गीत गोविन्द
गीत गोविन्द जयदेव की काव्य रचना है। गीतगोविन्द में श्रीकृष्ण की गोपिकाओं के साथ रासलीला, राधाविषाद वर्णन, कृष्ण के लिए व्याकुलता, उपालम्भ वचन, कृष्ण की राधा के लिए उत्कंठा, राधा की सखी द्वारा राधा के विरह संताप का वर्णन है। ‘गीतगोविन्द’ काव्य में बारह सर्ग हैं, जिनका चौबीस प्रबन्धों (खण्डों) में विभाजन हुआ है। इन प्रबन्धों का उपविभाजन पदों अथवा गीतों में हुआ है। प्रत्येक पद अथवा गीत में आठ पद्य हैं। गीतों के वक्ता कृष्ण, राधा अथवा राधा की सखी हैं। अत्यन्त नैराश्य और निरवधि-वियोग को छोड़कर भारतीय प्रेम के शेष सभी रूपों - अभिलाषा, ईर्ष्या, प्रत्याशा, निराशा, कोप, मान, पुनर्मिलन तथा हर्षोल्लास आदि—का बड़ी तन्मयता और कुशलता के साथ वर्णन किया गया है। प्रेम के इन सभी रूपों का वर्णन अत्यन्त रोचक, सरस और सजीव होने के अतिरिक्त इतना सुन्दर है कि ऐसा प्रतीत होता है, मानो कवि शास्त्र, अर्थात् चिन्तन (कामशास्त्र) को भावना का रूप अथवा अमूर्त को मूर्त रूप देकर उसे कविता में परिणीत कर रहा है।
श्रीजयदेव गोस्वामीकृत श्रीगीतगोविन्द
किसी भी ग्रन्थ को पढ़कर उसका
शब्दार्थ ग्रहण करना एक बात है और गम्भीर भावार्थ को समझकर भलीभाँति परिचित होना
एक और बात है। शब्दार्थ समझना अधिकतर सहज होने पर भी गम्भीर भावार्थ समझना उतना
सहज नहीं है। जो इस ग्रन्थ का अधिकारी नहीं है, उसके
लिए तो भावार्थ ग्रहण करना नितान्त असम्भव है। इसीलिए सभी प्राचीन ग्रन्थों के
प्रारम्भ में अधिकारी और अनधिकारी की बात बतलायी गयी है। किसी-किसी महानुभाव
ग्रन्थकार ने अनधिकारियों को उन उन ग्रन्थों को पाठ करने में, जिसके लिए वे अनधिकारी हैं, शपथ देकर उनको पढ़ने के
लिए निषेध किया है। इसका उद्देश्य क्या है ? उद्देश्य और कुछ
नहीं, अनधिकारी उन ग्रन्थों को पाठकर सही अर्थ समझने के बदले
दूसरा अर्थ समझ लेंगे और परिणामस्वरूप हित के अहित ही होगा। पूज्यपाद श्रीजयदेव
गोस्वामी ने भी अपने ग्रन्थ के सर्वप्रथम मङ्गलाचरण में ही अधिकार की बात स्पष्ट
कर दी है-
यदि हरिस्मरणे सरसं मनः यदि विलास -
कलासु कुतूहलम् ।
मधुर - कोमल-कान्त पदावल शृणु तदा
जयदेव - सरस्वतीम् ॥
अर्थात् उन्होंने कहा है कि श्रीहरि
की सुखद स्मृति की यदि मन में इच्छा हो अथवा यदि तुम हरि का प्रीतिपूर्वक स्मरण
करना चाहते हो अथवा श्रीहरि के विलास – नैपुण्य को जानने का हृदय में कौतूहल हो,
तो तुम इस ग्रन्थ का पाठ करो, अन्यथा तुम इस
ग्रन्थ का पाठ मत करो। मेरी यह कोमलकान्त पदावली तुम्हारे निकट जितनी भी मधुर और
कोमल हो, तुम अनधिकारी इसका पाठ मत करो। यदि तुम्हारे हृदय में
कौतूहल हो और उनके रासविलास को जानने की इच्छा हो, तो मेरी
कोमलकान्त पदावली तुम्हारे निकट बहुत ही मधुर, कोमल और
अत्यन्त कमनीय विवेचित होगी।
इतना स्पष्ट करने के बाद भी
अनधिकारियों के निकट श्रीजयदेव कवि पार नहीं पा सके। उनके मधुर एवं अलंकृत भाषा के
आकर्षण के कारण वे इस ग्रन्थ का पाठ करते हैं और अन्त में उसका यथार्थ भावार्थ या
मर्म ग्रहण करने में असमर्थ होकर अभद्र की भाँति कविकुल चूड़ामणि श्रीजयदेव को ही
गालीगलौज करते हैं। ऐसा तो होगा ही। वे तो श्रीहरि को नहीं पहचानते,
वे हरि की मधुर स्मृति के निकट भी जाना नहीं चाहते। वे केवल स्वयं को
समझते हैं। वह भी देहेन्द्रियात्मक स्वयं को समझते हैं। वे अपने शरीर और
इन्द्रियों को सुखकर समझकर उसे ही चरम सुख मानते हैं। वैसे काम के किंकर-जन
श्रीजयदेव गोस्वामी द्वारा वर्णित अप्राकृत प्रेम के व्यापार को क्या समझेंगे?
