कालिका पुराण अध्याय ५७
कालिका पुराण
अध्याय ५७ में महामाया कल्प में महामाया पूजा का विधान का वर्णन है ।
कालिका पुराण अध्याय ५७
Kalika puran chapter 57
कालिकापुराणम् सप्तपञ्चाशोऽध्यायः महामायाकल्पे महामाया पूजाविधानम्
अथ श्रीकालिका
पुराण अध्याय ५७
।।मार्कण्डेय
उवाच।।
श्रुत्वेमं
सगरो राजा संवादं भैरवेण वै ।
वेतालेनापि
भर्गस्य पुनरौर्व्वमपृच्छत ।। १ ।।
मार्कण्डेय
बोले- राजा सगर ने भगवान शिव के भैरव एवं वेताल के साथ हुए, इस (पूर्ववर्णित) संवाद को सुनकर और्वमुनि
से पुन: (आगे) पूछा ॥१॥
।।सगर उवाच।।
मन्त्रं
कलेवरगतं साङ्गं प्रोक्तं त्वया द्विज।
अङ्गमन्त्राणि
मे देव्याः कथ्यन्तां भो द्विजोत्तम ।।२ ।।
सगर बोले- हे
द्विज ! आपके द्वारा महामाया के शरीर में स्थित (मुख्य) मन्त्र, अपने अंगो सहित बताया गया । हे द्विजों में
श्रेष्ठ ! अब देवी के अङ्गभूतमन्त्रों को मुझसे कहिये ॥ २ ॥
तथा मन्त्राणि
सर्वाणि पूजास्थानानि सर्वशः।
तथैवोत्तरमन्त्राणि
कवचानि पृथक् पृथक् ।।३ ।।
साथ ही (देवी
सम्बन्धी) सभी मन्त्रों एवं पूजा स्थानों के विषय में तथा इनके उत्तर (अतिरिक्त)
मन्त्रों और कवचों को भी अलग-अलग बताइये ॥३॥
कामाख्यायाश्च
माहात्म्यं सरहस्यं समन्त्रकम् ।
यथा शशंस
भगवान् महादेव उमापतिः।।
वेतालभैरवाभ्यां
तत् समाचक्ष्व सविस्तरात् ॥४॥
भगवती उमा के
स्वामी, भगवान् महादेव शिव ने वेताल और भैरव से रहस्य
तथा मन्त्रों से युक्त कामाख्या देवी का जो माहात्म्य सुनाया था। वही आप मुझसे
विस्तारपूर्वक कहिए ॥४॥
शृण्वतो न हि
मे तृप्तिर्जायते महदद्भुतम् ।
भवता कथ्यमानं
हि परं कौतूहलं मम ।। ५ ।।
आपके द्वारा
कहे जाते हुए इन महान् अद्भुत वृत्तान्तों को सुनकर मुझे तृप्ति नहीं हो रही है। क्योंकि
इस सम्बन्ध में मेरे मन में महान् कौतूहल है ॥५॥
।।और्व्व
उवाच।।
शृणुत्वं
राजशार्दूल यत्पुत्राभ्यामुमापतिः।
उवाच
महादाख्यानं तन्मे निगदतोऽधुना ।। ६ ।।
और्व बोले- हे
राजाओं में सिंह के समान श्रेष्ठ ! पूर्व में उमापति शिव ने जो महान् आख्यान अपने
पुत्रों से कहा था, उसे अब आप मेरे द्वारा कहा जाता हुआ सुनिये ॥६॥
एतद्रहस्यं
परमं पवित्रं पापनाशनम् ।। ७ ।।
परं
स्वस्त्ययनं पुंसां गर्भे पुं सवनं स्मृतम् ।
कल्याणकारकं
भद्रं चतुर्वर्गफलप्रदम् ।। ८ ।।
यह श्रेष्ठ
आख्यान, रहस्यमय, पवित्र,
पापनाशक, पुरुषों के लिए अत्यन्त कल्याणकारी,
गर्भ में पुंसवनकारक, मंगलमय, चारों पुरुषार्थों को देने वाला तथा हितकारक है ।। ७-८ ।।
शठाय
चलचित्ताय नास्तिकायाजितात्मने ।
देवद्विजगुरूणां
च मिथ्यानिर्बन्धकारिणे ।। ९ ।।
न
पापायाभिशस्ताय खञ्जकाणादिरोगिणे ।
न कथ्यं न च
वा देयं श्रद्धाविरहिताय च ।। १० ।।
इसे दुष्ट, चञ्चलचित्त, नास्तिक,
जिसने अपने आप को न जीत लिया हो, जो देवता-ब्राह्मण
और गुरु के प्रति झूठा आरोप लगाने वाला हो, पापी, अभिशप्त-लूले, काने आदि रोगों से ग्रस्त तथा
श्रद्धारहितपुरुष से इसका कथन नहीं करना चाहिए और न उसे देना ही चाहिये ।। ९-१०॥
महामायामन्त्रकल्पं
प्रोक्त्वा ताभ्यामुमापतिः।
वेतालभैरवाभ्यां
तु पुनरेवाभ्यभाषत ।। ११ ।।
महामायामन्त्र
- कल्प सुनाने के पश्चात् उमापति भगवान् शिव ने उन दोनों वेताल और भैरव से पुनः
आगे कहा ॥ ११ ॥
।।भगवानुवाच।।
अङ्गमन्त्रं
प्रवक्ष्यामि प्रोक्तवाँस्तन्त्रमुत्तमम् ।
तदेव प्रथमं
विद्धि सर्वपूजासु सङ्गतम् ।। १२ ।।
श्रीभगवान्
बोले- मैंने तुम दोनों से उत्तम (मुख्य) तन्त्र कह दिया है। अब मैं उनके
अङ्गभूतमंन्त्रों को कहता हूँ। तुम दोनों सभी प्रकार की पूजाओं के उपयुक्त, उसको पहले जानो ।। १२ ।।
आचान्तः
शुचितां प्राप्तः सुस्नातो देवपूजने ।
पूजावेद्या
बहिःस्थित्वा चतुर्हस्तान्तरे धिया ।। १३ ।।
गृहे वां
द्वारदेशस्थः प्रणम्य शिरसा गुरुम् ।
प्रणमेदिष्टदेवं
स्वं दिक्पालानपि चेतसा ।। १४ ।।
साधक, देवपूजन के क्रम में, भली-भाँति स्नान करके, पवित्रीकरण, आचमन आदि से शुचिता को प्राप्त कर, बुद्धिपूर्वक घर
में या देवालय के द्वार- देश पर, पूजावेदी से कम से कम चार हाथ
की दूरी रखते हुए, गुरु एवं अपने इष्टदेव को सिर झुकाकर
प्रणाम करे तथा मानसिकरूप से सभी दिग्पालों को भी प्रणाम करे ॥ १३-१४ ॥
यत्
पूर्वमर्जितं पापं तद्दिनेऽन्यदिनेऽपि वा ।
प्रायश्चित्तैर्नापनुन्नं
तच्च पापं स्मरेद्धिया ।।
तत्पापस्यापनोदाय
मन्त्रद्वयमुदीरयेत् ।। १५ ।।
जो पाप किया
गया हो और प्रायश्चितों से दूर न किया जा सका हो, उसी दिन या किसी अन्य दिन पूजा के पूर्व, उस पाप का बुद्धिपूर्वक स्मरण करे तथा उसे दूर करने के लिए अधोलिखित दो
मन्त्रों देवि .... साक्षिणः । को बोले ॥१५॥
देवि त्वं
प्राकृतं चित्तं पापाक्रान्तमभून्मम ।
तन्निःसारय
चित्तन्मे पापं हूं फट् च ते नमः ।। १६ ।।
सूर्यः सोमो
यमः कालो महाभूतानि पञ्च वै ।
एते
शुभाशुभस्येह कर्मणो नव साक्षिणः।। १७ ।।
मन्त्रार्थ -
हे देवि ! सूर्य, चन्द्रमा, यमराज, काल, आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथिवी नामक पञ्चमहाभूत ये नव, प्राणीमात्र के
शुभ और अशुभ कर्मों के साक्षी हैं। मेरा चित्त जो स्वाभाविकरूप से तुम्हारे में
संयुक्त है किन्तु वह पाप से आक्रान्त हो गया है । आप उस पाप को मेरे चित्त से
निकालें। इसीलिए हूँ फट् कहता हुआ, मैं आपको नमस्कार
करता हूँ ।। १६-१७॥
ततः पुनर्हूं
फडिति पार्श्वमूर्ध्वमधस्तथा ।
आत्मानं
क्रोधदृष्ट्याथ निरीक्ष्य सुमना भवेत् ।। १८ ।।
साधक तब पुनः हूँ
फट् कहते हुए अपने को अगल-बगल, ऊपर-नीचे पूर्णदृष्टि से देखता हुआ स्वस्थचित्त हो॥१८॥
एवं कृते
प्रथमतः पापोत्सारणकर्मणि ।
यत् स्याद्
दृढतरं पापं तद् दूरे चावतिष्ठते ।।१९ ।।
अतीते पूजने
स्थानं स्वं प्रयाति पुनश्च यत् ।
यत्
स्यादल्पतरं पापं तन्नाशमुपगच्छति ।।२० ।।
ऐसा करने से
पाप - उत्सारणकर्म में सर्वप्रथम जो बलवान् पाप होता है, वह दूर ही रहता है तथा पूजन सम्पन्न हो
जाने पर वह अपने स्थान पर पुनः आ जाता है । किन्तु जो अल्पपाप होता है। वह नष्ट हो
जाता है।।१९-२०।।
ॐ अः
फडितिमन्त्रेण पूजावेदीं ततो विशेत् ।
पूजने
त्यक्तपापस्य काममिष्टं क्षणाद् भवेत् ।। २१ ।।
पूजन में
पापमुक्त साधक क्षणभर में ही अपनी कामनाओं को प्राप्त हो जाता है। इसलिए
पाप-उत्सारण के पश्चात् ॐ अः फट् मन्त्र बोलता हुआ, वह पूजास्थल में प्रवेश करे ॥ २१ ॥
नाराचमुद्रया
दृष्ट्वा समया सम्प्रलोकयेत् ।
पुष्पनैवेद्यगन्धादि
ह्रीं हूँ फडिति मन्त्रकैः।। २२ ।।
तब
नाराचमुद्रा से, ह्रीं
हूँ फट् मन्त्र से पुष्प, गन्ध,
नैवेद्य आदि उपचारों का भलीभाँति अवलोकन करे ॥२२॥
यदात्मनानवज्ञातं
सम्यक् पुष्पादिदूषणम् ।
अस्पृश्यस्पर्शनं
वापि यदन्यायार्जितं च वा ।।२३ ।।
तथा
निर्माल्यसंसृष्टं कीटाद्यारोहणं च यत् ।
तत्सर्वं
नाशमायाति नैवेद्याद्यवलोकनात् ।। २४ ।।
पुष्पादि के
जिन दोषों को साधक अपने आप नहीं जानता, जैसे उनका न चुनने योग्यजनों द्वारा चुना जाना, अन्याय से अर्जित किया जाना, देवता से उतारे गये
