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कर्मकाण्ड

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षोडशी त्रैलोक्य विजय कवच

षोडशी त्रैलोक्य विजय कवच

श्रीमहात्रिपुरसुन्दरी भगवती षोडशी की मन्त्र-विग्रहात्मक तुरीय कवच षोडशाक्षर-मन्त्र के बीजों से निर्मित षोडशाक्षरी विद्या है । यह कवच त्रैलोक्य में विजय प्रदान करनेवाला, मन-चाही वस्तु प्रदान करनेवाला, शीघ्र ही कामना-पूर्ति करनेवाला, आयु, ऐश्वर्य और सदा सम्पत्ति की वृद्धि करानेवाला है । इस षोडशी त्रैलोक्य विजय कवच को भगवान श्रीशिव जी ने अपने पुत्र कार्त्तिकेय(स्कन्द) से कहा है ।

श्रीतुरीयाषोडशीत्रैलोक्यविजयकवचं स्तोत्रम्

श्रीतुरीयाषोडशीत्रैलोक्यविजयकवचं स्तोत्रम् 

    ॥ श्रीमहात्रिपुरसुन्दर्यै नमः ॥

          ॥ पूर्वपीठिका ॥

कैलासशिखरे रम्ये देवदेवं जगद्गुरुम् ।

शङ्करं परिपप्रच्छ कुमारः शिखिवाहनः ॥ १॥

सुरम्य कैलास पर्वत पर देवाधिदेव जगद्गुरु शङ्कर से मयूरवाहन कुमार (कार्त्तिकेय या स्कन्द) ने पूछा ।

       ॥ श्रीस्कन्द उवाच ॥

जनक श्रीगुरो देव पुत्रवात्सल्यवर्धन! ।

कवचं षोडशाक्षर्या वद मे परमेश्वर!॥ २॥

श्रीस्कन्द ने कहा - हे पिताजी, श्रीगुरुदेव! आप पुत्रप्रेम बढ़ानेवाले हैं । हे परमेश्वर! षोडशाक्षरी (विद्या का) कवच कहिए ।

      ॥ श्रीईश्वर उवच ॥

श्रृणु पुत्र महाभाग! कवचं मन्त्रविग्रहम् ।

गोप्याद्गोप्यतरं गोप्यं गुह्याद्गुह्यतरं महत् ॥ ३॥

श्रीशिव जी ने कहा - हे पुत्र! मन्त्र-विग्रहात्मक यह कवच गुप्त-से-गुप्त है ।

तव स्नेहात् प्रवक्ष्यामि नाख्यातं यस्य कस्यचित् ।

ब्रह्मेशविष्णुशक्रेभ्यो मया न कथितं पुरा ॥ ४॥

तुम्हारे प्रति स्नेह से कहता हूँ । जिस तिस से नहीं कहा गया है । ब्रह्मा, ईश, विष्णु और इन्द्र से भी नहीं कहा गया है ।

देवाग्रे नैव दैत्याग्रे न शौनकगुणाग्रके ।

तव भक्त्या तु कवचं गोप्यं कर्तुं न शक्यते ॥ ५॥

न तो दैत्यों, न देवताओं और न ही शौनकादि से कहा है, किन्तु तुम्हारी भक्ती-वश इस कवच को गुप्त रखने में समर्थ नहिं हूँ ।

एकादशमहाविद्या सवर्णा सद्गुणान्विता ।

सर्वशक्तिप्रधाना हि कवचं मन्मुखोदितम् ॥ ६॥

सवर्णा और सद-गुणों से युक्त एकादश महाविद्याओं में प्रधान यह कवच मेरे द्वारा कहा गया है ।

गणेशश्च रविर्विष्णुः शिवशक्तिश्च भैरवः ।

पञ्चतत्त्वादिसर्वेषां वर्मावर्तेन तुष्यताम् ॥ ७॥

गणेश, सूर्य, विष्णु, शिव-शक्ति भैरव और सभी पाँचों तत्त्व कवच के आवर्तन (सतत-पाठ) से सन्तुष्ट होते हैं ।

