शालिग्राम के लक्षण तथा महत्त्व
नारद जी के पूछने पर भगवान श्रीनारायण
ने शालिग्राम के विभिन्न लक्षण तथा महत्त्व का वर्णन किया। इसी को तुलसी के श्राप देने
पर कि - नाथ! आपका हृदय पाषाण के सदृश है; इसीलिये
आप में तनिक भी दया नहीं है। आज आपने छलपूर्वक धर्म नष्ट करके मेरे स्वामी को मार
डाला। प्रभो! आप अवश्य ही पाषाण-हृदय हैं, तभी तो इतने
निर्दय बन गये! अतः देव! मेरे शाप से अब पाषाण रूप होकर आप पृथ्वी पर रहें।
तदनन्तर करुण-रस के समुद्र कमलापति भगवान श्रीहरि ने करुणायुक्त तुलसी के सामने लीलापूर्वक
अपना सुन्दर मनोहर स्वरूप प्रकट कर दिया। देवी तुलसी ने अपने सामने उन सनातन प्रभु
देवेश्वर श्रीहरि को विराजमान देखा। भगवान का दिव्य विग्रह नूतन मेघ के समान श्याम
था। आँखें शरत्कालीन कमल की तुलना कर रही थीं। उनके अलौकिक रूप-सौन्दर्य में
करोड़ों कामदेवों की लावण्य-लीला प्रकाशित हो रही थी। रत्नमय भूषण उन्हें आभूषित
किये हुए थे। उनका प्रसन्नवदन मुस्कान से भरा था। उनके दिव्य शरीर पर पीताम्बर
सुशोभित था। तदनन्तर भगवान श्रीहरि ने तुलसी देवी को देखकर नीति पूर्वक वचनों से
शालिग्राम के विभिन्न लक्षण तथा महत्त्व का वर्णन किया। यह कथा ब्रह्म वैवर्त
पुराण प्रकृतिखण्ड के अध्याय 21 में वर्णित है।
शालिग्राम के विभिन्न लक्षण तथा महत्त्व का वर्णन
श्रीभगवानुवाच ।।
अहं च शैलरूपी च गण्डकीतीरसन्निधौ
।।
अधिष्ठानं करिष्यामि भारते तव शापतः
।।
मैं तुम्हारे शाप को सत्य करने के
लिये भारतवर्ष में ‘पाषाण’ (शालग्राम) बनकर रहूँगा। गण्डकी नदी के तट पर मेरा वास होगा।
वज्रकीटाश्च कृमयो वज्रदंष्ट्राश्च
तत्र वै ।।
तच्छिलाकुहरे चक्रं करिष्यन्ति
मदीयकम।।
वहाँ रहने वाले करोड़ों कीड़े अपने
तीखे दाँतरूपी आयुधों से काट-काटकर उस पाषाण में मेरे चक्र का चिह्न करेंगे।
एकद्वारे चतुश्चक्रं
वनमालाविभूषितम् ।।
नवीननीरदश्यामं लक्ष्मीनारायणाभिधम्
।।
जिसमें एक द्वार का चिह्न होगा,
चार चक्र होंगे और जो वनमाला से विभूषित होगा, वह नवीन मेघ के समान श्यामवर्ण का पाषाण ‘लक्ष्मी-नारायण’
का बोधक होगा।
एकद्वारे चतुश्चक्रं नवीननीरदोपमम्।।
लक्ष्मीजनार्दनं ज्ञेयं रहितं
वनमालया ।।
जिसमें एक द्वार और चार चक्र के
चिह्न होंगे तथा वनमाला की रेखा नहीं प्रतीत होती होगी,
ऐसे नवीन मेघ की तुलना करने वाले श्याम रंग के पाषाण को ‘लक्ष्मीजनार्दन’ की संज्ञा दी जानी चाहिये।
द्वारद्वये चतुश्चक्रं गोष्पदेन
समन्वितम् ।।
रघुनाथाभिधं ज्ञेयं रहितं वनमालया
।।
दो द्वार,
चार चक्र और गाय के खुर के चिह्न से सुशोभित एवं वनमाला के चिह्न से
रहित श्याम पाषाण को भगवान ‘राघवेन्द्र’ का विग्रह मानना चाहिये।
अतिक्षुद्रं द्विचक्रं च
नवीनजलदप्रभम् ।।
दधिवामनाभिधं ज्ञेयं गृहिणां च
सुखप्रदम् ।।
जिसमें बहुत छोटे दो चक्र के चिह्न
