अष्ट पदि ११
कवि
श्रीजयदेवजीकृत गीतगोविन्द सर्ग ५ आकाङ्क्ष- पुण्डरीकाक्ष में २ अष्टपदी
है। जिसका १० वें अष्ट पदि को पिछले अंक में आपने पढ़ा । अब यहाँ अष्ट पदि ११ दिया
जा रहा है।
श्रीगीतगोविन्दम् पञ्चमः सर्गः - आकाङ्क्ष पुण्डरीकाक्षः एकादश अष्ट पदि
श्रीगीतगोविन्द
पाँचवाँ सर्ग आकाङ्क्ष पुण्डरीकाक्ष ग्यारहवाँ अष्ट पदि
Shri Geet govinda sarga 5 Akanksha
pundarikaksh
गीतगोविन्द सर्ग ५ अष्ट पदि ११
अथ पञ्चमः सर्गः - आकाङ्क्ष- पुण्डरीकाक्षः
एकादश
सन्दर्भः
गीतम् ॥ ११ ॥
गुर्जरीरागेण
एकतालीतालेन गीयते ॥
अनुवाद - यह ग्यारहवाँ प्रबन्ध गुर्जरी राग तथा एकताली ताल से गया
जाता है।
रति - सुख -
सारे गतमभिसारे मदन- मनोहरवेषम् ।
न कुरु
नितम्बिनि ! गमन - विलम्बनमनुसर तं हृदयेशम् ॥
धीर समीरे
यमुना तीरे वसति वने वनमाली ।
गोपीपीनपयोधरमर्दनचञ्चलकरयुगशाली
॥ १ ॥ध्रु.
अन्वय - [ अभिसाराय प्रार्थयते - अभिसारिका-लक्षणं यथा-
"अभिसारयते कान्तं या मन्मथवशंवदा । स्वयं वाभिसरत्येषा धीरैरुक्ताऽभिसारिका
॥”
इति साहित्यदर्पणे । ] हे नितम्बिनि (निविड़नितम्बवति)
रतिसुख सारे ( रतौ यत् सुखं तस्य सारः यत्र तादृशे) अभिसारे (सङ्केतस्थाने) गतं (
प्राप्तमभिसृतमित्यर्थः) मदन- मनोहर - वेशं ( मदनेन प्रेम्ना मनोहरो वेशो यस्य
तादृशं ) तं हृदयेशम् (प्राणवल्लभम् ) अनुसर । गमनविलम्बनं न कुरु (गुरुनितम्बतया
सहजगमन - वैलम्ब्यशङ्कयेदयुक्तम्); [त्वद्विरह- खित्रस्य अनुसरणे विलम्बो न युक्तः ];
वनमाली (श्रीकृष्णः ) धीरसमीरे (धीरसमीराख्ये यद्वा धीरः
मन्दः समीरः समीरणो यत्र तादृशेः अनेन सुखदत्वं निविड़त्वात् निर्जनत्वञ्चोक्तम्)
यमुनातीरे वने वसति ॥ १ ॥
अनुवाद - सुमन्द मलय मारुत सेवित यमुना तीरवर्ती निकुञ्जवन में
बैठकर वनमालाधारी (श्रीकृष्ण) गोपियों के पयोधरमण्डल को निपीड़ित करने में
चञ्चलशाली कर युगल से सुशोभित हो प्रतीक्षा कर रहे हैं। प्रशस्त नितम्बोंवाली
श्रीराधे ! रतिसुख के सारभूत सङ्केत स्थान में मदन के समान मनोहर वेश को धारण किये
हुए हृदयवल्लभ श्रीकृष्ण के पास अभिसरण करो, अब विलम्ब मत करो।
पद्यानुवाद-
" रति-सुख - सारे गत अभिसारे,
मदन मनोहर
वेशम् । "
न कर
नितम्बिनि ! गमन विलम्बन, अनुसर निज हृदयेशम् ॥
धीर समीरे
यमुना तीरे, राज रहे वनमाली ।
गोपी-पीन -
पयोधर-मर्दन - चञ्चलकर - युगशाली ॥
बालबोधिनी - अब सखी श्रीकृष्ण के पास अभिसरण कराने के लिए श्रीराधा को
प्रोत्साहित करती हुई कहती है- हे नितम्बिनि ! अर्थात् प्रशस्त नितम्बोंवाली
