अद्भुत रामायण सर्ग ९

अद्भुत रामायण सर्ग ९

अद्भुत रामायण सर्ग ९ में परशुराम को राम का विश्वरूप दिखाना का वर्णन किया गया है।

अद्भुत रामायण सर्ग ९

अद्भुत रामायणम् नवम: सर्गः

Adbhut Ramayan sarga 9

अद्भुत रामायण नौवाँ सर्ग

अद्भुतरामायण नवम सर्ग

अद्भुत रामायण सर्ग ९ - श्रीराम विश्वरूप दर्शन

अथ अद्भुत रामायण सर्ग ९  

रामः सीतापरिणयं कृत्वा दशरथादिभिः ॥

भ्रातृभिश्चापि सहितो भार्यया सह सीतया ॥ १ ॥

सीता के साथ विवाह करके राम दशरथ, भ्राताओं एवं पत्नी सीता के साथ ।। १ ।।

अयोध्यां गन्तुमारेभे नानावाद्य- पुरः सरम् ।

आर्चीकनंदनो राम्रो भार्गवो रेणुकासुतः ॥ २ ॥

विविध प्रकार के वाद्यों सहित अयोध्या जाने लगे। आर्चिकनंदन रेणुका के पुत्र भार्गव परशुराम ॥ २ ॥

तस्य दशरथेः श्रुत्वा रामस्याक्लिष्टकर्मणः ।

विवाहकौतुकं वीरः पथा तेन समागतम् ॥३॥

दशरथ-पुत्र, महापराक्रमी उस राम के विवाह कौतुक को सुनकर मार्ग में ( वह वीर ) उनसे मिले ॥ ३ ॥

धनुरादाय तद्दिव्यं क्षत्रियाणां निबर्हणम् ।

जिज्ञास्यमानो रामस्य वीर्यं दाशरथेस्तथा ॥ ४ ॥

क्षत्रियों का नाश करनेवाले उस दिव्य धनुष को लेकर दशरथ-पुत्र राम के बल को जानने की इच्छावाले वे (वहां आये) ॥

सतमभ्यागतं दृष्ट्वा उद्यतास्त्रमवस्थितम् ।

प्रहसन्निव विप्रेंद्रं रामो वचनमब्रवीत् ॥ ५ ॥

उनको आये हुए (तथा) अस्त्र उठाये खड़े देखकर राम हँसते हुए उन विप्रेन्द्र से बोले ॥ ५ ॥

स्वागतं ते मुनिश्रेष्ठ किं कार्यं करवाणि ते ।

प्रोवाच भार्गवो वाक्यं स्वागतेन किमस्ति मे ॥ ६ ॥

हे मुनिश्रेष्ठ ! आपका स्वागत हो! मैं आपका कौन-सा कार्य करूँ? तब भार्गव ने कहा- " स्वागत से मुझे क्या (प्रयोजन)

क्षत्रकालं हि राजेंद्र धनुरेतन्ममास्ति हि ।

समारोपय यत्नेन यदि शक्तोसि राघव ।। ७ ।।

हे राजेन्द्र ! मेरा वह धनुष क्षत्रियों का काल है । यदि समर्थ हो तो आप प्रयत्न से इसे चढ़ा दीजिए" ॥ ७ ॥

इत्युक्तस्त्वाह भगवंस्त्वं नाधिक्षेप्तुमर्हसि ।

नेहि नह्यधमो धर्मः क्षत्रियाणां द्विजातिषु ॥ ८ ॥

ऐसा कहने पर (राम) बोले- "हे भगवान् ! आप हम पर आक्षेप करें यह उचित नहीं है । क्षत्रियों का ब्राह्मणों के प्रति (बल प्रकाशित करना) धर्म नहीं ( है ), अधर्म है ॥ ८ ॥

इक्ष्वाकूणां विशेषेण बाहुवीर्येण कत्थनम् ।

तमेवं वादिनं तत्र रामो वचनमब्रवीत् ।। ९ ।।

खास करके इक्ष्वाकुओं के लिए बाहुवीर्य का कथन करना (उचित नहीं है) ।" इस प्रकार बोलते हुए राम से परशुराम कहने लगे -॥ ९ ॥

अलं वागुपदेशेन धनुरायच्छ राघव ।

ततो जग्राह रोषेण क्षत्रियर्षभसूदनम् ॥ १० ॥

"वाणी का उपदेश करना बन्द करो । राघव, धनुष उठाओ !" तब क्रोध से (राम ने) क्षत्रियश्रेष्ठों का नाश करनेवाला (धनुष) हाथ में लिया ।। १० ।।

रामो दाशरथिदिव्यं हस्ताद्रामस्य कार्मुकम् ॥

धनुरारोपयामास सलिलमिव राघवः ॥ ११ ॥

दशरथ-पुत्र राम ने परशुराम के हाथ से उस दिव्य धनुष को उठाया, (और) राघव ने लीलापूर्वक धनुष चढ़ा दिया ॥११॥