हों,
उन नवीन मेघ के समान कृष्णवर्ण के पाषाण को भगवान ‘दधिवामन’ मानना चाहिये, वह
गृहस्थों के लिये सुखदायक है।
अतिक्षुद्रं द्विचक्रं च वनमा
लाविभूषितम् ।।
विज्ञेयं श्रीधरं देवं श्रीप्रदं
गृहिणां सदा ।।
अत्यन्त छोटे आकार में दो चक्र एवं
वनमाला से सुशोभित पाषाण स्वयं भगवान ‘श्रीधर’
का रूप है- ऐसा समझना चाहिये। ऐसी मूर्ति भी गृहस्थों को सदा श्री
सम्पन्न बनाती है।
स्थूलं च वर्तुलाकारं रहितं वनमालया
।।
द्विचकं स्फुटमत्यन्तं ज्ञेयं
दामोदराभिधम् ।।
जो पूरा स्थूल हो,
जिसकी आकृति गोल हो, जिसके ऊपर वनमाला का
चिह्न अंकित न हो तथा जिसमें दो अत्यन्त स्पष्ट चक्र के चिह्न दिखायी पड़ते हों,
उस शालग्राम शिला की ‘दामोदर’ संज्ञा है।
मध्यमं वर्तुलाकारं द्विचक्रं
बाणविक्षतम् ।।
रणरामाभिधं ज्ञेयं शरतूणसमन्वितम्
।।
जो मध्यम श्रेणी का वर्तुलाकार हो,
जिसमें दो चक्र तथा तरकस और बाण के चिह्न शोभा पाते हों, एवं जिसके ऊपर बाण से कट जाने का चिह्न हो, उस पाषाण
को रण में शोभा पाने वाले भगवान ‘रणराम’ की संज्ञा देनी चाहिये।
मध्यमं सप्तचक्रं च
छत्रतूणसमन्वितम् ।।
राजराजेश्वरं ज्ञेयं राजसम्पत्प्रदं
नृणाम् ।।
जो मध्यम श्रेणी का पाषाण सात
चक्रों से तथा छत्र एवं तरकस से अलंकृत हो, उसे
भगवान ‘राजराजेश्वर’ की प्रतिमा
समझे। उसकी उपासना से मनुष्यों को राजा की सम्पत्ति सुलभ हो सकती है।
द्विसप्तचक्रं स्थूलं च
नवीनजलदप्रभम् ।।
अनन्ताख्यं च विज्ञेयं
चतुर्वर्गफलप्रदम् ।।
चौदह चक्रों से सुशोभित तथा नवीन
मेघ के समान रंग वाले स्थूल पाषाण को भगवान ‘अनन्त’ का विग्रह मानना
चाहिये। उसके पूजन से धर्म, अर्थ, काम
और मोक्ष- ये चारों फल प्राप्त होते हैं।
चक्राकारं द्विचक्रं च सश्रीकं
जलदप्रभम् ।।
सगोष्पदं मध्यमं च विज्ञेयं
मधुसूदनम्।।
जिसकी आकृति चक्र के समान हो तथा जो
दो चक्र,
श्री और गो-खुर के चिह्न से शोभा पाता हो, ऐसे
नवीन मेघ के समान वर्ण वाले मध्यम श्रेणी के पाषाण को भगवान ‘मधुसूदन’ समझना चाहिये।
सुदर्शनं चैकचक्रं गुप्तचक्रं
गदाधरम् ।।
द्विचक्रं हयवक्त्राभं हयग्रीवं
प्रकीर्त्तितम्।।
केवल एक चक्र वाला ‘सुदर्शन’ का, गुप्तचक्र-चिह्न वाला ‘गदाधर’ का तथा दो चक्र एवं अश्व के मुख की आकृति से युक्त पाषाण भगवान ‘हयग्रीव’ का विग्रह कहा जाता है।
अतीव विस्तृतास्यं च द्विचक्रं
विकटं सति ।।
नरसिंहाभिधं ज्ञेयं सद्यो वैराग्यदं
नृणाम् ।।
जिसका मुख अत्यन्त विस्तृत हो,
जिस पर दो चक्र चिह्नित हों तथा जो बड़ा विकट प्रतीत होता हो ऐसे
पाषाण को भगवान ‘नरसिंह’ की
प्रतिमा समझनी चाहिये। वह मनुष्य को तत्काल वैराग्य प्रदान करने वाला है।
द्विचक्रं विस्तृतास्यं च
वनमालासमन्वितम् ।।
लक्ष्मीनृसिंहं विज्ञेयं गृहिणां
सुखदं सदा ।।
जिसमें दो चक्र हों,