श्रीराधे ! चलने में तुम अब देर मत करो, काल का अतिक्रमण मत करो, श्रोणीभार से तुम वैसे ही धीरे-धीरे मन्द मन्द चलती हो।
उनके पीछे-पीछे तुम उस सङ्केत स्थान में त्वरित पहुँचो । इस सङ्केत-स्थल में
रतिजन्य सुख की प्रधानता है। वहीं तुम्हारे हृदयेश, वनमाली श्रीकृष्ण मदन मनोहर वेश धारण किये हुए अभिसारगामी
हो रहे हैं, उत्सुकतापूर्वक तुम्हारी बाट जोह रहे हैं।
सङ्केतस्थल का
स्पष्ट निदर्शन हुआ है। यमुना के तट पर वेतसी का वन है। हवा मन्द मन्द चलते हुए
कुछ-कुछ थिर - सी हो गयी है। यह मन्द समीरण रतिकाल में अति सुखदायी होता है,
कानन तो अति निविड़ - निर्जन है ही । श्रीकृष्ण का वेश मदन
सेवा के अनुकूल है, अभिसारगामी हो रहे हैं। चाँदनी रात में समयानुरूप वेषभूषा
धारणकर अभिसरण करना अभिसार कहा जाता है। उस कुञ्ज प्रदेश में वनमाली के पास
पहुँचने में अब किञ्चित् भी विलम्ब मत करो।
नाम समेतं कृत-सङ्केतं
वादयते मृदुवेणुम् ।
बहु
मनुतेऽतनुते तनु - सङ्गतपवन-चलितमपि रेणुम् ॥
धीर समीरे
यमुना तीरे... ॥२ ॥
अन्वय-नाम-समेतं (नाम्ना समेतं यथास्यादेवं) कृतसङ्केतं (कृतं
सङ्केतः इङ्गितं यथा स्यात् तथा; अहमिह तिष्ठामि त्वमप्यत्रागच्छति नाम समेत कृतसङ्केतार्थः
इति सर्वाङ्गसुन्दरी) मृदु (कोमलं यथा भवेदेवं) वेणुं वादयते;
[किञ्च ] ते (तव) तनुसङ्गत-
पवन-चलितमपि (तनु-सङ्गतेन गात्रस्पृष्टेन पवनेन चलिमपि) रेणुं ( रजः) ननु ( निश्चये)
बहु मनुते (अधिकं मन्यते ) [ धन्योऽयं रेणुः यतस्तस्याः शरीरस्पृष्ट- वायोः
स्पर्शसुखमन्वभूत्, ममेदृशं भाग्यं नास्तीति बहुमानार्थः] ॥ २ ॥
अनुवाद - हे राधे ! तुम्हारे नाम का सङ्केत करते हुए वे कोमल वेणु
बजा रहे हैं। तुम्हारे शरीर को संपृक्त करके वायु के साथ आये हुए बहुत अधिक धूलि –
कणों के स्पर्श से स्वयं को अति सौभाग्यशाली मानकर उनका सम्मान कर रहे हैं।
पद्यानुवाद-
नाम सहित
सङ्केत ध्वनित कर-कोमल वेणु बजाते ।
तव तन चुम्बित
पवन - रेणुसे डरको समुद सजाते ॥
बालबोधिनी - सखी श्रीराधाजी को स्पष्ट कर रही है कि यदि तुम्हें मेरी
बातों पर विश्वास न हो तो वहाँ से आती हुई श्रीकृष्ण की वंशी की टेर सुन लो,
तुम्हारा ही नाम लेकर वह तुम्हें मिलन का संकेत दे रही है।
श्रीकृष्ण इसी प्रकार से तुम्हें राह बता रहे हैं। यदि तुम्हें यह आशंका है कि
वहाँ जाने पर प्रतारणा होगी, किसी अन्य रमणी के साथ उनका अभिसार होगा तो तुम्हारी शंका
निर्मूल है क्योंकि बालू के उन कणों को भी रत्न जानकर वे अति सम्मान कर रहे हैं जो
तुम्हारे चरणों के आघात से हवा के साथ उनके पास पहुँचे हैं।
पतति पतत्रे
विचलति पत्रे शङ्कित- भवदुपयानम् ।
रचयति शयनं
