कालिका पुराण अध्याय ६०

कालिका पुराण अध्याय ६०                      

कालिका पुराण अध्याय ६० में महिषासुर उपाख्यान का वर्णन है ।

कालिका पुराण अध्याय ६०

कालिका पुराण अध्याय ६०                                      

Kalika puran chapter 60

कालिकापुराणम् षष्टितमोऽध्यायः महिषासुरोपाख्यानम्

अथ श्रीकालिका पुराण अध्याय ६०                        

।। श्रीभगवानुवाच ।।

दुर्गातन्त्रेण मन्त्रेण कुर्याद् दुर्गामहोत्सवम् ।

महानवम्यां शरदि बलिदानं नृपादयः।। १ ।।

श्रीभगवान् बोले- राजा आदि को शरदऋतु में महानवमी के दिन दुर्गातन्त्र के मन्त्रों से बलिदानपूर्वक, दुर्गामहोत्सव करना चाहिये ॥ १ ॥

आश्विनस्य तु शुक्लस्य भवेद् या अष्टमी तिथिः।

महाष्टमीति सा प्रोक्ता देव्याः प्रीतिकरी परा ।। २ ।।

आश्विन मास के शुक्लपक्ष की जो अष्टमी तिथि होती है, उसे महाष्टमी कहते हैं। वह देवी को अत्यधिक प्रसन्नतादायक होती है ।। २॥

तनोऽतु नवमी या स्यात् सा महानवमी स्मृता ।

सा तिथिः सर्वलोकानां पूजनीया शिवप्रिया ।। ३ ।।

उसके पश्चात् जो नवमी तिथि होती है। उसे महानवमी कहा जाता है। उस तिथि में सभी लोगों द्वारा, शिवप्रिया, महामाया देवी का पूजन किया जाना चाहिये ॥३॥

अनयोर्वत्स पूजायां विशेषं शृणु भैरव ।

सम्पूज्य मण्डले देवीं विधिवत् प्रयतो नरः।। ४ ।।

वैष्णवीतन्त्रमन्त्रेण दुर्गातन्क्षेण भैरव ।

मूर्तिभेदे यथा देवी पूजां गृह्णाति भूतये ।। ५ ।।

हे वत्स भैरव ! इन महाष्टमी और महानवमी की पूजा के विषय में, विशेष सुनो। इसमें मण्डल बनाकर साधक को ऐश्वर्य प्राप्ति के लिए वैष्णवीतन्त्र या दुर्गातन्त्र के मन्त्रों से विनम्रभाव से विधिपूर्वक देवी की पूजा करनी चाहिये। साथ ही मूर्तिभेद से देवी किस प्रकार की पूजा स्वीकार करती हैं। उसे भी सुनो ।। ४-५ ।।

कालिका पुराण अध्याय ६०- दशभुजादुर्गापूजन 

कन्यासंस्थे रवौ वत्स शुक्लामारभ्य नन्दिकाम् ।

अयाचिताशो नक्ताशी एकाशी त्वथ चापदः।। ६ ।।

हे वत्स ! सूर्य के कन्याराशि में होने पर आश्विनमास के शुक्लपक्ष की नन्दिका (प्रतिपद) तिथि से बिना मांगे जो कुछ मिल जाय, उसी का भोजनकर, रात्रि में भोजन कर या एक ही समय भोजन कर अथवा जलमात्र ग्रहणकर, साधक साधना करे ॥६॥

प्रातःस्नायी जितद्वन्द्वस्त्रिकालं शिवपूजकः।

जपहोमसमायुक्तो भोजयेच्च कुमारिका ।। ७ ।।

वह सुखदुःखादि द्वन्द्वों को जीतकर, प्रातः काल स्नान कर, तीनों काल शिव की या शिवा की पूजा करता हुआ जप- होम कर्मों में तत्पर रहे तथा कुमारियों को भोजन कराये ॥ ७ ॥

बोधयेद् बिल्वशाखासु षष्ट्यां देवीफलेषु च ।

सप्तम्यां बिल्वशाखां तामाहृत्य प्रतिपूजयेत् ।। ८ ।।

षष्ठीतिथि को वह बिल्ववृक्ष शाखाओं तथा देवीफल (नारीयल) श्रीफल पर देवी का बोधन करे। सप्तमी के दिन उस बेल की टहनी को लाकर उन पर, देवी का पूजन करे ॥ ८ ॥

पुनः पुजां तथाष्टम्यां विशेषेण समाचरेत् ।

जागरं च स्वयं कुर्याद् बलिदानं महानिशि ।। ९ ।।

तत्पश्चात् अष्टमी तिथि को विशेषरूप से पूजन करे। उस दिन रात्रि जागरण करे तथा महानिशा में स्वयं बलिदान करे ॥९॥

प्रभूतबलिदानं तु नवम्यां विधिवच्चरेत् ।

ध्यायेद् दशभुजां देवीं दुर्गातन्त्रेण पूजयेत् ।। १० ।।

वह नवमी तिथि को भी विधिपूर्वक अधिक मात्रा में बलि प्रदान करे, उस अवसर पर दशभुजाओंवाली, महिषमर्दिनी देवी का ध्यान करे तथा दुर्गातन्त्र से उनका विधिवत पूजन करे॥ १० ॥

विसर्जनं दशम्यां तु कुर्याद् वै साधकोतमः।

कृत्वा विसर्जनं तस्यां तिथौ नक्तं समाचरेत् ।। ११ ।।

उत्तमसाधक को चाहिये कि वह दशमी को विसर्जन करे तथा विसर्जन के पश्चात् उस तिथि को रात्रि में ही भोजन करे ॥११॥

