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अगहन बृहस्पति व्रत व कथा
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
अद्भुत रामायण सर्ग १०
अद्भुत रामायण सर्ग १० में श्रीराम
द्वारा हनुमान को (अपने) चतुर्भुज-रूप का दर्शन कराने का वर्णन किया गया है।
अद्भुत रामायणम् दशम: सर्गः
Adbhut Ramayan sarga 10
अद्भुत रामायण दसवाँ सर्ग
अद्भुतरामायण दशम सर्ग
अद्भुत रामायण सर्ग १० - श्रीराम चतुर्भुजरूप दर्शन
अथ अद्भुत रामायण सर्ग १०
अथ सीतालक्ष्मणाभ्यां सह केनापि
हेतुना ।
जगाम विपिनं रामो दंडकारण्यमाश्रितः
॥ १ ॥
तदनन्तर सीता और लक्ष्मण के साथ
किसी कारणवश राम वन में गये (तथा) दण्डकारण्य में आश्रय लिया ॥ १॥
तत्र गोदावरीतीरे पर्णशालां विधाय
सः ।
उवाच कंचित्कालं वै मृगयामभिकारयन्
॥ २ ॥
वहाँ गोदावरी के किनारे पर्णशाला
बनाकर कुछ समय तक मृगया करते हुए उन्होंने निवास किया ॥ २ ॥
कदाचिद्रावणो मोहाल्लंकायां तां
न्यवासयत् ।
तामवृष्ट्वा ततो रामो लक्ष्मणश्च
महाबलः ।। ३ ।।
एक बार मोहवश रावण ने उन (सीता) को
लंका में वास कराया । उन (सीताजी) को न देखकर राम तथा महाबलवान लक्ष्मण ॥ ३ ॥
आटतुश्चाटवीं सर्वां सीतादर्शन-
लालसौ ।
रामस्य रुदतस्तस्य
बाष्पवारिसमुद्भवा ॥ ४ ॥
सीता के दर्शन की इच्छा से सारे वन
में घूमने लगे । रोते हुए राम के (अश्रु-जल से उत्पन्न ) ॥ ४ ॥
नदी वैतरणी
चाभूच्चक्षुषोरभ्रुवुद्भवा ।
वितरत्युश्रु वै यस्मादतो
वैतरणीस्मृता ॥ ५ ॥
नेत्रों के अश्रुजल से वैतरणी नदी
उत्पन्न हुई । (वह) अश्रु का वितरण करती थी, इसलिए
वैतरणी कहलायी ॥५॥
पितॄणां तरणं यस्मान्मा नृणां स्नानतर्पणात्
।
तेनापि कारणेनासौ नदी वैतरणी स्मृता
॥ ६॥
जिस नदी में स्नान-तर्पण करने से
पितरों का तर्पण होता है, उस कारण से उसे
वैतरणी नदी कहा गया ॥ ६ ॥
नेत्रयोर्दूषिकायाश्चय ताभिः
शैलास्ततोऽ-भवन् ।
सुग्रीवेण वानरेण सख्यं कर्तु
महामनाः ।। ७ ।।
नेत्रों के मल से वहाँ पर्वत हो गये
। (तदनन्तर) वानर सुग्रीव से मित्रता करने के लिए वे महामना ॥ ७ ॥
ऋष्यमूकमगाद्रामो लक्ष्मणेनानुजेन च
।
पञ्चभिमंत्रिभिः सार्द्धं सुग्रीवो
नाम वानरः ॥ ८ ॥
राम छोटे भाई लक्ष्मण सहित ऋष्यमूक
(पर्वत) की ओर गये । पाँच मंत्रियों के साथ सुग्रीव नामक वानर ॥ ८ ॥
यत्रास्ते वालिभयतः
सोऽपश्यद्रामलक्ष्मणौ ।
चापबाणधरौ वीरौ संताविव चाम्बरम् ॥
९ ॥
बालि के भय से वहाँ रह रहा था । उस
सुग्रीव ने राम-लक्ष्मण को देखा । चाप और बाण धारण किये हुए वे वीर मानो आकाश को ग्रसित
करते थे ।। ९॥
तौ दृष्ट्वा सुमहत्रस्तो वालिपक्षा-
वमन्यत ।
प्रास्थापयद्धनूमंतं भिक्षुरूपेण
वानरम् ॥ १० ॥
उन्हें देखकर सुग्रीव अत्यन्त
भयग्रस्त हुए । (कारण) वह उन्हें बालि के पक्ष का मानता था । (उन्होंने) भिक्षुक
के रूप में वानर हनुमान की (वहाँ) भेजा ॥ १० ॥
आत्मानं दर्शयामास
हनूमान्रामलक्ष्मणौ ।
को भवानिति चोक्तेऽथ चतुर्बाहुं
किरीटिनम् ॥ ११ ॥
हनुमान ने राम-लक्ष्मण को अपना
(रूप) दिखाया । 'आप कौन हैं ?'
