अग्निपुराण अध्याय ९१

अग्निपुराण अध्याय ९१

अग्निपुराण अध्याय ९१ में देवार्चन की महिमा तथा विविध मन्त्र एवं मण्डल का कथन का वर्णन है।

अग्निपुराण अध्याय ९१

अग्निपुराणम् एकनवतितमोऽध्यायः

Agni puran chapter 91

अग्निपुराण इक्यानबेवाँ अध्याय

अग्नि पुराण अध्याय ९१     

अग्निपुराणम् अध्यायः ९१ विविधमन्त्रादिकथनम्

अथ एकनवतितमोऽध्यायः

ईश्वर उवाच

अभिषिक्तः शिवं विष्णुं पूजयेद्भास्करादिकान् ।

शङ्खभेर्य्यादिनिर्घाषैः स्नापयेत् पञ्चगव्यके ।। १ ।।

यो देवान्देबलोकं स याति स्वकुलमुद्धरन् ।

वर्षकोटिसहस्रेषु यत् पापं समुपार्ज्जितं ।। २ ।।

घृताभ्यङ्गेन देवानां भस्मीभवति पावके ।

आढकेन घृताद्यैश्व देवान् स्नाप्य सुरो भवेत् ।। ३ ।।

भगवान् शंकर कहते हैंस्कन्द ! अभिषेक हो जाने पर दीक्षित पुरुष शिव, विष्णु तथा सूर्य आदि देवताओं का पूजन करे। जो शङ्ख, भेरी आदि वाद्यों की ध्वनि के साथ देवताओं को पञ्चगव्य से स्नान कराता है, वह अपने कुल का उद्धार करके स्वयं भी देवलोक को जाता है। अग्निनन्दन ! कोटि सहस्र वर्षों में जो पाप उपार्जित किया गया है, वह सब देवताओं को घी का अभ्यङ्ग लगाने से भस्म हो जाता है। एक आढ़क घी आदि देवताओं को नहलाकर मनुष्य देवता हो जाता है ॥ १-३ ॥

चन्दनेनानुलिप्याथ नान्धाद्यैः पूजयेत्तथा ।

अल्पायासन स्तुतिभि स्तुता देवास्तु सर्वदा ।। ४ ।।

अतीतानागतज्ञानमन्त्रधीभुक्तिमुक्तिदाः।

चन्दन का अनुलेप लगाकर गन्ध आदि से देवपूजन करे तो उसका भी वही फल है। थोड़े से आयास के द्वारा स्तुति पढ़कर यदि सदा देवताओं की स्तुति की जाय तो वे भूत और भविष्य का ज्ञान, मन्त्रज्ञान, भोग तथा मोक्ष प्रदान करनेवाले होते हैं ॥ ४अ ॥

गृहीत्वा प्रश्नसूक्ष्मार्णे हृते द्वाभ्यां शुभाशुभं ।। ५ ।।

त्रिभिर्जीवो मूलधातुश्चतुर्भिब्राह्मणादिधीः।

पञ्चादौ भूततत्त्वादि शेष चैवं जपादिकं ।। ६ ।।

यदि कोई मन्त्र के शुभाशुभ फल के विषय में प्रश्न करे तो प्रश्नकर्ता के संक्षिप्त प्रश्रवाक्य के अक्षरों की संख्या गिन ले। उस संख्या में दो से भाग दे। एक बचे तो शुभ और शून्य या दो बचे तो अशुभ फल जाने। तीन से भाग देने पर मूल धातुरूप जीव का परिचय मिलता है, अर्थात् एक शेष रहे तो वातजीव, दो शेष रहे तो पित्तजीव और तीन शेष रहे तो कफजीव जाने। चार से भाग देने पर ब्राह्मणादि वर्ण- बुद्धि होती है। तात्पर्य यह कि एक बाकी बचे तो उस मन्त्र में ब्राह्मण-बुद्धि, दो बचने पर क्षत्रिय बुद्धि, तीन बचने पर वैश्य- बुद्धि और चार शेष रहने पर शूद्र-बुद्धि करे। पाँच से भाग देने पर शेष के अनुसार भूततत्त्व आदि का बोध होता है, अर्थात् एक आदि शेष रहने पर पृथिवी आदि तत्त्व का परिचय मिलता है। इसी प्रकार जय-पराजय आदि का ज्ञान प्राप्त करे ॥ ५-६ ॥

एकत्रिकातित्रिकान्ते पदे द्विपमकान्तके ।

अशुभं मध्यमं मध्येष्विन्द्रश्त्रिषु नृपः शुभः ।। ७ ।।

सङ्‌खयावृन्दे जीविताब्दं यमोऽब्ददराहा ध्रुवं ।

यदि मन्त्र – पद के अन्त में एक त्रिक (तीन बीजाक्षर) हों, अधिक बीजाक्षर हों अथवा दो प, म एवं क हो तो इनमें से प्रथम वर्ग अशुभ, बीचवाला मध्यम तथा अन्तिम वर्ग शुभ है। यदि अन्त में संख्या-समूह हो तो वह जीवनकाल के दस वर्ष का सूचक है। यदि दस की संख्या हो तो दस वर्ष के पश्चात् उस मन्त्र के साधक पर यमराज का निश्चय ही आक्रमण हो सकता है ॥ ७अ॥

