हैं। इस'तत्त्वादिसंचय की शान्त्यतीतकला में स्थिति है, ऐसा चिन्तन करके ताड़न आदि कर्म करे। 'फडन्त' मन्त्र से कला पाश का ताड़न और बोधन करके नमस्कारान्त-मन्त्र से शिष्य के अन्तःकरण में प्रवेश करे। इसके बाद फडन्त मन्त्र से जीवचैतन्य को पाश से वियुक्त करे। वषट्' और 'नमः' पदों से सम्पुटित, स्वाहान्त- मन्त्र का उच्चारण करके, अंकुशमुद्रा तथा पूरक प्राणायाम द्वारा पाश का मस्तकसूत्र से आकर्षण करके, कुम्भक प्राणायाम द्वारा उसे लेकर, रेचक प्राणायाम एवं उद्भव मुद्रा द्वारा हृदय-मन्त्र से सम्पुटित नमस्कारान्त-मन्त्र से उसका अग्रिकुण्ड में स्थापन करे। इसका पूजन आदि सब कार्य निवृत्तिकला के समान ही सम्पन्न करे। सदाशिव का आवाहन, पूजन और तर्पण करके उनसे भक्तिपूर्वक इस प्रकार निवेदन करे- "भगवन्! इस 'साद' संज्ञक मुमुक्षु को तुम्हारे अधिकार में दीक्षित करता हूँ। तुम्हें सदा इसके अनुकूल रहना चाहिये " ॥ ६- ११ ॥

पित्रोरावाहनं पूजां कृत्वा तर्पणसन्निधी ।

हृत्सम्पुटात्मबीजेन शिष्यं वक्षसि ताडयेत् ॥१२॥

ओं हां हूं हं फट् ।

प्रविश्य चाप्यनेनैव चैतन्यं विभजेत्ततः ।

शस्त्रेण पाशसंयुक्तं ज्येष्ठयाङ्कुशमुद्रया ॥१३॥

ओं हां हूं हं फट् ।

स्वाहान्तेन तदाकृष्य तेनैव पुटितात्मना ।

गृहीत्वा तन्नमोऽन्तेन निजात्मनि नियोजयेत् ॥१४॥

ओं हां हं हीं आत्मने नमः ।

पूर्ववत्पितृसंयोगं भावयित्वोद्भवाख्यया ।

वामया तदनेनैव देव्या गर्भे नियोजयेत् ॥१५॥

गर्भाधानादिकं सर्वं पूर्वोक्तविधिना चरेत् ।

मूलेन पाशशैथिल्ये निष्कृत्यैव शतं जपेत् ॥१६॥

फिर माता-पिता का आवाहन, पूजन एवं तर्पण संनिधान करके हृदय - सम्पुटित आत्मबीज से शिष्य के वक्षःस्थल में ताड़न करे। मन्त्र इस प्रकार है- 'ॐ हां हां हां हः हूं फट् ' इसी मन्त्र से शिष्य के हृदय में प्रवेश करके अस्त्र-मन्त्र द्वारा पाशयुक्त चैतन्य का उस पाश से वियोजन करे। फिर ज्येष्ठा अङ्कुरा- मुद्रा द्वारा सम्पुटित उसी स्वाहान्त- मन्त्र से उसका आकर्षण और ग्रहण करके 'नमोऽन्त' मन्त्र से उसे अपने आत्मा में नियोजित करे। आकर्षण मन्त्र तो वही 'ॐ हां हां हां ह हूं फट्।' है, परंतु आत्म-नियोजन का मन्त्र इस प्रकार है - ॐ हां हां हामात्मने नमः।' पूर्ववत् वामा उद्भव मुद्रा द्वारा माता-पिता के संयोग की भावना करके इसी मन्त्र से उस जीवचैतन्य का देवी के गर्भ में स्थापन करे। तदनन्तर पूर्वोक्त विधि से गर्भाधान आदि सब संस्कार करे । पाशबन्धन की शिथिलता के लिये प्रायश्चित्त के रूप में मूल मन्त्र से सौ आहुतियाँ दे (अथवा मूल- मन्त्र का सौ बार जप करे ) ॥ १२- १६ ॥