विशाल मुख हो तथा जो वनमाला के चिह्न से सम्पन्न हो, गृहस्थों के लिये सदा सुखदायी हो, उस पाषाण को भगवान
‘लक्ष्मीनारायण’ का विग्रह
समझना चाहिये।
द्वारदेशे द्विचक्रं च सश्रीकं च
समं स्फुटम् ।।
वासुदेवं च विज्ञेयं
सर्वकामफलप्रदम् ।।
जो द्वार-देश में दो चक्रों से
युक्त हो तथा जिस पर श्री का चिह्न स्पष्ट दिखायी पड़े,
ऐसे पाषाण को भगवान ‘वासुदेव’ का विग्रह मानना चाहिये। इस विग्रह की अर्चना से सम्पूर्ण कामनाएँ सिद्ध
हो सकेंगी।
प्रद्युम्नं सूक्ष्मचक्रं च
नवीननीरदप्रभम् ।।
सुषिरे च्छिद्रबहुलं गृहिणां च
सुखप्रदम् ।।
सूक्ष्म चक्र के चिह्न से युक्त,
नवीन मेघ के समान श्याम तथा मुख पर बहुत-से छोटे-छोटे छिद्रों से
सुशोभित पाषाण ‘प्रद्युम्न’ का
स्वरूप होगा। उसके प्रभाव से गृहस्थ सुखी हो जायेंगे।
द्वे चक्रे चैकलग्ने च पृष्ठे यत्र
तु पुष्कलम् ।।
संकर्षणं तु विज्ञेयं सुखदं गृहिणां
सदा ।।
जिसमें दो चक्र सटे हुए हों और
जिसका पृष्ठभाग विशाल हो, गृहस्थों को
निरन्तर सुख प्रदान करने वाले उस पाषाण को भगवान ‘संकर्षण’
की प्रतिमा समझनी चाहिये।
अनिरुद्धं तु पीताभं वर्तुलं
चातिशोभनम् ।।
सुखप्रदं गृहस्थानां प्रवदन्ति
मनीषिणः ।।
जो अत्यन्त सुन्दर गोलाकार हो तथा
पीले रंग से सुशोभित हो, विद्वान पुरुष कहते
हैं कि गृहाश्रमियों को सुख देने वाला वह पाषाण भगवान ‘अनिरुद्ध’
का स्वरूप है।
शालग्रामशिला यत्र तत्र सन्निहितो
हरिः ।।
तत्रैव लक्ष्मीर्वसति
सर्वतीर्थसमन्विता।।
जहाँ शालग्राम की शिला रहती है,
वहाँ भगवान श्रीहरि विराजते हैं और वहीं सम्पूर्ण तीर्थों को साथ
लेकर भगवती लक्ष्मी भी निवास करती हैं।
यानि कानि च पापानि ब्रह्महत्यादिकानि
च ।।
तानि सर्वाणि नश्यंति
शालग्रामशिलार्च्चनात् ।।
ब्रह्महत्या आदि जितने पाप हैं,
वे सब शालग्राम-शिला की पूजा करने से नष्ट हो जाते हैं।
छत्राकारं भवेद्राज्यं वर्तुले च
महाश्रियः ।।
दुःखं च शकटाकारे शूलाग्रे मरणं
धुवम् ।।
छत्राकार शालग्राम में राज्य देने
की तथा वर्तुलाकार में प्रचुर सम्पत्ति देने की योग्यता है। शकट के आकार वाले
शालग्राम से दुःख तथा शूल के नोंक के समान आकार वाले से मृत्यु होनी निश्चित है।
विकृतास्ये च दारिद्र्यं पिङ्गले
हानिरेव च ।।
लग्नचक्रे भवेद्व्याधिर्विदीर्णे मरणं
धुवम् ।।
विकृत मुख वाले दरिद्रता,
पिंगलवर्ण वाले हानि, भग्नचक्र वाले व्याधि
तथा फटे हुए शालग्राम निश्चितरूप से मरणप्रद हैं।
व्रतं दानं प्रतिष्ठा च श्राद्धं च
देवपूजनम् ।।
शालग्रामशिलायाश्चैवाधिष्ठानात्प्रशस्तकम्
।।
व्रत, दान, प्रतिष्ठा तथा श्राद्ध आदि सत्कार्य शालग्राम
की संनिधि में करने से सर्वोत्तम हो सकते हैं।
स स्नातः सर्वतीर्थेषु सर्वयज्ञेषु
दीक्षितः ।।
शालग्रामशिलातोयैर्योऽभिषेकं
समाचरेत् ।।
जो अपने ऊपर शालग्राम-शिला का जल
