अग्निपुराण अध्याय ९२
अग्निपुराण
अध्याय ९२ में प्रतिष्ठा के अङ्गभूत शिलान्यास की विधि का
वर्णन है।
अग्निपुराणम् द्विनवतितमोऽध्यायः
Agni puran chapter 92
अग्निपुराण बानबेवाँ अध्याय
अग्नि पुराण अध्याय ९२
अग्निपुराणम् अध्यायः ९२ प्रतिष्ठाविधिकथनम्
अथ द्विनवतितमोऽध्यायः
ईश्वर उवाच
प्रतिष्ठां
सम्प्रवक्ष्यामि क्रमात् सङ्क्षेपतो गुह ।
पीठं शक्तिं
शिवो लिङ्गं तद्योगः स शिवाणुभिः ।। १ ।।
प्रतिष्ठायाः
पञ्च भेदास्तेषां रूपं वदामि ते ।
यत्र
ब्रह्मशिलायोगः सा प्रतिष्ठा विशेषतः ।। २ ।।
स्थापनन्तु
यथायोगं पीठ एव निवेशनं ।
प्रतिष्ठाभिन्नपीठस्य
स्थितस्थापनमुच्यते ।। ३ ।।
उत्थापनञ्च सा
प्रोक्ता लिङ्गोद्धारपुरःसरा ।
यस्या तु
लिङ्गमारोप्य संस्कारः क्रियते बुधैः ।। ४ ।।
आस्थापनं
तदुद्दिष्टं द्विधा विष्णवादिकस्य च ।
आसु सर्व्वासु
चैतन्यं नियुञ्जीत परं शिवम् ।। ५ ।।
यदाधारादिभेदेन
प्रासादेष्वपि पञ्चधा ।
परीक्षामथ
मेदिन्याः कुर्य्यात्प्रासादकाम्यया ।। ६ ।।
शुक्लाज्यगन्धा
रक्ता च रक्तगन्धा सुगन्धिनी ।
पीता कृष्णा
सुरादनधा विप्रादीनां मही क्रमात् ।। ७ ।।
भगवान् शिव
कहते हैं— स्कन्द ! अब मैं संक्षेप से और क्रमशः
प्रतिष्ठा का वर्णन करूँगा । पीठ शक्ति है और लिङ्ग शिव। इन दोनों (पीठ और लिङ्ग
अथवा शक्ति और शिव) के योग में शिव-सम्बन्धी मन्त्रों द्वारा प्रतिष्ठा की विधि
सम्पादित होती है। प्रतिष्ठा के 'प्रतिष्ठा' आदि पाँच भेद* हैं। उनका स्वरूप
तुम्हें बता रहा हूँ। जहाँ ब्रह्मशिला का योग हो, वहाँ
विशेषरूप से की हुई स्थापना 'प्रतिष्ठा' कही गयी है। पीठ पर ही यथायोग्य जो अर्चा-विग्रह को पधराया जाता है,
उसे 'स्थापन' कहते हैं।
प्रतिष्ठा (ब्रह्मशिला) से भिन्न की स्थापना को 'स्थिर
स्थापन' कहते हैं। लिङ्ग के आधारपूर्वक जो स्थापना होती है,
उसे 'उत्थापन' कहा गया
है। जिस प्रतिष्ठा में लिङ्ग को आरोपित करके विद्वानों द्वारा उसका संस्कार किया
जाता है, उसकी 'आस्थापन' संज्ञा है। ये शिव प्रतिष्ठा के पाँच भेद हैं। 'आस्थान' और 'उत्थान' भेद से विष्णु
आदि की प्रतिष्ठा दो प्रकार की मानी गयी है। इन सभी प्रतिष्ठाओं में चैतन्यस्वरूप
परमशिव का नियोजन करे। 'पदाध्वा' आदि
भेद से प्रासादों में भी पाँच प्रकार की प्रतिष्ठा बतायी गयी है*। प्रासाद की इच्छा से पृथ्वी की परीक्षा करे। जहाँ
की मिट्टी का रंग श्वेत हो और घी की सुगन्ध आती हो, वह भूमि
ब्राह्मण के लिये उत्तम बतायी गयी है। इसी तरह क्रमशः क्षत्रिय के लिये लाल तथा
रक्त की-सी गन्धवाली मिट्टी, वैश्य के लिये पीली और
