त्रैलोक्य विजय विद्या

त्रैलोक्य विजय विद्या

त्रैलोक्य विजय विद्या सर्वत्र विजय दिलाने वाली विद्या है। इसके पाठ से साधक जीवन के हर क्षेत्र में विजय प्राप्त करता है, उसे कभी पराजय नहीं मिलती। यह समस्त यन्त्र-मन्त्रों को नष्ट करनेवाली विद्या है। यह  त्रैलोक्यविजया-विद्या को भगवान् महेश्वर ने अग्निपुराण अध्याय १३४ में वर्णन किया गया है।

त्रैलोक्य विजय विद्या

त्रैलोक्य विजय विद्या

Trailokya Vijay Vidya

त्रैलोक्यविजया विद्या

अग्निपुराणम्/अध्यायः १३४

त्रैलोक्यविजया-विद्या भावार्थ सहित

अग्निपुराण अध्याय १३४

ईश्वर उवाच

त्रैलोक्यविजयां वक्ष्ये सर्वयन्त्रविमर्दनीं ॥१॥

भगवान् महेश्वर कहते हैं-देवि ! अब मैं समस्त यन्त्र-मन्त्रों को नष्ट करनेवाली 'त्रैलोक्यविजया- विद्या'का वर्णन करता हूँ ॥ १ ॥

अथ त्रैलोक्य विजय विद्या मन्त्र

ॐ ह्रूं क्षूं ह्रूं, ॐ नमो भगवति दंष्ट्रिणि भीमवक्त्रे महोग्ररूपे हिलि हिलि, रक्तनेत्रे किलि किलि, महानिस्वने कुलु ॐ विद्युज्जिह्वे कुलु ॐ निर्मासे कट कट गोनसाभरणे चिलि चिलि, शवमालाधारिणि द्रावय, ॐ महारौद्रि सार्द्रचर्मकृताच्छदे विजृम्भ, ॐ नृत्यासिलता- धारिणि भृकुटीकृतापाङ्गे विषमनेत्रकृतानने वसामेदोविलिप्तगात्रे कह कह, ॐ हस हस क्रुध्य क्रुध्य, ॐ नीलजीमूतवर्णेऽभ्रमालाकृताभरणे विस्फुर, ॐ घण्टारवाकीर्णदेहे, ॐ सिंसिस्थेऽरुणवर्णे, ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं रौद्ररूपे ह्रूं ह्रीं क्लीं ॐ ह्रीं ह्र मोमाकर्ष, ॐ धून धून, ॐ हे हः स्वः खः, वज्रिण हूं क्षूं क्षां क्रोधरूपिणि प्रज्वल प्रज्वल, ॐ भीमभीषणे भिन्द, ॐ महाकाये छिन्द, ॐ करालिनि किटि किंटि, महाभूतमातः सर्वदुष्टनिवारिणि जये, ॐ विजये ॐ त्रैलोक्यविजये हुं फट् स्वाहा ॥२॥

