लक्ष्मी स्तोत्र
ब्रह्मवैवर्तपुराण के खण्ड २
(प्रकृतिखण्ड) अध्याय ३९ के श्लोक ५२ से ७२ तक इन्द्रकृत लक्ष्मी स्तोत्र वर्णित
है। यह स्तोत्र महान पवित्र है। इसका त्रिकाल पाठ करने वाला बड़भागी पुरुष कुबेर
के समान राजाधिराज हो सकता है। पाँच लाख जप करने पर मनुष्यों के लिये यह स्तोत्र
सिद्ध होता है। यदि इस सिद्ध स्तोत्र का कोई निरन्तर एक महीने पाठ करे तो वह महान
सुखी एवं राजेन्द्र हो जाएगा– इसमें कोई
संशय नहीं है। यहाँ मूलपाठ के साथ ही इसका हिन्दी भावार्थ भी दिया जा रहा है।
इन्द्रकृतं लक्ष्मीस्तोत्रं
इन्द्र उवाच ।।
ॐ नमः कमलवासिन्यै नारायण्यै नमो
नमः ।।
कृष्णप्रियायै सारायै पद्मायै च नमो
नमः ।। ५२ ।।
पद्मपत्रेक्षणायै च पद्मास्यायै नमो
नमः ।।
पद्मासनायै पद्मिन्यै वैष्णव्यै च
नमो नमः ।। ५३ ।।
सर्वसम्पत्स्वरूपायै सर्वदात्र्यै
नमो नमः ।।
सुखदायै मोक्षदायै सिद्धिदायै नमो
नमः ।। ५४ ।।
हरिभक्तिप्रदात्र्यै च हर्षदात्र्यै
नमो नमः ।।
कृष्णवक्षस्थितायै च कृष्णेशायै नमो
नमः ।। ५५ ।।
कृष्णशोभास्वरू पायै रत्नाढ्यायै
नमो नमः ।।
सम्पत्त्यधिष्ठातृदेव्यै महादेव्यै
नमो नमः ।। ५६ ।।
सस्याधिष्ठातृदेव्यै च
सस्यलक्ष्म्यै नमो नमः ।।
नमो बुद्धिस्वरूपायै बुद्धिदायै नमो
नमः ।। ५७ ।।
वैकुण्ठे च महालक्ष्मीर्लक्ष्मीः
क्षीरोदसागरे ।।
स्वर्गलक्ष्मीरिन्द्रगेहे
राजलक्ष्मीर्नृपालये ।। ५८ ।।
गृहलक्ष्मीश्च गृहिणां गेहे च
गृहदेवता ।।
सुरभिस्सा गवां माता दक्षिणा
यज्ञकामिनी ।। ५९ ।।
अदितिर्देवमाता त्वं कमला कमलालये
।।
स्वाहा त्वं च हविर्दाने कव्यदाने
स्वधा स्मृता ।। ६० ।।
त्वं हि विष्णुस्वरूपा च सर्वाधारा
वसुन्धरा ।।
शुद्धसत्त्वस्वरूपा त्वं
नारायणपरायणा।।६१।।
क्रोधहिंसावर्जिता च वरदा च
शुभानना।।
परमार्थप्रदा त्वं च हरिदास्यप्रदा
परा।।६२।।
यया विना जगत्सर्वं भस्मीभूतमसारकम्
।।
जीवन्मृतं च विश्वं च शवतुल्यं यया
विना ।। ६३ ।।
सर्वेषां च परा त्वं हि
सर्वबान्धवरूपिणी।।
यया विना न संभाष्यो
बान्धवैर्बान्धवः सदा।।६४।।
त्वया हीनो बन्धुहीनस्त्वया युक्तः
सबान्धवः।।
धर्मार्थकाममोक्षाणां त्वं च कारणरूपिणी।।६५।।
स्तनन्धयानां त्वं माता शिशूनां
शैशवे यथा।।
तथा त्वं सर्वदा माता सर्वेषां
सर्वविश्वतः ।।६६।।
त्यक्तस्तनो मातृहीनः स चेज्जीवति
दैवतः ।।
त्वया हीनो जनः कोऽपि न जीवत्येव
निश्चितम् ।। ६७ ।।
सुप्रसन्नस्वरूपा त्वं मे प्रसन्ना
भवाम्बिके ।।
वैरिग्रहस्तद्विषयं देहि मह्यं
सनातनि ।। ६८ ।।
वयं यावत्त्वया हीना बन्धुहीनाश्च
भिक्षुकाः ।।
सर्वसंपद्विहीनाश्च तावदेव
हरिप्रिये ।।६९।।
राज्यं देहि श्रियं देहि बलं देहि
सुरेश्वरि ।।
कीर्तिं देहि धनं देहि
पुत्रान्मह्यं च देहि वै ।।७०।।
कामं देहि मतिं देहि भोगान्देहि
हरिप्रिये ।।
ज्ञानं देहि च धर्मं च
सर्वसौभाग्यमीप्सितम् ।।७१।।
सर्वाधिकारमेवं वै प्रभावं च
प्रतापकम् ।।
जयं पराक्रमं युद्धे
परमैश्वर्य्यमेव च।।७२।।
।।इति