पदार्थों से मिला होना, कीड़े-मकोड़े का उस पर चढ़ना,
आदि वे सब दोष नैवैद्यादि के उपर्युक्तरीति से अवलोकन से नष्ट हो
जाते हैं ।। २३-२४।।
ततो
रमितिमन्त्रेण शिखां दीपस्य संस्पृशेत् ।
स तस्य सुभगो
दीपो भवेत् स्पर्शनामात्रतः ।। २५ ।।
तब 'रं' मन्त्र से दीपक की लौ को स्पर्श करे। उस
साधक का दीपक इस प्रकार के स्पर्श मात्र से सुन्दर हो जाता है।।२५।।
पतङ्गकीटकेशादि-दाहात्
क्रव्यादसंहतः ।
वसामज्जास्थिसम्पूतिर्यज्ञादावुपयोजनम्
।। २६ ।।
अज्ञतरूपं
तत्सर्वं दोषं स्पर्शाद् विनाशयेत् ।।२७ ।।
इस प्रकार के
स्पर्श से, पतङ्ग,
कीट, केश आदि के जलाने से, हिंसक जन्तुओं के स्पर्श से, यज्ञ में (बलिदान) में
वसा, मज्जा, अस्थि के दुर्गन्ध से,
अनजाने में दीपक में जो दोष उत्पन्न हो जाते हैं, उन सभी का शमन हो जाता है ।। २६-२७।।
नारसिंहेन
मन्त्रेण देवतीर्थेन संस्पृशेत् ।
पानीयं
घटमध्यस्थं वीक्षन्नभ्युक्ष्य याजकः ।।२८ ।।
नृसिंह का
मन्त्र पढ़ते हुए याजक, घट में स्थित जल को देखकर और अपने पर छिड़कते हुए, देवतीर्थ,
अंगुलियों के अग्रभाग से, उसका स्पर्श करे ।।
२८ ।।
वामेन पाणिना
धृत्वा वामपार्श्वे स्थितं तदा ।
पात्रमाधारमन्त्रेण
संस्कुर्वन् संस्पृशेज्जलम् ।। २९ ।।
उस समय अपने
बायें भाग में रखे पात्र को बायें हाथ में लेकर, आधारमन्त्र से उसका संस्कार करता हुआ, जल
का स्पर्श करे ॥२९॥
यज्ञदानादपेयादि
संसृष्टिरिह शङ्गता ।
यदन्यद् दूषणं
पात्रे तोये वा ज्ञानतो भवेत् ।।३० ।।
जलाशयं
शवस्पर्शाज्जलं स्ननाच्च सङ्गतम् ।
दूषणानि
विनश्यन्ति तानि वै देवपूजने ।।३१ ।।
यज्ञदानादि के
संयोग से जल में न पीने योग्य हो जाने जैसे, दोष आ जाते हैं या अन्य भी पात्र या जल में स्थितदोष, जाने-अनजाने हो जाते हैं। शवस्पर्श, स्नान आदि के कारण,
जलाशय और जल में जो दोष उत्पन्न हो जाते हैं। वे सभी देवपूजन में
उपर्युक्त क्रिया से नष्ट हो जाते हैं ।। ३०-३१॥
प्रजापतिसुतो
हान्तप्रान्तः स्वरसमन्वितः।
चन्द्रार्धबिन्दुसहितो
मन्त्रोऽयं नारसिंहकः।।३२ ।।
प्रजापति के
पत्र अग्नि के बीज मन्त्र (र) के साथ अन्तिम स्वर औ तथा ह बाद आने वाला व्यजन क्ष, जो अर्धचन्द्र तथा बिन्दु से युक्त हो,
नारसिंहमन्त्र (क्षौं) बनता है ॥ ३२ ॥
कालिका पुराण
अध्याय ५७- आधारमन्त्र
स्वसंज्ञाद्यक्षरं
बिन्दुचन्द्रार्धपरियोजितम् ।
आधारमन्त्रं जानीयात्
साधकः कार्यसिद्धये ।।३३ ।।
साधक को
कार्यसिद्धि प्रदान करने वाला आधारमन्त्र, आदि स्वर अक्षर (अ), बिन्दु और
अर्धचन्द्र से युक्त होकर बना (अँ) जानना चाहिये ।। ३३॥
तत
आधारमन्त्रेण पाणिभ्यामासनं स्वकम् ।
आदाय
विनिधायाशु पुनः संस्पृश्य पाणिना ।
आत्ममन्त्रेणोपविशेत्
तदा तस्मिन् वरासने ।। ३४ ।।
साधक तब
(पूर्वोक्त जल- दीप आदि की शुद्धि के पश्चात् ) आधारमन्त्र पढ़ता हुआ अपने आसन को
अपने हाथ में लेकर, उसे बिछा कर शीघ्र पुनः हाथ से स्पर्श करके आत्ममन्त्र का उच्चारण करता
हुआ, उस समय, उस श्रेष्ठ आसन पर बैठे ॥३४॥
दुःशिल्पिरचितत्वादि
यद्वान्यासन दूषणम् ।
अज्ञातं विलयं
याति उपवेशात् समन्त्रकात् ।। ३५ ।।
अनुचित शिल्पी
द्वारा बनाये जाने सम्बन्धी या अन्य भी आसन सम्बन्धी न जाने-जानेवाले दोष, मन्त्रोच्चारपूर्वक आसन पर बैठने से,
नष्ट हो जाते हैं ॥३५॥
कालिका पुराण
अध्याय ५७- आत्ममन्त्र
आहूय
स्वाक्षरं पूर्वं सोमसामिसमन्वितम् ।
सबिन्दुकं
विजानीयादात्ममन्त्रं तु साधकः।। ३६ ।।
साधक को पहले
स्वाक्षर आ का अर्धचन्द्र और बिन्दुसहित उच्चारण कर (आँ) को आत्ममन्त्र जानना
चाहिये ॥३६॥
कालिका पुराण
अध्याय ५७- मातृकान्यास
ततस्तु
मातृकान्यासं नादबिन्दुसमन्वितम् ।
कुर्यात् तु
मातृकामन्त्रैः स्वशरीरे विचक्षणः ।।३७ ।।
तब बुद्धिमान्
साधक, नाद और बिन्दु से युक्त मातृकामन्त्रों
द्वारा अपने शरीर में मातृकान्यास करे ॥३७॥
कल्पेषु च
यदज्ञातं मन्त्रोच्चारणकर्मणि ।
यद् दुष्टं वा
तथा स्पृष्टं माताभ्रष्टादिदूषणम् ।। ३८ ।।
तन्न्यस्ता
मातृकामन्त्रा नाशयन्ति सदैव हि ।। ३९ ।।
मन्त्रोच्चारणकर्म
की पद्धतियों में भी न दर्शाये जाने वाले दोष, दुष्टपदार्थों के स्पर्श तथा मात्रादिगत मन्त्रदोषों को शरीर
में न्यस्त मातृकामन्त्र, सदैव नष्ट कर देते हैं।। ३८-३९॥
व्यञ्जनानि च
सर्वाणि तथा विष्ण्वादयः स्वराः ।
सर्वे ते
मातृकामन्त्राश्चन्द्रबिन्दुविभूषणा ।।४० ।।
सभी व्यंजन
तथा विष्णु (अ) आदि सभी स्वर, वे सभी वर्ण, चन्द्र और बिन्दु से सुशोभित हो,
मातृकामन्त्र बनते हैं॥४०॥
सर्वे
युगान्तवन्द्येषु न्यस्तेषु न्यूनपूरणम् ।
मन्त्रे कल्पे
च कुर्वन्ति विन्यस्ता मातृकाः स्वयम् ।। ४१ ।।
शरीर के
अङ्गों पर आगन्तुवअ (सदैव वंदित) इन सबके न्यस्त किये जाने से स्वयं मातृकाएँ, मन्त्र एवं पद्धति की कमी की पूर्ति कर
देती हैं ॥ ४१ ॥
एकमात्रो
भवेद्ध्रस्वो द्विमात्रो दीर्घ उच्यते ।
प्लुतस्त्रिमात्रो
विज्ञेयो वर्णा एते व्यवस्थिताः ।। ४२ ।।
एक मात्रा
वाले स्वर को ह्रस्व, दो मात्राओं वाले स्वर को दीर्घ तथा तीन मात्राओं वाले स्वरवर्णों प्लुत
जानना चाहिये। इसी क्रम से स्वरवर्ण व्यवस्थित किये गये हैं ॥४२ ॥
सर्वषामेव
वर्णानां मात्रादेव्यस्तु मातृकाः ।
शिवदूतीप्रभृतयस्तन्न्यासास्तत्तनुस्थिताः
।। ४३ ।।
सभी वर्गों की
शिवदूति आदि मात्रा देवियाँ, मातृकाएँ होती हैं। उन मातृकाओं के न्यास का अर्थ, अपने
शरीर में उनसे सम्बद्ध देवियों को स्थापित करना है ॥ ४३ ॥
पूरयन्ति च
तान् न्यूनांश्चतुर्वर्गं तथाचिरात् ।
ददत्येव सदा
रक्षां कुर्वन्ति सुरपूजने ।। ४४ ।।
देवपूजन में
ये उनकी कमियों को दूर करती हैं। ये साधक की सदैव रक्षा करती हैं तथा अर्थ-धर्म
आदि चारों पुरुषार्थों को उसे शीघ्र प्रदान करती हैं ॥४४॥
चतुर्वर्गप्रदश्चायं
सर्वकामफलप्रदः ।
सर्वदामातृकान्यासस्तुष्टिपुष्टिप्रदायकः
।। ४५ ।।
यह
मातृकान्यास, सदैव सभी
कामनाओं का फलप्रदान करने वाला, चारों पुरुषार्थ प्रदानकर्ता
तथा तुष्टि और पुष्टि प्रदान करने वाला है ॥ ४५ ॥
यः कुर्याद्
मातृकान्यासं विनापि सुरपूजनात् ।
तस्माद्
बिभेति सततं भूतग्रामश्चतुर्विधः ।। ४६ ।।
बिना देवपूजन
किये भी जो साधक, नित्य मातृकान्यास करता है। उससे चारों प्रकार के प्राणि या भूतसमूह,
निरन्तर भय खाते हैं ॥ ४६ ॥
तं द्रष्टुमपि
देवाश्च स्पृहयन्ति महौजसम् ।
स सर्वं च वशं
कुर्याद् न च याति पराभवम् ।। ४७ ।।
उस महान ओजस्वी
पुरुष के दर्शन की देवगण भी लालसा करते हैं। वह सबको अपने अधीन कर लेता है तथा कभी
भी पराभव को प्राप्त नहीं होता ॥४७॥
कालिका पुराण
अध्याय ५७- करशोधन
कुसुमं
विष्णुमन्त्रेण अङ्गुल्यग्रेण साधकः ।
विमर्दनार्थं
गृह्णीयात् करशोधनकर्मणि ।। ४८ ।।
करशोधनकर्म
में, सर्वप्रथम साधक को विष्णुमन्त्र का उच्चारण
करते हुए अंगुलियों के अग्रभाग से, पुष्प को मसलने के लिए
ग्रहण करना चाहिये ॥४८॥
कालिका पुराण
अध्याय ५७- वैष्णवमन्त्र
उपान्तः सामि
चन्द्रेण रञ्जितः शून्यसंयुतः ।
रुद्रान्तोपरिसंसृष्टो
मन्त्रोऽयं वैष्णवो मतः ।। ४९ ।।