ऊर्ध्वाम्नायं महामन्त्रं कवचं निर्मितं मया ।

त्रैलोक्यविजयं दिव्यं तुरीयं कवचं शुभम् ॥ ८॥

त्रैलोक्य-विजय-दायक यह तुरीय कवच (यहाँ तुरीय शब्द संख्यावाचक न होकर विशेषण के रूप में है) ऊर्ध्वाम्नाय के महामन्त्रों से मेरे द्वरा निर्मित है ।

  ॥ श्रीस्कन्द उवाच ॥

कवचं परमं देव्याः श्रोतुमिच्छाम्यऽहं प्रभो ।

यत्सूचितं त्वया पूर्व धर्मकामार्थमोक्षदम् ॥ ९॥

श्रीस्कन्द ने कहा - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष देनेवाली देवी का श्रेष्ठ कवच जो आपने पहले सूचित किया है, मैं सुनना चाहता हूँ ।

तद्विनाऽऽराधनं नास्ति जपं ध्यानादि कर्मणि ।

तस्याश्च कवचं यस्मात् तस्मात् तद्वद मे प्रभो ॥ १०॥

जिसके बिना आराधना, जप और ध्यानादि कर्म नहीं होते, वह कवच हे प्रभो! जैसे भी हो, मुझसे कहिए ।

  ॥ श्रीईश्वर उवाच ॥

श्रृणु पुत्र महाप्राज्ञ ! रहस्यातिरहस्यकम् ।

तुरीयं कवचं दिव्यं सर्वमन्त्रमयं शुभम् ॥ ११॥

श्रीईश्वर ने कहा - हे महा-प्रज्ञावान् पुत्र !यह दिव्य तुरीय कवच अत्यन्त शुभ और सभी मन्त्रों से युक्त, रहस्य का भी रहस्य (अत्यन्त रहस्य-मय) है ।

पूजान्ते तु जपात्पूर्वं कवचं समुदीरयेत् ।

पूजन के अन्त में जप के पूर्व कवच पढना चाहिए ।

श्रीतुरीयाषोडशीत्रैलोक्यविजयकवचस्तोत्रसाधना

  ॥ विनियोगः ॥

अस्य श्रीकवचस्यास्य ऋषिरानन्दभैरवः ॥ १२॥

श्रीविद्या देवताश्छन्दो गायत्रीरुचिवृत्तिकम् ।

रमाबीजं पराशक्तिः वाग्भवं कीलकं स्मृतम् ॥ १३॥

मम सर्वार्थसिद्धयर्थे जपे तु विनियोगतः ।

इस कवच के ऋषि आनन्द-भैरव हैं। गायत्री छन्द है और श्री श्रीविद्या इसकी देवता हैं । रमा (श्रीं) इसका बीज है, परा (ह्रीं) बीज इसकी शक्ति और वाग्भव (ऐं) बीज कीलक है। सर्वार्थ-सिध्दि के लिए इसका विनियोग है ।

   ॥ करन्यासः ॥

अङ्गुष्ठाग्रे वाग्भवं च हृल्लेखां तर्जनी न्यसेत् ॥ १४॥

अंगुष्ठ में वाग्भव (ऐं) तथा तर्जनी में हृल्लेखा (ह्रीं)का न्यास करे ।

लक्ष्मीबीजं मध्यमायामङ्गिराऽनामिका तथा ।

पराबीजं कनिष्ठायां लक्ष्मीं करतले न्यसेत् ॥ १५॥

लक्ष्मी-बीज (श्रीं) का मध्यमा में, अङ्गिरा (ऐं) बीज का अनामिका में, परा-बीज (ह्रीं) का कनिष्ठा में और लक्ष्मी (श्रीं) का करतल में न्यास करे ।

  ॥ षडङ्गन्यासः ॥

हृदये वाग्भवं न्यस्यात् परां शिरसि च न्यसेत् ।

लक्ष्मीबीजं शिखायां च कवचे वाग्भवं न्यसेत् ॥ १६॥

हृल्लेखां नेत्रयोर्न्यस्यादस्त्रं तु कमलां न्यसेत् ।

हृदय में वाग्भव (ऐं), शिर में परा (ह्रीं) शिखा में लक्ष्मी (श्रीं), कवच में वाग्भव (ऐं), नेत्रों में हृल्लेखा (ह्रीं) और अस्त्र में कमला (श्रीं) का न्यास करे ।