सुगन्धयुक्त मिट्टीवाली तथा शूद्र के लिये काली एवं सुरा की-सी गन्धवाली मिट्टी से
युक्त भूमि श्रेष्ठ कही गयी है ॥ १-७ ॥
*१. प्रतिष्ठा, स्थापन, स्थिर स्थापन,
उत्थापन और आस्थापन।
*२. 'अध्या' छ: कहे गये
हैं-तत्त्वाध्या पदाध्या, वर्णाध्या, मन्त्राध्या,
कलाध्या और भुवनाध्या इनमें से प्रथम को छोड़कर शेष पाँचों के भेद से
यहाँ पाँच प्रकार की प्रतिष्ठा का निर्देश किया गया है।
पूर्व्वेशोत्तरसर्वत्र
पूर्वा चैषां विशिष्यते ।
आखाते
हास्तिके यस्याः पूर्णे मृदधिका भवेत् ।। ८ ।।
उत्तमान्तां
महीं विद्यात्तोयाद्यैर्वा समुक्षितां ।
अस्थ्यङ्गारादिभिर्दुष्टामत्यन्तं
शोधयेद् गुरुः ।। ९ ।।
नगरग्रामदुर्गार्थं
गृहप्रासादकारणं ।
खननैर्गोकुलावासैः
कर्षणैर्वा मुहुर्मुहुः ।। १० ।।
मण्डपे
द्वारपूजादि मन्त्रतृप्त्यवसानकं ।
कर्म्म
निर्वर्त्याघोरास्त्रं सहस्रं विधिना यजेत् ।। ११ ।।
समीकृत्योपलिप्तायां
भूमौ संशोधयेद्दिशः।
स्वर्णदध्यक्षतै
रेखाः प्रकुर्वीत प्रदक्षिणं ।। १२ ।।
मध्यादीशानकोष्ठस्थे
पूर्णकुम्भे शिवं यजेत् ।
वाचस्तुमभ्यर्च्य
तत्तोयैः सिञ्चेत् कुद्दालकादिकं ।। १३ ।।
वाह्ये
रक्षोगणानिष्ट्वा विधिना दिग्बलिं क्षिपेत् ।
पूर्व, ईशान, उत्तर अथवा सब
ओर नीची और मध्य में ऊँची भूमि प्रशस्त मानी गयी है*।
एक हाथ गहराई तक खोदकर निकाली हुई मिट्टी यदि फिर उस गड्ढे में डाली जाने पर अधिक
हो जाय तो वहाँ की भूमि को उत्तम समझे। अथवा जल आदि से उसकी परीक्षा करे।* हड्डी और कोयले आदि से दूषित भूमि का खोदने,
वहाँ गौओं को ठहराने अथवा बारंबार जोतने आदि के द्वारा अच्छी तरह
शोधन करे। नगर, ग्राम, दुर्ग, गृह और प्रासाद का निर्माण कराने के लिये उक्त प्रकार से भूमि शोधन आवश्यक
है। मण्डप में द्वारपूजा से लेकर मन्त्र तर्पण - पर्यन्त सम्पूर्ण कर्म का सम्पादन
करके विधिपूर्वक घोरास्त्र सहस्रयाग करे। बराबर करके लिपी पुती भूमि पर दिशाओं का साधन
करे। सुवर्ण, अक्षत और दही के द्वारा प्रदक्षिणक्रम से
रेखाएँ खींचे। मध्यभाग से ईशान कोष्ठ में स्थित भरे हुए कलश में शिव का पूजन करे।
फिर वास्तु की पूजा करके उस कलश के जल से कुदाल आदि को सींचे मण्डप से बाहर
राक्षसों और ग्रहों का पूजन करके दिशाओं में विधिपूर्वक बलि दे ॥ ८- १३अ ॥
*१. समराङ्गणसूत्रधार' में भी इससे मिलती-जुलती बात कही
गयी है-
अनूषरा
बहुतृणा शस्ता स्त्रिग्धोत्तरपक्वा ।
प्राणीशानप्लवा
सर्वप्लवा वा दर्पणोदरा।। ( आठवाँ अ० भूमि-परीक्षा ६-७)
*२. "समराङ्गणसूत्रधार के अनुसार जल से
परीक्षा करने की विधि इस प्रकार है-गड्ढा खोदकर उसकी मिट्टी निकालकर मिट्टी से ही