ज्याशब्दमकरोत्तत्र स्मयमानः स वीर्यवान् ॥

तस्य शब्देन भूतानि वित्रेसुरशनेरिव ॥ १२ ॥

हँसते हुए उस वीर ने धनुष की डोरी की टंकार की । वज्र (की ध्वनि के) समान उसके गंभीर घोष को सुनकर सब प्राणी घबरा गये ।। १२ ।।

अथाब्रवीद्वचो रामं रामोदाशरथिस्तदा ।

इदमारोपितं ब्रह्मन्किम- न्यत्करवाणि ते ।। १३ ।।

तब दशरथ-पुत्र राम परशुराम से कहने लगे- "हे ब्रह्मन् ! यह धनुष चढ़ा लिया। दूसरा आपके लिए क्या (कार्य) करूँ ? " 

तस्य रामो ददौ दिव्यं जामदग्न्यो महाबलः ।

शरमाकर्णदेशांतमयमाकृष्य तामिति ॥ १४ ॥

महाबली जमदग्निपुत्र परशुराम ने उन्हें एक दिव्य बाण दिया (और कहा) - "धनुष पर चढ़ा के कान तक खींचो " ।।१४।

एतच्छ्रुत्वाब्रवीद्रामः प्रदीप्त इव मन्युना ॥

श्रूयते क्षम्यते चैव दर्पपूर्णोऽसि भार्गव ।। १५ ।।

यह सुनकर गुस्से से मानो प्रदीप्त होकर राम बोले- "सुना जाता है, क्षमा किया जाता है; परंतु आप तो अभिमान से पूर्ण हैं ।। १५ ॥

त्वया ह्यधिगतं तेजः क्षत्रियेभ्यो विशेषतः ।

पितामहप्रसादेन तेन मां क्षिपसि ध्रुवम् ॥ १६ ॥

पितामह के प्रसाद से आपने विशेषकर क्षत्रियों से तेज प्राप्त किया है । और इसी कारण निश्चित आप मुझ पर आक्षेप कर रहे हैं ॥ १६ ॥

पश्य मां स्वेन रूपेण चक्षुस्ते वितराम्यहम् ॥

इत्युक्त्वा प्रददौ तस्मै रामो दिव्यां दृशं तदा ।। १७ ।।

आप असली रूप में मेरा दर्शन कीजिए। मैं आपको (दिव्य ) चक्षु प्रदान करता हूँ ।" ऐसा कहकर राम ने उनको दिव्य दृष्टि दी ॥ १७ ॥

ततो रामशरीरे वे रामोऽपश्यत्स भार्गवः ।

आदित्यान्सवसूनुद्रान्साध्यांश्च समरुद्गणान् ॥ १८ ॥

तब भार्गव परशुराम ने राम के शरीर में वसुओं सहित आदित्य, रुद्र, साध्य तथा मरुतों के गण को देखा ।। १८ ।।

पितॄन्हुताशनांश्चैव नक्षत्राणि ग्रहांस्तथा ॥

गन्धर्वाग्राक्षसान्य- क्षाशदोस्तीर्थानि यानिवै ॥ १९ ॥

पितृ, अग्नि, नक्षत्र, ग्रह तथा गंधर्व, राक्षस, यक्ष, नदी, तीर्थ ॥ १९ ॥

ऋषीन्वै निखिलान्यांश्च ब्रह्म- भूतान्सनातनान् ।

देवर्षीश्चैव कात्स्न्र्त्स्न्येन समुद्रान्पर्वतांस्तथा ॥ २० ॥

सर्वं ऋषि, ब्रह्मभूत सनातन लोक, सारे देवर्षि, समुद्र,पर्वत ।। २० ।।

वेदांश्च सोपनिषदान्वषट्कारान्सहाध्वरैः ।

ऋचो यजूंषि सामानि धनुर्वेदांश्च सर्वशः ।। २१ ।।

उपनिषद् सहित वेद, यज्ञ सहित वषट्कार, ऋचाएं, यजुमंत्र, साममंत्र तथा धनुर्वेद सर्वत्र ( देखने लगे) ॥ २१ ॥

विद्युतो मेघवृन्दानि वर्षाणि च महाव्रत ॥

ततः स भगवान्विष्णुस्तं वं बाणं मुमोच ह ॥ २२ ॥

विद्युत्, मेघवृन्द तथा वर्ष (आदि देखा), तब भगवान विष्णु ने उस बाण को छोड़ा ।। २२ ॥

शुष्काशनिसमाकीर्ण महोल्काभिश्च सुव्रतः ॥

पांसुवर्षेण महता मेघसंघश्च केवलम् ॥ २३ ॥

उस समय सारा जगत 'हे सुव्रत ! शुष्क वज्र से महा उल्का से, धूल की भारी वर्षा से तथा मेघ के समूहों से।।२३॥