शून्य
(विन्दु) से युक्त अर्धचन्द्र से सुशोभित उपान्त रुद्रान्त के ऊपर संसृष्ट हो जो
मन्त्र बनता है वह विष्णु का मन्त्र कहा गया है ॥ ४९ ॥
प्रासादेन तु
मन्त्रेण अङ्गुल्यग्रेण साधकः ।
गृहीत्वा च
ततः कुर्यात् कराभ्यां पुष्पमर्दनम् ।। ५० ।।
निर्मथेत्
कामबीजेन जिघ्रेद् ब्राह्मेण तत् पुनः ।
प्रासादेन
परित्यागो दिश्यैशान्यां विशेषतः ।। ५१ ।।
साधक को
चाहिये कि वह प्रासादमन्त्र का उच्चारण करता हुआ अंगुली के अग्रभाग से पुष्पग्रहण
कर, दोनों हाथों से उसका मर्दन करे। ऐसा करते
समय वह काम-बीज का उच्चारण करते हुए उसे मथे ( रगड़े), ब्रह्मबीज
से सूँघे तथा विशेषकर ईशानकोण में प्रासादबीज से उसका परित्याग कर दे ।। ५०-५१।।
एवं कृते तु
करयोर्विशुद्धिरतुला भवेत् ।
जलौकागूढपादादिस्पर्शाच्छुद्धिर्विशोधनात्
।। ५२ ।।
दुर्गन्ध्युच्छिष्टसंस्पर्शाद्
दूषणं करयोस्तु यत् ।
अज्ञातरूपं
तत्सर्वं नाशयेत् सुविधानतः ।।५३ ।।
ऐसा करने से
दोनों हाथों की, जोंक,
सर्पादि के स्पर्शदोष को दूर करने वाली अतुलनीय शुद्धि हो जाती है ।
अनजाने में दुर्गन्धि और जूठे आदि के स्पर्श से हाथों में जो दोष, उत्पन्न होते हैं। उनका भी इस विधान से नाश हो जाता है ।। ५२-५३॥
अङ्गुल्यग्राणि
शुद्धानि पुष्पाणां ग्रहणाद् भवेत् ।
तलद्वयं
मर्दनात् तु विशुद्धमभिजायते ।। ५४ ।।
निर्मञ्छनात्
पाणिपृष्ठं घ्राणान्नासाग्रमुत्तमम् ।
तीर्थानि च
समायान्ति नासिकायां करं प्रति ।
तस्माद्
यत्नेन कार्याणि कर्माण्येतानि भैरव ।। ५५ ।।
हे भैरव ! इस
विधि में पुष्पों के ग्रहण से, अङ्गुलियों के अग्रभाग, उनके मर्दन से दोनों
हथेलियाँ, मन्थन से हाथों के पिछले भाग, सूंघने से नासिका का अगला भाग, शुद्ध हो जाता है तथा
नाक और हाथों में आकर तीर्थ, वश जाते हैं । इस लिए करशोधन
सम्बन्धी इन कर्मों को प्रयत्नपूर्वक करना चाहिये ।।५४-५५।।
कालिका पुराण
अध्याय ५७- प्रासादमन्त्र
प्रान्तादिर्वासुदेवेन
वर्णेनापि च संहितः ।
शम्भुचूडाबिन्दुयुक्तः
प्रासाद च स उच्यते ।। ५६ ।।
अन्तिम से
पहला वर्ण ह जो वासुदेव औ के साथ हो और शम्भू चूड(अर्धचन्द्र) और बिन्दु से युक्त
होकर प्रासाद बीज हौं कहा जाता है ॥ ५६ ॥
कामबीजं तु
विज्ञेयं वासुदेवेन्दुबिन्दुभिः।
व्यञ्जनं
चाद्यदन्तं च प्रान्तदन्त्या तु पूर्वकम् ।। ५७ ।।
आदि व्यञ्जन क, अन्तिम दन्त्य से पहले वाले दन्त ल,
चन्द्र और बिन्दु सहितं वासुदेव से युक्त होकर कामबीज क्लीं जानना
चाहिये ॥५७॥
कालिका पुराण
अध्याय ५७- ब्रह्मबीज
आद्यदन्त्यद्वयं
पश्चाद् व्यञ्जनं प्रणवोत्तरम् ।
ब्रह्मबीजमिदं
प्रोक्त सर्वपापप्रणाशनम् ।। ५८ ।।
प्रणव के
पश्चात् प्रारम्भ के दो दन्त्यों को सभी पापों को नाश करने वाला ब्रह्मबीज कहा गया
हैं ।। ५८ ।।
प्रणवं
दीर्घमुच्चार्यं प्रथमं मुखशुद्धये ।
वासुदेवस्य
बीजेन प्राणायामं समाचरेत् ।। ५९ ।।
सर्वप्रथम
मुखशुद्धि के लिए दीर्घप्रणव का उच्चारण करना चाहिए। तब वासुदेवबीज क्लीं से
प्राणायाम करे ।। ५९ ।।
यस्य देवस्य
यद्रूपं तथा भूषणवाहनम् ।
तदेव पूजने
तस्य चिन्तयेत् पूरकादिभिः ।। ६० ।।
जिस देवता का
जैसा रूप, आभूषण और वाहन होता है । उसके पूजन के समय,
प्राणायाम की पूरकादि अवस्थाओं में उसी का ध्यान करना चाहिये ॥६०॥
कालिका पुराण
अध्याय ५७- वासुदेवबीज
वैष्मवीतन्त्रमन्त्रस्य
कण्ठाद्यं यत्पुरःसरम् ।
तद् बीजं
वासुदेवस्य पूर्णचन्द्रनिभं सदा ।। ६१ ।।
वैष्णवीतन्त्र-मन्त्र
का जो पहला कण्ठवर्ण है। वह जिसके पहले स्थित हो वह वर्ण जो सदा पूर्णचन्द्र के
समान है। वासुदेव का बीज बताया जाता है ।। ६१ ॥
गङ्गावतारबीजेन
प्रथमं धेनुमुद्रया ।
अमृतीकरणं
कुर्यादर्घपात्राहिते जले ।। ६२ ।।
तब पहले
अर्धपात्र में रखे हुए जल में, गंगावतारबीज का उच्चारण करते हु धेनुमुद्रा द्वारा साधक, अमृतीकरण करे ॥६२॥
शशिखण्डयुतः
कण्ठ्यः पञ्चमीबलबीजकः ।
गङ्गावतारमन्त्रोऽयं
सर्वपापप्रणाशकः ।। ६३ ।।
मात्राद्वययुतो
विष्णुर्बलबीजमुदाहृतम् ।। ६४ ।।
बलबीज और
चन्द्रखण्ड से युक्त पाँचवाँ कण्ठ्यवर्ण घ, गंगावतार मन्त्र कहा गया है जो सभी पापों का नाश करने वाला
है। दो मात्राओं से युक्त अर्थात् दीर्घ विष्णु इ को बलबीज ई कहा गया है ।।६३-६४॥
अमृतीकरणे
वृत्ते तोयं यद् दीयतेऽमृतम् ।
भूत्वा
प्रयाति देवस्य प्रीयते सुरपूजने ।। ६५ ।।
देवपूजन में
अमृतीकरण करके जो जल दिया जाता है। वह अमृत होकर देवता की प्रसन्नता को पहुँचता
है॥६५॥
गङ्गापि
स्वयमायाति पूजापात्रजलं प्रति ।
अमृतीकरणं
कुर्याद् धर्मकामार्थसिद्धये ।। ६६ ।।
इस क्रिया से
पूजा-पात्र में गङ्गा नदी की शक्ति भी स्वयं आ जाती है अतः धर्म-अर्थ- काम की
सिद्धि के लिए अमृतीकरण की क्रिया करनी चाहिये ॥ ६६ ॥
स्वस्तिकं
गोमुखं पद्ममर्धस्वस्तिकमेव च ।
पर्यङ्कमासनं
शस्तम अभीष्टसुरपूजने ।। ६७ ।।
देवपूजनकर्म
में स्वस्तिक, गोमुख,
पद्म, अर्धस्वस्तिक, पर्यङ्क
नामक आसन अभीष्ट (प्रशस्त) बताये गये हैं ॥६७॥
पादयन्त्रमिदं
प्रोक्तं सर्वमन्त्रोत्तमोत्तमम् ।
तद्
गृह्णीयाद् वराहस्य बीजेन प्रथमं बुधः ।। ६८ ।।
यह (आसन)
पादयन्त्र कहा जाता है। जो सभी मन्त्रों (के साधन) में उत्तम तथा मन्त्रसाधन का
आधार है। बुध (विद्वान् साधक) को पहले, वराहबीज से पूजा करके इसे ग्रहण करना चाहिये ॥ ६८ ॥
कालिका पुराण
अध्याय ५७- वराहबीज
मायादिरग्निबीजस्य
चतुर्थः समव्याप्तिकः ।
षष्ठस्वरोपरिचरो
वाराहं बीजमुच्यते ।। ६९ ।।
मायाक्ष के
पहले का वर्ण ह, अग्निनी
बीज रे से चौथ वर्ण स्, छठे स्वर ऊ से युक्त हो वाराह बीज
हलं कलाता है ॥ ६९ ॥
वाराहबीजसंशुद्धं
मन्त्रपादद्वये कृतम् ।
पश्यन्नभीष्टदेवं
तु पाददोषं न पश्यति ।। ७० ।।
दोनों पैरों
को वाराहबीज से शुद्ध किया हुआ साधक, अपने इष्टदेव का दर्शन करते समय, पैर
देखने के दोष को प्राप्त नहीं करता हैं ॥ ७० ॥
न युक्तमन्यथा
पाददर्शनं सुरपूजने ।
मन्त्रेण
लभतेऽभीष्टांस्तस्मान्मन्त्रपरो भवेत् ।।७१ ।।
अन्यथा देव
पूजनकर्म में पैर का देखना उचित नहीं है । मन्त्र के प्रयोग के बाद वह उपासना करने
से अभीष्टसिद्धि को प्राप्त करता है । इसीलिए साधक को मन्त्र- परायण होना चाहिये ॥
७१ ॥
पाणिकच्छपिकां
कुर्यात् कूर्ममन्त्रेण साधकः ।
तत्र
संस्कृतपुष्पेण पूजयेदात्मनो वपुः ।
पूजिते तेन
पुष्पेण देवत्वं स्वस्य जायते ।। ७२ ।।
तब साधक, कूर्ममन्त्र के उच्चारणपूर्वक पाणिकच्छप
(कूर्म मुद्रा) बनाये और शुद्ध किये गये पुष्प से अपने शरीर का पूजन करे। उस शुद्ध
किये पुष्प से पूजा किये जाने से साधक में स्वयं ही देवत्व उत्पन्न हो जाता है ॥
७२ ॥
कालिका पुराण
अध्याय ५७- कूर्मबीज
द्वितीयं
वैष्णवीतन्त्रं बीजं बिन्द्विन्दुसंयुतम् ।
षष्ठस्वरोपरिचरं
कूर्मबीजं प्रकीर्तितम् ।। ७३ ।।
वैष्णवीतन्त्र
का द्वितीय बीजमन्त्र 'क' चन्द्र और बिन्दु से युक्त तथा छठे स्वर ऊ के ऊपर
स्थित होने पर कूँ यह कूर्मबीज कहा गया है ।। ७३ ।।
दहनप्लवनस्यादौ
रन्ध्रस्य दशमस्य तु ।
भेदनं साधकः
कुर्यान्मन्त्रेण प्रणवेन तु ।। ७४ ।।