श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराणे इन्द्रकृतं लक्ष्मीस्तोत्रं सम्पूर्णम्।।
इन्द्रकृत लक्ष्मीस्तोत्र हिन्दी भावार्थ
इन्द्र उवाच ।।
ॐ नमः कमलवासिन्यै नारायण्यै नमो
नमः ।।
कृष्णप्रियायै सारायै पद्मायै च नमो
नमः ।।
देवराज इन्द्र बोले–
भगवती कमलवासिनी को नमस्कार है। देवी नारायणी को बार-बार नमस्कार
है। संसार की सारभूता कृष्णप्रिया भगवती पद्मा को अनेकशः नमस्कार है।
पद्मपत्रेक्षणायै च पद्मास्यायै नमो
नमः ।।
पद्मासनायै पद्मिन्यै वैष्णव्यै च
नमो नमः ।।
कमलरत्न के समान नेत्र वाली कमलमुखी
भगवती महालक्ष्मी को नमस्कार है। पद्मासना, पद्मिनी
एवं वैष्णवी नाम से प्रसिद्ध भगवती महालक्ष्मी को बार-बार नमस्कार है।
सर्वसम्पत्स्वरूपायै सर्वदात्र्यै
नमो नमः ।।
सुखदायै मोक्षदायै सिद्धिदायै नमो
नमः ।।
सर्वसम्पत्स्वरूपिणी सर्वदात्री
देवी को नमस्कार है। सुखदायिनी, मोक्षदायिनी
और सिद्धिदायिनी देवी को बारंबार नमस्कार है।
हरिभक्तिप्रदात्र्यै च हर्षदात्र्यै
नमो नमः ।।
कृष्णवक्षस्थितायै च कृष्णेशायै नमो
नमः ।।
भगवान श्रीहरि में भक्ति उत्पन्न
करने वाली तथा हर्ष प्रदान करने में परम कुशल देवी को बार-बार नमस्कार है। भगवान श्रीकृष्ण के वक्षःस्थल पर विराजमान एवं उनकी हृदेश्वरी देवी को बारंबार प्रणाम
है।
कृष्णशोभास्वरू पायै रत्नाढ्यायै
नमो नमः ।।
सम्पत्त्यधिष्ठातृदेव्यै महादेव्यै
नमो नमः ।।
रत्नपद्मे! शोभने! तुम श्रीकृष्ण की
शोभास्वरूपा हो, सम्पूर्ण सम्पत्ति की
अधिष्ठात्री देवी एवं महादेवी हो; तुम्हें मैं बार-बार
प्रणाम करता हूँ।
सस्याधिष्ठातृदेव्यै च
सस्यलक्ष्म्यै नमो नमः ।।
नमो बुद्धिस्वरूपायै बुद्धिदायै नमो
नमः ।।
शस्य की अधिष्ठात्री देवी एवं
शस्यस्वरूपा हो, तुम्हें बारंबार नमस्कार है।
बुद्धिस्वरूपा एवं बुद्धिप्रदा भगवती के लिये अनेकशः प्रणाम है।
वैकुण्ठे च महालक्ष्मीर्लक्ष्मीः
क्षीरोदसागरे ।।
स्वर्गलक्ष्मीरिन्द्रगेहे राजलक्ष्मीर्नृपालये
।।
गृहलक्ष्मीश्च गृहिणां गेहे च
गृहदेवता ।।
सुरभिस्सा गवां माता दक्षिणा
यज्ञकामिनी ।।
देवि! तुम वैकुण्ठ में महालक्ष्मी,
क्षीरसमुद्र में लक्ष्मी, राजाओं के भवन में
राजलक्ष्मी, इन्द्र के स्वर्ग में स्वर्गलक्ष्मी, गृहस्थों के घर में गृहलक्ष्मी, प्रत्येक घर में गृह
देवता, गोमाता सुरभि और यज्ञ की पत्नी दक्षिणा के रूप में
विराजमान रहती हो।
अदितिर्देवमाता त्वं कमला कमलालये
।।
स्वाहा त्वं च हविर्दाने कव्यदाने
स्वधा स्मृता ।।
तुम देवताओं की माता अदिति हो।
कमलालयवासिनी कमला की तुम्हीं हो। हव्य प्रदान करने समय ‘स्वाहा’ और कव्य प्रदान करने के अवसर पर ‘स्वधा’ का जो उच्चारण होता है, वह तुम्हारा ही नाम है।
त्वं हि विष्णुस्वरूपा च सर्वाधारा
वसुन्धरा ।।
शुद्धसत्त्वस्वरूपा त्वं
नारायणपरायणा।।
सबको धारण करने वाली विष्णुस्वरूपा
पृथ्वी तुम्हीं हो। भगवान नारायण की उपासना में सदा तत्पर रहने वाली देवि! तुम
शुद्ध सत्त्वस्वरूपा हो।
क्रोधहिंसावर्जिता च वरदा च
शुभानना।।