  ॥ दिग्बन्धनम् ॥

भूर्भुवः स्वरिति मनुना दिग्बन्धनमाचरेत् ॥ १७॥

भूर्भुवः स्वः से दिग्-बन्धन करे ।

ध्यानं तस्य प्रवक्ष्यामि धर्मकामार्थमोक्षदम् ।

न्यासध्यानादिकं सर्वं कृत्वा तु कवचं पठेत् ॥ १८॥

न्यास, ध्यान आदि करके ही कवच का पाठ करना चाहिए । धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-दायक ध्यान कहता हूँ ।

  ॥ ध्यानम् ॥

क्षीरसागरमध्यस्थे रत्नद्वीपे मनोहरे ।

रत्नसिंहासने दिव्ये तत्र देवीं विचिन्तयेत् ॥ १९॥

क्षीर-सागर के मध्य में मनोहर रत्न-द्वीप में स्थित रत्न-सिंहासन पर देवी का चिन्तन (ध्यान) करे ।

कोटिसूर्यप्रतीकाशां चन्द्रकोटिनिभाननाम् ।

दाडिमीपुष्पसङ्काशां कुङ्कुमोदरसन्निभाम् ॥ २०॥

वे करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाशमान हैं । करोड़ों चन्द्रमाओं के समान उनका मुख-मण्डल है, वे दाडिम (अनार) पुष्प और कुंकुम के समान रङ्ग की आभा से युक्त हैं ।

जपाकुसुमसङ्काशां त्रिनेत्रां च चतुर्भुजाम् ।

पाशाङ्कुशधरां रम्यामिक्षुचापशरान्विताम् ॥ २१॥

जपा-कुसुम (जासौन) के समान उनके तीन नेत्र हैं । पाश, अंकुश, इक्षु-चाप (गन्ने से बना धनुष) और बाणों से युक्त चार भुजाएँ हैं ।

कर्पूरशकलोन्मिश्रताम्बूलपूरिताननाम् ।

सर्वश्रृङ्गार वेषाढ्यां सर्वावयवशोभिनीम् ॥ २२॥

कपूर आदि से सुवासित ताम्बूल से उनका मुख भरा है । सब प्रकार के श्रृङ्गार से युक्त उनके सभी अवयव (अङ्ग) अत्यन्त सुन्दर हैं ।

सर्वायुधसमायुक्तां प्रसन्नवदने क्षणाम् ।

सपरिवारसावरणां सर्वोपचारार्चिताम् ॥ २३॥

वे सभी आयुधों से युक्त हैं, पूरे परिवार और आवरण-देवताओं से युक्त हैं । प्रसन्नता उनके शरीर और आँखों से झलकती है ।

एवं ध्यायेत् ततो वीर ! कवचं सर्वकामदम् ।

आवर्तयेत् स्वदेहे तु सर्वरक्षाकरं शुभम् ॥ २४॥

हे वीर! इस प्रकार ध्यान करके  समस्त कामनाओं के दाता और सब प्रकार से रक्षा करनेवाले शुभ कवच से अपनी देह को ढाँके (रक्षा करे) ।

अथ श्रीतुरीयाषोडशीत्रैलोक्यविजयकवच

  ॥ कवचपाठः ॥

शिखायां मे ह्सौः पातु शौ मे पातु ब्रह्मरन्ध्रके ।

सर्वदा ह्लौं च मां पातु वामदक्षिणभागयोः ॥ १॥

मेरी शिखा की रक्षा ह्सौः और ब्रह्म-रन्ध्र की रक्षा शौ करें । मेरे बाँएँ और दाहिने भाग की रक्षा सदा ह्लौं करें ।

ऐं ह्रीं श्रीं सर्वदा पातु षोडशी सुन्दरी परा ।

श्रीं ह्रीं क्लीं सर्वदा पातु ऐं सौं ॐ पातु मे सदा ॥ २॥

ऐं ह्रीं श्रीं षोडशी सुन्दरी परा सदा रक्षा करें । श्रीं ह्रीं क्लीं सर्वदा रक्षा करें, ऐं सौः ॐसदा मेरी रक्षा करें ।