प्रारम्भ में
दहन, प्लवन आदि करने के पश्चात् ॐ कार का
उच्चारण करते हुए साधक को दसवें द्वार (ब्रह्मरन्ध्र) का भेदन करना चाहिये ॥७४॥
बीजेन
वासुदेवस्य आकाशे विनिधापयेत् ।
प्राणेन सहितं
बीजं ततपूर्वं प्रतिपादितम् ।। ७५ ।।
पहले बताये
गये वासुदेवबीज को प्राणवायु के साथ आकाश (ब्रह्मरन्ध्र) में स्थापित करे ॥ ७५ ॥
अज्ञाता
प्रयतानां तु मण्डलस्थानमार्जनात् ।
द्रव्याणां
विप्रकारः स्यात् संसर्गाणां तथैव च ।। ७६ ।।
मण्डलस्थान के
मार्जन से अज्ञातरूप से किये गये । पूजोपचारों के दोषों तथा संसर्गगत दोषों का शमन
हो जाता है ॥ ७६ ॥
मधुकैटभयोर्मेदः
संघातैर्दृढतां गता ।
मेदिनी सर्वदा
शुद्धा सुरपूजासु सर्वतः ।। ७७ ।।
'यह पृथिवी
मधुकैटभ नामक दैत्यों के मेदे से दृढ़ की गई है, इसीलिए यह देवपूजा
हेतु सर्वथा, सदा अशुद्ध है ॥७७॥
अद्यापि सर्वे
त्रिदशा न स्पृशन्ति पदा क्षितिम् ।
न च
स्वीयतनुच्छायां योजयन्ति च भूतले ।। ७८ ।।
इसीलिए आज भी
देवता न तो अपने पैरों से पृथिवी का स्पर्श करते हैं और न पृथिवी से अपने शरीर की
छाया को ही लगने देते हैं ॥ ७८ ॥
तस्य दोषस्य
मोक्षार्थं मन्त्रराजं लिखेत् क्षितौ ।। ७९ ।।
प्रोक्षणाद्
वीक्षणाद् वापिशुद्धा भवति मेदिनी ।
वीक्षणं
धर्मबीजेन स्थण्डिलस्य समाचरेत् ।। ८० ।।
उस दोष से
मुक्ति के लिए पृथिवी पर मन्त्रराज लिखना चाहिये। (जल के छिड़काव), वीक्षण (विशेष दृष्टि से देखने) से भी
पृथिवी शुद्ध हो जाती है। इसमें स्थण्डिल (वेदी) का वीक्षणकार्य धर्मबीज का
उच्चारण करते हुए करना चाहिये ।। ७९-८०॥
कालिका पुराण
अध्याय ५७- धर्मबीज
दान्तो बलेन
संयुक्तश्चूडाबिन्दुसमन्वितः।
धर्मबीजमिति
प्रोक्तं धर्मकामार्थसाधनम् ।। ८१ ।।
बलबीज और
चन्द्रबिन्दु से युक्त दान्त (ध), धर्म, अर्थ एवं काम का साधन करने वाला धर्मबीज कहा
गया है ॥८१॥
कालिका पुराण
अध्याय ५७- पात्रप्रतिपत्ति
आदानं धारणं
तथा संस्थानपूजने ।
पूरणं
संलिलेनैव निःक्षेपो गन्धपुष्पयोः ।। ८२ ।।
मण्डलस्याथ
विन्यासः पुनः पुष्पस्य संश्रयः ।
अमृतीकरण
पात्रप्रतिपत्तिरियं नरः ।। ८३ ।।
पात्र को
उठाना, उसे धारण करना, स्थापन
के स्थान पर पूजनपूर्वक रखना, जल से भरना उसमें गन्ध और
पुष्प छोड़ना, उसमें सूर्य, चन्द्र और
अग्नि मण्डलों से तत्वों का न्यास करना, पुष्प से ढकना तथा
अमृतीकरण, साधक द्वारा की जाने वाली पात्रस्थापन की ये नौ
क्रियाएँ हैं ।।८२-८३॥
आनिरुद्धेन
चादाय अस्त्रमन्त्रेण धारणम् ।
पात्रे तु
मण्डलन्यासं वाग्बीजाग्रेण योजयेत् ।। ८४ ।।
अनिरुद्धबीज
से पात्र को लेना तथा अस्त्रमन्त्र से उसे धारण कर पात्र पर मण्डलन्यास करने के
लिए प्रथम वाग्बीज का प्रयोग करना चाहिये ॥ ८४ ॥
आनिरुद्धं भवेद्बीजमाद्यं
बिन्दुद्वयोत्तरम् ।
फडन्तेनानिरुद्धं
तु अस्त्रमन्त्रं प्रकीर्तितम् ।। ८५ ।।
पहला बीज अ दो
बिन्दु से अनुसरण किया जाता हुआ अः नामक अनिरुद्धमन्त्र के बाद फट् शब्द लगा दिया
जाता है तो यह अः फट् मन्त्र नामक अस्त्रमन्त्र कहा जाता है ।। ८५ ।।
शम्भुराद्यवलः
प्रान्तः सम्पूर्णा सहिता इमे ।
परतः परतः
पूर्वं समाप्त्यन्ताः सबिन्दुकाः ।। ८६ ।
तृतीयं वाग्भवं
बीजं सकलं निष्कलाह्वतम् ।
स्वरश्चतुर्थः
सकलः संसृष्टौ बिन्दुनेन्दुना ।। ८७ ।।
शम्भूह के
पहले और बल व के पश्चात् आने वाला वर्ण स, प्रान्त स्वर औ तथा समाप्ति विसर्ग और विन्दु से युक्त
सकल-निष्कल नामक तृतीय वाग्भव बीज सौं कहा जाता है ॥ ८६ ॥
वर्गाद्यादिर्द्वितीयं
तु वाग्भवं बीजमुच्यते ।
कामराजाह्वयं
चैतद् धर्मकामार्थसाधनम् ।। ८८ ।।
ल के सहित और
द्वितीय वर्ग का पला अक्षर क, चन्द्र बिन्दु और ल सहित चौथे स्वर इसे युक्त हो क्लीं नामक द्वितीय
वाग्भव बीज कहा जाता है। यही कामराजबीज भी कहा जाता है जो धर्म, अर्थ और काम का साधनभूत है।८७-८८।।
मनोभवस्य बीज
तु कुण्डलीशक्तिसंयुतम् ।
वासुदेवेन
सम्पृक्तमाद्यं वाग्भवमुच्यते ।
इदं सारस्वतं
नाम यदाद्यं वाग्भवं स्मृतम् ।। ८९ ।।
कुण्डलीशक्तियुक्त
वासुदेव बीज बीज प्रथम वाग्भव कहा जाता है। यह जो प्रथम वाग्भवबीज है वह सारस्वत
बीज कहा जाता है । ८९ ।।
एकैकं
कामबीजादि त्रिभिस्तु त्रिपुरामहः ।। ९० ।।
ये तीनों जब
अलग-अलग होते हैं। तो सारस्वत, काम एवं शक्तिबीज आदि नामों से पुकारे जाते और जब एकत्रितरूप में होते हैं
तो महान् त्रिपुराबीज कहे जाते हैं ॥ ९० ॥
आद्यं तृतीयं
सामीन्दुबिन्दुभ्यः समलंकृतम् ।
मदनस्य तु
मन्त्रोऽयं कामभोगफलप्रदः ।। ९१ ।।
पहला वर्ण अ
एवं तृतीय वर्ण इ संयुक्त रूप से अर्धचन्द्र से सुशोभित हो कामदेव का मन्त्र बनता
है जो सभी प्रकार का कामनाओं के भोग का फल प्रदान करता है ॥ ९१ ॥
औदेतोरूपविन्यस्तं
यन्त्रं भास्करसन्निभम् ।
तद् वक्ष्ये
कुण्डलीशक्तिमभेदात् तु निगद्यते ।। ९२ ।।
अब औं एवं रूप
वाले सूर्य के समान तेजस्वी मन्त्र को कहता हूँ. ज कुण्डलीशक्ति की समता के कारण
कुण्डलीशक्ति कहा जाता है ॥ ९२ ॥
भूतापसारणं
कुर्यान्मन्त्रेणानेन याजकः ।
यस्मिन् कृते
स्थानभूता दूरं यान्ति सुरार्चने ।। ९३ ।।
याजक (पूजा
करने वाला साधक) इस मन्त्र से भूतापसारण करे, जिसके करने से, उस स्थान पर स्थित भूत,
देव पूजन में दूर हट जाते हैं ॥ ९३ ॥
स्थितेषु तत्र
भूतेषु नैवेद्यमाण्डलं तथा ।
विलुम्पन्ति
सदा लुब्धा न गृह्णन्ति च देवता ।। ९४ ।।
अन्यथा वहाँ
स्थित भूत, लोभी हो,
वहाँ स्थापित, सभी नैवद्यादि को लूट लेते हैं
। तब उसे देवता ग्रहण नहीं करते ।। ९४ ।।
तस्माद्
यत्नेन कर्तव्यं भूतानामपसारणम् ।
अस्त्रमन्त्रेण
सहितं तस्य मन्त्रमिदं स्मृतम् ।। ९५ ।।
अतः भूतों का
अपसारण (इन्हें भगाने का कार्य) साधक द्वारा प्रयत्नतः किया जाना चाहिये । उसका
अस्त्र-मन्त्र सहित यह उपर्युक्त.... करोम्महम् मन्त्र कहा गया है ।। ९५ ।।
अपसर्पन्तु ते
भूता ये भूता भूमिपालकः।
भूतानामविरोधेन
पूजाकर्म करोम्यहम् ।। ९६ ।।
मन्त्रार्थ -
इस पृथ्वी के रक्षक (स्वामी) जो भूत हैं वे यहाँ से चले जायँ । मैं उन भूतों के
विरोध से रहित हो यहाँ देवपूजन करता हूँ ॥ ९६ ॥
अनेन
स्थण्डिलाद् भूतानपसार्याथ साधकः।
ततो
दिग्बन्धनं कृत्वा दिग्भ्यस्तानपसारयेत् ।। ९७ ।।
साधक इस
उपर्युक्तमन्त्र से स्थण्डिल वेदिका से भूतों को हटाने के पश्चात् दिग्बंधन करके
दिशाओं से उन्हें हटाये ॥ ९७॥
विष्णुबीजं
फडन्तं तु मन्त्रं दिग्बन्धने स्थितम् ।
करेण
छोटिकापूर्वं वेष्टनं बन्धनं दिशः ।। ९८ ।।
फट् अन्त में
मिलने से विष्णुबीज अं ही दिग्बन्धनहेतु मन्त्र हो जाता है । चुटकी बजाते हुये
दिशाओं का घेरना, दिग्बन्धन करता है ॥९८॥
आत्मनः
पूजनेनाथ कर्मारम्भाधिकारिता ।
पूजितं चासनं
योगपीठस्य सदृशं भवेत् ।। ९९ ।।
अपने पूजन से
कर्म (पूजनकर्म) के आरम्भ के अधिकार का सामर्थ्य आ जाता है तथा पूजा किया हुआ आसन, योगपीठ के समान हो जाता है ।। ९९ ।।
स्वभावतः सदा
शुद्धं पञ्चभूतात्मकं वपुः ।
मलपूतिसमायुक्त
श्लेष्मविण्मूत्रपिच्छिलम् ।। १०० ।।
रेतोनिष्ठीवलालाभिः
स्रवद्भिरपरिष्कृतम् ।
बीजभूतानि