सचकित नयनं पश्यति तव पन्थानम् ॥
धीर समीरे
यमुना तीरे... ॥ ३ ॥
अन्वय - पतत्रे (विहङ्गमे ) [ वृक्षात् भूमौ ] पतति (अवतरति सति)
[तथा ] पत्रे विचलति [सति] शङ्कित भवदुपयानं (शङ्कितम् अनुमितं भवत्याः उपयानं
आगमनं यस्मिन् तद् यथा तथा ) शयनं (शय्या) रचयति (निर्मिमीते ) [ तथा ] सचकित -
नयनं [ यथा स्यात् तथा] तव पन्थानं (आगमनवर्त्म) पश्यति ॥ ३ ॥
अनुवाद - राधे ! श्रीकृष्ण अति उल्लास और अतिशय स्फूर्ति से शय्या
का निर्माण कर रहे हैं और जैसे ही किसी पक्षी के वृक्ष पर बैठने से पत्ते चंचल
होकर थोड़ा-सा भी शब्द करने लगते हैं, तो वे तुम्हारे आगमन के मार्ग का चकित दृष्टि से अवलोकन
करने लगते हैं।
पद्यानुवाद-
पक्षी के
उड़ने से जब हिल जाते
तरुके पत्ते
आती हो यह जान हृदयमें शंकासे खिल जाते ।
शीघ्र वहीं पर
किसलय-दलकी शय्या ललित रचाते
और पंथ पर
चौंक-चौंक कर आँखें सजल बिछाते ॥
बालबोधिनी - सखी श्रीराधा से कह रही है कि वृक्ष के पत्ते गिरने से
या वायु के संचालन से अथवा पक्षियों के इधर-उधर घूमने-फिरने से सामान्य 'मर्मर' शब्द होते ही वे मन में शंका करते हैं-कहीं श्रीराधा तो
नहीं आ रही हैं। अतः बड़े ही उल्लास से वे जल्दी ही शय्या निर्माण करने में लग
जाते हैं और चकित दृष्टि से तुम्हारे आगमन पथ की ओर देखने लगते हैं।
मुखमधीरं त्यज
मञ्जीरं रिपुमिव केलिषु लोलम् ।
चल सखि !
कुञ्जं सतिमिर-पुञ्जं शीलय नील- निचोलम् ॥
धीर समीरे
यमुना तीरे... ॥ ४ ॥
अन्वय - हे सखि, अधीरं (चञ्चलं) [ अतएव] मुखरं(सशब्द) मञ्जीरं (नूपुरं) केलिषु (क्रीड़ासु) लोलं (अतिचपत
[अतः अभीष्टविरोधित्वात् ] रिपुमिव (शत्रुवत्) त्यज; सतिमिरपुञ्ज (तमसावृतं) कुञ्जं चल;
नीलनिचोलं ( तामस्यभिसारिकोचितं नीलवसनं ) शीलय ( परिधेहि )
॥ ४ ॥
अनुवाद - सखि ! चलो, कुंज की ओर चलें । चलने में मुखरित होने वाले,
विलास केलि में अति चंचल होनेवाले इन नूपुरों को तुम शत्रु के
समान त्याग दो, तिमिर युक्त नीलवसन को धारण कर लो।
पद्यानुवाद-
त्याग मुखर
नूपुर सखि ! सत्वर साड़ी नीले रंगकी ।
पहिन,
चलें इस तिमिर
पुंजमें कुंज-ओर, क्यों ठिठकी ?
बालबोधिनी - सखी श्रीराधा से कह रही है- हे राधे ! इस समय अंधकार है
जो अभिसार के लिए उचित समय है। इस अंधकार में अभिसारिकाएँ अपने प्रेमियों से मिला
करती हैं। अतः तुम इस अंधकार में उस निभृत कुंज की ओर चलो। सखि,
इन नूपुरों को उतार दो, ये तो तुम्हारे शत्रु ही हैं। अति चंचल होने के कारण ये
चलने के समय तथा विलास-केलि में ध्वनि उत्पन्न करते हैं,
शत्रु के समान अवसर को जाने बिना ही मुखरित हो जाते हैं !