ह्रीं श्रीं ऐं पातु सर्वत्र क्नौं रं लं ह्रीं सदा मम ।

क्लीं हसकहलह्रीं मे पातु सदा सौः क्लीं मम ॥ ३॥

ह्रीं श्रीं ऐं सब जगह और क्नौं रं लं ह्रीं सदा मेरी रक्षा करें । क्लीं ह-स-क-ल-ह्रीं और सौः क्लीं सदा मेरी रक्षा करें।

सौः ऐं क्लीं ह्रीं श्रिया पातु सबीजा षोडशाक्षरी ।

आपादमस्तकं पातु महात्रिपुरसुन्दरी ॥ ४॥   

सौः ऐं क्लीं ह्रीं बीज-युक्त षोडशाक्षरी लक्ष्मी मेरी रक्षा करें । आपाद-मस्तक (सिर से पैरों तक) महा-त्रिपुर-सुन्दरी रक्षा करें ।

श्रीजयन्ती मस्तके मां पातु नित्यं विभूतये ।

ह्रीं मङ्गला सदा नेत्रे पातु सर्वार्थसिद्धये ॥ ५॥

सदा विभूति के लिए श्रीजयन्ती मेरे मस्तक की रक्षा करें । सर्वार्थ-सिद्धि के लिए ह्रीं मङ्गला सदा मेरे नेत्रों की रक्षा करें ।

क्लीं कालिका कर्णयुग्मं पातु सर्वशुभावहा ।

ऐं भारती घ्राणयुग्मं पातु सर्वजयाप्तये ॥ ६॥

सर्व-शुभावहा क्लीं कालिका दोनों कानों की रक्षा करें । सर्व-विध जय-प्राप्ति के लिए ऐं भारती घ्राण-युग्म (नासा-पुट-द्वय) की रक्षा करें ।

सौः कराली मुखं पातु सर्वलोकवशाप्तये ।

ऐं शारदा सदा वाचं पातु साहित्यसिद्धये ॥ ७॥

सर्व-लोक-वशीकरण के लिए सौः कराली मुख की रक्षा करें । साहित्य-सिद्धि के लिए ऐं शारदा सदा वाचा (वाणी) की रक्षा करें ।

ॐ कपालिनी मे कर्णौ पातु सद्गानसिद्धये ।

ह्रीं दुर्गा सहिता पातु स्कन्धदेशौ सदा मम ॥ ८॥

सद्-गायन की सिद्धि के लिए ॐ कपालिनी मेरे कानों की रक्षा करें । दुर्गा के साथ ह्रीं मेरे स्कन्ध कन्धे की सदा रक्षा करें ।

श्रीं क्षमसहिता पातु हृदयं मम सर्वदा ।

ककार सहिता धात्री पार्श्वयुग्मं सदाऽवतु ॥ ९॥

क्षमा-सहित श्रीं सर्वदा मेरे हृदय की रक्षा करें । ककार-सहित धात्री  मेरे दोनों पार्श्वोँ की रक्षा करें ।

एकार सहिता स्वाहा पातु मे जठरं सदा ।

ईकार सहिता नाभिं स्वधा मां सर्वदाऽवतु ॥ १०॥

एकार-सहित स्वाहा मेरे जठर (पेट) की रक्षा करें । ईकार-सहित स्वधा सर्वदा मेरी नाभी की रक्षा करें ।

लकार सहिता ब्राह्मी पृष्ठदेशं सदाऽवतु ।

ह्रीङ्कार सहमाहेशी कटिं पातु सदा मम ॥ ११॥

लकार-सहित ब्राह्मी सदा पृष्ठ-देश की रक्षा करें । ह्रीं कार-सहित माहेशी सदा मेरी कमर की रक्षा करें ।

हकार सहिता गुह्यं कौमारी पातु सर्वदा ।

सकार सहिता पातु वैष्णवी गुददेशकम् ॥ १२॥

हकार-सहित कौमारी सर्वदा गुह्य-स्थान की रक्षा करें । सकार-सहित वैष्णवी गुद-देश की रक्षा करें ।