इसलिए परम पूज्यनीय श्रीकृष्णदास कविराज गोस्वामी ने
श्रीचैतन्यचरितामृत में कहा है-
"काम प्रेम दोहाकार विभिन्न
लक्षण ।
लौह आर हेम जैछे स्वरूप - विलक्षण ॥
आत्मेन्द्रिय-प्रीति- इच्छा तारे
बलि 'काम'।
कृष्णेन्द्रिय- प्रीति- इच्छा धरे 'प्रेम' नाम ॥
कामेर तात्पर्य-निज संभोग केवल ।
कृष्णसुख - तात्पर्य - प्रेम महाबल
॥"
तात्पर्य यह है कि लौकिक काम और
अप्राकृत प्रेम-इन दोनों के लक्षण अलग-अलग हैं। लौकिक काम लोहे के समान है तथा
अप्राकृत प्रेम सोने के समान है। अपनी इन्द्रियों के लिए सुखकर स्पृहा को काम कहते
हैं। किन्तु श्रीकृष्णेन्द्रिय-प्रीति को विशुद्ध प्रेम कहते हैं। केवल अपना संभोग
ही काम का तात्पर्य है और श्रीकृष्ण को सुखी बनाना ही महाबलवान प्रेम का उद्देश्य
होता है।
श्रील कविराज गोस्वामी के इस गम्भीर
आशय को कितने लोग समझने में समर्थ हैं? विशेषकर
जो अपने इन्द्रियतर्पण में ही सदा व्यस्त हैं, इसे समझ नहीं
सकते हैं। इसीलिए श्रीराधाकृष्ण के अप्राकृत प्रेम की लीला भी उनके निकट कामवासना के
खेल के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। यदि वे श्रीराधाजी एवं उनकी सखियों के समान
लोकधर्म, वेदधर्म, देहधर्म इत्यादि को
सर्वथा त्यागकर किसी को प्रेम कर पाते, तो वे इन लीलाओं की
तत्त्वकथा से एक दिन अवश्य अवगत हो पाते क्योंकि ऐसा होने पर ही वे समझ सकते कि आत्मसुख
की कामना नहीं रखकर भी निस्वार्थ प्रेम किया जा सकता है।
इसी निःस्वार्थ अप्राकृत प्रेम की
शिक्षा देने के लिए ही वैष्णव कविगण लेखनी को धारण करते हैं। कविकेशरी श्रीजयदेव ने
भी यही किया है; क्योंकि स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण
इस निःस्वार्थ अप्राकृत प्रेम के वशीभूत हो जाते हैं। वे इतने वशीभूत हो जाते हैं
कि जहाँ भी वे ऐसी प्रीति की गन्ध पा लेते हैं, वे उनके
चरणों में गिरकर 'देहि पदपल्लवमुदारं ' कहने के लिए भी प्रस्तुत रहते हैं। श्रीजयदेव कवि की जीवनलीला का अनुशीलन
करने पर यह देखा जाता है श्रीजयदेव गोस्वामी अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड के अधीश्वर
श्रीब्रजेन्द्रनन्दन श्यामसुन्दर के मुख से कैसे यह बात कहलावें । ऐसा सोचकर वे
अत्यन्त अस्थिर और व्याकुल हो उठे। कितनी ही बार ऐसा लिखूँ, लिखूँ,
अभिलाषा करके भी यह चरण (चतुर्थ) किसी प्रकार भी लिखने में समर्थ
नहीं हुए । वे श्रीकृष्ण को स्वयं भगवान् समझते थे। इस ऐश्वर्यभाव के कारण ही वे
ऐसा नहीं लिख सके। किन्तु भक्तवत्सल भगवान्ने स्वयं उनका वेश धारणकर अपने हस्त से
स्वर्णाक्षरों में उस चतुर्थ चरण को "देहि पदपल्लवमुदारं" लिखकर
पूरा कर दिया और साथ ही साथ अपने भक्तवात्सल्य की बात दुंदुभिवाद्य की भाँति
