स्वाहा स्तोत्र
अग्निनारायण की दो पत्निया है
स्वाहा और स्वधा देवी। स्वाहा स्तोत्र में स्वाहा देवी के सोलह नाम है, जो बहुत
चमत्कारिक है। जिनके स्मरण से सबकुछ सफल हो जाता है। संतान प्राप्ति के लिए यह
रामबाण है इसका पाठ किसी भी दिन किया जा सकता है।
स्वाहा पुराणोक्त प्राचीन उपाख्यान
सृष्टि के प्रारम्भिक समय की बात है–
देवता भोजन की व्यवस्था के लिये ब्रह्मलोक में ब्रह्मा जी की
मनोहारिणी सभा में गये। वहाँ जाकर उन्होंने अपने आहार के लिये ब्रह्मा जी से
प्रार्थना की। उनकी बात सुनकर ब्रह्मा जी ने उन्हें भोजन देने की प्रतिज्ञा करके
श्रीहरि के चरणों की आराधना की। तब भगवान श्रीहरि अपनी कला से यज्ञरूप में प्रकट
हुए। उस यज्ञ में जिस-जिस हविष्य की आहुति दी गयी, वह सब
ब्रह्मा जी ने देवताओं को दिया; किंतु ब्राह्मण और क्षत्रिय
आदि वर्ण भक्तिपूर्वक जो हवन करते थे, वह देवताओं को उपलब्ध
नहीं होता था। इसी से सब उदास होकर ब्रह्मसभा में गये थे और वहाँ जाकर उन्होंने
आहार न मिलने की बात बतलायी। ब्रह्मा जी ने देवताओं की प्रार्थना सुनकर ध्यान के
द्वारा भगवान श्रीकृष्ण की शरण ली। फिर भगवान की आज्ञा से उन्होंने ध्यान के
द्वारा ही मूलप्रकृति की पूजा की।
तब सर्वशक्तिस्वरूपिणी भगवती
प्रकृति अपनी कला द्वारा अग्नि की दाहिका शक्ति ‘स्वाहा’ के रूप में प्रकट हुईं। उन परम सुन्दरी देवी
के विग्रह की सुन्दर श्याम कान्ति थी। वे मनोहारिणी देवी मुस्करा रही थीं। भक्तों
पर अनुग्रह करने के लिये व्यग्रचित्तवाली उन भगवती स्वाहा ने ब्रह्मा जी के सम्मुख
उपस्थित होकर उनसे कहा– ‘पद्मयोने! तुम वर माँगो!’ तदनन्तर ब्रह्मा जी ने भगवती का वचन सुनकर सम्भ्रमपूर्वक कहा।
ब्रह्मा जी बोले–
तुम अग्नि की दाहिकाशक्ति तथा उनकी परम सुन्दरी पत्नी होने की कृपा
करो। तुम्हारे बिना अग्नि आहुतियों को भस्म करने में असमर्थ हैं। जो मानव मन्त्र
के अन्त में तुम्हारे नाम का उच्चारण करके देवताओं के लिये हवनीय पदार्थ अर्पण
करें, उनका वह हविष्य देवताओं को सहज ही उपलब्ध हो जाए।
अम्बिके! तुम अग्निदेव की सर्वसम्पत्स्वरूपा एवं श्रीरूपिणी गृहस्वामिनी बनो।
देवता और मनुष्य सदा तुम्हारी पूजा करेंगे। ब्रह्मा जी की बात सुनकर भगवती स्वाहा देवी
उदास हो गयीं। उन्होंने स्वयं ब्रह्मा जी से अपना अभिप्राय इस प्रकार व्यक्त किया।
स्वाहा बोलीं–
ब्रह्मन! मैं दीर्घकाल तक तपस्या करके भगवान श्रीकृष्ण की सेवा का
सौभाग्य प्राप्त करूँगी। उन परब्रह्म भगवान श्रीकृष्ण के अतिरिक्त जो कुछ भी है सब
स्वप्न के समान भ्रममात्र है। तुम जो जगत की सृष्टि करते हो, भगवान शंकर ने जो मृत्यु पर विजय प्राप्त की है, शेषनाग
जो अखिल विश्व को धारण करते हैं, धर्म जो समस्त देहधारियों