पूरित करने के बजाय पानी भरना चाहिये। पानी भरकर सौ कदम (पदशतं व्रजेत्) चलना
चाहिये। पुनः लौट आने पर यदि पानी जितना था उतना ही रहे तो श्रेष्ठ, कुछ कम (१/२)
हो जाय तो मध्यम और बहुत कम (१/४) अथवा और अधिक कम हो निकृष्ट समझना चाहिये।
समराङ्गण की इस प्रक्रिया में मत्स्यपुराण-प्रक्रिया की छाप है। परंतु मयमुनि ने
इस प्रक्रिया के सम्बन्ध में और भी कठोरता दिखायी है। उनके अनुसार गड्ढे में
सायंकाल पानी भरा जाय और दूसरे दिन प्रातः उसकी परीक्षा करनी चाहिये। यदि उसमें
प्रात: भी कुछ पानी के दर्शन हो जायें तो उसे अत्युत्कृष्ट भूमि समझना चाहिये।
इसके विपरीत गुणवाली भूमि अनिष्टदायिनी तथा वर्ज्य है।
भूमिं संसिच्य
संस्नाप्य कुद्दालाद्यं प्रपूजयेत् ।। १४ ।।
अन्यं
वस्त्रयुगच्छन्नं कुम्भं स्कन्धे द्विजन्मनः।
निधाय
गीतवाद्यादिब्रह्मघोषसमाकुलं ।। १५ ।।
पूजां कुम्भे
समाहृत्य प्राप्ते लग्नेऽग्निकोष्ठके ।
कुद्दालेनाभिषिक्तेन
मध्वक्तेन तु खानयेत् ।। १६ ।।
नैर्ऋत्यां
क्षेपयेन्मृत्स्नां खाते कुम्भजलं क्षिपेत् ।
पुरस्य
पूर्व्वसीमान्तं नयेद् यावदभीप्सितं ।। १७ ।।
अथ तत्र क्षणं
स्थित्वा भ्रामयेत् परितः पुरं ।
सिञ्चन्
सीमान्तचिह्णानि यावदीशानगोचरं ।। १८ ।।
कलश में पूजा
करके लग्न आने पर अग्निकोणवर्ती कोष्ठ में पहले जिसका अभिषेक किया गया था, उस मधुलिप्त कुदाल से धरती खुदावे और
मिट्टी को नैर्ऋत्यकोण में फेंके। खोदे गये गड्ढे में कलश का जल गिरा दें। फिर
भूमि का अभिषेक करके कुदाल आदि को नहलाकर उसका पूजन करे। तत्पश्चात् दूसरे कलश को
दो वस्त्रों से आच्छादित करके ब्राह्मण के कंधे पर रखकर गाजे-बाजे और वेदध्वनि के
साथ नगर की पूर्व सीमा के अन्त तक जितनी दूर जाना अभीष्ट हो, उतनी दूर ले जाय और वहाँ क्षणभर ठहरकर वहाँ से नगर के चारों ओर प्रदक्षिणक्रम
से चलते हुए ईशानकोणतक उस कलश को घुमावे। साथ ही सीमान्तचिह्नों का अभिषेक करता
रहे ।। १४- १८ ॥
अर्घ्यदानमिदं
प्रोक्तं तत्र कुम्भपरिभ्रमात् ।
इत्थं
परिग्रहं भूमेः कुर्व्वीत तदनन्तरं ।। १९ ।।
कर्करान्तं
जलान्तं वा शल्यदोषजिघांसया ।
खानयेद् भूः
कुमारीं चेद् विधिना शल्यमुद्धरेत् ।। २० ।।
अकचटतपयशहान्
मानवश्चेत् प्रश्नाक्षराणि तु ।
अग्नेर्ध्वजादिपतिताः
स्वस्थाने शल्यमाख्यान्ति ।। २१ ।।
कर्त्तुं
श्चाङ्गविकारेण जानीयात्तत्प्रमाणतः।
पश्वादीनां
प्रवेशेन कीर्त्तनैर्विरुतैर्द्दिशः ।। २२ ।।
इस प्रकार
रुद्र कलश को नगर के चारों ओर घुमाकर भूमि का परिग्रह करे। इस क्रिया को 'अर्घ्यदान' कहा गया
है। तदनन्तर शल्यदोष का निवारण करने के लिये भूमि को इतनी गहराई तक खुदवावे,
