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कर्मकाण्ड

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धन्वन्तरि स्तोत्रम्

धन्वन्तरि स्तोत्रम्

धन्वन्तरि स्तोत्रम्- धन्वंतरि लगभग 7 हजार ईसापूर्व के बीच हुए थे। वे काशी के राजा महाराज धन्व के पुत्र थे। उन्होंने शल्य शास्त्र पर महत्वपूर्ण गवेषणाएं की थीं। उनके प्रपौत्र दिवोदास ने उन्हें परिमार्जित कर सुश्रुत आदि शिष्यों को उपदेश दिए। दिवोदास के काल में ही दशराज्ञ का युद्ध हुआ था। धन्वंतरि के जीवन का सबसे बड़ा वैज्ञानिक प्रयोग अमृत का है। उनके जीवन के साथ अमृत का स्वर्ण कलश जुड़ा है। अमृत निर्माण करने का प्रयोग धन्वंतरि ने स्वर्ण पात्र में ही बताया था।

उन्होंने कहा कि जरा-मृत्यु के विनाश के लिए ब्रह्मा आदि देवताओं ने सोम नामक अमृत का आविष्कार किया था। धन्वंतरि आदि आयुर्वेदाचार्यों अनुसार 100 प्रकार की मृत्यु है। उनमें एक ही काल मृत्यु है, शेष अकाल मृत्यु रोकने के प्रयास ही आयुर्वेद निदान और चिकित्सा हैं। आयु के न्यूनाधिक्य की एक-एक माप धन्वंतरि ने बताई है।

धनतेरसके दिन उनका जन्म हुआ था। धन्वंतरि आरोग्य, सेहत, आयु और तेज के आराध्य देवता हैं। रामायण, महाभारत, सुश्रुत संहिता, चरक संहिता, काश्यप संहिता तथा अष्टांग हृदय, भाव प्रकाश, शार्गधर, श्रीमद्भावत पुराण आदि में उनका उल्लेख मिलता है। धन्वंतरि नाम से और भी कई आयुर्वेदाचार्य हुए हैं। आयु के पुत्र का नाम धन्वंतरि था।

धन्वन्तरि स्तोत्रम्

धन्वन्तरिस्तोत्रम्

ॐ नमो भगवते धन्वन्तरये अमृतकलशहस्ताय,

सर्वामयविनाशनाय, त्रैलोक्यनाथाय श्रीमहाविष्णवे नमः ॥

चन्द्रौघकान्तिममृतोरुकरैर्जगन्ति

सञ्जीवयन्तममितात्मसुखं परेशम् ।

ज्ञानं सुधाकलशमेव च सन्दधानं

शीतांशुमण्डलगतं स्मरतात्मसंस्थम् ॥

मूर्ध्नि स्थितादमुत एव सुधां स्रवन्तीं

भ्रूमध्यगाच्च तत एव च तानुसंस्थात् ।

हार्दाच्च नाभिसदनादधरस्थिताच्च

ध्यात्वाभिपूरिततनुः दुरितं निहन्यात् ॥

अज्ञान-दुःख-भय-रोग-महाविषाणि

योगोऽयमाशु विनिहन्ति सुखं च दद्यात् ।

उन्माद-विभ्रमहरः हरतश्च सान्द्र-

मानन्दमेव पदमापयति स्म नित्यम् ॥

ध्यात्वैव हस्ततलगं स्वमृतं स्रवन्तं

एवं स यस्य शिरसि स्वकरं निधाय ।

आवर्तयेन्मनुमिमं स च वीतरोगः

पापादपैति मनसा यदि भक्तिनम्रः ॥

धं धन्वन्तरये नमः ॥

धं धन्वन्तरये नमः ॥

धं धन्वन्तरये नमः ॥

दीर्घ-पीवर-दोर्दण्डः, कम्बुग्रीवोऽरुणेक्षणः ।

श्यामलस्तरुणः स्रग्वी सर्वाभरणभूषितः ॥

पीतवासा महोरस्कः, सुमृष्टमणिकुण्डलः ।

नीलकुञ्चितकेशान्तः, सुभगः सिंहविक्रमः ॥

अमृतस्य पूर्णकलशं बिभ्रद्वलयभूषितः।

स वै भगवतः साक्षाद् विष्णोरंशांशसम्भवः ।

धन्वन्तरिरिति ख्यातः आयुर्वेददृगित्यभाक् ।

एवं धन्वन्तरिं ध्यायेत् साधकोऽभीष्टसिद्धये ॥

ॐ नमो भगवते धन्वन्तरये अमृतकलशहस्ताय,

सर्वामयविनाशनाय, त्रैलोक्यनाथाय श्रीमहाविष्णवे नमः ॥

धन्वन्तरिङ्गरुचिधन्वन्तरेरितरुधन्वंस्तरीभवसुधा

धान्वन्तरावसथमन्वन्तराधिकृतधन्वन्तरौषधनिधे ।

धन्वन्तरंगशुगुधन्वन्तमायिषु वितन्वन् ममाब्धितनय

सून्वन्ततात्मकृततन्वन्तरावयवतन्वन्तरार्तिजलधौ ॥

धन्वन्तरिश्च भगवान् स्वयमास देवो 

नाम्ना नृणां पुरुरुजां रुज आशु हन्ति ।

यज्ञे च भागममृतायुरवाप चार्धा 

आयुष्यवेदमनुशास्त्यवतीर्य लोके ॥

क्षीरोदमथनोद्भूतं दिव्यगन्धानुलेपिनम् ।

सुधाकलशहस्तं तं वन्दे धन्वन्तरिं हरिम् ॥

शरीरे जर्जरीभूते व्याधिग्रस्ते कलेवरे ।

औषधं जाह्नवीतोयं वैद्यो नारायणो हरिः ॥

अयं मे हस्तो भगवान् अयं मे भगवत्तरः ।

अयं मे विश्वभेषजोऽयं शिवाभिमर्षणः ॥

अच्युतानन्त-गोविन्द-विष्णो नारायणामृत ।

रोगान्मे नाशयाशेषान् आशु धन्वन्तरे हरे ॥

धं धन्वन्तरये नमः ॥

धं धन्वन्तरये नमः ॥

धं धन्वन्तरये नमः ॥

ॐ नमो भगवते धन्वन्तरये अमृतकलशहस्ताय,

सर्वामयविनाशनाय, त्रैलोक्यनाथाय श्रीमहाविष्णवे नमः ॥

इति धन्वन्तरिस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।

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