सर्वत्र घोषणा कर दी।
कलिपावनावतार श्रीचैतन्य महाप्रभु
गम्भीरा में बैठकर श्रीस्वरूप दामोदर एवं रामानन्दराय के साथ एकान्त निर्जन
गम्भीरा में जिन कतिपय रसग्रन्थों का रसास्वादन करके आनन्द में विह्वल हो उठते थे,
श्रीजयदेव गोस्वामी का गीतगोविन्द उनमें से अन्यतम एक है। श्रील
कविराज गोस्वामी के मुख से ही हम इस विषय को जानते हैं-
चण्डीदास विद्यापति,
रायेर नाटक गीति कर्णामृत श्रीगीतगोविन्द ।
स्वरूप- रामानन्द-सने,
महाप्रभु रात्रिदिने गाय सुने परम आनन्द ॥
इसमें कुछ ऐसे गम्भीर भाव हैं,
जिनकी हम विशेषरूप से चिन्ता कर सकते हैं। श्रीचैतन्यमहाप्रभु स्वयं
भक्ति का आचरणकर भक्ति की शिक्षा देने के लिए अवतीर्ण हुए हैं। वे ऐसे निर्जन और
गोपनीय गम्भीरा में मात्र दो-एक अपने अन्तरङ्ग भक्तों को लेकर इन सब ग्रन्थों का
अनुशीलन- रसास्वादन क्यों करते थे? यहाँ भी उसी अधिकार की
बात कही गयी है। अधिकन्तु इन सब रसग्रन्थों का अनुशीलन करने के लिए स्थान की बात
भी अभिव्यक्त हुई है । श्रीमन्महाप्रभु साधारण स्थान में साधारण लोगों के समाज में
जो संकीर्तन करते, वह केवल नामसंकीर्तन तथा रससंकीर्तन
गम्भीरा (गुप्त-गृह) में केवल श्रीस्वरूप दामोदर गोस्वामी एवं राय रामानन्द के साथ
ही करते। श्रीधाम नवद्वीप में भी यही नियम था। वहाँ भी संकीर्तन होता था । किन्तु
रात में श्रीनिवास के घर में द्वार बन्द करके होता था। जगद्गुरु श्रीगौराङ्गदेव की
यही सर्वश्रेष्ठ शिक्षा है। अधिकारी होकर इस ग्रन्थ का गुप्तरूप से अनुशीलन करो।
इससे तुम्हारा परम कल्याण होगा और प्रेमभक्ति के अधिकारी होओगे। अन्यथा भक्त और
भगवान् के निकट अपराधी होकर तुम अधः पतित हो जाओगे । भगवान् श्रीकृष्ण शक्तिमान्
हैं और श्रीमती राधिका उनकी पराशक्ति हैं ।*
श्रीराधिका एवं श्रीकृष्ण की लीला - शक्ति और शक्तिमान की लीला है। कामगन्धहीन
अप्राकृत प्रेम की लीला है। यह बात तो बहुत से लोग जानते हैं एवं जिन ग्रन्थों में
यह लोकपावनी लीला लिपिबद्ध हुई है, भक्ति अनुष्ठान के अङ्ग के
रूप में उसका वे अनुशीलन भी करना चाहते हैं । किन्तु संस्कृत भाषा में अनभिज्ञ
होने के कारण उसका भावार्थ के साथ पाठ नहीं कर पाते। श्रीगीतगोविन्द का वर्तमान
संस्करण उनके अर्थबोध और भावबोध दोनों में यथेष्ट सहायता करेगा।
*
सच्चिदानन्द पूर्ण कृष्णेर स्वरूप । एकई चिच्छक्ति तार
धरे तिन रूप ॥
आनन्दांशे ह्रादिनी सदंशे
सन्धिनी । चिदंशे संवित् जारे ज्ञान करि जानि ॥
हादिनीर सार प्रेम, प्रेमसार भाव । भावेर पराकाष्ठा-नाम महाभाव ॥
महाभाव-स्वरूपा श्रीराधा
ठाकुरणी । सर्वगुणखनि कृष्णकान्ता - शिरोमणि ॥
श्रीगीतगोविन्द आजकल शिक्षित समाज में