जिससे कंकड़-पत्थर अथवा पानी दिखायी देने लगे। अथवा यदि शल्य (हड्डी
आदि) का ज्ञान हो जाय तो उसे विधिपूर्वक खुदवाकर निकाल दे। यदि कोई लग्न-काल में प्रश्न
पूछे और उसके मुख से अ, क, च, ट, त प, स और ह-इन वर्गों के
अक्षर निकलें तो इनकी दिशाओं में शल्य की स्थिति सूचित होती है। अथवा द्विज आदि
वहाँ गिरें तो ये सब उस स्थान में शल्य होने की सूचना देते हैं। कर्ता के अपने
अङ्ग विकार से उसके ही बराबर शल्य होने का निश्चय करे। पशु आदि के प्रवेश से, कीर्तन से तथा पक्षियों के कलरवों से शल्य की दिशा का ज्ञान प्राप्त करे
॥ १९-२२ ॥
मातृकामष्टवर्गाढ्यां
फलके भुवि वा लिखेत् ।
शल्यज्ञानं
वर्गवशात् पूर्वादीशान्ततः क्रमात् ।। २३ ।।
अवर्गे चैव लोहन्तु
कवर्गेऽङ्गारमग्नितः।
चवर्गे भस्म
दक्षे स्याट् टवर्गेऽस्थि च नैर्ऋते ।। २४ ।।
तवर्गे
चेष्टका चाप्ये कपालञ्च पवर्गके ।
यवर्गे
शवकीटादि शवर्गे लोहमादिशेत् ।। २५ ।।
हवर्गे रजतं
तद्वदवर्गाच्चानर्थकरानपि ।
प्रोक्षयात्मभिः
करापूरैरष्टाङ्गुलमृदन्तरैः ।। २६ ।।
पादोनं
खातमापूर्य्य सजलैर्मुद्गराहतैः ।
लिप्तां
समप्लवां तत्र कारयित्वा भुवं गुरुः ।। २७ ।।
सामान्यार्घ्यकरो
यायान्मण्डपं वक्ष्यमाणकं ।
तोरणद्वाः
पतीनिष्ट्वा प्रत्यग्द्वारेण संविशेत् ।। २८ ।।
किसी पट्टी पर
या भूमि पर अकारादि आठ वर्गों से युक्त मातृका – वर्णों को लिखे। वर्ग के अनुसार
क्रमशः पूर्व से लेकर ईशानतक की दिशाओं में शल्य की जानकारी प्राप्त करे। 'अ' वर्ग में पूर्व
दिशा की ओर लोहा होने का अनुमान करे। 'क' वर्ग में अग्निकोण की ओर कोयला जाने। 'च' वर्ग में दक्षिण दिशा की ओर भस्म तथा 'ट' वर्ग में नैर्ऋत्यकोण की ओर अस्थि का होना समझे। 'त'
वर्ग में पश्चिम दिशा की ओर ईंट, 'प' वर्ग में वायव्यकोण की ओर खोपड़ी, 'य' वर्ग में उत्तर दिशा की ओर मुर्दे और कीड़े आदि और 'स'
वर्ग में ईशानकोण की ओर लोहे का होना बतावे । इसी प्रकार 'ह' वर्ग में चाँदी होने का अनुमान करे । 'क्ष' वर्गयुक्त दिग्भाग से उसी दिशा में अन्य
अनर्थकारी वस्तुओं के होने का अनुमान करे। एक-एक हाथ लंबे नौ शिलाखण्डों का
प्रोक्षण करके, उन्हें आठ-आठ अङ्गुल मिट्टी के भीतर गाड़ दे।
फिर वहाँ पानी डालकर उन पर मुद्गर से आघात करे। जब वे प्रस्तर तीन चौथाई भाग तक
गड्ढे के भीतर धँस जायँ, तब उस खात को भरकर, लीप-पोतकर वहाँ की भूमि को बराबर कर दे। ऐसा करवाकर गुरु सामान्य अर्घ्य
हाथ में लिये आगे बताये जानेवाले मण्डल (या मण्डप) - की ओर जाय । मण्डप के द्वार पर
द्वारपालों का पूजन (आदर-सत्कार) करके पश्चिम द्वार से उसके भीतर प्रवेश करे ।।२३-