छिड़कता है, वह सम्पूर्ण तीर्थों में स्नान
कर चुका तथा समस्त यज्ञों का फल पा गया।
सर्वदानेषु यत्पुण्यं प्रादक्षिण्ये
भुवो यथा ।।
सर्वयज्ञेषु तीर्थेषु
व्रतेष्वनशनेषु च ।।
अखिल यज्ञों,
तीर्थों, व्रतों और तपस्याओं के फल का वह
अधिकारी समझा जाता है। जो निरन्तर शालग्राम-शिला के जल से अभिषेक करता है, वह सम्पूर्ण दान के पुण्य तथा पृथ्वी की प्रदक्षिणा के उत्तम फल का मानो
अधिकारी हो जाता है।
तस्य स्पर्शं च वाञ्छन्ति तीर्थानि
निखिलानि च ।।
जीवन्मुक्तो महापूतो भवेदेव न संशयः
।।
सम्पूर्ण तीर्थ उस पुण्यात्मा पुरुष
का स्पर्श करना चाहते हैं। जीवन्मुक्त एवं महान पवित्र वह व्यक्ति भगवान श्रीहरि
के पद का अधिकारी हो जाता है; इसमें संशय
नहीं।
पाठे चतुर्णां वेदानां तपसां करणे
सति ।।
तत्पुण्यं लभते नृनं
शालग्रामशिलार्चनात् ।।
साध्वि! चारों वेदों के पढ़ने तथा
तपस्या करने से जो पुण्य होता है, वही पुण्य
शालग्राम-शिला की उपासना से प्राप्त हो जाता है।
शालग्रामशिलातोयं नित्यं भुङ्क्ते च
यो नरः ।।
सुरेप्सितं प्रसादं च
जन्ममृत्युजराहरम् ।।
शालग्राम-शिला के जल का निरन्तर पान
करने वाला पुरुष देवाभिलषित प्रसाद पाता है। उसे जन्म,
मृत्यु और जरा से छुटकारा मिल जाता है।
तस्य स्पर्शं च वाञ्छन्ति तीर्थानि
निखिलानि च ।।
जीवन्मुक्तो महापूतोऽप्यन्ते याति
हरेः पदम् ।।
सम्पूर्ण तीर्थ उस पुण्यात्मा पुरुष
का स्पर्श करना चाहते हैं। जीवन्मुक्त एवं महान पवित्र वह व्यक्ति भगवान श्रीहरि
के पद का अधिकारी हो जाता है; इसमें संशय
नहीं।
तत्रैव हरिणा सार्द्धमसंख्यं
प्राकृतं लयम् ।।
पश्यत्येव हि दास्ये च निर्मुक्तो
दास्यकर्मणि ।।
भगवान के धाम में वह उनके साथ
असंख्य प्राकृत प्रलय तक रहने की सुविधा प्राप्त करता है। वहाँ जाते ही भगवान उसे
अपना दास बना लेते हैं।
यानि कानि च पापानि
ब्रह्महत्यादिकानि च ।।
तं च दृष्ट्वा भिया यान्ति
वैनतेयमिवो रगाः ।।
उस पुरुष को देखकर,
ब्रह्महत्या के समान जितने बड़े-बड़े पाप हैं, वे इस प्रकार भागने लगते हैं, जैसे गरुड़ को देखकर
सर्प।
तत्पादपद्मरजसा सद्यः पूता वसुन्धरा
।।
पुंसां लक्षं तत्पितॄणां
निस्तारस्तस्य जन्मनः ।।
उस पुरुष के चरणों की रज से पृथ्वी
देवी तुरंत पवित्र हो जाती हैं। उसके जन्म लेते ही लाखों पितरों का उद्धार हो जाता
है।
शालग्रामशिला तोयं मृत्युकाल च यो
लभेत् ।।
सर्वपापाद्विनिर्मुक्तो विष्णुलोकं
स गच्छति ।।
मृत्युकाल में जो शालग्राम के जल का
पान करता है, वह सम्पूर्ण पापों से मुक्त
होकर विष्णुलोक को चला जाता है।
निर्वाणमुक्तिं लभते
कर्मभोगाद्विमुच्यते ।।
विष्णुपादे प्रलीनश्च भविष्यति न
संशयः ।।
उसे निर्वाणमुक्ति सुलभ हो जाती है।
वह कर्मभोग से छूटकर भगवान श्रीहरि के चरणों में लीन हो जाता है- इसमें कोई संशय
नहीं।
शालग्रामशिलां धृत्वा मिथ्यावादं