श्रृंगाररसात्मक सुमधुर काव्य के रूप में ही प्रसिद्ध है और उसके प्रणेता पूज्यपाद
श्रीजयदेव गोस्वामी एक असाधारण कवि के रूप में हैं। परन्तु श्रीगीतगोविन्द काव्य
होने पर भी केवल छन्दोबद्ध रसात्मक वाक्यस्वरूप लोकप्रसिद्ध आलंकारिक काव्य नहीं
है । जयदेव गोस्वामी स्वयं कवि होने पर भी सुमधुर पदविन्यास करने में कुशल रचनाकार
और स्वभाव विकासक केवल कविमात्र नहीं हैं। श्रीगीतगोविन्द सर्ववेद का सार एवं
श्रीजयदेव गोस्वामी सर्ववेद विशारद परम साधक और सिद्ध भी हैं। पाठकगण
श्रीगीतगोविन्द का पाठ करने से पूर्व या आरम्भ में यह देखेंगे कि ग्रन्थकार ने
अपने इष्टदेवता के स्मरणरूप मङ्गलाचरण में यही लिखा है-
"राधा-माधवयो
जयन्ति यमुनाकूले रहः केलयः । "
अर्थात् श्रीयमुनापुलिन में
श्रीराधामाधव की गम्भीर एवं सुगूढ़ विहारलीला सर्वोपरि विराजमान हो रही है।
द्वितीय श्लोक में उनके वर्णनीय विषय का परिचय दिया है-
"श्रीवासुदेव - रतिकेलि-कथा
समेतमेतं करोति जयदेव - कविः प्रबन्धम् ॥"
अर्थात् जयदेव कवि श्रीवासुदेव
ब्रजेन्द्रनन्दन श्यामसुन्दर की परम आनन्दमय रतिविहार का अवलम्बन करके यह प्रबन्ध
लिख रहे हैं। जैसा कि हमने पहले कहा है, तृतीय
श्लोक में उन्होंने इस ग्रन्थ का अधिकारी भी निर्णय किया है-
यदि हरिस्मरणे सरसं मनो यदि
विलासकलासु कुतूहलम् ।
मधुर- कोमल-कान्त- पदावलीं शृणु तदा
जयदेव सरस्वतीम् ॥
अर्थात् यदि हरि स्मरण करने में मन को
अनुरक्त करना चाहते हो अथवा तुम्हारा मन हरिस्मरण में अनुरक्त है और यदि उस लीलारस
को आस्वादन करने का कौतूहल हो अर्थात् यदि एकान्तिक अभिलाषा हो तभी सुमधुर
कोमलकान्त पदावलीयुक्त जयदेव के अप्राकृत काव्य का श्रवण करो। श्रीजयदेव गोस्वामी ने
इस अप्राकृत काव्य में श्रीराधामाधाव के अप्राकृत प्रणय का मनोज्ञ (सुन्दर) वर्णन
किया है। श्रृंगाररस के विप्रलम्भ तथा संभोग दोनों पक्षों का चरमोत्कर्ष इसी
गीतिकाव्य में दृष्टिगोचर होता है। कवि की मान्यता यह है कि विप्रलम्भ द्वारा
परिपुष्ट संभोग श्रृंगार-रसिक, सिद्ध-महापुरुषों
एवं भक्तिसाधकों को अधिक सुखप्रद प्रतीत होता है। अधिकारी के निर्णय के सम्बन्ध में
श्रीमद्भगवद्गीता के अट्ठारहवें अध्याय के ६७-६८ श्लोकों में स्वयं भगवान्
श्रीकृष्ण ने अपने अन्तरङ्ग भक्त अर्जुन को गीता के श्रवण एवं कीर्तन का अधिकारी
और अनधिकारी का उपदेश दिया है।
इदन्ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन ।
न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां
योऽभ्यसूयति ॥
जो लोग श्रद्धालु नहीं हैं,
मेरे प्रति शुद्ध भक्ति नहीं है, जो अनधिकारी
हैं, ऐसे लोगों को यह मेरा अत्यन्त रहस्यपूर्ण ज्ञान और
विज्ञान उन्हें श्रवण मत कराओ।
य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति
।
भक्तिं मयि परां कृत्वा
मामेवैष्यत्यसंशयः ॥
अर्थात् जो लोग मेरे इस परमगुह्यतम
गीता के अत्यन्त रहस्यपूर्ण ज्ञान विज्ञान का अत्यन्त श्रद्धालु भक्तों को श्रवण
कराते हैं, इस प्रकार अन्त में वे मुझे ही
प्राप्त होते हैं। इसलिए पहले श्लोक में अनधिकारी और दूसरे श्लोक में अधिकारी की
बात की है। श्रीजीवगोस्वामी ने भी श्रीगोपालचम्पू सुनने के लिए अनधिकारी और
अधिकारी का स्पष्टरूप से विवेचन करते हुए अनधिकारी, भक्तिरहित,
श्रद्धारहित, व्यक्तियों को उक्त ग्रन्थ पढ़ने
के लिए निषेध किया है। श्रीसनातन गोस्वामी ने भी बृहद्भागवतामृत नामक ग्रन्थ का श्रद्धारहित
अनधिकारी व्यक्तियों को पढ़ने-सुनने के लिए निषेध किया है। इसी प्रकार हमारे
अन्यान्य गोस्वामियों ने भी स्वरचित ग्रन्थों को न पढ़ने के लिए निषेध किया है।
श्रीगीतगोविन्द की विषय-वस्तु
श्रीजयदेव गोस्वामी ने कलियुग की
मानव प्रकृति को भलीभाँति समझा था। उन्होंने यह समझा था कि कलियुग के मनुष्य बाह्य
आवरण के सौन्दर्य को देखकर ही मुग्ध होते हैं। आवरण का सौन्दर्य नहीं देखने से
अन्तर्निहित परम हितकर औषध की भी अवहेलना करते हैं। इसीलिए श्रीजयदेव कवि ने
वैष्णवोचित सब जीवों के प्रति सदय होकर भवरोग की एकमात्र औषधिस्वरूप एवं अप्राकृत
चिन्मय रस का आस्वादन करने के लिए अद्वितीय अवलम्बनस्वरूप अप्राकृत परम सुमधुर
अपने भावों को आपात मधुर प्राकृत-शृंगाररस के आवरण में लपेटकर उसे काव्य के रूप में
प्रकाश किया है। पाठकगण अब अच्छी तरह से समझ सकते हैं कि श्रुति जो रस जीव के
स्थिर आनन्द का हेतु निर्दिष्ट हुआ है, श्रीगीतगोविन्द
उसी अप्राकृत सुमधुर रस का काव्य है। प्राकृत श्रृंगाररस का यह काव्य नहीं है।
इसीलिए यह काव्य होने पर भी अखिल श्रुतियों का सार स्वरूप है। रसतत्त्वविद्
कविकुल- तिलक श्रीजयदेव गोस्वामी ने कभी श्रीकृष्ण के विरह में श्रीराधा को
उत्कृष्ट अभिमान के द्वारा ईर्ष्यान्वित किया है, कभी
निदारुण दुःख से अविश्रान्त क्रन्दन कराया है, कभी श्रीराधा के
विरह में श्रीभगवान् को भी अत्यन्त व्याकुल कर दिया है। केवल यही नहीं, स्वयं भगवान् ब्रजेन्द्रनन्दन श्यामसुन्दर को श्रीराधाजी के चरणों को
पकड़कर 'देहि पदपल्लवमुदारं ऐसा
कहलाया है। इसी में भक्तों को अत्यन्त उन्नत भगवत् प्रेम और भगवान् का चूड़ान्त
भक्तवात्सल्य प्रकटित हुआ है। यही अखिल श्रुतियों का सार स्वरूप है। श्रुतियों ने
कहा है कि वे परमात्मा जिसको चाहते हैं वही उनको प्राप्त होते हैं-
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न
बहुना श्रुतेन ।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष
आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम् ॥ (कठ