२८॥
कुर्य्यात्तत्रात्मशुद्ध्यादि
कुण्डमण्डपसंस्कृतिं ।
कलसं
वर्द्धनीसक्तं लोकपालशिवार्च्चनं ।। २९ ।।
अग्नेर्जननपूजादि
सर्व्वं पूर्ववदाचरेत् ।
यजमानान्वितो
यायाच्छिलानां स्नानमण्डपं ।। ३० ।।
शिलाः
प्रासादलिङ्गस्य पादधर्म्मादिसञ्ज्ञकाः।
अष्टाङ्गुलोच्छ्रिताः
शस्ताश्चतुरस्राः करायताः ।। ३१ ।।
पाषाणानां
शिलाः कार्य्या इष्टकानां तदर्द्धतः।
प्रासादेऽश्मशिलाः
शैले इष्टका इष्टकामये ।। ३२ ।।
अङ्किता
नववक्त्राद्यैः पङ्कजाः पङ्कजाङ्किताः।
वहाँ
आत्मशुद्धि आदि कुण्ड मण्डप का संस्कार करे। कलश और वार्धानी आदि का स्थापन करके
लोकपालों तथा शिव का अर्चन करे। अग्नि का जनन और पूजन आदि सब कार्य पूर्ववत् करे।
तत्पश्चात् गुरु यजमान के साथ शिलाओं के स्नान- मण्डप में जाय । वे शिलाएँ
प्रासाद-लिङ्ग के चार पाये हैं। उनके नाम हैं- क्रमशः धर्म, ज्ञान, वैराग्य और
ऐश्वर्य अधर्म, अज्ञान, अवैराग्य और
अनैश्वर्य आदि। उनकी ऊँचाई आठ अङ्गुल की हो तो अच्छी मानी गयी है। वे चौकोर हों और
उनकी लंबाई एक हाथ की हो, इस माप से प्रस्तर की शिलाएँ
बनवानी चाहिये। ईंटों की शिलाओं का माप आधा होना चाहिये। प्रस्तरखण्ड से बने हुए
प्रासाद में जो शिलाएँ उपयोग में लायी जायँ अथवा ईंटों के बने हुए मन्दिर में जो
ईंटें लगें, उनमें से नौ शिलाएँ अथवा ईंटें वज्र आदि चिह्नों
से अङ्कित हों, अथवा पाँच शिलाएँ कमल के चिह्नों से अङ्कित
हों। इन अङ्कित शिलाओं से ही मन्दिर निर्माण का कार्य आरम्भ किया जाय ॥ २९-३२अ॥
नन्दाभद्राजया
रिक्ता पूर्णाख्या पञ्चमी मता ।। ३३ ।।
आसां पद्मो
महापद्मः शङ्खोऽथ मकरस्तथा ।
समुद्रश्चेति
पञ्चामी निधिकुम्भाः क्रमादधः ।। ३४ ।।
नन्दा भद्रा
जया पूर्णा अजिता चापराजिता ।
विजया
मङ्गलाख्या च धरणी नवमी शिला ।। ३५ ।।
सुभद्रश्च विभद्रश्च
सुनन्दः पुष्पनन्दकः ।
जयोऽथ
विजयश्चैव कुम्भः पूर्णस्तथोत्तरः ।। ३६ ।।
नवानान्तु
यथासङ्ख्यं निधिकुम्भा अमी नव ।
आसनं प्रथमं
दत्त्वा ताड्योल्लिख्य शराणुना ।। ३७ ।।
सर्वासामविशेषेण
तनुत्रेणावगुण्ठनं ।
मृद्भिर्गोमयगोमूत्रकषायैर्गन्धवारिणा
।। ३८ ।।
अस्त्रेण
हूंफडन्तेन मलस्नानं समाचरेत् ।
विधिना
पञ्चगव्येन स्नानं पञ्चामृतेन च ।। ३९ ।।
गन्धतोयान्तर
कुर्य्यान्निजनामाङ्किताणुना ।
फलरत्नसुवर्णानां
गोश्रृड्गसलिलैस्ततः ।। ४० ।।
चन्दनेन
समालभ्य वस्त्रैराच्छादयेच्छिलां ।
पाँच शिलाओंके
नाम इस प्रकार हैं-नन्दा, भद्रा, जया, रिक्ता और पूर्णा
। इन पाँचों के निधिकुम्भ इस प्रकार हैं-पद्म, महापद्म,
शङ्ख, मकर और समुद्र नौ शिलाओंके नाम इस