ककार युक्तावाराही ह्यूरुयुग्मं सदाऽवतु ।

हकार सहिता जानुयुग्मं माहेन्द्री मेऽवतु ॥ १३॥

ककार-सहित वाराही सदा उरु-द्वय की रक्षा करें । हकार-सहित माहेन्द्री जानु-द्वय की रक्षा करें ।

लकार युक्ता चामुण्डा जङ्घायुग्मं सदाऽवतु ।

ह्रीङ्कार सहिता गुल्फयुग्मं लक्ष्मीः सदाऽवतु ॥ १४॥

लकार-सहित चामुण्डा दोनों जंघाओ की सदा रक्षा करें । ह्रींकार-सहित लक्ष्मी (महा-लक्ष्मी) गुल्फ-द्वय की रक्षा करें ।

सकार युक्ता मे पादयुग्मेऽव्यात् शिवदूतिका ।

ककार सहिता प्राच्यां चण्डा रक्षतु सर्वदा ॥ १५॥

सकार-सहित शिवदूती दोनों पैरों की रक्षा करें । ककार-सहित चण्डा सदा पूर्व दिशा में रक्षा करें ।

लकार सहिताऽऽग्नेयां प्रचण्डा सर्वदाऽवतु ।

ह्रीङ्कार सहिता पातु दक्षिणे चण्डनायिका ॥ १६॥

लकार-सहित प्रचण्डा सर्वदा आग्नेय दिशा में रक्षा करें । ह्रींकार-सहित चण्ड-नयिका दक्षिण दिशा में रक्षा करें ।

सौःकार सहिता चण्डवेगिनी नैर्ऋतेऽवतु ।

ऐङ्कार संयुता चण्डप्रकाशा पातु पश्चिमे ॥ १७॥

सौः कार-सहित चण्ड-वेगिनी नैर्ऋत्य दिशा में रक्षा करें । ऐंकार-सहित चण्ड-प्रकाशा पश्चिम दिशा में रक्षा करें ।

क्लीङ्कार सहिता पातु चण्डिका वायुगोचरे ।

ह्रीङ्कार सहिता पातु चामुण्डा चोत्तरे मम ॥ १८॥

क्लींकार-सहित चण्डिका वायव्य दिशा में रक्षा करें । ह्रींकार-सहित चामुण्ड़ा उत्तर-दिशा में रक्षा करें ।

श्रीङ्कार सहिता रौद्री पायादैशान्यके मम ।

ऊर्ध्वं ब्रह्माणी मे रक्षेत् षोडशीसह सर्वदा ॥ १९॥

श्रींकार-सहित रौद्री ईशान-दिशा में मेरी रक्षा करें । षोडशी के साथ ब्रह्माणी ऊर्ध्व -दिशा में रक्षा करें ।

अधस्ताद्वैष्णवी रक्षेत् पुनः षोडशीसंयुता ।

सर्वाङ्गं सर्वदा पातु सहिता भुवनेश्वरी ॥ २०॥

षोडशीके साथ वैष्णवी अधो-दिशा में रक्षा करें । सर्वाङ्ग की सर्वदा रक्ष षोडशी-सहित भुवनेश्वरी करें ।

जले दावानलेऽरण्ये महोत्पाते च सागरे ।

दिवारात्रौ च मे रक्षेद् देवी तारत्रयी मम ॥ २१॥

जल में, दावानल में, जङ्गल में, महोत्पात में, समुद्र में दिन-रात तार-त्रयी में (ऐं ह्रीं श्रीं-स्वरूपा) देवी मेरी रक्षा करें ।

षोडशी त्रैलोक्य विजय कवच फलश्रुति

इदं तुरीयासहितं षोडशाक्षरिकात्मकम् ।

अभेद्यं कवचं त्वेदं मन्त्रबीजसमन्वितम् ॥ १॥

यह तुरीया-कवच षोडशाक्षर-मन्त्र के बीजों से निर्मित और अभेद्य है ।

योगिनीचक्रसहितं तव प्रीत्या प्रकाशितम् ।

धारयस्व मया दत्तं गोपनीयं सुपुत्रक ॥ २॥

योगिनी-चक्र-सहित इसे तुम्हारी प्रीति-वश प्रकाशित किया है । हे सुपुत्र! मेरे द्वारा दिए गए इस गोपनीय कवच को धारण करो ।