परमार्थप्रदा त्वं च हरिदास्यप्रदा
परा।।
तुममें क्रोध और हिंसा के लिये
किञ्चिन्मात्र भी स्थान नहीं है। तुम्हें वरदा, शारदा,
शुभा, परमार्थदा एवं हरिहास्यप्रदा कहते हैं।
यया विना जगत्सर्वं भस्मीभूतमसारकम्
।।
जीवन्मृतं च विश्वं च शवतुल्यं यया
विना ।।
तुम्हारे बिना सारा जगत भस्मीभूत
एवं निःसार है। जीते-जी ही मृतक है, शव
के तुल्य है।
सर्वेषां च परा त्वं हि
सर्वबान्धवरूपिणी।।
यया विना न संभाष्यो बान्धवैर्बान्धवः
सदा।।
तुम सम्पूर्ण प्राणियों की श्रेष्ठ
माता हो। सबके बान्धवरूप में तुम्हारा ही पधारना हुआ है। तुम्हारे बिना भाई भी
भाई-बन्धुओं के लिये बात करने योग्य भी नहीं रहता है।
त्वया हीनो बन्धुहीनस्त्वया युक्तः
सबान्धवः।।
धर्मार्थकाममोक्षाणां त्वं च
कारणरूपिणी।।
जो तुमसे हीन है,
वह बन्धुजनों से हीन है तथा जो तुमसे युक्त है, वह बन्धुजनों से भी युक्त है। तुम्हारी ही कृपा से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्राप्त होते हैं।
स्तनन्धयानां त्वं माता शिशूनां
शैशवे यथा।।
तथा त्वं सर्वदा माता सर्वेषां
सर्वविश्वतः ।।
जिस प्रकार बचपन में दुधमुँहे
बच्चों के लिये माता है, वैसे ही तुम अखिल
जगत की जननी होकर सबकी सभी अभिलाषाएँ पूर्ण किया करती हो।
त्यक्तस्तनो मातृहीनः स चेज्जीवति
दैवतः ।।
त्वया हीनो जनः कोऽपि न जीवत्येव
निश्चितम् ।।
स्तनपायी बालक माता के न रहने पर भाग्यवश
जी भी सकता है; परंतु तुम्हारे बिना कोई भी
नहीं जी सकता। यह बिलकुल निश्चित है।
सुप्रसन्नस्वरूपा त्वं मे प्रसन्ना
भवाम्बिके ।।
वैरिग्रहस्तद्विषयं देहि मह्यं
सनातनि ।।
अम्बिके! सदा प्रसन्न रहना तुम्हारा
स्वाभाविक गुण है। अतः मुझ पर प्रसन्न हो जाओ। सनातनी! मेरा राज्य शत्रुओं के हाथ
में चला गया है, तुम्हारी कृपा से वह मुझे पुनः
प्राप्त हो जाए।
वयं यावत्त्वया हीना बन्धुहीनाश्च
भिक्षुकाः ।।
सर्वसंपद्विहीनाश्च तावदेव
हरिप्रिये ।।
हरिप्रिये! मुझे जब तक तुम्हारा
दर्शन नहीं मिला था, तभी तक मैं
बन्धुहीन, भिक्षुक तथा सम्पूर्ण सम्पत्तियों से शून्य था।
राज्यं देहि श्रियं देहि बलं देहि
सुरेश्वरि ।।
कीर्तिं देहि धनं देहि
पुत्रान्मह्यं च देहि वै ।।
सुरेश्वरि! अब तो मुझे राज्य दो,
श्री दो, बल दो, कीर्ति
दो, धन दो और यश भी प्रदान करो।
कामं देहि मतिं देहि भोगान्देहि
हरिप्रिये ।।
ज्ञानं देहि च धर्मं च
सर्वसौभाग्यमीप्सितम् ।।
हरिप्रिये! मनोवांछित वस्तुएँ दो,
बुद्धि दो, भोग दो, ज्ञान
दो, धर्म दो तथा सम्पूर्ण अभिलाषित सौभाग्य दो।
सर्वाधिकारमेवं वै प्रभावं च
प्रतापकम् ।।
जयं पराक्रमं युद्धे
परमैश्वर्य्यमेव च।।
इसके सिवा मुझे प्रभाव,
प्रताप, सम्पूर्ण अधिकार, युद्ध में विजय, पराक्रम तथा परम ऐश्वर्य प्राप्ति
भी कराओ।
इस प्रकार श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण द्वितीय प्रकृतिखण्ड अध्याय ३९अंतर्गत् इन्द्रकृत लक्ष्मीस्तोत्र पूर्ण हुआ ।।
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