प्रकार हैं-नन्दा, भद्रा, जया, पूर्णा, अजिता, अपराजिता,
विजया, मङ्गला और नवमी शिला धरणी है। इन नवों के
निधिकलश क्रमश: इस प्रकार जानने चाहिये - सुभद्र, विभद्र,
सुनन्द, पुष्पदन्त, जय,
विजय, कुम्भ, पूर्व और
उत्तर प्रणवमय आसन देकर अस्त्र-मन्त्र से ताड़न और उल्लेखन करने के पश्चात् इन सब
शिलाओं को सामान्य रूप से कवच – मन्त्र से अवगुण्ठित करना चाहिये। अस्त्र- मन्त्र के
अन्त में 'हूं फट्' लगाकर उसका उच्चारण
करते हुए मिट्टी, गोबर, गोमूत्र,
कषाय तथा गन्धयुक्त जल से मलस्नान करावे। तत्पश्चात् विधिपूर्वक
पञ्चगव्य और पञ्चामृत से स्नान कराना चाहिये। इसके बाद गन्धयुक्त जल से स्नान
कराने के अनन्तर अपने नाम से अङ्कित मन्त्र द्वारा फल, रत्न,
सुवर्ण तथा गोशृङ्ग के जल से और चन्दन से शिला को चर्चित करके उसे
वस्त्रों से आच्छादित करे ॥ ३३–४०अ ॥
स्वर्णोत्थमासनं
दत्वा नीत्वा यागं प्रदक्षिणं ।। ४१ ।।
शय्यायां
कुशतल्पे वा हृदयेन निवेशयेत् ।
सम्पूज्य
न्यस्य बुद्ध्यादिधरान्तं तत्त्वसञ्चयं ।। ४२ ।।
त्रिशण्डव्यापकं
तत्त्वत्रयञ्चानुक्रमान् न्यसेत् ।
बुद्ध्यादौ
चित्तपर्य्यन्ते चिन्तातन्मात्रकावधौ ।। ४३ ।।
तन्मात्रादौ
धरान्ते च शिवविद्यात्मनां स्थितिः।
तत्त्वानि
निजमन्त्रेण तत्त्वेशांश्च हृदाऽर्च्चयेत् ।। ४४ ।।
स्थानेषु
पुष्पमालादिचिह्नितेषु यथाक्रमं ।
ओं हूं
शिवतत्त्वाय नमः।
ओं हूं
शिवतत्त्वाधिपतये रुद्राय नमः। ओं हां विद्यातत्त्वाय नमः।
ओं हां विद्यातत्त्वाधिपाय
विष्णवे नमः। ओं हां आत्मतत्त्वाय नमः।
ओं हां
आत्मतत्त्वाधिपतये ब्रह्मणे नमः ।
खडुत्थ आसन
देकर, यागमण्डप की परिक्रमा करके, उस शिला को ले जाय और हृदय – मन्त्र द्वारा उसे शय्या अथवा कुश के बिस्तर पर
सुला दे। वहाँ पूजन करके, बुद्धि से लेकर पृथिवी पर्यन्त
तत्त्वसमूहों का न्यास करने के पश्चात्, त्रिखण्ड व्यापक
तत्त्वत्रय का उन शिलाओं में क्रमश: न्यास करे। बुद्धि से लेकर चित्त तक, चित्त के भीतर मातृका तक और तन्मात्रा से लेकर पृथिवी पर्यन्त शिवतत्त्व
विद्यातत्त्व तथा आत्मतत्त्व की स्थिति है। पुष्पमाला आदि से चिह्नित स्थानों पर
क्रमशः तीनों तत्त्वों का अपने मन्त्र से और तत्त्वेशों का हृदय-मन्त्र से पूजन
करे। पूजन के मन्त्र इस प्रकार हैं- ॐ हूं शिवतत्त्वाय नमः । ॐ हां शिवतत्त्वाधिपाय
रुद्राय नमः । ॐ हां विद्यातत्त्वाय नमः । ॐ हां विद्यातत्त्वाधिपाय विष्णवे नमः ।
ॐ हां आत्मतत्त्वाय नमः । ॐ हां आत्मतत्त्वाधिपतये ब्रह्मणे नमः । ॥ ४१-४४ ॥
क्षमाग्नियजमानार्कान्
जलवातेन्दुखानि च ।। ४५ ।।
प्रतितत्त्वं
नयसेदष्टौ मूर्त्तीः प्रतिशिलां शिलां ।