मलशक्तितिरोधाने पाशानाञ्च वियोजने ।

पञ्चपञ्चाहुतीर्दद्यादायुधेन यथा पुरा ॥१७॥

पाशानायुधमन्त्रेण सप्रवाराभिजप्तया ।

छिन्द्यादस्त्रेण कर्तर्या कलावीजयुजा यथा ॥१८॥

ओं हां शान्त्यतीतकलापाशाय हः हूं फट् ।

विसृज्य वर्तुलीकृत्य पाशानस्त्रेण पूर्ववत् ।

घृतपूर्णे श्रुवे दत्वा कलास्त्रेणैव होमयेत् ॥१९॥

अस्त्रेण जुहुयात्पज्च पाशाङ्कुशनिवृत्तये ।

प्रायश्चित्तनिषेधार्थं दद्यादष्टाहुतीस्ततः ॥२०॥

सदाशिवं हृदावाह्य कृत्वा पूजनतर्पणे ।

पूर्वोक्तविधिना कुर्यादधिकारसमर्पणं ॥२१॥

ओं हां सदाशिव मनोबिन्दु शुल्कं गृहाण स्वाहा ।

मलशक्ति के तिरोधान और पाशों के वियोजन के निमित्त अस्त्र-मन्त्र से पूर्ववत् पाँच-पाँच आहुतियाँ दे। कला-सम्बन्धी बीज से युक्त आयुध-मन्त्र से सात बार अभिमन्त्रित की हुई कटाररूप अस्त्र से पाशों का छेदन करे। उसके लिये मन्त्र इस प्रकार है - ॐ हः हां शान्त्यतीतकलापाशाय हूं फट्। तदनन्तर अस्त्र-मन्त्र से पूर्ववत् उन पाशों को मसलकर, वर्तुलाकार बनाकर, घी से भरे हुए स्रुव में रख दे और कला सम्बन्धी अस्त्र-मन्त्र के द्वारा ही उसका हवन करे। फिर पाशाङ्कुर की निवृत्ति के लिये अस्त्र-मन्त्र से पाँच और प्रायश्चित्त-निषेध के लिये आठ आहुतियाँ दे । इसके बाद हृदय- मन्त्र से सदाशिव का आवाहन एवं पूजन और तर्पण करके पूर्वोक्त विधि से अधिकार समर्पण करे। उसका मन्त्र इस प्रकार है - ॐ हां सदाशिव मनोबिन्दुं शुल्कं गृहाण स्वाहा । ' ॥ १७ - २१ ॥

निःशेषदग्धपाशस्य पशोरस्य सदाशिव ।

बन्धाय न त्वया स्थेयं शिवाज्ञां श्रावयेदिति ॥२२॥

मूलेन जुहुयात्पूर्णां विसृजेत्तु सदाशिवं ।

ततो विशुद्धमात्मानं शरच्चन्द्रमिवोदितं ॥२३॥

संहारमुद्रया रौद्र्या संयोज्य गुरुरात्मनि ।

कुर्वीत शिष्यदेहस्थमुद्धृत्योद्भवमुद्रया ॥२४॥

दद्यादाप्यायनायास्य मस्तकेऽर्घ्याम्बुबिन्दुकं ।

क्षमयित्वा महाभक्त्या पितरौ विसृजेत्तथा ॥२५॥

खेदितौ शिष्यदीक्षायै यन्मया पितरौ युवां ।

कारुण्यनान्मोक्षयित्वा तद्व्रज त्वं स्थानमात्मनः ॥२६॥

तत्पश्चात् उन्हें भी निम्नाङ्कित रूप से शिव की आज्ञा सुनावे – 'सदाशिव ! इस पशु के सारे पाप दग्ध हो गये हैं। अतः अब आपको इसे बन्धन में डालने के लिये यहाँ नहीं ठहरना चाहिये।' मूल- मन्त्र से पूर्णाहुति दे और सदाशिव का विसर्जन करे। तत्पश्चात् गुरु शिष्य के शरत्कालिक चन्द्रमा के समान उदित विशुद्ध जीवात्मा को रौद्री संहार- मुद्रा के द्वारा अपने आत्मा में संयोजित करके आत्मस्थ कर ले। शिष्य के शरीरस्थ जीवात्मा का उद्भव मुद्रा द्वारा उत्थान या उद्धार करके उसके पोषण के लिये शिष्य के मस्तक पर अर्घ्य – जल की एक बूँद स्थापित करे। इसके बाद परम भक्तिभाव से क्षमा-प्रार्थना करके माता पिता का विसर्जन करे। विसर्जन के समय इस प्रकार कहे मैंने शिष्य को दीक्षा देने के लिये जो आप दोनों माता-पिता को खेद पहुँचाया है, उसके लिये मुझे कृपापूर्वक क्षमादान देकर आप दोनों अपने स्थान को पधारें ॥ २२-२६ ॥