चैतस्य महाभूतानि पञ्च वै ।। १०१ ।।
यह पञ्चभूतात्मकशरीर
जो स्वाभाविकरूप से सदैव शुद्ध होता है किन्तु दुर्गन्धयुक्त मल, कफ, विष्ठा, तथा मूत्र से लसलसा, चूते हुए लार, वीर्य तथा थूक से अशुद्ध हो जाता है। पृथ्वी, जल,
अग्नि, वायु, आकाश,
ये पाँच महाभूत ही इसके मुख्यबीज (आधार तत्त्व) हैं ।। १००-१०१ ॥
तेषां तु
सर्वभूतानां बीजानां देहसङ्गिनाम् ।
वायुतेजःपृथव्यम्भोवियतां
शुद्धये क्रमात् ।। १०२ ।।
शोषणं दहनं
भस्मप्रोत्सादोऽमृतवर्षणम् ।
आप्लावनं च
कर्तव्यं चिन्तामात्रविशुद्धये ।। १०३ ।।
देह में स्थित
उन सभी भूतों, वायु,
अग्नि, पृथ्वी, जल,
और आकाश की शुद्धि के लिए उनके बीजों का शोषण, दहन, भस्मप्रोत्सादन, अमृतवर्षण
और वायु आप्लावन जैसी क्रियायें क्रमशः चिन्तनमात्र से करनी चाहिये ॥ १०२- १०३॥
अण्डस्य
चिन्तनाद् भेदात्तन्मध्ये देवचिन्तनात् ।
स्वकीयस्येष्टदेवस्य
चिन्ता सर्वात्मना भवेत् ।। १०४ ।।
ब्रह्माण्ड का
चिन्तन करने से उसका भेदन हो जाता है। उसके मध्य में अपने इष्टदेवता का चिन्तन
करने से अपने इष्टदेवता का सम्पूर्ण रूप से चिन्तन हो जाता है ॥ १०४ ॥
सोऽहमित्यस्य
सततं चिन्तनाद् देवरूपता ।
आत्मनो जायते
सम्यक् संस्कृतिः पुष्पदानतः ।। १०५ ।।
सोऽहं इस
मन्त्र के भाव वह मैं ही हूँ, इसके निरन्तर चिन्तन से साधक में अपने आप ही देवरूपता आ जाती है तथा
पुष्पप्रदान करने से उसका सम्यक् संस्कार हो जाता है ॥ १०५ ॥
अहं देवोऽथ
नैवेद्यं पुष्पगन्धादिकं च यत् ।
पूजोपकरणार्थं
च देवत्वमिह जायते ।। १०६ ।।
मैं देवता हूँ
इस भाव के आते ही साधक द्वारा प्रस्तुत नैवेद्य, पुष्प, चन्दन आदि जो भी पूजा के उपचार
हैं। उनमें देवत्व उत्पन्न हो जाता है ॥ १०६ ॥
देवाधारो
ह्यहं देवो देवं देवाय योजयेत् ।
सर्वेषां
देवतासृष्टया जायते शुद्धतापि च ।। १०७ ।।
क्योंकि मैं
देव का आधार स्वयं देव हूँ । देवता को देवता के लिए समर्पित करना चाहिये। सब में
देवताओं की सृष्टि (भावना) से स्वयमेव शुद्धता उत्पन्न हो जाती है ॥१०७॥
मनोजीवात्मनोः
शुद्धिः प्राणायामेन जायते ।
अन्तर्गतं
यच्च मलं तच्च शुद्धं प्रजायते ।। १०८ ।।
मन, जीव और आत्मा की शुद्धि प्राणायाम से हो
जाती है, अन्तर्गत (छिपा हुआ) जो मल (दोष) होता है वह भी
शुद्ध हो जाता है ॥ १०८॥
गृहे चेत्
पूजयेद् देवं तदा तस्य विलोकनम् ।
कुर्यादादित्यबीजेन
चतुः पार्श्वष्वपि क्रमात् ।। १०९ ।।
यदि साधक, घर में (देवालय में), इष्टदेव का पूजन, अवलोकन करे तो उसे आदित्यबीज से
क्रमश: चारों दिशाओं में अवलोकन करना चाहिये ।। १०९ ॥
हान्तः
समाप्तिसहितो वह्निबीजेन संहितः।
उपान्तः
सचतुर्थस्तु स तथा सकलोऽग्रतः।। ११० ।।
आदित्यबीजं
कथितं सर्वरोगविनाशनम् ।
धर्मार्थकाममोक्षाणां
कारणं तोषदायकम् ।। १११ ।।
अग्नि बीज एवं
समाप्ति हान्त, चतुर्थ
स्वर सहित उपान्त एवं सभी आगे-आगे स्थित हो सभी रोगों का विनाश करने वाला, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का
कारण तथा साधकों को सन्तोष देने वाला आदित्यबीज कहा गया है।११०-१११॥
अशुद्धपक्षिसंयोग-पक्षिविष्ठाप्रसेचने
।
मूषिकाणां तथा
स्पर्शः कृमिकीटादिसङ्गमः।
एवमादीनि
नश्यन्ति लोकनाद् गृहदूषणम् ।। ११२ ।।
अशुद्ध पक्षियों
के संयोग, पक्षियों के विष्ठादि के बिखराव, चूहियों के स्पर्श और कीड़े-मकोड़े आदि के संग आदि से उत्पन्न गृहसम्बन्धी
दोष, उपर्युक्त रीति से देखनेमात्र से ही नष्ट हो जाते हैं
।। ११२ ।।
ततस्तु
योगपीठस्य ध्यानं प्रथमतश्चरेत् ।। ११३ ।।
ध्यानमात्रं
योगपीठं प्रविशत्येव मण्डलम् ।
योगपीठे
स्मृते सर्व योगपीठमय समम् ।। ११४ ।।
तब सर्वप्रथम
योगपीठ का ध्यान करे। योगपीठ का ध्यान कर मण्डल में प्रवेश करे । योगपीठ के
स्मरणमात्र से ही सब कुछ योगपीठ के समान हो जाता हैं ।। ११३ ११४।।
न योगपीठादधिकं
विद्यते परमासनम् ।
यस्य
ध्यानाज्जगद् व्याप्तं सचराचरमानुषम् ।। ११५ ।।
योगपीठ से
अधिक श्रेष्ठ कोई अन्य आसन नहीं है, जिसके ध्यान से ही यह चलायमान और निश्चल तथा मनुष्यों से
युक्त, सम्पूर्ण जगत् व्याप्त है ॥ ११५ ॥
तच्चिन्तनस्य
माहात्म्यं को वा वक्तुं समुत्सहेत् ।
चिन्तामात्रेण
मानुष्यं पश्य शोकविनाशनम् ।
धारणाद्
योगपीठं तु चतुर्वर्गफलप्रदम् ।। ११६ ।।
उसके चिन्तन
के माहात्म्य के वर्णन का कौन साहस कर सकता है ? अर्थात् कोई नहीं कर सकता क्योंकि वह चिन्तनमात्र से ही
मनुष्य के दिखाई देने वाले शोकों का नाश करने वाला है। उसकी धारणा (ध्यानस्थिति)
तो अर्थ-धर्म- काम-मोक्ष चारों पुरुषार्थों को देने वाली है ॥ ११६ ॥
कालिका पुराण
अध्याय ५७- योगपीठ का ध्यान
शुद्धफटिकसंकाशं
चतुष्कोणं चतुर्वृतिम् ।। ११७ ।।
आधारशक्त्या
विहितं प्रग्रहं सूर्यसन्निभम् ।
आग्नेयादिषु कोणेषु
चतुर्षु क्रमतः स्थितम् ।। ११८ ।।
धर्मो ज्ञानं
तथैश्वर्यं वैराग्यं क्रमतः सदा ।
पूर्वादिदिक्षु
चैतानि स्थितानि क्रमतो यथा ।। ११९ ।।
अधर्मश्च
तथाज्ञानमनैश्वर्यं ततः परम् ।
अवैराग्यं परं
तस्माद्धारणार्थं व्यवस्थितम् ।। १२० ।।
वह
शुद्धस्फटिक के सदृश आभावाला तथा चारकोण और चार- दिशाओं वाला है। उसकी सूर्य के
समान आभा है, वह
आधारशक्ति से सम्पन्न, नियन्त्रण करने वाला है। उसके आग्नेय
आदि चारों कोणों में क्रमशः धर्म, ज्ञान, ऐश्वर्य और वैराग्य, पूर्व-आदि दिशाओं में अधर्म,
अज्ञान, अनैश्वर्य एवं अवैराग्य धारणा के क्रम
में व्यवस्थित रहते हैं।।११७-१२०॥
तस्योपरि
जलौघस्तु तस्मिन् ब्रह्मण्डमास्थितम् ।
ब्रह्माण्डाभ्यन्तरे
तोयं कूर्मस्तस्योपरि स्थितः।। १२१ ।।
उसके ऊपर
जलराशि में ब्रह्माण्ड स्थित है। उस ब्रह्माण्ड में स्थित जल में कूर्म (कच्छप), जल के ऊपर स्थित रहता है ॥ १२१ ॥
कूर्मोपरि
तथानन्तः पृथ्वी तस्योपरि स्थिता ।
अनन्तगात्रसंयुक्तं
नालं पातालगोचरम् ।। १२२ ।।
उस कूर्म पर
अनन्त ( शेषनाग ) तथा उन पर पृथ्वी स्थित रहती है। अनन्त के शरीर से ही मिला हुआ
एक कमलनाल, पाताल तक
चला गया है ॥ १२२ ॥
पृथ्वीमध्ये
स्थितं पद्मं दिक्पत्रं गिरिकेशरम् ।
तस्याष्टदिक्षु
दिक्पालाः स्वर्गो मध्ये व्यवस्थितः।। १२३ ।।
पृथ्वी के
मध्य में एक ऐसा कमल है, दिशायें जिसका दल (पंखुड़िया) तथा पर्वत जिसके केशर हैं। उसकी आठो दिशाओं
में दिग्पाल, स्वर्ग के मध्य में विशेषरूप से स्थित हैं ॥
१२३ ॥
कर्णिकायां
ब्रह्मलोको महर्लोकादयो ह्यधः।
स्वर्गे
ज्योतींषि देवाश्च चतुर्वेदास्तदन्तरे ।। १२४ ।।
उसकी कर्णिका
में ब्रह्मलोक, उसके नीचे
महः लोक आदि स्थित हैं । स्वर्ग में नक्षत्र, देवता और चारों
वेद स्थित हैं ॥ १२४ ॥
सत्तंव रजस्तम
इति गुणाः प्रकृतिसम्भवाः।
सदा स्थिता
पद्ममध्ये परं तत्त्वं तथैव च ।। १२५ ।।
आत्मतत्त्वं
तत्र संस्थमूर्ध्वच्छदनमूर्धतः।
अधोऽधश्छदनं
तत्र केशराग्रे स्थितं पुनः।। १२६ ।।
उस कमल के
मध्य में सत्व, रज,
तम आदि प्रकृति से उत्पन्न गुण सदैव स्थित रहते हैं तथा परमतत्त्व एवं
आत्मतत्त्व स्थित रहते हैं। उस कमल का ऊपरी दल समूह, ब्रह्माण्ड
का ऊपरी आवरण है तथा केशर के आगे स्थित, निचला- दलसमूह उसका