सर्वं पशुपति
चोग्रं रुद्रं भवमतेश्वरं ।। ४६ ।।
महादेवं च
भीमं च मूर्त्तीशांश्च यथाक्रमात् ।
ओं
धरामूर्त्तये नमः, ओं धराधिपतये नमः।
इत्यादिमन्त्रान्
लोकपालान् यथासङ्ख्यं निजाणुभिः ।। ४७ ।।
विन्यस्य
पूजयेत् कुम्भांस्तन्मन्त्रैर्वा निजाणुभिः ।
इन्द्रादीनां
तु वीजानि वक्ष्यमाणक्रमेण तु ।। ४८ ।।
लूं रुं शूं
पूं वूं यूं मूं हूं क्षूमिति ।
अक्तो
नवशिलापक्षः शिला पञ्चपदा तथा ।
प्रतितत्त्वं
न्यसेन्मूर्त्तीः सृष्ट्या पञ्च धरादिकाः ।। ४९ ।।
ब्रकह्मा
विष्णुस्तथा रुद्र ईश्वरश्च सदाशिवः।
एते च पञ्च
मूर्त्तीशा यष्टव्यास्तासु पूर्ववत् ।। ५० ।।
प्रत्येक
तत्त्व और प्रत्येक शिला में पृथ्वी, अग्नि, यजमान, सूर्य,
जल, वायु, चन्द्रमा और आकाश
- इन आठ मूर्तियों का न्यास करे। फिर क्रमशः शर्व, पशुपति,
उग्र, रुद्र, भव,
ईश्वर (या ईशान), महादेव तथा भीम-इन मूर्तीश्वरों
का न्यास करे। मूर्तियों तथा मूर्तीश्वरों के मन्त्र इस प्रकार हैं- ॐ
धरामूर्तये नमः । ॐ धराधिपतये शर्वाय नमः। इसके बाद अनन्त आदि लोकपालों का
क्रमशः अपने मन्त्रों से न्यास करे। इन्द्र आदि लोकपालों के बीज आगे बताये
जानेवाले क्रम से यों जानने चाहिये - लूं, रूं, यूं व्रूं, श्रूं, ष्रूं, स्रूं, हूं, क्षूं। यह नौ
शिलाओं के पक्ष में बताया गया है। जब पाँच पद की शिलाएँ हों, तब प्रत्येक तत्त्वमयी शिला में स्पर्शपूर्वक पृथ्वी आदि पाँच मूर्तियों का
न्यास करे। उक्त मूर्तियों के पाँच मूर्तीश इस प्रकार हैं- ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, ईश्वर और
सदाशिव । इन पाँचों का उक्त पाँचों मूर्तियों में पूर्ववत् पूजन करना चाहिये ॥ ४५
- ५० ॥
ओं
पृथ्वीमूर्त्तये नमः। ओं पृष्वीमूर्त्त्यधिपतये ब्रह्मणे नमः। इत्यादि मन्त्राः।
सम्पूज्य
कलशान् पञ्च क्रमेण निजनामभिः।
निरुन्धीत विधानेन
न्यासो मध्यशिलाक्रमात् ।। ५१ ।।
कुर्य्यात्
प्राकारमन्त्रेण भूतिदर्भैस्तिलैस्ततः।
कुण्डेषु
धारिकां शक्तिं विन्यस्याभ्यर्च्य तर्पयेत् ।। ५२ ।।
तत्त्वतत्त्वाधिपान्
मूर्त्तीर्मूर्त्तीशांश्च घृतादिभिः।
ततो
ब्रह्मांशशुद्ध्यर्थं मूलाङ्गं ब्रह्मभिः क्रमात् ।। ५३ ।।
कृत्वा
शतादिपूर्णान्तं प्रोक्ष्याः शान्तिजलैः शिलाः।
पूजयेच्च
कुशैः स्पष्ट्वा प्रतितत्त्वमनुक्रमात् ।। ५४ ।।
सांन्निध्यमथ
सन्धानं कृत्वा शुद्धं पुनर्न्यसेत्
एवं भागत्रये
कर्म्म गत्वा गत्वा समाचरेत् ।। ५५ ।।
ओं आं ईं
आत्मतत्त्वविद्यातत्त्वाभ्यां नमः इति ।
ॐ पृथिवीमूर्तये
नमः । ॐ पृथिवीमूर्त्यधिपतये ब्रह्मणे नमः ।' इत्यादि
मन्त्र पूजन के लिये जानने चाहिये। क्रमशः पाँच कलशों का अपने नाम मन्त्रों से