१/२/२३)
भगवान् श्रीकृष्ण आनन्दघनमूर्ति
हैं। जीव भी सब समय केवल आनन्द का ही अनुसन्धान कर रहा है,
उसे प्राप्त नहीं कर पा रहा है। किन्तु जिस दिन जीवों का ऐसा सौभाग्य
उदित होगा, उसी दिन अर्थात् जिस समय भक्तों के अन्तर्निहित
भावों को देखकर भगवान् स्वयं अपने को ज्ञात करा देंगे, उसी
दिन अपने सौभाग्य के बल से स्वयं आनन्द भी उनका अनुसन्धान करेगा। साधक भक्त अपने
हृदय में कृष्णाकर्षणी प्रेमभक्ति संचय कर अपने घर में बैठा रहेगा और प्रेमलोलुप
आनन्दमय श्रीकृष्ण उसके निकट जाने के लिए परम व्याकुल हो उठेंगे। अपराधी की भाँति
अनुनय विनय करेंगे - देहि पदपल्लवमुदारं । यही निखिल श्रुतियों का सार
स्वरूप है। श्रुतियाँ कहती हैं-ब्रह्म जितना निकट है उतना दूर भी है।
श्रीगीतगोविन्द के काव्य-तत्त्व की आलोचना
श्रीजयदेव कवि ने इस मधुर- काव्य में
गान्धर्व – विद्या का कौशल, ब्रजेन्द्रनन्दन
श्रीश्यामसुन्दर के चिन्तन – स्मरण का समस्त रहस्य, सम्भोग
और विप्रलम्भ दोनों प्रकार के श्रृंगाररस का विस्तृत विवेचन तथा काव्य-प्रणय की
प्राचीन पद्धति, सभी का मणिकाञ्चन न्याय से सन्निवेश किया
है। उन्होंने स्वयं कहा है – 'सानन्दाः परिशोधयन्तु
सुधियः श्रीगीतगोविन्दतः' (१२ / २४ / ११) इस चतुर्थ चरण का
यह भी अभिप्राय है कि इन समस्त वस्तुओं का पूर्णतः शुद्धरूप इस गीतगोविन्द काव्य में
ही एकमात्र उपलब्ध हो सकता है। अतएव विद्वानों को चाहिए कि वे इस काव्य को
भलीभाँति परीक्षण करके देखें और जानें भी। श्रीजयदेव कवि को इस बात का दृढ़
विश्वास है कि श्रीगीतगोविन्द–काव्य के माधुर्य के सामने अंगूर की मदिरा, चीनी की मिठास, पके आम्रफल तथा कामिनी के अधररस-ये सब
उपेक्षणीय हैं;क्योंकि इस श्रृंगारकाव्य में श्रृंगाररस का
सम्पूर्ण सार समाविष्ट है।
साध्वी! माध्वीक चिन्ता न भवति भवति
शर्करे ! कर्कशासि,
द्राक्षे ! द्रक्ष्यन्ति के
त्वाममृत ! मृतमसि क्षीर! नीरं रसस्ते ।
माकन्द ! क्रन्द कान्ताधर! धर न
तुलां गच्छ यच्छन्ति भावं,
यावच्छृङ्गारसारं शुभमिव जयदेवस्य
वैदग्ध्यवाचः ॥
इस काव्य में श्रीजयदेव गोस्वामी ने
विभिन्न छन्द, रस अलंकार और औचित्यों का
सन्निवेश किया है। श्रीराधामाधव- विलास का मधुर गायन ही कवि का प्रमुख ध्येय है।
इस काव्य की चौब्बीस अष्टपदियों के माध्यम से कवि ने संगीतशास्त्र तथा रसशास्त्र
के अपने गहन अध्ययन का विशद् परिचय दिया है। प्रत्येक अष्टपदी के भिन्न-भिन्न राग
और ताल हैं। लगता है कि श्रीराधामाधव के सम्भोग और वियोग का कवि ने समाधि की
स्थिति में साक्षात्कार किया है।
गीत गोविन्द में प्रवेश-प्रणाली
कविवर श्रीजयदेव गोस्वामी ने
श्रीकृष्ण के साथ श्रीराधा के सम्मिलन में एक सखी को मध्यवर्तिनी रखा है। सखी के अनुगत