निचलाभाग है।। १२५-१२६॥
सूर्याग्निचन्द्रमरुता
मण्डलानि क्रमात् ततः।
शावासनं
योगपीठे सुखासनमतः परे ।। १२७ ।।
आराध्यासनमस्माच्च
ततश्च विमलासनम् ।
मध्ये
विचिन्तयेत् सर्वं जगद्वै सचराचरम् ।। १२८।।
जिसमें क्रमशः
सूर्य, अग्नि, चन्द्रमा और
वायु के मण्डल, स्थित हैं । उस योगपीठ पर शवासन, फिर सुखासन, आराध्यासन तत्पश्चात् विमलासन और उसके
मध्य में सचराचर जगत् का चिन्तन करे ।। १२७ - १२८ ।।
ब्रह्मविष्णुशिवंश्चैव
भागत्रयविनिश्चितान् ।
आत्मानं
चिन्तयेत् तत्र पूजने समुपस्थितम् ।। १२९ ।।
जब साधक पूजन
हेतु उपस्थित हो तो ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव के तीन भागों में अपने आप का व्यवस्थितरूप में चिन्तन करे
॥ १२९ ॥
मण्डलं
योगपीठं तु पद्मं पद्मं तु चिन्तयेत् ।
शावादीन्यासनानीह
चत्वार्यपि विचन्तयेत् ।। १३० ।।
साधक को
चाहिये की मण्डल में योगपीठ तथा उस पर निर्मित पद्म में योगपीठ के ध्यान में
वर्णित पद्य का चिन्तन करे, साथ ही शवादि पूर्वोक्त चार आसनों का भी ध्यान करे ॥ १३० ॥
योगपीठं
पृथग्ध्यात्वा मण्डलेन सहैकताम् ।
पुनर्ध्यात्वा
ततः पश्चात् पूजयेदासनं ततः।। १३१ ।।
पहले योगपीठ
का स्वतंत्ररूप से ध्यान, तत्पश्चात् मण्डल से उसकी एकता का ध्यान करके पुनः वह अपने आसन का पूजन
करे ।। १३१॥
ध्यानेन
योगपीठस्य यथा यद्दीयते जलम् ।
नैवेद्यपुष्पधूपादि
तत् स्वयं चोपतिष्ठते ।। १३२ ।।
स्वयं इस
प्रकार से योगपीठ के ध्यानपूर्वक जल, नैवेद्य, गन्धपुष्पादि जो भी पूजोपचार
प्रदान किये जाते हैं । वे स्वयं ही योगपीठ की पूजा में प्रस्तुत हो जाते हैं ॥
१३२ ॥
सर्वे देवाः
सगन्धर्वाः सचराचरगुह्यकाः।
चिन्तताः
पूजिताश्च स्युर्योगपीठस्य पूजने ।। १३३ ।।
योगपीठ के
पूजन से चराचर जगत्, गन्धर्व और गुह्यकों के सहित स्मरण किये जाने वाले सभी देवता, पूजित हो जाते हैं ।। १३३॥
अभीष्टदेवतापूजां
विना यस्य विचिन्तनात् ।
लभते वै
चतुर्वर्गं तुष्टिः पुष्ठिश्च जायते ।। १३४ ।।
अभीष्ट देवता
की पूजा के बिना ही उसके चिन्तनमात्र (ध्यानमात्र) से ही अर्थ- धर्म-काम-मोक्ष
चारों पुरुषार्थ तथा तुष्टि एवं पुष्टि की प्राप्ति हो जाती है ।। १३४ ।।
आवाहनानन्तरतः
पाणिभ्यामवतारयेत् ।
प्रागुत्तानौ
करौ कृत्वा ऊर्ध्वमुत्क्षिप्य सान्तरौ ।। १३५ ।।
निरन्तरावधः
कुर्यान्नामयन् पूजकस्तथा ।
हेरम्बस्य तु
बीजेन तस्मादवतरेति च ।। १३६ ।।
आवाहन के
पश्चात् अपने दोनों हाथों को पहले ऊपर की ओर करके बाद में दोनों हाथों में परस्पर
दूरी रखते हुए ऊपर को उठाकर तथा पुनः मिलाये हुए नीचे की ओर झुकाता हुआ, पूजक हेरम्बबीज से देवता का अवतरण करे
।।१३५-१३६ ।।
आम्रेडितेन
चाभीष्टदेवानां लम्बनाय वै ।
नासिकावायुनिःसाराद्वियत्स्था
देवना भवेत् ।
एवं कृते
मण्डले तु स्थितिस्तस्य प्रजायते ।। १३७ ।।
पुनः उसी का
उच्चारण करते हुए अभीष्टदेवता के आग्रह के लिए नासिका से वायु को निकालकर आकाश में
ही देवता की भावना करे। ऐसा करने से उस(अभीष्ट) देवता की मण्डल में स्थिति बनती है
॥१३७॥
कालिका पुराण
अध्याय ५७- हेरम्बबीज
स्वान्तः
शुद्धांशुबिन्दुभ्यां हैरम्बं बीजमुच्यते ।
नाशनं
विघ्नबीजानां धर्मकामार्थसाधनम् ।। १३८ ।।
स्वान्त (अ)
वर्ण, चन्द्र तथा बिन्दु से युक्त हो अँ यह
हेरम्बबीज बनता है। जो विघ्नों के बीज (मूल), का नाश करने
वाला तथा धर्म, काम, अर्थ जैसे
पुरुषार्थो को सिद्ध करने वाला हैं ।। १३८ ॥
गन्धपुष्पे
तथा धूपदीपौ नैवेद्यमेव च ।। १३९ ।।
यदन्यद् दीयते
वस्त्रमलङ्कारादिकं च यत् ।
तेषां
दैवतमुच्चार्य कृत्वा प्रोक्षणपूजने ।। १४० ।।
उत्सृज्य
मूलमन्त्रेण प्रतिनाम्ना निवेदयेत् ।
वरुणस्य तु
बीजेन तेषां प्रोक्षणमाचरेत् ।। १४१ ।।
पूजन में गन्ध, पुष्प, धूप-दीप
नैवेद्य वस्त्राभूषणादि जो भी देवताओं को समर्पित किये जायें, उन्हें प्रोक्षणपूर्वक उनके नाम से देवता का उच्चारण करते हुए और
मूलमन्त्र से उनको छोड़ते हुये, अभीष्टदेवता के प्रति निवेदन
करे। इस हेतु वरुणबीज से उन पूजोपचारों का प्रोक्षण करना चाहिये ।। १३९-१४१॥
कालिका पुराण
अध्याय ५७- वरुणबीज
इष्टेन
मूलमन्त्रेण तथोत्सर्गनिवेदने ।
लपरश्चन्द्रबिन्दुभ्यां
बीजं वारुणमुच्यते ।। १४२ ।।
इष्टदेवता के
मूलमन्त्र से पूजोपचारों का त्याग और निवेदन करने के लिए चन्द्रबिन्दु युक्त ल के
पश्चात् आने वाला वर्ण व, वरुणबीज वँ कहा जाता है ॥ १४२ ॥
विलोकनं पूजनं
च तथा दानं पृथक् पृथक् ।
जपकर्मणि
मालायाः प्रतिपत्तिरिदं त्रयम् ।। १४३ ।।
जपकर्म में, माला की प्रतिष्ठा में, माला को देखना, उसका पूजन तथा जप हेतु उसको लेना ये
तीन कार्य बताये गये हैं ॥ १४३ ॥
इष्टमन्त्रेण
मालायाः प्रोक्षणं परिकीर्तितम् ।
बीजं गाणपतं
पूर्वमुच्चार्यं तदनन्तरम् ।। १४४ ।।
अविघ्नं कुरु
माले त्वं गृह्णीयादित्यनेन च ।
जपान्ते शिरसि
न्यासो मालायाः परिकीर्तितः।। १४५ ।।
इष्टमन्त्र से
माला का प्रोक्षण कहा जाता है। पहले गणपति बीज गं का उच्चारण कर अविघ्नं कुरु
माले त्वं..... से मालाग्रहण तथा जप के अन्त में शिर पर उसको धारण करना बताया
है ।। १४४ - १४५ ।।
स्रजमादाय
पाणिभ्यां श्रीबीजेन तथार्चयेत् ।
अन्त्यदन्त्यान्तमात्राभ्यां
चादिवर्गतृतीयकौ ।। १४६ ।।
परतः परतः
पूर्वं श्रीबीजं बिन्दुनेन्दुना ।
मालाया
अवतारस्तु शिरसः क्रियते तदा ।। १४७ ।।
तां समादाय
पाणिभ्यां कुर्यात् सारस्वतेन वै ।
श्रीबीजानामाद्यमाद्यं
बिन्दुचन्द्रार्धसंयुतम् ।। १४८ ।।
एतच्चतुष्टयं बीजं
सारस्वतमुदीरितम् ।
तब माला को
दोनों हाथों में लेकर श्रीबीज से पूजन करे। अन्तिम दन्त्य वर्ण श अन्तिम मात्रा
विसर्ग (र) प्रथम वर्ग अवर्ग के तृतीय अक्षर ई से एक के बाद एक आकार चन्द्र और
बिन्दु से युक्त हो श्रीबीज श्रीं बनता है। माला का शिर से अवतरण किया जाता है। तो
उसे सारस्वतबीज से हाथ में लेकर श्रीबीज के पहले अक्षर स एवं र को पहले चन्द्र और
बिन्दु से युक्त करे इन चारों का समन्वय ही सारस्वत बीज स्रं कहा जाता है ।। १४६ -
१४८ ॥
पौराणिकैर्वैदिकैश्च
मूलमन्त्रेण चैव हि ।
प्रदक्षिणां
प्रणामं च कुयाद्धर्मार्थसाधकम् ।। १४९ ।।
धर्म, और अर्थ की साधक प्रदक्षिणा, प्रणाम आदि क्रियाएँ, वैदिक, पौराणिकमन्त्रों
तथा मूलमन्त्रों से की जानी चाहिये ॥१४९ ।।
भूमिं वीक्ष्य
तथाभ्युक्ष्य क्षितिबीजेन पूर्वतः।
स्पृशंस्तां
शिरसा भूमिं प्रणमेदिष्टदेवताः।। १५० ।।
भूमि को देखकर
तथा पहले की भाँति उस पर क्षितिबीज से अभ्युक्षण कर, शिर से भूमि का स्पर्श करता हुआ इष्टदेवता को प्रणाम करे ॥
१५० ॥
कालिका पुराण
अध्याय ५७- क्षितिबीज
समाप्तिहीनं
बाराहं बीजं बिन्द्विन्दुसंयुतम् ।
क्षितिबीजं
विजानीयाच्चतुर्वर्गप्रदायकम् ।। १५१ ।।
विसर्ग से रहित
वाराहबीज भू को चन्द्र और बिन्दु से युक्त, चारों पुरुषार्थों को प्रदान करने वाला क्षितिबीज भूँ जानना
चाहिये ।। १५१ ।।
दर्पणं व्यजनं
घण्टां चामरं प्रोक्षयेत् पुनः।
नैवेद्यालोकमन्त्रेण
पूर्वप्रोक्तेन भैरव ।। १५२ ।।
हे भैरव !