वदेत्तु यः।।
स याति कूर्मदंष्ट्रं च यावद्वै
ब्रह्मणो वयः ।।
शालग्राम को हाथ में लेकर मिथ्या
बोलने वाला व्यक्ति ‘कुम्भीपाक’ नरक में जाता है और ब्रह्मा की आयुपर्यन्त उसे वहाँ रहना पड़ता है।
शालग्रामशिलां स्पृष्ट्वा स्वीकारं
यो न पालयेत् ।।
स प्रयात्यसिपत्रं च
लक्षमन्वन्तराधिकम् ।।
जो शालग्राम को धारण करके की हुई
प्रतिज्ञा का पालन नहीं करता, उसे लाख
मन्वन्तर तक ‘असिपत्र’ नामक नरक में
रहना पड़ता है।
तुलसीपत्र विच्छेदं शालग्रामे करोति
यः ।।
तस्य जन्मान्तरे काले
स्त्रीविच्छेदो भविष्यति ।।
कान्ते! जो व्यक्ति शालग्राम पर से
तुलसी के पत्र को दूर करेगा, उसे दूसरे
जन्म में स्त्री साथ न दे सकेगी।
तुलसीपत्रविच्छेदं शंखे यो हि करोति
च ।।
भार्य्याहीनो भवेत्सोऽपि रोगी च
सप्तजन्मसु ।।
शंख से तुलसी-पत्र का विच्छेद करने
वाला व्यक्ति भार्याहीन तथा सात जन्मों तक रोगी होगा।
शालग्रामं च तुलसीं शंखमेकत्र एव च
।।
यो रक्षति महाज्ञानी स
भवेच्छ्रीहरिप्रियः ।।
शालग्राम,
तुलसी और शंख- इन तीनों को जो महान ज्ञानी पुरुष एकत्र सुरक्षित रूप
से रखता है, उससे भगवान श्रीहरि बहुत प्रेम करते हैं।
इत्युक्त्वा श्रीहरिस्तां च विरराम
च सादरम् ।।
स च देहं परित्यज्य दिव्यरूपं दधार
ह ।।
यथा श्रीश्च तथा सा चाप्युवास
हरिवक्षसि ।।
प्रजगाम तया सार्द्धं वैकुण्ठं कमला
पतिः ।।
नारद! इस प्रकार देवी तुलसी से कहकर
भगवान श्रीहरि मौन हो गये। उधर देवी तुलसी अपना शरीर त्यागकर दिव्य रूप से सम्पन्न
हो भगवान श्रीहरि के वक्षःस्थल पर लक्ष्मी की भाँति शोभा पाने लगी। कमलापति भगवान
श्रीहरि उसे साथ लेकर वैकुण्ठ पधार गये।
लक्ष्मीः सरस्वती गङ्गा तुलसी चापि
नारद ।।
हरेः प्रियाश्चतस्रश्च
वभूवुरीश्वरस्य च ।।
नारद! लक्ष्मी,
सरस्वती, गंगा और तुलसी- ये चार देवियाँ भगवान
श्रीहरि की पत्नियाँ हुईं।
सद्यस्तद्देहजाता च बभूव गण्डकी नदी
।।
हरेरंशेन शैलश्च तत्तीरे पुण्यदो
नृणाम् ।।
उसी समय तुलसी की देह से गण्डकी नदी
उत्पन्न हुई और भगवान श्रीहरि भी उसी के तट पर मनुष्यों के लिये पुण्यप्रद
शालग्राम-शिला बन गये।
कुर्वन्ति तत्र कीटाश्च शिलां
बहुविधां मुने ।।
जले पतन्ति या याश्च जलदाभाश्च
निश्चितम् ।।
मुने! वहाँ रहने वाले कीड़े शिला को
काट-काटकर अनेक प्रकार की बना देते हैं। वे पाषाण जल में गिरकर निश्चय ही उत्तम फल
प्रदान करते हैं।
स्थलस्थाः पिङ्गला
ज्ञेयाश्चोपतापाद्धरेरिति ।।
जो पाषाण धरती पर पड़ जाते हैं,
उन पर सूर्य का ताप पड़ने से पीलापन आ जाता है, ऐसी शिला को पिंगला समझनी चाहिये।
इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे द्वितीये प्रकृतिखण्डे नारायणनारदसंवादे तुलस्युपाख्यानं एकविंशो ऽध्यायः ।। २१ ।।
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