हुए बिना तथा उनकी सहायता प्राप्त किये बिना श्रीकृष्ण को प्राप्त नहीं किया जा
सकता। यही समस्त भक्तिशास्त्रों का सिद्धान्त है। सखी की सहायता और गुरु की सहायता
एक ही बात है। गुरु होने के लिए सखीभाव अवलम्बन करना होता है और श्रीकृष्ण को पाने
के लिए सखीभावापन्न सद्गुरु का आश्रय ग्रहण करना होता है। यही अखिल श्रुतियों का
सार है। श्रुतियों ने कहा है-
तस्माद् गुरुं प्रपद्येत जिज्ञासुः
श्रेय उत्तमम् ।
शाब्दे परे च निष्णातं
ब्रह्मण्युपशमाश्रयम् ॥ (श्रीमद्भागवत
११/३/२१)
अर्थात् ब्रह्म को जानने के लिए
ब्रह्मनिष्ठ सद्गुरु का आश्रय करना होता है। नैमिषारण्य नामक पुण्यारण्य में
श्रीसूत गोस्वामी ने श्रीमद्भागवत का पाठ करते समय श्रीमद्भागवत को ही अखिल
श्रुतिसार बताया है। श्रीमद्भागवत का सार रासलीला है । सारदर्शी कविवर श्रीजयदेव
गोस्वामी ने कृपापरवश होकर उसी सारादपि सार श्रीमद्भागवतोक्त श्रीरासलीला को
निचोड़कर गागर में सागर भरकर कलिजीवों की स्वतः प्रवृत्ति के लिए श्रीगीतगोविन्द
नामक काव्यामृत को प्रकाश किया है। श्रीशुकदेव गोस्वामी ने परीक्षित महाराज के
प्रश्न के उत्तर में कहा था-
अनुग्रहाय भक्तानां मानुषं
देहमाश्रितः ।
भजते तादृशीः क्रीड़ा याः श्रुत्वा
तत्परो भवेत् ॥
अर्थात् भगवान् श्रीकृष्ण अपने
भक्तों पर अनुग्रह करने के लिए इस प्रकार की लीलाएँ प्रकाश करते हैं। श्रृंगाररस -
प्रिय अभक्त भी इसे सुनकर क्रमशः श्रीकृष्ण-परायण होंगे। इसके द्वारा यह समझा जा
सकता है कि भगवान श्रीकृष्ण ने भक्त-
अभक्त सभी के प्रति कृपावश होकर इस प्रकार शृंगारप्रिय लीला को धरणीतल पर प्रकट की
है। महर्षि वेदव्यास ने सबके प्रति कृपा-परवश होकर उसको लिपिबद्ध किया और परमभक्त
श्रीशुकदेव गोस्वामी ने भी कृपा-परवश होकर ही पृथ्वी पर इसका प्रचार किया है। उसके
पश्चात् कविवर जयदेव गोस्वामी ने भी कृपा-परवश होकर और भी मधुरतर काव्य के आकार में
उसे प्रकाशित किया है। श्रीचैतन्यचरितामृत में श्रीरायरामानन्द संवाद में श्रीरामानन्द
के मुख से श्रीमन्शचीनन्दन गौरहरि के प्रश्नों के उत्तर में कहा है-
प्रभु कहे,–
'साध्यवस्तुर अवधि' एइ हय ।
तोमार प्रसादे इहा जानिलूँ निश्चय ॥
'साध्यवस्तु'
'साधन' बिना केह नाहि पाय ।
कृपा करि कह,
राय, पावार उपाय ॥
राय कहे,
— जेइ कहाओ, सेइ कहि वाणी ।
कि कहिये भाल- मन्द,
किछुइ ना जानि ॥
त्रिभुवन-मध्ये ऐछे हय कोन धीर ।
जे तोमार माया-नाटे हइबेक स्थिर ॥
मोर मुखे वक्ता तुमि,
तुमि हओ श्रोता ।
अत्यन्त रहस्य,
शुन, साधनेर कथा ॥
राधाकृष्णेर लीला एइ अति गूढ़तर ।
दास्य - वात्सल्य भावे ना हय गोचर ॥
सबे एक सखीगणेर इहा अधिकार ।
सखी हड़ते हय एइ लीलार विस्तार ॥