दर्पण, पंखे, घण्टा, चामर एवं नैवेद्य आदि का प्रोक्षण, पूर्वोक्त नैवेद्यालोकमन्त्र
से करे ॥ १५२ ॥
कालिका पुराण
अध्याय ५७- नैवेद्यालोकमन्त्र
नामाक्षराणि
चाद्यानि चैतेषां बिन्दुनेन्दुना ।। १५३ ।।
तस्मै नम इति
प्रान्ते ग्रहणे मन्त्र उच्यते ।
निवेदनमथैतेषामिष्टमन्त्रेण
चाचरेत् ।। १५४ ।।
उनके नाम के
अक्षरों में पहला अक्षरचन्द्र और बिन्दु से युक्त हो तथा नाम के अन्त में चतुर्थी
विभक्ति और नमः लगाने पर वह स्वयं मन्त्र कहा जाता हैं । इनका निवेदन इष्टमन्त्र
से करना चाहिये ।। १५३-१५४ ॥
वाग्भवस्य
द्वितीयेन कामबीजेन भैरव ।
मुद्राया
बन्धनं कार्यं मूलमन्त्रेण दर्शनम् ।
परित्यागं तु
मुद्रायास्ताराबीजेन चाचरेत् ।। १५५ ।।
हे भैरव !
द्वितीय वाग्बीज, कामबीज से मुद्रा का बन्धन तथा मूलमन्त्र से उसका प्रदर्शन करना चाहिये और
उसका परित्याग ताराबीज से करना चाहिये ॥ १५५ ॥
कालिका पुराण
अध्याय ५७- ताराबीज
प्रान्तादिश्चन्द्रबिन्दुभ्यां
षष्ठस्वरसमन्वितः।
ताराबीजमिति
प्रोक्तं धर्मकामार्थसाधनम् ।। १५६ ।।
छठे स्वर ऊ
तथा चन्द्र-बिन्दु से युक्त प्रान्तादिवर्ण, धर्म, अर्थ और काम का साधन करने वाला
ताराबीज कहा जाता है ॥ १५६ ॥
मुदं ददाति
यस्मात् सा मुद्रा तेन प्रकीर्तिता ।
दर्शितायां तु
मुद्रायां भवेत् पूजासमापनम् ।। १५७ ।।
कामं मोक्षं
तथा धर्ममर्थमोदयुता स्वयम् ।
ददाति
साधकायाशु देवता गन्तुमुत्सुका ।। १५८ ।।
वह प्रसन्नता
देती है इसीलिए उसे मुद्रा कहते हैं । मुद्रा के दिखाये जाने से पूजा का समापन हो
जाता है । जाने को उत्सुक देवता, इसे देखकर स्वयं प्रसन्नता पूर्वक शीघ्रतापूर्वक साधक को धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष प्रदान करते
हैं ।। १५७ - १५८॥
मुद्रान्ते तु
महामन्त्रान् षडिमान् समुदीरयेत् ।। १५९ ।।
यद् दत्तं
भक्तिमात्रेण पत्रं पुष्पं फलं जलम् ।
आवेदितं च
नैवेद्यं तद्गृहाणानुकम्पया ।। १६० ।।
आवाहनं न
जामामि न जानामि विसर्जनम् ।
पूजाभावं न
जानामि त्वं गतिः परमेश्वरि ।। १६१ ।।
कर्मणा मनसा
वाचा त्वत्तो नान्यं गतिर्मम ।
अन्तश्चरेण
भूतानां त्वं गतिः परमेश्वरि ।। १६२ ।।
मातर्योनिसहस्रेषु
येषु येषु व्रजाम्यहम् ।
तेषु तेष्वच्युता
भक्तिरच्युतेऽस्तु सदा त्वयि ।। १६३ ।।
देवी दात्री च भोक्त्री च देवी सर्वमिदं जगत् ।
देवी जयति
सर्वत्र या देवी सोऽहमेव च ।। १६४ ।।
यदक्षरपरिभ्रष्टं
मात्राहीनं च यद् भवेत् ।
तत्सर्वं
क्ष्म्यतां देवि कस्य न स्खलितं मनः।। १६५ ।।
मुद्राप्रदर्शन
के अन्त में यद् दत्तं ..... मनः पर्यन्त छ : महामन्त्रों को कहे- जिनका
अर्थ होता है- हे देवि ! मेरे द्वारा भक्तिमात्र से जो कुछ पत्र, पुष्प, जल, फल,नैवेद्य आदि आपको निवेदित किया गया है, उसे आप अनुकम्पापूर्वक ग्रहण करें । हे परमेश्वरि ! मैं न तो आवाहन जानता
हूँ और न विसर्जन। मैं पूजा के भावों को भी नहीं जानता। मैं तो केवल इतना ही जानता
हूँ कि आप मेरी गति हैं । हे परमेश्वरी ! मनसा-वाचा-कर्मणा, आपके
अतिरिक्त मेरी कोई अन्य गति नहीं है । सभी प्राणियों के अन्त में संचरण करने के
कारण आप ही मेरी गति हो । हे माता ! हे अच्युते ! मैं कर्मवशात् जिन-जिन हजारों
योनियों में जाऊँ, उन-उन में सदैव आप में ही मेरी अविचलभक्ति
हो । देवी ही समस्त जगत् हैं, वे ही देने वाली हैं तथा भोगने
वाली भी वे हीं हैं। सर्वत्र देवी की ही जय होती है। जो देवी हैं, वही मैं हूँ । हे देवि ! जो अक्षर, परिभ्रष्ट हो गये
हों, मात्रारहित हुये हों । उन सब दोषों को क्षमा करें
क्योंकि किसका मन स्खलित नहीं हो जाता ? ।। १५९-१६५।।
मन्त्रेषु
पठितेष्वेषु स्वयमेव प्रसीदति ।
दातुं देवीं
चतुर्वर्गं न चिरादेव भैरव ।। १६६ ।।
हे भैरव !
उपर्युक्तमन्त्रों के पढ़े जाने पर देवी स्वयं धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, चारों पुरुषार्थों को प्रदान करने के लिए, शीघ्र ही
प्रसन्न हो जाती हैं ॥१६६॥
ऐशान्यां
मण्डलं कुर्याद् द्वारपद्मविवर्जितम् ।
विसर्जनार्थ
निर्माल्यधारिण्याः पूजनाय वै ।। १६७ ।।
तत्पश्चात्
विसर्जन एवं निर्माल्यधारिणी के पूजन के लिए ईशानकोण में द्वार और पद्म से रहित, मण्डल, बनाना चाहिये
॥ १६७॥
पाद्मादिभिः
पूजयित्वा ध्यात्वा निर्माल्यधारिणीम् ।
निःक्षिप्य
तस्मिन् निर्माल्यं मन्त्रेम तु विसर्जयेत् ।। १६८ ।।
निर्माल्यधारिणी
का ध्यान तथा पाद्यादि से उसका पूजन कर, अधोलिखित मन्त्रोच्चारपूर्वक उस मण्डल में निःक्षेप कर गच्छ....