न पुत्राय न शिष्याय बन्धुभ्यो न प्रकाशयेत् ।

इदं त्रिपुरसुन्दर्यास्तुरीयं कवचं शुभम् ॥ ३॥

श्रीत्रिपुर-सुन्दरी का यह तुरीय-कवच पुत्र, शिष्य और बन्धु आदि को भी नहीं बताना चाहिए ।

गोपनीयं प्रयत्नेन मन्त्रवर्णक्रमोदितम् ।

प्रातरारभ्य सायान्तं कर्मवेदान्तमोक्तिकम् ॥ ४॥

मन्त्र-वर्णों के क्रम में कहा गया यह कवच प्रयत्न-पूर्वक गुप्त रखे । प्रातःकाल से सन्ध्या-काल तक के कर्म वैदिक कहे गए हैं ।

तत्फलं समवाप्नोति तुरीयकवचव्रतम् ।

दशधा मातृकान्यासं लघुषोढा ततः परम् ॥ ५॥

इनके समान फल तुरीय-कवच के व्रत से मिलता है । दस प्रकार के मातृका-न्यास लघु-षोढा-न्यास ।

शक्तिन्यासं महाषोढां कृत्वा बाह्यान्तरं न्यसेत् ।

श्रीविद्यायां महान्यासं क्रमात् सावर्णतां व्रजेत् ॥ ६॥

शक्ति-न्यास तथा महा-षोढा-न्यास बाह्या और अन्तर में करे । श्रीश्रीविद्या के महा-न्यास से क्रमानुसार सावर्णता मिलती है ।

पूजान्ते यत्फलं प्राप्तं तत्फलं कवचव्रते ।

सवत्सां दुग्धसहितां साधकः कामधेनुवत् ॥ ७॥

इन न्यासों-सहित पूजन से जो फल मिलता है, वह कवच-व्रत (पाठ) से ही मिल जाता है । साधक बछडे और दुग्धदायी कामधेनु के समान हो जाता है ।    

त्रैलोक्यविजयायेदं कवचं परमाद्भुतम् ।

यथा चिन्तामणौ पुत्र ! मनसा परिकल्पिते ॥ ८॥

यह त्रैलोक्य-विजय कवच परम अद्भुत है । जिस प्रकार हे पुत्र! मन-चाही वस्तु सोचते ही चिन्तामणि उसे प्रदान करती है ।

तत्सर्वं लभते शीघ्रं मम वाक्यान्न संशयः ।

सायुरारोग्यमैश्वर्यं सदा सम्पत्प्रवर्धनम् ॥ ९॥

कवचस्य प्रभावेण त्रैलोक्यविजयी भवेत् ।

अदीक्षिताय न देयं श्रद्धाविरहितात्मने ॥ १०॥

उसी प्रकार इससे भी शीघ्र ही कामना-पूर्ति होती है यह मेरा कथन संशय-हीन है । आयु, ऐश्वर्य और सदा सम्पत्ति की वृद्धि के साथ, कवच के प्रभाव से साधक त्रिलोक्य-विजयी होता है । अदीक्षित और श्रद्धा से हीन मनवाले व्यक्ति को यह कवच नहीं देना चाहिए ।

नाख्येयं यस्य कस्यापि कृतघ्नायाततायिने ।

शान्ताय गुरुभक्ताय देयं शुद्धाय साधने ॥ ११॥

न ही क्रुतघ्न और आत-तायी (अत्याचारी) आदि जिस-तिस से इसे कहना चाहिए । शान्त, गुरु-भक्त, शुद्ध और साधु को ही देना चाहिए ।

अज्ञात्वा कवचं चेदं यो जपेत् परदेवताम् ।

सिद्धिर्न जायते वत्स ! कल्पकोटिशतैरपि ॥ १२॥

इस कवच को बिना जाने जो पर-देवता का मन्त्र जपता है, उसे हे वत्स! सैकडों करोड कल्पों में भी सिद्धि नहिं मिलती ।

स एव च गुरु साक्षात् कवचं यस्तु पुत्रक ।

त्रिसन्ध्यं च पठेन्नित्यमिदं कवचमुत्तमम् ॥ १३॥

हे पुत्र! जो तीनों सन्ध्याओं में इस उत्तम कवच का नित्य पाठ करता है, वह साक्षात् गुरु है ।