ये मंजीर अभीष्ट सिद्धि के प्रतिकूल हैं। अब अपना नील वसन पहन लो। इस अभिसरणीय नील
वसन के अवगुण्ठन से तुम्हारा गौर वर्ण इस तिमिर में एकाकार हो जायेगा,
श्याममय हो जायेगा, तुम्हारे पथ का अन्धकार और भी बढ़ जायेगा।
उरसि
मुरारेरुपहित-हारे घन इव तरल-बलाके ।
तड़िदिव पीते
! रति- विपरीते राजसि सुकृत- विपाके ॥
धीर समीरे
यमुना तीरे... ॥५ ॥
अन्वय- अयि पीते (गौराङ्गि) सुकृतविपाके (सुकृतानां पुण्यानां
विपाके फलस्वरूपे) रति विपरीते (विपरीतरतौ) उपहितहारे (आन्दालित-हारे) मुरारेः
(कृष्णस्य) उरसि (वक्षसि ) तरल - वलाके तरला चञ्चला वलाका वकपङ्क्तिः यस्मिन्
तादृशे) घने (मेघे) तड़ित (सौदामिनी) इव राजसि ( वर्त्तमान- सामीप्ये लट्
शोभिष्यसे) [ अत्र उरसो घनेन, हारस्य वलाकया, गौर्यास्तड़िता सह साम्यमवगन्तव्यम् ] ॥५॥
अनुवाद - हे विद्युत के समान पीतवर्णमयी राधे! अपने कृतपुण्य के
परिणाम स्वरूप विपरीत रति में श्रीकृष्ण के मणिमय हार से सुशोभित वक्षःस्थल के ऊपर
ऐसे सुशोभित होओगी, जैसे मेघ के ऊपर चंचल बक-पंक्ति प्रकाशित हो रही है।
पद्यानुवाद-
रति - विपरीते
पीते ! राजित धन पर बिज्जु शलाका ।
हरि-उर- उपहित
मौक्तिक माला, होगी तरल बलाका ॥
विगलित - वसनं
परिहत रसनं घटय जघनमपिधानं ।
किशलय - शयने
पङ्कज-नयने निधिमिव हर्ष - निधानं ॥
धीर समीरे
यमुना तीरे... ॥ ६ ॥
अन्वय - [ अतो गत्वा ] हे पङ्कज-नयने (सरोजाक्षि ) किशलय - शयने
(वालपल्लवशय्यायां ) विगलित- वसनं (श्रीकृष्णेन हेतुना विगलितं वसनं यस्मात्
तादृशं ) परिहृत वसनं ( तेनैव परिहता दूरीकृता रसना काञ्ची यस्मात् तादृशं) [
अतएव ] अपिधानं (नास्ति पिधानम् आच्छादनं यस्य तत् आवरणरहितमित्यर्थः) जघनं
(कटिपुरोभागं ) [तस्यैव ] निधिमिव (रत्नमिव) हर्षनिधानं (आनन्दनिकेतनं) घटय (कुरु)
[गतावरणस्य निधेर्दर्शने हर्षो जायत एवेत्यर्थः ] ॥ ६ ॥
अनुवाद - हे इन्दीवरनयन राधे नवीन किसलय की शय्या पर तुम आवरण रहित
होकर,
करधनी रहित होकर प्रियतम के प्रीति विधान स्वरूप अपने
निधि-रत्न जंघाओं को स्थापित कर दो ।
पद्यानुवाद-
पंकजनयने! दल
- शय्या पर अपने जीवन- धनसे ।
बाह्य आवरण
त्याग न मिलती कैसे प्रमुदित मनसे ॥
बालबोधिनी - इसके पहले के पद्य में सखी ने श्रीराधा में विपरीत रति की
उत्कण्ठा जाग्रत की। अब श्रीकृष्ण के द्वारा की जानेवाली रतिक्रीड़ा के प्रति
श्रीराधा की उत्कण्ठा उत्पन्न करती हुई सखी आगे कह रही है- हे पंकज के समान मनोहर
नेत्रोंवाली राधे ! कोटिकन्दर्प अभिराम श्रीकृष्ण की सुन्दरता को देखकर वस्त्र तो
तुम्हारी जाँघों से स्वयं ही खिसक जायेगा, मेखला में संलग्न क्षुद्र घंटिकाएँ भी परिहत हो जाएँगी,
तुम आनन्द के निधान श्रीकृष्ण के सुख का विधान करनेवाली इस
निधिरत्न जंघा भाग को श्रीकृष्ण द्वारा रचित नवपल्लवों की शय्या पर रखना।
हरिरभिमानी
रजनिरिदानीमियमपि याति विरामम् ।
कुरु मम वचनं
सत्वर - रचनं पूरय मधुरिपुकामम्-
धीर समीरे
यमुना तीरे... ॥७ ॥