के साक्षी हैं, गणेश जी जो सम्पूर्ण देव-समाज में सर्वप्रथम
पूजा प्राप्त करते हैं तथा जगदम्बा प्रकृति देवी जो सर्वपूज्या हुई हैं– यह सब उन भगवान श्रीकृष्ण के कृपा-प्रसाद का ही फल है। भगवान श्रीकृष्ण के
सेवक होने से ही ऋषियों और मुनियों का सर्वत्र समान है। अतः पद्मज! मैं भी एकमात्र
उन्हीं परम प्रभु श्रीकृष्ण के चरण-कमलों का सानुराग चिन्तन करती हूँ।
ब्रह्मा जी से यों कहकर वे कमलमुखी
देवी स्वाहा निरामय भगवान श्रीकृष्ण के उद्देश्य से तपस्या करने के लिये चल दीं।
फिर एक पैर से खड़ी होकर उन्होंने श्रीकृष्ण का ध्यान करते हुए वर्षों तक तप किया।
तब प्रकृति से परे निर्गुण परब्रह्म श्रीकृष्ण के दर्शन उन्हें प्राप्त हुए। भगवान
के परम कमनीय सौन्दर्य को देखकर सुरूपिणी देवी स्वाहा मूर्च्छित-सी हो गयीं;
क्योंकि वे उन कामेश्वर प्रभु को कान्तभाव से चाहने लगी थीं। चिरकाल
तक तपस्या करने के कारण क्षीण शरीर वाली देवी स्वाहा के अभिप्राय को वे सर्वज्ञ प्रभु
समझ गये। उन्होंने उन्हें उठाकर अपने अंक में बैठा लिया और कहा।
भगवान श्रीकृष्ण बोले–
कान्ते! तुम वाराहकल्प में अपने अंश से मेरी प्रिया बनोगी। तुम्हारा
नाम ‘नाग्नजिती’ होगा। राजा नग्नजित
तुम्हारे पिता होंगे। इस समय तुम दाहिकाशक्ति के रूप में अग्नि की प्रिय पत्नी
बनो। मेरे प्रसाद से तुम मन्त्रों की अंगभूता एवं परम पवित्र होओगी। अग्निदेव
तुम्हें अपनी गृहस्वामिनी बनाकर भक्तिभाव के साथ तुम्हारी पूजा करेंगे। तुम परम
रमणीया देवी के साथ वे सानन्द विहार करेंगे।
देवी स्वाहा से इस प्रकार सम्भाषण
करके उन्हें आश्वासन दे भगवान श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गये। फिर ब्रह्मा जी की
आज्ञा के अनुसार डरते हुए अग्निदेव वहाँ आये और सामवेद में कही हुई विधि से
जगज्जननी भगवती का ध्यान करके उन्होंने देवी की भलीभाँति पूजा और स्तुति की।
तत्पश्चात् अग्निदेव ने मन्त्रोच्चारणपूर्वक स्वाहा देवी का पाणिग्रहण किया।
देवताओं के वर्ष से सौ वर्ष तक वे उसके साथ आनन्द करते रहे। परम सुखप्रद निर्जन
देश में रहते समय देवी स्वाहा अग्निदेव के तेज से गर्भवती हो गयीं। बारह दिव्य
वर्षों तक वे उस गर्भ को धारण किये रहीं, तत्पश्चात्
दक्षिणाग्नि, गार्हपत्याग्नि और आहवनीयाग्नि के क्रम से उनके
मन को मुग्ध करने वाले परम सुन्दर तीन पुत्र उनसे उत्पन्न हुए।
तब ऋषि,
मुनि, ब्राह्मण तथा क्षत्रिय आदि सभी श्रेष्ठ
वर्ण ‘स्वाहान्त’ मन्त्रों का उच्चारण
करके अग्नि में हवन करने लगे और देवताओं को वह आहाररूप से प्राप्त होने लगा। जो
पुरुष स्वाहा युक्त प्रशस्त मन्त्र का उच्चारण करता है, उसे
केवल मन्त्र पढ़ने मात्र से ही सिद्धि प्राप्त हो जाती है। जिस प्रकार विषहीन सर्प,
वेदहीन ब्राह्मण, पति सेवा विहीन स्त्री,