ऐसा पूछने पर चतुर्बाहु किरीटधारी ॥११॥
शंखचक्रगदापाणि वनमाला- विभूषितम् ।
श्रीवत्सबक्षसं देवं
पीतवाससमच्युतम् ॥ १२ ॥
हाथ में शंख,
चक्र तथा गदा धारण किये हुए, वनमाला से
विभूषित, वक्ष:स्थल में श्रीवत्स धारण किये हुए, पीताम्बरधारी देव अच्युत को ॥ १२ ॥
लक्ष्मीसरस्वतीभ्यां च
संश्वितोभयपार्श्वकम् ।
ब्रह्मपुत्रैः सनंदाद्यैः स्तूयमानं
समन्ततः ॥१३॥
देवषपितृगंधर्वैः सिद्धविद्याधरोरगः
।
सेव्यमानं महात्मानं
पुंडरीकविलोचनम् ॥ १४ ॥
सहस्र सूर्यसंकाशं शतचन्द्रशुभाननम्
।
फणासहामतुलं धारयन्तं च लक्ष्मणम्
।। १५ ।।
दोनों बाजू से लक्ष्मी और सरस्वती
से सेवित,
चारों ओर सनंदादि ब्रह्मा के पुत्रों से स्तुति किए जानेवाले,
देव, ऋषि, पितृ, गंधर्व, सिद्ध, विद्याधर (तथा)
सर्पों से सेवित, कमललोचन, हजारों
सूर्य के समान (प्रकाशमान), सौ चन्द्र के समान सुन्दर
मुखवाले हैं (तथा) हज़ार फन धारण किये हुए लक्ष्मण को ।। १३-१५ ।।
अनन्तं रामशिरसि आतपत्रं फणागणैः ।
दधानं सर्वलोकेशनागसंघैश्च
संस्तुतम् ॥ १६ ॥
जो अनन्त हैं (तथा) राम के सिर पर
फनों के समूह से छत्र धारण करनेवाले, सर्वं
लोकपाल तथा नागसमूहों से स्तुति किये जानेवाले हैं ।। १६ ।।
आत्मानं दर्शयामास रामचन्द्रो
हनूमते ।
तद्रूपं हनुमन्वीक्ष्य किमेतदिति
विस्मितः ॥ १७ ॥
(इस प्रकार) रामचन्द्र ने अपना (विराट्
परमात्म-स्वरूप) हनुमान को दिखाया । इस रूप को देखकर हनुमान "यह क्या है ?"
- ऐसे विस्मित हुए । १७ ॥
क्षणं निमील्य नयने पुनः
सोऽपश्यदद्भुतम् ।
स्तुत्वा नत्वा च बहुधा
सोऽब्रवीद्राधवं वचः ॥ १८ ॥
क्षण भर आँखें मूंदकर वे फिर से उस
अद्भुत (रूप को) देखते थे । अनेक बार स्तुति और प्रणाम करके वे राघव से (वचन) कहने
लगे - ।। १८ ।।
अहं सुग्रीवसचिव हनुमान्नाम वानरः ।
सुग्रीवेण प्रेषितोऽहंयुवां कौ
ज्ञातुमागतः ।। १९ ।।
"मैं सुग्रीव का सचिव हनुमान
नाम का वानर हूँ । सुग्रीव द्वारा भेजा हुआ मैं, आप दोनों कौन हैं, यह जानने आया हूँ ॥१९ ॥
दृष्ट्वा युवां च द्विभुजौ
चापबाणधरौ परम् ।
आगत्य चान्यथा दृष्टं वद में को
भवानिति ॥ २० ॥
आप दोनों को दो भुजावाले तथा
धनुष-बाण धारण किये हुए देखकर (मैं आया), किन्तु
आने पर कुछ और ही देखा । मुझसे कहिए, आप दोनों कौन हैं ?"
॥ २० ॥
इति पवनसुतं तं व्याकुलं व्याहरन्तं
किमिति कथमितीदं कंपमानं प्लयंगम् ।
कृतकरपुटमौलि संबिधेयं ब्रुवन्तं
मधुरतर मुदारं रामचन्द्रोऽब्रवीत्तम् ॥ २१ ॥
इस प्रकार व्याकुलता से 'यह क्या है', 'कैसे हैं', ऐसा
बोलते हुए, कंपित होते हुए, हाथ जोड़कर,
सर झुकाकर मधुर वचन से बोलते हुए उदार पवन पुत्र उस वानर से
रामचन्द्रजी ने कहा ।। २१ ।।
इत्यार्थे श्रीमद्रामायणे
बाल्मीकीये आदि काव्ये अद्भुतोत्तरकाण्डे श्रीराम- चतुर्भुजरूपदर्शनं नाम दशमः
सर्गः ।। १० ।।
॥ इति श्रीवाल्मीकिविरचित आदिकाव्य
रामायण के अद्भुतोत्तरकाण्ड में हनुमान द्वारा राम के चतुर्भुजरूप का दर्शन नामक दशम
सर्ग समाप्त ॥ १० ॥
आगे जारी...........अद्भुत रामायण सर्ग 11
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