शिखामन्त्रितकर्तर्या बोधशक्तिस्वरूपिणीं ।

शिखां छिद्याच्छिवास्त्रेण शिष्यस्य चतुरङ्गुलां ॥२७॥

ओं क्लीं शिखायै हूं फट् ओं हः अस्त्राय हूं फट् ।

स्रुचि तां घृतपूर्णायां गोविड्गोलकमध्यगां ।

संविधायास्त्रमन्त्रेण हूं फडन्तेन होमयेत् ॥२८॥

ओं हौं हः अस्त्राय हूं फट् ।

प्रक्षाल्य स्रुक्स्रुवौ शिष्यं संस्नाप्याचम्य च स्वयं ।

योजनिकास्थानमात्मानं शस्त्रमन्त्रेण ताडयेत् ॥२९॥

वियोज्याकृष्य सम्पूज्य पूर्ववद्द्वादशान्ततः ।

आत्मीयहृदयाम्भोजकर्णिकायां निवेशयेत् ॥३०॥

वषट् मन्त्र से अभिमन्त्रित कर्तरी (कटार) - द्वारा शिवास्त्र से शिष्य की चार अङ्गुल बड़ी बोधशक्तिस्वरूपिणी शिखा का छेदन करे। छेदन के मन्त्र इस प्रकार हैं- 'ॐ हूं शिखायै हूं फट् ।' 'ॐ अस्त्राय हूं फट् ।' उसे घृतपूर्ण स्रुक्में रखकर 'हूं फट् ' अन्तवाले अस्त्र-मन्त्र से अग्नि में होम दे। मन्त्र इस प्रकार है- 'ॐ ॐ* ह अस्त्राय हूं फट् ।' इसके बाद स्रुक् और स्रुवा को धोकर शिष्य को स्नान करवाने के पश्चात् स्वयं भी आचमन करे और योजनिका अथवा योजना- स्थान के लिये अस्त्र-मन्त्र से अपने आप का ताड़न करे। तत्पश्चात् वियोजन, आकर्षण और संग्रहण करके पूर्ववत् द्वादशान्त * (ललाट के ऊपरी भाग)- से जीवचैतन्य को ले आकर अपने हृदय कमल की कर्णिका में स्थापित करे ।। २७-३० ॥

*१ "कहीं-कहीं 'हाँ' पाठ है।

*२ अगुलविस्तृतस्य ललाटस्योध्यप्रदेशो द्वादशान्तपदेनोच्यते।' अर्थात् 'अङ्गुल विस्तारवाले ललाट का ऊर्ध्वदेश 'द्वादशान्त' पद से कथित होता है।' ('नित्याषोडशिकार्णव' ८।५५ पर भास्कररायकी सेतुबन्ध - व्याख्या)