पूजन करके उन्हें स्थापित करे। मध्यशिला के क्रम से विधिपूर्वक न्यास करे। विभूति,
कुशा और तिलों से अस्त्र-मन्त्र द्वारा प्राकार की कल्पना करे।
कुण्डों में आधार शक्ति का न्यास और पूजन करके तत्त्वों, तत्त्वाधिपों,
मूर्तियों तथा मूर्तीश्वरों का घृत आदि से तर्पण करे। तत्पश्चात्
ब्रह्मात्म-शुद्धि के लिये मूल के अङ्गभूत ब्रह्म- मन्त्रों द्वारा क्रमशः सौ-सौ
आहुतियाँ देकर पूर्णाहुति- पर्यन्त होम करने के पश्चात् शान्ति जल से शिलाओं का
प्रोक्षणपूर्वक पूजन करे। कुशाओं द्वारा स्पर्श करके प्रत्येक तत्त्व में क्रमशः
सांनिध्य और संधान करके फिर शुद्ध-न्यास करे। इस प्रकार जा- जाकर तीन भागों में
कर्म करे। मन्त्र यों हैं- ॐ आम् ईम् आत्मतत्त्वविद्यातत्त्वाभ्यां नमः ।'
इति ॥ ५१ – ५५अ ॥
संस्पृशेद्
दर्भमूलाद्यैर्ब्रह्माङ्गादित्रयं क्रमात् ।
कुर्य्यात्तत्त्वानुसन्धानं
ह्रस्वदीर्घप्रयोगतः ।। ५६ ।।
ओं हां उं
विद्यातत्त्वशिवतत्त्वाभ्यां नमः।
घृतेन मधुना
पूर्णांस्ताम्रकुम्भान् सरत्नकान् ।। ५७ ।।
पञ्चगव्यार्घ्यसंसिक्तान्
लोकपालाधिदैवतान् ।। ५८ ।।
पूजयित्वा
निजैर्म्मन्त्रैः सन्निधौ होममाचरेत् ।
शिलानामथ
सर्वासां संस्मरेदधिदेवताः ।।
विद्यारूपाः
कृतस्नाना हेमवर्णाः शिलाम्वराः।
न्यूनादिदोषमोषार्थं
वास्तुभूमेश्च शुद्धये ।।
यजेदस्त्रेण
मूर्द्धान्तमाहुतीनां शतं शतं ।। ५९ ।।
मूल आदि से
क्रमश: तत्त्वेशादि तीन का स्पर्श करे। इसके बाद हस्व-दीर्घ के प्रयोगपूर्वक
तत्त्वानुसंधान करे। इसके लिये मन्त्र यों है- ॐ ई ऊं
विद्यातत्त्वशिवतत्त्वाभ्यां नमः ।' तदनन्तर घी
और मधु से भरे हुए पञ्चरत्नयुक्त और पञ्चगव्य से अग्रभाग में अभिषिक्त पाँच कलशों का,
जिनके देवता पञ्च लोकपाल हैं, अपने मन्त्रों से
पूजन करके उनके निकट होम करे। फिर समस्त शिलाओं के अधिदेवताओं का ध्यान करे। वे
शिलाधिदेवता विद्यास्वरूप हैं, स्नान कर चुके हैं। उनकी
अङ्गकान्ति सुवर्ण के समान उद्दीप्त होती है। वे उज्ज्वल वस्त्र धारण करते हैं और
समस्त आभूषणों से सम्पन्न हैं।' न्यूनतादि दोष दूर करने के
लिये तथा वास्तु-भूमि की शुद्धि के लिये अस्त्र-मन्त्र द्वारा पूर्णाहुति-पर्यन्त सौ-सौ
आहुतियाँ दे ॥ ५६-५९ ॥
इत्यादिमहापुराणे
आग्नेये शिलान्यासकथनं नाम द्विनवतितमोऽध्यायः।
इस प्रकार आदि
आग्नेय महापुराण में 'प्रतिष्ठा के अङ्गभूत शिलान्यास की विधि का वर्णन' नामक
बानवेवां अध्याय पूरा हुआ ॥ ९२ ॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 93
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