विद्याहीन पुरुष तथा फल एवं शाखाहीन वृक्ष निन्दा के पात्र हैं,
वैसे ही स्वाहाहीन मन्त्र भी निन्द्य है। ऐसे मन्त्र से किया हुआ
हवन शीघ्र फल नहीं देता। फिर तो सभी ब्राह्मण संतुष्ट हो गये। देवताओं को आहुतियाँ
मिलने लगीं। स्वाहान्त मन्त्र से ही उनके सारे कर्म सफल होने लगे। भगवती स्वाहा से
सम्बन्ध रखने वाला इस प्रकार यह सारा श्रेष्ठ उपाख्यान का यह सारभूत प्रसंग सुख और
मोक्ष प्रदान करने वाला है।
स्वाहा स्तोत्र की पाठ की विधि
फल प्राप्त करने के लिये सम्पूर्ण
यज्ञों के आरम्भ में शालग्राम की प्रतिमा में अथवा कलश पर यत्नपूर्वक भगवती स्वाहा
का पूजन करके यज्ञ आरम्भ करे। ध्यान इस प्रकार करना चाहिये–
स्वाहां मन्त्राङ्गभूतां च
मन्त्रसिद्धिस्वरूपिणीम् ।
सिद्धां च सिद्धिदां नृणां कर्मणां
फलदां भजे ।।
अर्थ-‘देवी स्वाहा मन्त्रों की अंगभूता होने से परम पवित्र हैं। ये मन्त्र
सिद्धिस्वरूपिणी हैं। सिद्ध एवं सिद्धिदायिनी हैं तथा मनुष्यों को उनके सम्पूर्ण
कर्मों का फल देने वाली हैं। मैं उनका भजन करता हूँ।’
इस प्रकार ध्यान करके मूलमन्त्र से
पाद्य आदि अर्पण करने के पश्चात् स्तोत्र का पाठ करने से मनुष्य को सम्पूर्ण
सिद्धियाँ सुलभ हो जाती हैं। मूलमन्त्र यह है– ‘ऊँ
ह्रीं श्रीं वह्निजायायै देव्यै स्वाहा’। इस मन्त्र से
भक्तिपूर्वक जो भगवती स्वाहा की पूजा करता है, उसके सारे
मनोरथ अवश्य पूर्ण हो जाते हैं।
स्वाहा स्तोत्रम्
वह्निरुवाच ।।
स्वाहा ऽऽद्या प्रकृतेरंशा
मन्त्रतन्त्राङ्गरूपिणी।
मन्त्राणां फलदात्री च धात्री च
जगतां सती ।।
सिद्धिस्वरूपा सिद्धा च सिद्धिदा
सर्वदा नृणाम् ।
हुताशदाहिकाशक्तिस्तत्प्राणाधिकरूपिणी
।।
संसारसाररूपा च घोरसंसारतारिणी ।
देवजीवनरूपा च देवपोषणकारिणी ।।
षोडशैतानि नामानि यः
पठेद्भक्तिसंयुतः ।
सर्वसिद्धिर्भवेत्तस्य चेह लोके
परत्र च ।।
नाङ्गहीनो भवेत्तस्य सर्वकर्मसु
शोभनम् ।
अपुत्रो लभते पुत्रमभार्य्यो लभते
प्रियाम् ।।
अर्थ- अग्निदेव बोले –
स्वाहा, आद्या, प्रकृत्यंशा,
मन्त्रतन्त्रांगरूपिणी, मन्त्रफलदात्री,
जगद्धात्री, सती, सिद्धिस्वरूपा,
सिद्धा, सदा नृणां सिद्धिदा, हुताशदाहिकाशक्ति, हुताशप्राणाधिकरूपिणी, संसारसाररूपा, घोरसंसारतारिणी, देवजीवनरूपा और देवेपोषणकारिणी– ये सोलह नाम भगवती
स्वाहा के हैं। जो भक्तिपूर्वक इनका पाठ करता है, उसे इस लोक
और परलोक में भी सम्पूर्ण सिद्धियों की प्राप्ति होती है। उसका कोई भी कर्म अंगहीन
नहीं होता। उसे सब कर्मों में शुभ फल की प्राप्ति होती है। इन सोलह नामों के
प्रभाव से पुत्रहीन को पुत्र तथा भार्याहीन को प्रिय भार्या प्राप्त हो जाती है।
इस प्रकार स्वाहा स्तोत्र समाप्त हुआ।।
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