पूरितं श्रुवमाज्येन विहिताधोमुखश्रुचा ।

नित्योक्तविधिना.अदाय शङ्खसन्निभमुद्रया ॥३१॥

प्रसारितशिरोग्रीवो नादोच्चारानुसारतः ।

समदृष्टिशिवश्चान्तः परभावसमन्वितः ॥३२॥

कुम्भमण्डलवह्निभ्यः शिष्यादपि निजात्मनः ।

गृहीत्वा षड्विधविधानं श्रुगग्रे प्राणनाडिकं ॥३३॥

सञ्चिन्त्य बिन्दुवद्ध्यात्वा क्रमशः सप्तधा यथा ।

प्रथमं प्राणसंयोगस्वरूपमपरन्ततः ॥३४॥

हृदयादिक्रमोच्चारविसृष्टं मन्त्रसञ्ज्ञकं ।

पूरकं कुम्भकं कृत्वा व्यादाय वदनं मनाक् ॥३५॥

सुषुम्णानुगतं नादस्वरूपन्तु तृतीयकं ।

सप्तमे कारणे त्यागात्प्रशान्तविखरं लयः ॥३६॥

शक्तिनादोर्ध्वसञ्चारस्तच्छक्तिविखरं मतं ।

प्राणस्य निखिलस्यापि शक्तिप्रमेयवर्जितं ॥३७॥

तत्कालविखरं षष्ठं शक्त्यतीतञ्च सप्तमं ।

तदेतद्योजनास्थानं विखरन्तत्त्वसञ्ज्ञकं ॥३८॥

स्रुक्को घी से भरकर और उसके ऊपर अधोमुख स्रुव रखकर शङ्खतुल्य मुद्रा द्वारा नित्योक्त विधि से हाथ में ले। तत्पश्चात् नादोच्चारण के अनुसार मस्तक और ग्रीवा फैलाकर दृष्टि को समभाव से रखते हुए स्थिर, शान्त एवं परमभाव से सम्पन्न हो कलश, मण्डल, अग्नि, शिष्य तथा अपने आत्मा से भी छः प्रकार के अध्वा को ग्रहण करके, स्रुक्के अग्रभाग में प्राणमयी नाड़ी के भीतर स्थापित करके, उसी भाव से उसका चिन्तन करे। इस प्रकार चिन्तन करके क्रमशः सात प्रकार के विषुव का ध्यान करे। उन सातों का परिचय इस प्रकार है- पहला 'प्राणसंयोगस्वरूप' है और दूसरा हृदयादि-क्रम से उच्चारित मन्त्रसंज्ञक है। तीसरा सुषुम्णा में अनुगत 'नाद या नाड़ी' रूप है। नाड़ी सम्बद्ध नाद का जो शक्ति में लय होना है, उसको 'प्रशान्त विषुव' कहते हैं। शक्ति में लीन हुए नाद का पुनः उज्जीवन होकर जो ऊपर को संचार और समता में लय होता है, उसे 'शक्ति' नामक विषुव कहा गया है। सम्पूर्ण नाद का शक्ति की सीमा को लाँघकर उन्मनी में लीन होना 'काल- विषुव' कहलाता है। यह छठा है। यह शक्ति से अतीत होता है। सातवाँ विषुव है – 'तत्त्वसंज्ञक'। यही योजना स्थान है ॥ ३१ - ३८ ॥

पूरकं कुम्भकं कृत्वा व्यादाय वदनं मनाक् ।

शनैरुदीरयन्मूलं कृत्वा शिष्यात्मनो लयं ॥३९॥

हकारे तडिदाकारे षडध्वजप्राणरूपिणि ।

उकारं परतो नाभेर्वितस्तिं व्याप्य संस्थितं ॥४०॥

ततः परं मकारन्तु हृदयाच्चतुरङ्गुलं ।

ओङ्कारं वाचकं विष्णोस्ततोऽष्टाङ्गुलकण्ठकं ॥४१॥

चतुरङ्गुलतालुस्थं मकारं रुद्रवाचकं ।

तद्वल्ललाटमध्यस्थं बिन्दुमीश्वरवाचकं ॥४२॥

नादं सदाशिवं देवं ब्रह्मरन्ध्रावसानकं ।

शक्तिं च ब्रह्मरन्ध्रस्थां त्यजन्नित्यमनुक्रमात् ॥४३॥

दिव्यं पिपीलिकास्पर्शं तस्मिन्नेवानुभूय च ।

द्वादशान्ते परे तत्त्वे परमानन्दलक्षणे ॥४४॥

भावशून्ये मनोऽतीते शिवे नित्यगुणोदये ।

विलीय मानसे तस्मिन् शिष्यात्मानं विभावयेत् ॥४५॥

पूरक और कुम्भक करके मुँह को थोड़ा खोलकर धीरे-धीरे मूल मन्त्र का उच्चारण करते हुए भावना द्वारा शिष्यात्मा का लय करे। उसका क्रम यों है- विद्युत्सदृश छहों अध्वाओं के प्राणस्वरूप में 'फट्कार' का चिन्तन करे। नाभि से ऊपर एक बित्ते का स्थान 'फट्कार' है, जो प्राण का स्थान माना गया है। उससे ऊपर हृदय से चार अङ्गुल की दूरी पर 'अकार' का चिन्तन करना चाहिये (यह ब्रह्मा का बोधक है)। उससे आठ अङ्गुल ऊपर कण्ठ में विष्णु का वाचक 'उकार' है, उससे भी चार अङ्गुल ऊंचे तालु- स्थान में रुद्रवाचक 'मकार' की स्थिति है। इसी प्रकार ललाट के मध्यभाग में ईश्वर वाचक 'बिन्दु का' स्थान है। ललाट से ऊपर ब्रह्मरन्ध्र पर्यन्त नादमय सदाशिव देव विराजमान हैं। उनके साथ ही वहाँ उनकी शक्ति भी विद्यमान है। उपर्युक्त तत्त्वों का क्रमशः चिन्तन और त्याग करते हुए अन्ततोगत्वा शक्ति को भी त्याग दे। वहीं दिव्य पिपीलिका-स्पर्श का अनुभव करके ललाट के ऊपर के प्रदेश में परम तत्त्व, परमानन्दस्वरूप, भावशून्य, मनोऽतीत, नित्य गुणोदयशाली शिवतत्त्व में शिष्यात्मा के विलीन होने की भावना करे ॥३९ -४५ ॥