भूमिकंपैः सनिर्घातैर्नादैश्च विपुलैरपि ॥

भार्गवं विह्वलं कृत्वा तेजश्चाक्षिप्य केवलम् ॥ २४ ॥

निर्घात सहित भूकम्प से, विपुल नाद से ( व्याप्त हो गया)  (तथा) भार्गव को विह्ल करके उनके केवल तेज का आकर्षण करके ।। २४ ।।

अगच्छज्ज्वलितो रामं जरो बाहुप्रचोदितः ।

स तु विह्वलतां गत्वा प्रतिलभ्य च चेतनाम् ।। २५ ।।

(राम के) बाहु से छूटा हुआ बाण प्रज्वलित होता हुआ परशुराम ( के प्रति गया। वे ) विह्वल हो गये । ( तथा ) पुनः चेतना प्राप्त करके ।। २५ ।।

रामः प्रत्यागतप्राणः प्राणम- द्विष्णुतेजसम् ।

विष्णुना सोऽभ्यनुज्ञातो महेंद्रमगमत्पुनः ॥ २६ ॥

प्राण पुनः प्राप्त करके परशुराम ने तेजस्वी विष्णु ( को ) प्रणाम किया । विष्णु की आज्ञा से वे फिर (से) महेन्द्र पर्वत की ओर चले गये ॥ २६ ॥

भीतश्च तत्र न्यवसद्विनीतश्च महा तपाः ।

ततः संवत्सरेऽतीते हृतौजसमवस्थितम् ।। २७ ।।

महा तपस्वी परशुराम ( वहाँ ) भयभीत एवं विनम्र होकर रहने लगे । इस प्रकार एक वर्ष बीत गया । अब वे पराक्रमरहित, निस्तेज होकर वहीं रह गये ॥ २७ ॥

निर्मदं दुःखितं दृष्ट्वा पितरो राम- मब्रुवन् ।

न वै सम्यगिदं पुत्र विष्णुमासाद्य वै कृतम् ॥ २८ ॥

तब मदरहित और दुःखी परशुराम को देखकर पितरों ने उनसे कहा- "हे पुत्र ! विष्णु को प्राप्त करके तुमने यह अच्छा नहीं किया ॥ २८ ॥

स हि पूज्यश्च मान्यश्च त्रिषु लोकेषु सर्वदा ।

गच्छ पुत्र: नदीं पुण्यां वधूसरकृतालयाम् ।। २९ ।।

वह सदा तीनों लोकों में पूज्य और मान्य हैं । हे पुत्र! वधूसर आलयवाली पवित्र नदी में जाओ ।। २९ ॥

तत्रोपस्पृश्य तीर्थेषु पुनर्वपुरवा- प्स्यसि ।

दीप्तोदं नाम तत्तीर्थं यत्र ते प्रपितामहः ॥ ३० ॥

वहाँ तीर्थ में स्नान करके तुम फिर से अपना असली शरीर प्राप्त करोगे । वह दीप्तोद नामक तीर्थ है, जहाँ तुम्हारे प्रपितामह ॥ ३० ॥

भृगुर्देवयुगे राम तप्तवानुत्तमं तपः ।

तत्तथा कृतवान्रामी भार्गवो वचनान्पितुः ॥ ३१ ॥

भृगु ने देवयुग में, हे राम ! उत्तम तप किया था ।" तब पिता के वचन से भार्गव परशुराम ने वैसा ही किया॥३१॥

प्राप्तवांश्च पुनस्तेजो भारद्वाज महामुने ।

एतद्यः शृणुयाद्वत्स रामचरित्रमुत्तमम् ॥ ३२ ॥

हे महामुने भरद्वाज ! ( उन्होंने ) पुन: ( अपना खोया हुआ ) तेज प्राप्त किया । हे वत्स ! इस उत्तम रामचरित को जो सुनता है, वह सारे पापों से मुक्त होकर विष्णुलोक को जाता है ॥ ३२ ॥

सर्वपापविनिर्मुक्तो विष्णुलोकं स गच्छति ।

ततो रामो जानकीस्पृष्टपाणिः सूतैर्भक्त्या मागधैः स्तूयमानः ।

पुष्पासारैरास्तृतो देवसंधैः स उत्तरान्कोसलानाजगाम ॥ ३३ ॥

( तब ) जानकी का हाथ पकड़कर, सूत और बंदीजनों से भक्तिपूर्वक स्तुति किये जानेवाले देवताओं के संघों से पुष्पों की वर्षा से आच्छादित हो (कर) राम उत्तर कोसल की ओर गये ॥ ३३ ॥

इत्यार्थे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये अद्भुतोत्तरकाण्डे जामदग्न्याय विश्वरूपदर्शनं नाम नवमः सर्गः ॥ ९ ॥

।। इति श्री वाल्मीकिविरचित आदिकाव्य रामायण के अद्भुतोत्तरकाण्ड में परशुराम द्वारा राम के विश्वरूप का

दर्शन नाम नवम सर्ग समाप्त ।। ९ ।।

आगे जारी...........अद्भुत रामायण सर्ग 10

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