पद्म से विसर्जन मन्त्र विसर्जन करे ।। १६८ ।।
गच्छ गच्छ पदं
स्थानं स्वस्थानं परमेश्वरि ।
यत्र
ब्रह्मादयो देवा न विदुः परमं पदम् ।। १६९ ।।
मन्त्रार्थ -
हे परमेश्वरि ! अब आप अपने उस श्रेष्ठ स्थान पर जाओ, जिस परमपद को ब्रह्मा आदि देवता भी नहीं जानते ॥ १६९ ॥
विसृज्य
मन्त्रेणानेन ततः पूरकवायुना ।
ध्यायंस्तु
मन्त्रेणानेन नत्वा तां स्थापयेद्धृदि ।। १७० ।।
इस मन्त्र से
विसर्जन कर पूरक वायु द्वारा ध्यान करते हुए, तिष्ठ..मे हृदि इस मन्त्र से
उन्हें नमस्कार कर हृदय में स्थापित करे ॥ १७० ॥
कालिका पुराण
अध्याय ५७- हृदिस्थापनमन्त्र
तिष्ठ देवि
परे स्थाने स्वस्थाने परमेश्वरि ।
यत्र
ब्रह्मादयः सर्वे सुरास्तिष्ठन्ति मे हृदि ।। १७१ ।।
मन्त्रार्थ-
हे परमेश्वरि ! हे देवि ! आप अपने श्रेष्ठ स्थान, मेरे हृदय में, स्थित होइये, जहाँ ब्रह्मा आदि सभी देवता स्थित रहते हैं ॥ १७१ ॥
तत
एकजटाबीजैरिष्टदेवीं धिया स्मरन् ।
निर्माल्यं
मूर्घ्नि गृह्णीयाद् धर्मकामार्थसाधनम् ।। १७२ ।।
तब एकजटा बीज
से इष्टदेवी का बुद्धि से स्मरण करता हुआ, धर्म, अर्थ, काम
के साधनभूत निर्माल्य को मस्तक पर धारण करे ।। १७२ ।।
मण्डलप्रतिपत्तिं
तु ततः कुर्याद् विभूतये ।
सर्वाङ्गुलीनामग्रौधैः
पद्ममष्टदलान्वितम् ।
निर्मन्थेत्
क्षितिबीजेन मण्डलं चापि भैरव ।। १७३ ।।
हे भैरव ! तब
ऐश्वर्य प्राप्ति हेतु मण्डल की प्रतिपत्ति करे । इस हेतु साधक अपनी सभी अंगुलियों
के अग्रभाग के समूह से मन्थन कर अष्टदल से युक्त कमलमण्डल का क्षितिमन्त्र से
उद्वासन करे ॥ १७३॥
ततस्तु
मूलमन्त्रेण सर्ववश्येन वा पुनः।
अनामिकानामग्रेण
ललाटमपि संस्पृशेत् ।। १७४ ।।
तत्पश्चात्
मूलमन्त्र या सर्ववश्यमन्त्र से, अनामिकाओं के अग्रभाग से, अपने ललाट का भी स्पर्श
करे ।। १७४ ॥
कालिका पुराण
अध्याय ५७- एकजटाबीज
समाप्तिसहितः
प्रान्तस्ताराबीजं ततः परम् ।। १७५ ।।
स्मरबीजं
विसर्गेण परतः परतः परम् ।
भबेदेकजटाबीजं
धर्मकामार्थसाधनम् ।। १७६ ।।
समाप्ति
(विसर्ग) के सहित प्रान्त, तब ताराबीज, स्मरबीज आगे-आगे लगाने से धर्म, काम, अर्थ का साधक, एकजटाबीज
बनता है ।। १७५ १७६ ।।
ततो
भास्करबीजेन सहितेनात्मना पुनः।
मन्त्रेण
भास्करायार्धमच्छिद्रार्थं निवेदयेत् ।। १७७ ।।
तब साधक
धर्मानुष्ठानगतदोष को दूर करने के लिए अपने मन्त्र के सहित भास्कर बीज से भगवान्
भास्कर को अर्घ प्रदान करे ॥ १७७॥
कालिका पुराण
अध्याय ५७- सूर्यार्घ्यदानमन्त्र
नमो विवस्वते
ब्रह्मन् भास्वते विष्णुतेजसे ।
जगत्सवित्रे
शुचये सवित्रे कर्मदायिने ।। १७८ ।।
नमो...कर्मदायिने!
मन्त्रार्थ - हे विवस्वत, हे ब्रह्मण, हे प्रकाशमान्, हे
विष्णु के तेज़ से युक्त, हे जगत् के उत्पन्न करने वाले,
हे पवित्ररूप, हे सविता, हे कर्म को देने (फलप्रद बनाने वाले) आपको नमस्कार है ।। १७८ ।।
ततः
कृताञ्जलिर्भूत्वा पठित्वा मन्त्रमीरितम् ।
एकाग्रमनसा
वाग्भिरच्छिद्रमवधारयेत् ।। १७९ ।।
तब अञ्जलि
बनाकर अग्रिम यज्ञच्छिद्रं प्रसादतः मन्त्र कहता हुआ एकाग्र मन और वाणी से
दोषमुक्ति की अवधारणा करे ।। १७९ ।।
कालिका पुराण
अध्याय ५७- अछिद्रमन्त्र
यज्ञच्चिद्रं
तपश्छिद्रं यच्छिद्रं पूजने मम ।
सर्वं
तदच्छिद्रमस्तु भास्करस्य प्रसादतः ।। १८० ।।
मन्त्रार्थ -
यज्ञ का दोष, तप का दोष
या अन्य भी जो दोष, मेरे पूजन में रह गये हों, सभी भगवान्भास्कर की कृपा से दूर हों तथा मेरा कर्म, दोषरहित हो जाय ।। १८० ।।
ततस्तु
पुष्पनैवेद्य तोयपात्रादिकं च यत् ।
देवीबीजेन
तत्सर्वं पुनरेव विलोकयेत् ।। १८१ ।।
तब पुष्प, नैवेद्य, जलपात्रादि
जो भी हों, उन सबका पुनः देवीबीज से अवलोकन करे ।। १८१ ॥
हस्तेन
चक्षुषा वापि यत्र यत्र कृतः पुरा ।
मन्त्रन्यासस्तत्र
तत्र विसृष्टिरमुना भवेत् ।। १८२ ।।
ऐसा करने से
हाथ से या नेत्र से पहले जहाँ-जहाँ मन्त्र-न्यास किया है, उपर्युक्त क्रिया से वहाँ-वहाँ विसर्जन हो
जाता ॥ १८२ ॥
कालिका पुराण अध्याय ५७- दुर्गाबीज
प्रान्तादिपञ्चमो
वह्निबीजषष्ठस्वराहितः।
तथोपान्तं
वाग्भवाद्यं दुर्गाबीजं प्रचक्षते ।। १८३ ।।
प्रान्तादिपञ्चमवर्ण, वह्निबीज र एवं षष्ठस्वर ऊ से युक्त उपान्त
वाग्भवबीज जिसके आदि में हो वह दुर्गाबीज कहा जाता है ।। १८३ ॥
स्थण्डिले
ज्वलदग्नौ च तोये सूर्यमरीचिषु ।
प्रतिमासु च
शुद्धासु शालग्रामशिलासु च ।
शिवलिंगे
शिलायां तु पूजा कार्या विभूतये ।। १८४ ।।
साधक को
ऐश्वर्य प्राप्ति हेतु वेदी पर, जलती हुई अग्नि में, शुद्ध जल में, सूर्य की किरणों में, प्रतिमाओं में शिवलिङ्ग में या
शिला पर पूजन कर्म करना चाहिये ।। १८४ ।।
सर्वत्र
मण्डलन्यासं कुर्यादेकाग्रमानसः।
योगपीठस्य
बीजेन स्थण्डिलादिषु साधकः ।। १८५ ।।
साधक, स्थण्डिल (वेदिका) आदि सब जगह, योगपीठ के बीज एकाग्र मन से मण्डलन्यास करे ।। १८५ ।।
वासुदेवस्य
रुद्रस्य ब्रह्मणो मिहिरस्य च ।
कुर्यात्
सर्वत्र पूजासु प्रतिपत्तिमिमां बुधः ।। १८६ ।।
विद्वान्
(साधक), वासुदेव, रुद्र,
ब्रह्मा, सूर्य सबकी पूजाओं में भी इसी प्रकार
प्रतिपत्ति करे ॥१८६ ॥
एवं यः
पूजयेद् विष्णुममीभिः प्रतिपत्तिभिः ।
चतुर्वर्गप्रदस्तस्य
न चिराज्जायते हरिः ।। १८७ ।।
इस पद्धति से
जो भगवान् विष्णु का पूजन करता है। हरि शीघ्र ही प्रसन्न हो उसे चतुवर्ग (अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष) प्रदान करते हैं ॥ १८७॥
शिवो वा
मिहिरो वापि येऽन्ये लम्बोदरादयः।
प्रसीदन्ति
सुराः सर्वे पूजाया विधिनामुना ।। १८८ ।।
शिव, सूर्य या गणेश आदि जो अन्य देवता हैं। इस
विधि से पूजा किये जाने से वे सभी प्रसन्न होते हैं ॥ १८८ ॥
विशेषतो
महादेवी महामाया जगन्मयी ।
प्रतिपत्तिमिमां
नित्यं स्पृहयत्येव पूजने ।। १८९ ।।
विशेषरूप से
महादेवी, महामाया, जगत्स्वरूपिणी,
भगवती इस विधि से पूजन की नित्य इच्छा करती हैं ।। १८९ ॥
एवं यः कुरुते
पूजां सम्यक् स फलभाग्भवेत् ।
एतैर्विहीना
या पूजा ततोऽल्पापं फलं भवेत् ।। १९० ।।
इस प्रकार से
पूजन करते हैं, वे ही
भलीभाँति पूर्णफल प्राप्ति के अधिकारी होते हैं । इस पद्धति से रहित जो पूजा होती
है, वह अल्पफल देने वाली है । १९० ।।
अङ्गहीनस्तु
पुरुषो न सम्यग्याझिको यथा ।
अंगहीना तथा
पूजा न सम्यक् फलभाग्भवेत् ।। १९१ ।।
जिस प्रकार एक
अंगहीन पुरुष, अच्छा
याज्ञिक नहीं हो सकता, उसी प्रकार अंगो से हीन पूजा भी,
पूर्णफल देने वाली नहीं होती ॥ १११ ॥
इदं रहस्यं
परममिदं स्वस्त्ययनं परम् ।
मन्त्रवेदमयं
शुद्धं सर्वपापप्रणाशनम् ।। १९२ ।।
यह परम रहस्यमय
तथा कल्याणकारक, मन्त्रज्ञान
से युक्त सभी पापों को नष्ट करने वाला शुद्ध रहस्य है।।१९२॥
यः श्रावयेद्
ब्राह्मणसन्निधाने श्राद्धेषु यज्ञे सुरपूजनेषु ।
सम्यक् फलं
तस्य लभेत् स कर्मणो विनापि पूजां तदनन्तरमश्नुते ।। १९३ ।।
जो श्राद्ध
में, देवपूजन में, यज्ञ
में, ब्राह्मणों के सम्मुख इसे सुनाता है, वह उन कार्यों का सम्यक्फल प्राप्त करता है तथा बिना पूजा के भी उसे अनन्त
फल प्राप्त होता है ॥ १९३॥
॥ इति
श्रीकालिकापुराणे महामायाकल्पे महामायापूजाविधाननाम सप्तपञ्चाशोऽध्यायः ॥ ५७ ॥
।।
श्रीकालिकापुराण में महामायाकल्प का महामायापूजाविधान नामक सत्तावनवाँ अध्याय
सम्पूर्ण हुआ ॥५७॥
आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 58
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