अन्वय - हरिः ( श्रीकृष्णः) अभिमानी (अतिशयेन त्वां मानयितुं
शीलं यस्य तादृशः, त्वदेकपर इत्यर्थः); इयं रजनिः (रात्रिः ) अपि विरामं (अवसानं) याति (तस्मात् )
मम वचनं सत्वर - रचनं (सत्वरा रचना अनुष्ठानं यस्य तादृशं),
अथवा सत्वरा रचना वेश परिपाटी यत्र तद् यथा तथा कुरु);
मधुरिपु- कामं (मधुरिपोः हरेः कामं मनोरथं पूरय) ॥७॥
अनुवाद - इस समय श्रीकृष्ण अभिमानी हो रहे हैं,
रात्रि का अवसान भी हो रहा है,
अतएव मेरी बातों को स्वीकार करो और अविलम्ब चलकर मधुरिपु
श्रीकृष्ण की कामनाएँ पूर्ण करो।
पद्यानुवाद-
रैन सिरानी,
पिय अभिमानी
कर न सजनि ! अब देरी ।
जाकर उनसे
सत्वर मिल ले- इतनी अनुनय मेरी ॥
बालबोधिनी - सखी कह रही है- श्रीकृष्ण बड़े मनस्वी हैं,
लाक्षणिक अर्थ यह है कि श्रीकृष्ण अन्यमनस्क हो रहे हैं,
तुम्हें मनाने के लिए अत्यन्त प्रयत्नशील हैं,
तुम दूसरे के साथ उनके अभिसार की चिन्ता मत करो। मनस्वी के
संदर्भ में यह कथनीय है कि वे अपने स्वाभिमान की सुरक्षा के लिए तुम्हारे पास तक
नहीं आ सके, कहीं वे तुम्हारा त्याग न कर दें- 'हरिरभिमानी, त्वत्तो लाघवं न सहते, पश्चात्त्वा त्यक्षति । जो कार्य तुम्हें बाद में करना है,
उसे अभी क्यों नहीं कर लेतीं ?
रात बीतती जा रही है। अभिसरणीय बेला समाप्त हो रही है। मेरी
बात मानो,
तुम श्रीकृष्ण के पास सत्वर ही चलो और उनकी अभिलाषाएँ पूर्ण
करो।
श्रीजयदेवे
कृत- हरि - सेवे भणति परमरमणीयम् ।
प्रमुदित-हृदयं
हरिमतिसदयं नमत सुकृत- कमनीयम् ॥
धीर समीरे
यमुना तीरे... ॥८ ॥
अन्वय - कृत हरि - सेवे ( कृत्वा हरिसेवा येन तस्मिन्) श्रीजयदेव
भणति [ सति] [भोः साधवः] प्रमुदितः - हृदयं (प्रमुदितं हृदयं यथा तथा अथवा सदानन्द
चेतसं हरिम्) अतिसदयं (परमकृपालु) परमरमणीयं (एकान्तमनोहरं ) सुकृतकमनीयं (
सुकृतेन शोभन - चरितेन कमनीयः सर्वैर्विशेषेण
वाञ्छनीयमित्यर्थः) हरिं [यूयं ] नमत ॥ ८ ॥
अनुवाद - हे साधुजन ! परम मनोहर काव्य रचयिता,
श्रीहरि - सेवी जयदेवकृत इस गीति से प्रमुदित हृदय,
अतिशय सदय, परम मधुर, शोभन चरित तथा कमनीय गुणोंसे युक्त श्रीकृष्णको प्रमुदित
हृदयसे नमस्कार करो।
पद्यानुवाद-
श्रीजयदेव
कथित यह वाणी, हरि - राधा-रस सानी ।
मुदित हृदय
उसका करती है, जिसने ध्वनि पहचानी ॥
बालबोधिनी - इस अष्टपदी के अन्त में कवि जयदेव कहते हैं कि हे
भागवतजन ! श्रीकृष्ण की सेवा में सदैव तत्पर रहने वाले उन्होंने सुमधुर इस कथा –
काव्य की रचना की है। अतः श्रीकृष्ण उन पर सदैव प्रसन्न रहते हैं। अपनी-अपनी
स्फूर्ति के कारण जो सबकी कामना के विषय बने हुए हैं, ऐसे दया के सिन्धु,
परम रमणीय श्रीकृष्ण को आप सभी प्रमुदित हृदय से नमस्कार
करें।
इति
गीतगोविन्दे एकादश सन्दर्भः
इति श्रीगीतगोविन्दे महाकाव्ये आकाङ्क्ष- पुण्डरीकाक्षः नाम पञ्चमः सर्गः ।
श्रीगीतगाविन्द
महाकाव्य में आकाङ्क्ष पुण्डरीकाक्ष नामक पञ्चम सर्ग
की बालबोधिनी व्याख्या समाप्त ।
आगे जारी........ गीतगोविन्द सर्ग 5 सन्दर्भ 11
0 Comments