ॐ ह्रूं क्षूं ह्रूं, ॐ बड़ी-बड़ी दाढ़ों से जिनकी आकृति अत्यन्त भयंकर है, उन महोग्ररूपिणी भगवती को नमस्कार है। वे रणाङ्गण में स्वेच्छापूर्वक क्रीड़ा करें, क्रीड़ा करें। लाल नेत्रोंवाली! किलकारी कीजिये, किलकारी कीजिये। भीमनादिनि कुलु । ॐ विद्युजिह्वे! कुलु। ॐ मांसहीने! शत्रुओं को आच्छादित कीजिये, आच्छादित कीजिये । भुजङ्गमालिनि! वस्त्राभूषणों से अलंकृत होइये, अलंकृत होइये। शवमालाविभूषिते । शत्रुओं को खदेड़िये । ॐ शत्रुओं के रक्त से सने हुए चमड़े के वस्त्र धारण करनेवाली महाभयंकरि ! अपना मुख खोलिये। ॐ ! नृत्य मुद्रा में तलवार धारण करनेवाली !! टेढ़ी भाँहों से युक्त तिरछे नेत्रों से देखनेवाली ! विषम नेत्रों से विकृत मुखवाली !! आपने अपने अङ्गों में मज्जा और मेदा लपेट रखा है। ॐ अट्टहास कीजिये, अट्टहास कीजिये । हँसिये हँसिये क्रुद्ध होइये, क्रुद्ध होइये । ॐ नील मेघ के समान वर्णवाली! मेघमाला को आभरण रूप में धारण करनेवाली !! विशेषरूप से प्रकाशित होइये। ॐ घण्टा की ध्वनि से शत्रुओं के शरीरों की धज्जियाँ उड़ा देनेवाली! ॐ सिंसिस्थिते! रक्तवर्णे! ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं रौद्ररूपे ! ह्रूं ह्रीं क्लीं ॐ ह्रीं ह्रूं ॐ शत्रुओं का आकर्षण कीजिये, उनको हिला डालिये, कँपा डालिये। ॐ हे हः खः वज्रहस्ते! ह्रूं क्षूं क्षां क्रोधरूपिणि! प्रज्वलित होइये, प्रज्वलित होइये । ॐ महाभयंकर को डरानेवाली । उनको चीर डालिये। ॐ विशाल शरीरवाली देवि! उनको काट डालिये। करालरूपे ! शत्रुओं को डराइये, डराइये। महाभयंकर भूतों की जननि! समस्त दुष्टों का निवारण करनेवाली जये !! ॐ विजये !!! ॐ त्रैलोक्यविजये हुं फट् स्वाहा ॥ २ ॥

नीलवर्णां प्रेतसंस्थां विंशहस्तां यजेज्जये ।

न्यासं कृत्वा तु पञ्चाङ्गं रक्तपुष्पाणि होमयेत् ॥

सङ्ग्रामे सैन्यभङ्गः स्यात्त्रैलोक्यविजयापठात् ॥३॥

विजय के उद्देश्य से नीलवर्णा, प्रेताधिरूढ़ा त्रैलोक्यविजया-विद्या की बीस हाथ ऊँची प्रतिमा बनाकर उसका पूजन करे। पञ्चाङ्गन्यास करके रक्तपुष्पों का हवन करे। इस त्रैलोक्यविजया- विद्या पठन से समरभूमि में शत्रु की सेनाएँ पलायन कर जाती हैं ॥ ३ ॥

ॐ नमो बहुरूपाय स्तम्भय स्तम्भय ॐ मोहय ॐ सर्वशत्रून् द्रावय, ॐ ब्रह्माणमाकर्षय, ॐ विष्णुमाकर्षय, ॐ महेश्वरमाकर्षय, ॐ इन्द्रं टालय, ॐ पर्वतांश्चालय, ॐ सप्तसागराञ्शोषय, ॐ च्छिन्द च्छिन्द बहुरूपाय नमः॥४॥

ॐ अनेकरूप को नमस्कार है। शत्रु का स्तम्भन कीजिये, स्तम्भन कीजिये। ॐ सम्मोहन कीजिये । ॐ सब शत्रुओं को खदेड़ दीजिये । ॐ ब्रह्मा का आकर्षण कीजिये । ॐ विष्णु का आकर्षण कीजिये। ॐ महेश्वर का आकर्षण कीजिये। ॐ इन्द्र को भयभीत कीजिये। ॐ पर्वतों को विचलित कीजिये । ॐ सातों समुद्रों को सुखा डालिये। ॐ काट डालिये, काट डालिये। अनेकरूप को नमस्कार है ॥ ४ ॥

भुजङ्गं नाम मृन्मूर्तिसंस्थं विद्यादरिं ततः ॥५॥

मिट्टी की मूर्ति बनाकर उसमें शत्रु को स्थित हुआ जाने, अर्थात् उसमें शत्रु के स्थित होने की भावना करे। उस मूर्ति में स्थित शत्रु का ही नाम भुजंग है; ॐ बहुरूपाय' इत्यादि मन्त्र से अभिमन्त्रित करके उस शत्रु के नाश के लिये उक्त मन्त्र का जप करे। इससे शत्रु का अन्त हो जाता है ॥५॥

इत्याग्नेये महापुराणे युद्धजयार्णवे त्रैलोक्यविजयविद्या नाम चतुर्त्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में युद्धजयार्णव के अन्तर्गत 'त्रैलोक्यविजया विद्या का वर्णन' नामक एक सौ चौंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १३४ ॥

आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 135

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