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कर्मकाण्ड

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तुलसी स्तुति

तुलसी स्तुति

तुलसी स्तुति या तुलसी स्तवन- भगवान नारायण कहते हैं- मुने! तुलसी के अन्तर्धान हो जाने पर भगवान श्रीहरि विरह से आतुर होकर वृन्दावन चले गये थे और वहाँ जाकर उन्होंने तुलसी की पूजा (लक्ष्मीबीज[श्रीं], मायाबीज[ह्रीं], कामबीज[क्लीं] और वाणीबीज[ऐं]- इन बीजों का पूर्व में उच्चारण करके वृन्दावनीइस शब्द के अन्त में[ङे] विभक्ति लगायी और अन्त में वह्निजाया[स्वाहा], का प्रयोग करके श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं वृन्दावन्यै स्वाहाइस दशाक्षर-मन्त्र से) करके इस प्रकार स्तुति की थी।

तुलसी स्तुति या तुलसी स्तवन

तुलसी स्तुति या तुलसी स्तवन १

श्रीभगवानुवाच ।।

वृन्दारूपाश्च वृक्षाश्च यदैकत्र भवन्ति च ।।

विदुर्बुधास्तेन वृन्दां मत्प्रियां तां भजाम्यहम्।।१।।

श्री भगवान बोले- जब वृन्दा रूप वृक्ष तथा दूसरे वृक्ष एकत्र होते हैं, तब वृक्ष समुदाय अथवा वन को बुधजन वृन्दाकहते हैं। ऐसी वृन्दा नाम से प्रसिद्ध अपनी प्रिया तुलसी की मैं उपासना करता हूँ।

पुरा बभूव या देवी ह्यादौ वृन्दावने वने ।।

तेन वृन्दावनी ख्याता तां सौभाग्यां भजाम्यहम्।।२ ।।

जो देवी प्राचीन काल में वृन्दावन में प्रकट हुई थी, अतएव जिसे वृन्दावनीकहते हैं, उस सौभाग्यवती देवी की मैं उपासना करता हूँ।

असंख्येषु च विश्वेषु पूजिता या निरन्तरम् ।।

तेन विश्वपूजिताख्यां जगत्पूज्यां भजाम्यहम् ।।३ ।।

जो असंख्य वृक्षों में निरन्तर पूजा प्राप्त करती है, अतः जिसका नाम विश्वपूजितापड़ा है, उस जगत्पूज्या देवी की मैं उपासना करता हूँ।

असंख्यानि च विश्वानि पवित्राणि यया सदा ।।

तां विश्वपावनीं देवीं विरहेण स्मराम्यहम् ।।४ ।।

देवि! जिसने सदा अनन्त विश्वों को पवित्र किया है, उस विश्वपावनीदेवी का मैं विरह से आतुर होकर स्मरण करता हूँ।

देवा न तुष्टाः पुष्पाणां समूहेन यया विना ।।

तां पुष्पसारां शुद्धां च द्रष्टुमिच्छामि शोकतः।।५ ।।

जिसके बिना अन्य पुष्प-समूहों के अर्पण करने पर भी देवता प्रसन्न नहीं होते, ऐसी पुष्पसारा’-पुष्पों में सारभूता शुद्धस्वरूपिणी तुलसी देवी का मैं शोक से व्याकुल होकर दर्शन करना चाहता हूँ।

विश्वे यत्प्राप्तिमात्रेण भक्त्याऽऽनन्दो भवेद्ध्रुवम्।।

नन्दिनी तेन विख्याता सा प्रीता भविता हि मे।।६ ।।

संसार में जिसकी प्राप्तिमात्र से भक्त परम आनन्दित हो जाता है, इसलिये नन्दिनीनाम से जिसकी प्रसिद्धि है, वह भगवती तुलसी अब मुझ पर प्रसन्न हो जाये।

यस्या देव्या स्तुला नास्ति विश्वेषु निखिलेषु च ।।

तुलसी तेन विख्याता तां यामि शरणं प्रिये ।। ७ ।।

जिस देवी की अखिल विश्व में कहीं तुलना नहीं है, अतएवं जो तुलसीकहलाती है, उस अपनी प्रिया की मैं शरण ग्रहण करता हूँ।

कृष्णजीवनरूपा या शश्वत्प्रियतमा सती ।।

तेन कृष्णजीवनीति मम रक्षतु जीवनम् ।। ८  ।।

वह साध्वी तुलसी वृन्दारूप से भगवान श्रीकृष्ण की जीवनस्वरूपा है और उनकी सदा प्रियतमा होने से कृष्णजीवनीनाम से विख्यात है। वह देवी तुलसी मेरे जीवन की रक्षा करे।

तुलसीस्तुतिः २

तुलसि श्रीसखि शुभे पापहारिणि पुण्यदे ।

नमस्ते नारदनुते नारायणमनःप्रिये ॥ १॥

मनः प्रसादजननि सुखसौभाग्यदायिनि ।

आधिव्याधिहरे देवि तुलसि त्वां नमाम्यहम् ॥ २॥

यन्मूले सर्वतीर्थानि यन्मध्ये सर्वदेवताः ।

यदग्रे सर्व वेदाश्च तुलसि त्वां नमाम्यहम् ॥ ३॥

अमृतां सर्वकल्याणीं शोकसन्तापनाशिनीम् ।

आधिव्याधिहरीं नॄणां तुलसि त्वां नम्राम्यहम् ॥ ४॥

देवैस्त्चं निर्मिता पूर्वं अर्चितासि मुनीश्वरैः ।

नमो नमस्ते तुलसि पापं हर हरिप्रिये ॥ ५॥

सौभाग्यं सन्ततिं देवि धनं धान्यं च सर्वदा ।

आरोग्यं शोकशमनं कुरु मे माधवप्रिये ॥ ६॥

तुलसी पातु मां नित्यं सर्वापद्भयोऽपि सर्वदा ।

कीर्तिताऽपि स्मृता वाऽपि पवित्रयति मानवम् ॥ ७॥

या दृष्टा निखिलाघसङ्घशमनी स्पृष्टा वपुःपावनी

रोगाणामभिवन्दिता निरसनी सिक्ताऽन्तकत्रासिनी ।

प्रत्यासत्तिविधायिनी भगवतः कृष्णस्य संरोपिता

न्यस्ता तच्चरणे विमुक्तिफलदा तस्यै तुलस्यै नमः ॥ ८॥

इति तुलसीस्तुतिः समाप्ता ।

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