सखी बिना एइ लीला पुष्ट नाहि हय ।
सखी लीला विस्तारिया,
सखी आस्वादय ॥
सखी बिना एइ लीलाय अन्येर नाहि गति
।
सखीभावे जे तारे करे अनुगति ।
राधाकृष्ण - कुञ्जसेवा - साध्य सेइ
पाय ।
सेइ साध्य पाइते आर नाहिक उपाय ॥
तात्पर्य यह है कि श्रीराय रामानन्द
के मुख से साध्य वस्तु के सम्बन्ध में सुनकर श्रीचैतन्य महाप्रभु ने कहा- “यहीं तक साध्य वस्तु की सीमा और अवधि है। तुम्हारी कृपा से मैं यह सब
अच्छी तरह से जान गया । किन्तु यह अत्यन्त गम्भीर साध्य वस्तु बिना साधन के कोई
नहीं पा सकता। हे राय ! आप कृपा करके इसको प्राप्त करने का उपाय बतलाइये।"
रायजी ने कहा- “आप जो कुछ हमारे हृदय में प्रेरणा करते हैं,
वही मैं कहता हूँ। इसमें अच्छा या बुरा मैं क्या कह रहा हूँ,
कुछ नहीं जानता? कौन ऐसा धीर व्यक्ति है,
जो आपकी माया के नृत्य में स्थिर रह सके। अतएव मेरे मुख से आप ही
वक्ता हैं और आप ही श्रोता हैं। यह अत्यन्त रहस्य की बात है। अब मैं उस अत्यन्त
गूढ़ साधन की बात बतला रहा हूँ। श्रीराधाकृष्ण की यह कुञ्जलीला - रासलीला अत्यन्त
गम्भीर है । दास्य, सख्य, वात्सल्य आदि
भाववाले भक्तों को भी यह लीला दृष्टिगोचर नहीं होती। इसमें उनका भी प्रवेशाधिकार
नहीं है। एकमात्र सखियों का ही इसमें अधिकार है। सखी से इस लीला का विस्तार होता
है। सखी के बिना यह लीला पुष्ट नहीं होती । सखियाँ इस लीला को विस्तार करती हैं और
वे ही इसका आस्वादन करती हैं। इसलिए सखी की सहायता के बिना, उनका
आश्रय लिये बिना इस लीला में प्रवेश करने का और कोई भी उपाय नहीं है। जो सखियों के
भावों का अनुसरण करते हैं, उनके आनुगत्य और आश्रय में रहकर
भजन करते हैं, केवल वे ही श्रीराधाकृष्ण की कुञ्जसेवा को
प्राप्त हो सकते हैं। इस साध्य को पाने के लिए सखी के पदाश्रय और उनके स्मरण के
बिना कोई दूसरा उपाय नहीं है।"
गीत गोविन्द
गीत गोविन्द प्रथम सर्ग- सामोद दामोदरः
अष्टपदी-1 अष्टपदी- 2 अष्टपदी- 3 अष्टपदी- 4
गीत गोविन्द द्वितीय सर्ग - अक्लेश केशवः
गीत गोविन्द तृतीय सर्ग - मुग्ध मधुसूदनः
गीत गोविन्द चतुर्थ सर्ग-
स्निग्ध-मधुसूदनः
गीत गोविन्द पञ्चम सर्ग - सकांक्ष पुण्डरीकाक्षः
गीत गोविन्द षष्ठः सर्ग धृष्ट- वैकुण्ठः
गीत गोविन्द सप्तम सर्ग - नागर-नारायणः
अष्टपदी- 13 अष्टपदी- 14 अष्टपदी- 15 अष्टपदी- 16
गीत गोविन्द अष्टम सर्ग - विलक्ष- लक्ष्मीपतिः
गीत गोविन्द नवम सर्ग -
मुग्ध-मुकुन्दः
गीत गोविन्द दशम सर्ग-
मुग्ध-माधवः
गीत गोविन्द एकादश सर्ग - स्वानन्द - गोविन्दः
अष्टपदी- 20 अष्टपदी- 21 अष्टपदी- 22
गीत गोविन्द द्वादश सर्ग - सुप्रीत-पीताम्बरः
आगे जारी........ गीतगोविन्द सर्ग 1
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