निशार्धे जपकाले वा प्रत्यहं यन्त्रमग्रतः ।

जगद्वश्यं भवेच्छीघ्रं नात्र कार्या विचारणा ॥ १४॥

अर्धरात्रि में, जपकाल में, प्रतिदिन यन्त्रराज के आगे जो इसका पाठ करता है, वह सारे संसार को शीघ्र ही वश में कर लेता है, इसमें संशय नहीं ।

सप्तकोटिमहामन्त्राः सवर्णाः सगुणान्विताः ।

सर्वे प्रसन्नतां यान्ति सत्यं सत्यं न संशयः ॥ १५॥

उत्तम वर्ण और गुणों से युक्त सात करोड़ महामन्त्र (इसके पाठ से)प्रसन्न हो जाते हैं । यह सत्य है, इसमें संशय नहीं ।

इति ते कथितं दिव्यं सगुणे भजनक्रमम् ।

निर्गुणं परमं वक्ष्ये तुरीयं कवचं श्रृणु ॥ १६॥

कवच का यह सगुण भजन-क्रम है । अब इसका निर्गुण-क्रम सुनों-

कवचस्यास्य माहात्म्यं वर्णितुं नैव शक्यते ।

मूलादिब्रह्मरन्ध्रान्तं श्रीचक्रं समुदीरयेत् ॥ १७॥

इस कवच का माहात्म्य वर्णित करने में मैं समर्थ नहीं हूँ । मूलाधार से ब्रह्मरन्ध्र तक श्रीचक्र कहा गया है अर्थात्, मूलाधार से ब्रह्मरन्ध्र पर्यन्त करे ।

देहमध्ये च सर्वस्वं श्रीचक्रं चिन्तयेत् सुत ।

पञ्चविंशतितत्त्वं च अतलं वितलं तथा ॥ १८॥

सुतलं च तलातलं महातलं च पञ्चमम् ।

रसातलं षष्ठं वक्ष्ये सप्तमं पाताललोकम् ॥ १९॥

शरीर के मध्य में समस्त श्रीचक्र का चिन्तन करे । पच्चीस तत्त्वों तथा अतल, वीतल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल और सातवाँ पाताललोक ।

भूर्भुवः स्वर्लोकमतो महल्लोकजनस्तथा ।

तपश्च सत्यलोकश्च भुवनानि चतुर्दश ॥ २०॥

भूः, भुवः, स्वः, महः, जनः, तपः और सत्य-लोक-ये चौदह भुवन ।

सर्वं श्रीभुवनं चैव निराकारं विचिन्तयेत् ।

मानसे पूजयेत् ध्यायेज्ज्योतिरूपं सुचिन्मयम् ।

कवचं प्रजपेद् वत्स ! राजराजेश्वरो भवेत् ॥ २१॥

इन सभी के साथ श्रीभुवन को भी निराकार ध्यान करके चिन्मय-ज्योति-स्वरूपिणी देवता का मानसिक पूजन करके कवच का पाठ कर्ता हे वत्स ! राज-राजेश्वर होता है ।

इति परमरहस्यं सर्वमन्त्रार्थसारं

     भजति परमभक्त्या निश्चलं निर्मलत्वम् ।

विलसित भुवि मध्ये पुत्रपौत्राभिवृध्दिं

     धनसकलसमृध्दिं भोगमोक्षप्रदं च ॥ २२॥

यह सभी मन्त्रों का सार परम रहस्यमय है । जो परम भक्ति से निश्चल (दृढ़) और निर्मल मन से इस (कवच) का भजन करता है, वह इस लोक में पुत्र-पौत्रादि की वृद्धि, सभी प्रकार की धन-सम्पत्ति युक्त पाकर क्रीड़ा (जीवन-यापन) करता है और भोग-मोक्ष को पाता है ।

॥ इति श्रीचूडामणौ श्रीशिवस्कन्दसंवादे त्रैलोक्यविजयं नाम

श्रीतुरीयाषोडशी श्रीराजराजेश्वरी महात्रिपुरसुन्दरीकवचं सम्पूर्णम् ॥

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