सूर्य्येभास्येशदुर्गाश्रीविष्णुमन्त्रैर्ल्लिखेत् कजे ।। ८ ।।

कठिन्या जप्तया स्प्टष्टे गोमूत्राकृतिरेखया ।

आरभ्यैकं त्रिकं यावत्त्रिचतुष्कावसानकं ।। ९ ।।

मरुद् व्योम मरुद्वीजैश्चतुः षष्टिपदे तथा ।

अक्षाणां पतनात् स्पर्शाद्विषमादौ शुभादिकं ।। १० ।।

सूर्य, गणपति, शिव, दुर्गा, लक्ष्मी तथा श्रीविष्णु भगवान्‌ के मन्त्रों के अक्षरों द्वारा जप में तत्पर कठिनी (अङ्गुष्ठ अँगुली) से स्पर्श किये गये कमलपत्र में गोमूत्राकार रेखा पर एक त्रिक से आरम्भ कर बारह त्रिक- पर्यन्त लिखे। अर्थात् उक्त मन्त्रों के तीन-तीन अक्षरों का समुदाय एक से लेकर बारह स्थानों तक पृथक् पृथक् लिखे। इसी प्रकार चौंसठ कोष्ठों का एक मण्डल बनाकर उसमें मरुत् (यं), व्योम (हं) और मरुत् (यं) इन तीन बीजों का त्रिक पहले कोष्ठ से लेकर आठवें कोष्ठ तक लिखे। इन सब स्थानों पर पासा फेंकने से अथवा स्पर्श करने पर शुभाशुभ का परिज्ञान होता है। विषम संख्यावाले स्थानों पर पासा पड़े या स्पर्श हो तो शुभ और सम संख्या पर पड़े तो अशुभ फल होता है ॥ ८-१० ॥

एकत्रिकादिमारभ्य अन्ते चाष्टत्रिकं तथा ।

ध्वजाद्यायाः समा हीना विषमाः शोभनादिदाः।। ११ ।।

'यं हं यं' - इन तीन बीजों के आठ त्रिक हैं। वे ध्वज आदि आठ आयों के प्रतीक हैं। इन आयों में जो सम हैं, वे अशुभ हैं। विषम आय शुभप्रद कहे गये हैं ॥ ११ ॥

आइपल्लवितैः काद्यैः षोडशस्वरपूर्व्वगैः।

आद्यैस्तैः सस्वरैः काद्यैस्त्रिपुरानाममन्त्रकाः ।। १२ ।।

ह्रीं वीजाः प्रणवाद्याः स्युर्न्नमोऽन्ता यत्र पूजने ।

मन्त्रा विंशतिसाहस्राः शतं षष्ठ्यदिकं ततः ।। १३ ।।

'' आदि अक्षरों को सोलह स्वरों से तथा सोलह स्वरों को '' आदि से युक्त करके उन 'सबके साथ' आं ई' यह पल्लव लगा दे। पल्लवयुक्त इन सस्वर कादि अक्षरों को आदि में रखकर उनके साथ त्रिपुरा के नाम मन्त्र को पृथक् पृथक् सम्बद्ध करे। उनके आदि में 'ॐ ह्रीं' जोड़े और अन्त में 'नमः' पद लगा दे। इस प्रकार पूजनकर्म के उपयोग में आनेवाले इन मन्त्रों का प्रस्तार बीस हजार एक सौ साठ की संख्या तक पहुँच जाता है ॥ १२-१३ ॥

आं ह्रीं मन्त्राः सरस्वत्याश्चण्डिकायास्तथैव च ।

तथा गौर्य्याश्च दुर्गाया आं श्रीं मन्त्राः श्रियस्तथा ।। १४ ।।

तथा क्षौं कौं मन्त्राः सूर्य्यस्य आं हौं मन्त्राः शिवस्य च ।

आं गं मन्त्रा गणेशस्य आं मन्त्राश्च तथा हरेः ।। १५ ।।

शतार्द्धैकाधिकैः काद्यैस्तथा षोडशभिः स्वरैः।

काद्यैस्तैः सस्वरैराद्यैः कान्तैर्म्मन्त्रास्तथाखिलाः ।। १६ ।।

'आं ह्रीं' - इन बीजों से युक्त सरस्वती, चण्डी, गौरी तथा दुर्गा के मन्त्र हैं। श्रीदेवी के मन्त्र 'आं श्रीं' इन बीजों से युक्त हैं। सूर्य के मन्त्र 'आं क्ष' इन बीजों से, शिव के मन्त्र 'आं हौं' इन बीजों से, गणेश के मन्त्र 'आं गं' इन बीजों से तथा श्रीहरि के मन्त्र 'आं अ' इन बीजों से युक्त हैं। कादि व्यञ्जन अक्षरों तथा अकारादि सोलह स्वरों को मिलाकर इक्यावन होते हैं। इस प्रकार सस्वर कादि अक्षरों को आदि में और सस्वर 'क्ष' से लेकर '' तक के अक्षरों को अन्त में रखने से सम्पूर्ण मन्त्र बनते हैं । १४ - १६ ॥

रवीशदेवीविष्णूनां खब्धिदेवेन्द्रवर्त्तनात् ।

शतत्रयं षष्ट्यधिकं प्रत्येकं मण्डलं क्रमात् ।

अभिषिक्तो जपेद् ध्यायेच्छिष्यादीन् दीक्षयेद्‌गुरुः ।। १७ ।।

१४४० सम्पूर्ण मण्डल होने से सूर्य, शिव, देवी दुर्गा तथा विष्णु में से प्रत्येक के तीन सौ साठ मण्डल होते हैं। अभिषिक्त गुरु इन सब मन्त्रों तथा देवताओं का जप ध्यान करे तथा शिष्य एवं पुत्र को दीक्षा भी दे ॥ १७ ॥

इत्यादिमहपुराणे आग्नेये नानामन्त्रादिकथनं नाम एकनवतितमोऽध्यायः ।

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'नाना-मन्त्र आदि का कथन' नामक इक्यानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ९१ ॥

आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 92

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