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कर्मकाण्ड

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यमाष्टक

यमाष्टक

सती सावित्री ने भक्ति से अत्यन्त नम्र हो वेदोक्त स्तुति का पाठ करके धर्मराज की स्तुति की जिसे यमाष्टक या यमस्तोत्र कहा जाता है। इस यमाष्टक का नित्य पूजन में भक्तिमय पाठ करने से मनुष्य महान संकट से छूटकर परमसौभाग्य प्राप्त करता है तथा यमपाश से मुक्त होता है।

यमाष्टकं या यमस्तोत्रं

यमाष्टकं या यमस्तोत्रं

सावित्र्युवाच ।।

तपसा धर्ममाराध्य पुष्करे भास्करः पुरा ।।

धर्मांशं यं सुतं प्राप धर्मराजं नमाम्यहम् ।। १ ।।

समता सर्वभूतेषु यस्य सर्वस्य साक्षिणः ।।

अतो यन्नाम शमनमिति तं प्रणमाम्यहम् ।। २ ।।

येनान्तश्च कृतो विश्वे सर्वेषां जीविनां परम् ।।

कर्मानुरूपकालेन तं कृतान्तं नमाम्यहम् ।। ३ ।।

बिभर्ति दण्डं दण्ड्याय पापिनां शुद्धिहेतवे। ।।

नमामि तं दण्डधरं यः शास्ता सर्वकर्मणाम् ।। ४ ।।

विश्वे यः कलयत्येव सर्वायुश्चापि सन्ततम् ।।

अतीव दुर्निवार्य्यञ्च तं कालं प्रणमाम्यहम् ।। ५ ।।

तपस्वी वैष्णवो धर्म्मी संयमी विजितेन्द्रियः ।।

जीविनां कर्म्मफलदं तं यमं प्रणमाम्यहम् ।। ६ ।।

स्वात्मारामञ्च सर्वज्ञो मित्रं पुण्यकृतां भवेत् ।।

पापिनां क्लेशदो यश्च पुण्यं मित्रं नमाम्यहम् ।। ७ ।।

यज्जन्म ब्रह्मणो वंशे ज्वलन्तं ब्रह्मतेजसा।।

यो ध्यायति परं ब्रह्म ब्रह्मवंशं नमाम्यहम् ।। ८ ।।

यमाष्टक फलश्रुति

इदं यमाष्टकं नित्यं प्रातरुत्थाय यः पठेत् ।।

यमात्तस्य भयं नास्ति सर्वपापात्प्रमुच्यते ।। ९ ।।

महापापी यदि पठेन्नित्यं भक्त्या च नारद ।।

यमः करोति तं शुद्धं कायव्यूहेन निश्चितम्।।१० ।।

इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे द्वितीये प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे सावित्रीकृतयमस्तोत्रं नामाष्टाविंशोऽध्यायः ।।२८।।

यमाष्टक भावार्थ सहित

सावित्र्युवाच ।।

तपसा धर्ममाराध्य पुष्करे भास्करः पुरा ।।

धर्मांशं यं सुतं प्राप धर्मराजं नमाम्यहम् ।। १ ।।

सावित्री ने कहा- प्राचीनकाल की बात है, महाभाग सूर्य ने पुष्कर में तपस्या के द्वारा धर्म की आराधना की। तब धर्म के अंशभूत जिन्हें पुत्ररूप में प्राप्त किया, उन भगवान् धर्मराज को मैं प्रमाण करती हूँ।

समता सर्वभूतेषु यस्य सर्वस्य साक्षिणः ।।

अतो यन्नाम शमनमिति तं प्रणमाम्यहम् ।। २ ।।

जो सबके साक्षी हैं, जिनकी सम्पूर्ण भूतों में समता है, अतएव जिनका नाम शमन है, उन भगवान् शमन को मैं प्रणाम करती हूँ।

येनान्तश्च कृतो विश्वे सर्वेषां जीविनां परम् ।।

कर्मानुरूपकालेन तं कृतान्तं नमाम्यहम् ।। ३ ।।

जो कर्मानुरूप काल के सहयोग से विश्व के सम्पूर्ण प्राणियों का अन्त करते हैं, उन भगवान् कृतान्त को मैं प्रणाम करती हूँ।

बिभर्ति दण्डं दण्ड्याय पापिनां शुद्धिहेतवे ।।

नमामि तं दण्डधरं यः शास्ता सर्वकर्मणाम् ।। ४ ।।

जो पापीजनों को शुद्ध करने के निमित्त दण्डनीय के लिये ही हाथ में दण्ड धारण करते हैं तथा जो समस्त कर्मों के उपदेशक हैं, उन भगवान् दण्डधर को मेरा प्रणाम है।

विश्वे यः कलयत्येव सर्वायुश्चापि सन्ततम् ।।

अतीव दुर्निवार्य्यञ्च तं कालं प्रणमाम्यहम् ।। ५ ।।

जो विश्व के सम्पूर्ण प्राणियों का तथा उनकी समूची आयु का निरन्तर परिगणन करते रहते हैं, जिनकी गति को रोक देना अत्यन्त कठिन है, उन भगवान् काल को मैं प्रणाम करती हूँ।

तपस्वी वैष्णवो धर्म्मी संयमी विजितेन्द्रियः ।।

जीविनां कर्म्मफलदं तं यमं प्रणमाम्यहम् ।। ६ ।।

जो तपस्वी, वैष्णव, धर्मात्मा, देने को उद्यत हैं, उन भगवान् यम को मैं प्रणाम करती हूँ।

स्वात्मारामञ्च सर्वज्ञो मित्रं पुण्यकृतां भवेत् ।।

पापिनां क्लेशदो यश्च पुण्यं मित्रं नमाम्यहम् ।। ७ ।।

जो अपनी आत्मा में रमण करने वाले, सर्वज्ञ, पुण्यात्मा पुरुषों के मित्र तथा पापियों के लिये कष्टप्रद हैं, उन 'पुण्यमित्र' नाम से प्रसिद्ध भगवान् धर्मराज को मैं प्रणाम करती हूँ।

यज्जन्म ब्रह्मणो वंशे ज्वलन्तं ब्रह्मतेजसा।।

यो ध्यायति परं ब्रह्म ब्रह्मवंशं नमाम्यहम् ।। ८ ।।

जिनका जन्म ब्रह्माजी के वंश में हुआ है तथा जो ब्रह्मतेज से सदा प्रज्वलित रहते हैं एवं जिनके द्वारा परब्रह्म का सतत ध्यान होता रहता है, उन ब्रह्मवंशी भगवान् धर्मराज को मेरा प्रणाम है।

यमाष्टक फलश्रुति

इदं यमाष्टकं नित्यं प्रातरुत्थाय यः पठेत् ।।

यमात्तस्य भयं नास्ति सर्वपापात्प्रमुच्यते ।। ९ ।।

जो मनुष्य प्रात: उठकर निरन्तर इस 'यमाष्टक' का पाठ करता है, उसे यमराज से भय नहीं होता और उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं।

महापापी यदि पठेन्नित्यं भक्त्या च नारद ।।

यमः करोति तं शुद्धं कायव्यूहेन निश्चितम्।।१० ।।

यदि महान् पापी व्यक्ति भी भक्ति से सम्पन्न होकर निरन्तर इसका पाठ करता है तो यमराज अपने कायव्यूह से निश्चित ही उसकी शुद्धि कर देते हैं।

इस प्रकार श्रीब्रह्मवैवर्त्त महापुराण द्वितीय प्रकृतिखण्ड से  सावित्रीकृत यमाष्टक या यमस्तोत्रं समाप्त हुआ।।

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