विमुञ्चन् सर्पिषो धारां ज्वालान्तेऽपि परे शिवे ।

योजनिकास्थिरत्वाय वौषडन्तशिवाणुना ॥४६॥

दत्वा पूर्णां विधानेन गुणापदानमचरेत् ।

ओं हां आत्मने सर्वज्ञो भव स्वाहा । ओं हां आत्मने परितृप्तो भव स्वाहा । ओं ह्रूं आत्मने अनादिबोधो भव स्वाहा । ओं हौं आत्मने स्वतन्त्रो भव स्वाहा । ओं हौं आत्मन् अलुप्तशक्तिर्भव स्वाहा । ओं हः आत्मने अनन्तशक्तिर्भव स्वाहा ।

इत्थं षड्गुणमात्मानं गृहीत्वा परमाक्षरात् ॥४७॥

विधिना भावनोपेतः शिष्यदेहे नियोजयेत् ।

तीव्राणुशक्तिसम्पातजनितश्रमशान्तये ॥४८॥

शिष्यमूर्धनि विन्यस्येदर्घ्यादमृतबिन्दुकं ।

परम शिव में योजनिका की स्थिरता के लिये 'ॐ नमः शिवाय वौषट् ।'- इस मन्त्र का उच्चारण करते हुए अग्नि की ज्वाला में घी की धारा छोड़ता रहे। फिर विधिपूर्वक पूर्णाहुति देकर गुणापादन करे । उसकी विधि इस प्रकार है। निम्नाङ्कित मन्त्रों को पढ़कर अग्नि में आहुतियाँ दे-

'ॐ हां आत्मन् सर्वज्ञो भव स्वाहा ।' 'ॐ ह्रीं आत्मन् नित्यतृप्तो भव स्वाहा ।' 'ॐ हूं आत्मन् अनादिबोधो भव स्वाहा ।' 'ॐ हैं आत्मन् स्वतन्त्रो भव स्वाहा ।' 'ॐ हाँ आत्मन् अलुप्तशक्तिर्भव स्वाहा ।' 'ॐ हः आत्मन् अनन्तशक्तिर्भव स्वाहा ।'

इस प्रकार छः गुणों से सम्पन्न आत्मा को अविनाशी परमशिव से लेकर विधिवत् भावनापूर्वक शिष्य के शरीर में नियोजित करे। तीव्र और मन्द शक्तिपातजनित श्रम की शान्ति के लिये शिष्य के मस्तक पर न्यासपूर्वक अमृत - बिन्दु अर्पित करे ॥ ४६ - ४८ अ ॥

प्रणमय्येशकुम्भादीन् शिवाद्दक्षिणमण्डले ॥४९॥

सौम्यवक्त्रं व्यवस्थाप्य शिष्यं दक्षिणमात्मनः ।

त्वयैवानुगृहीतोऽयं मूर्तिमास्थाय मामकीं ॥५०॥

देवे वह्नौ गुरौ तस्माद्भक्तिं चाप्यस्य वर्धय ।

ईशान - कलश आदि के रूप में पूजित शिवस्वरूप कलशों को नमस्कार करके दक्षिणमण्डल में शिष्य को अपने दाहिने उत्तराभिमुख बिठावे और देवेश्वर शिव से प्रार्थना करे- 'प्रभो! मेरी मूर्ति में स्थित हुए इस जीव को आपने ही अनुगृहीत किया है; अतः नाथ! देवता, अग्नि तथा गुरु में इसकी भक्ति बढ़ाइये' ॥ ४९-५०अ ॥

इति विज्ञाप्य देवेशं प्रणम्य च गुरुः स्वयं ॥५१॥

श्रेयस्तवास्त्विति ब्रूयादाशिषं शिष्यमादरात् ।

ततः परमया भक्त्या दत्वा देवेऽष्टपुष्पिकां ।

पुत्रकं शिवकुम्भेन संस्नाप्य विसृजेन्मखं ॥५२॥

इस प्रकार प्रार्थना करके देवेश्वर शिव को प्रणाम करने के अनन्तर गुरु स्वयं शिष्य को आदरपूर्वक यह आशीर्वाद दे कि 'तुम्हारा कल्याण हो'। इसके बाद भगवान् शिव को उत्तम भक्तिभाव से आठ फूल चढ़ाकर शिव कलश के जल से शिष्य को स्नान करवावे और यज्ञ का विसर्जन करे ॥ ५१-५२ ॥

इत्यादिमहापुराणे आग्नेये निर्वाणदीक्षासमापनं नाम अष्टाशीतितमोऽध्यायः ॥८८॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'निर्वाण-दीक्षा का वर्णन' नामक अठासीवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ८८ ॥

आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 89 

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