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अगहन बृहस्पति व्रत व कथा
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
भैरवी
भैरवी दशमहाविद्याओं में से एक हैं। इसे त्रिपुर भैरवी , त्रिपुर सुन्दरी या षोडशी भैरवी भी कहा जाता है ।
भैरवी मंत्र
हसरैं हसकलरीं हसरौः ।
इस मंत्र से पूजा और जपादि करना
चाहिये ।
भैरवी ध्यान
उद्यद्भानुसहस्र कान्तिमरुणक्षौमां
शिरोमालिकां
रक्तालिप्तपयोधरां जपवटीं
विद्यामभीतिं वरम् ।
हस्ताब्जैदधतीं
त्रिनेत्रविलसद्रक्ता रविन्दश्रियं
देवीं बद्धहिमांशुरक्तमुकुटां वन्दे
समन्दस्मिताम् ॥
देवी के देह की कान्ति उदय हुए सहस्र सूर्य की समान, रक्त वर्ण-क्षौम वस्त्र धारण किए, गले में मुण्डमाला और दोनों स्तन रक्त से लिप्त हैं । इनके चारों हाथों में जपमाला, पुस्तक, अभय मुद्रा, तथा वरमुद्रा और ललाट में चन्द्रकला विद्यमान है, इनके तीनों नेत्र लालकमल के समान हैं, मस्तक में रत्न मुकुट और मुख में मृदु हास्य विराजित है ।
पद्ममष्टदलोपेतं नवयोन्याढ्यकर्णिकम् ।
चतुर्द्वारसमायुक्तं भूगृहं
विलिखेत्ततः ॥
नवयोनिमय कर्णिका अंकित करके उसके बाहर अष्टदल पद्म- एवं उसके बाहर चतुर्द्वार और भूगृह अंकित करने से यंत्र बनता है ।
भैरवी पूजा का जप होम
दीक्षां प्राप्य जपेन्मंत्रं
तत्त्वलक्षं जितेन्द्रियः ।
पुष्पैर्भानुसहस्राणि
जुहुयाद्ब्रह्मवृक्षजैः ॥
दशलाख जप से इसका पुरश्चरण होता है
और ढाक के फूलों से बारह हजार होम करना चाहिये ।
भैरवी कवच
भैरवी कवचस्यास्य सदाशिव ऋषिः
स्मृतः।
छन्दोऽनुष्टुव् देवता च भैरवी
भयनाशिनी ।
धर्मार्थकाममोक्षेषु विनियोगः प्रकीर्तितः
॥
भैरवी कवच के ऋषि सदाशिव,
छंद अनुष्टुप् देवता भयनाशिनी भैरवी और धर्मार्थं काममोक्ष की
प्राप्ति के लिये इसका विनियोग कहा गया है ।
हसरैं मे शिरः पातु भैरवी भयनाशिनी ।
हसकलरीं नेत्रञ्च हसरौश्च ललाटकम् ।
कुमारी सर्व्वगात्रे च वाराही
उत्तरे तथा ।।
पूर्वे च वैष्णवी देवी इन्द्राणी मम
दक्षिणे ।
दिग्विदिक्षु सर्व्वत्रैव भैरवी
सर्व्वदावतु ॥
इदं कवचमज्ञात्वा यो
जपेद्देविभैरवीम् ॥
कल्पकोटिशतेनापि सिद्धिस्तस्य न
जायते ॥
हसरें मेरे मस्तक की, हसकलरीं नेत्र की, हसरी: ललाट की, और कुमारी सर्व गात्र की रक्षा करें। बाराही उत्तर दिशा में, वैष्णवी पूर्व दिशा मे इन्द्राणी दक्षिण दिशा में, और भैरवी दिशा विदिशा सर्वत्र सदा रक्षा करें। इस कवच को बिना जाने जो कोई भैरवी मंत्र का जप करता है, सौ करोड़ कल्प में भी उसको सिद्धि प्राप्त नहीं होती।
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