कालिका पुराण अध्याय ६०- षोडशभुजापूजन 

यदा तु षौडशभुजां महामायां प्रपूजयेत् ।

दुर्गातन्त्रेण मन्त्रेण विशेषं तत्र वै शृणु ।। १२ ।।

जब सोलहभुजाओं वाली महामाया का दुर्गातन्त्र के मन्त्रों से पूजन करना हो तो उसकी विशेषविधि मुझसे सुनो ॥ १२ ॥

कन्यायां कृष्णपक्षस्य एकादश्यामुपोषितः।

द्वादश्यामेकभक्तं तु नक्तं कुर्यात् परेऽहनि ।। १३ ।।

साधक, कन्याराशि (आश्विनमास) के कृष्णपक्ष की एकादशी तिथि को उपवास रखकर, द्वादशी को एक समय तथा दूसरे दिन त्रयोदशी को नक्तव्रत (रात्रिभोजन) करे ॥ १३॥

चतुर्दश्यां महामायां बोधयित्वा विधानतः।

गीतवादित्रनिर्घोषैर्न्नानानैवेद्यवेदनैः।। १४ ।।

चतुर्दशी को नाना प्रकार के गायन, वादन, जयघोष तथा नैवैद्यादि निवेदन कर विधिपूर्वक देवी का बोधन करे ॥१४॥

अयाचितं बुधः कुर्यादुपवासं परेऽहनि ।

एवमेव व्रत कुर्याद् यावद्वै नवमी भवेत् ।। १५ ।।

अगले दिन अमावस्या को वह अयाचित (विना माँगे) मिले भोजन तथा उसके अगले दिन शुक्लपक्ष की प्रतिपद् से नवमीपर्यन्त इसी प्रकार उपवासादि तप करे ।। १५।।

ज्येष्ठायां च समभ्यर्च्य मूलेन प्रतिपूजयेत् ।

उत्तरेणार्चनं कृत्वा श्रवणान्ते विसर्जयेत् ।। १६ ।।

साधक को चाहिये कि वह ज्येष्ठा नक्षत्र में देवी की अर्चना करे तथा मूलनक्षत्र में पुन: पूजन करके, उत्तराषाढ़ नक्षत्र में अर्चन करने के पश्चात् देवी का श्रवण के अन्त में विसर्जन करे ।। १६ ॥

कालिका पुराण अध्याय ६०- अष्टादशभुजापूजन 

यदा त्वष्टादशभुजां महामायां प्रपूजयेत् ।

दुर्गातन्त्रेण मन्त्रेण तत्रापि शृणु भैरव ।। १७ ।।

हे भैरव ! जब अठारह भुजाओंवाली महामाया का पूजन, दुर्गातन्त्र के मन्त्रों से करना हो तो उसकी भी विधि, मुझसे सुनो। १७ ॥

कन्यायां कृष्णपक्षस्य पूजयित्वार्द्रभे दिवा ।

नवम्यां बोधयेद् देवीं गीतवादित्रनिस्वनैः।। १८ ।।

कन्याराशि में सूर्य के स्थित होने पर (आश्विन मास में ), कृष्णपक्ष की नवमीतिथि (मातृनवमी) को आर्द्रानक्षत्र होने पर पूजनपूर्वक गायन-वादन द्वारा देवी का बोधन करे ॥१८॥

शुक्लपक्षे चतुर्थ्या तु देवीकेशविमोचनम् ।

प्रातरेव तु पञ्चम्यां स्नापयेत् तु शुभैर्जलैः ।। १९ ।।

शुक्लपक्ष की चतुर्थी तिथि को देवी का केशविमोचन करे तथा पञ्चमी को प्रातः काल ही शुभ (पवित्र) जल से देवी को स्नान कराये ॥ १९ ॥

सप्तम्यां पत्रिकापूजा अष्टम्यां चाप्युपोषणम् ।

पूजाजागरणं चैव नवम्यां विधिबद्बलिः।। २० ।।

सप्तमी को पत्रिका पूजा तथा अष्टमी को उपवासपूर्वक पूजा एवं जागरण करे और नवमी को विधिपूर्वक बलिप्रदान करे ॥ २० ॥

सम्प्रेषणं दशम्यां तु क्रीडाकौतुकमङ्गलैः।

नीराजनं दशम्यां तु बलवृद्धिकरं महत् ।। २१ ।।

नाना प्रकार के क्रीड़ा-कौतुक, मङ्गलगीत, वाद्यों से दशमी तिथि को देवी की विदाई करे । दशमी को देवी की आरती करना अत्यधिक बलवृद्धि करने वाला है ॥२१॥

कालिका पुराण अध्याय ६०- वैष्णवीपूजन 

यदा वै वैष्णवीं देवीं महामायां जगन्मयाम् ।

पूजयेत् तत्र च तदा विशेषं शृणु भैरव ।। २२ ।।

जब वैष्णवी देवी, जगत्मयी महामाया का पूजन करना हो तो हे भैरव ! उसके विषय में मुझसे सुनो ॥ २२ ॥

कन्यासंस्थे रवौ पूजा या शुक्ला तिथिरष्टमी ।

तस्यां रात्रौ पूजितव्या महाविभवविस्तरैः ।। २३ ।।

जब सूर्य, कन्याराशि में स्थित हो (आश्विनमास हो) और शुक्लपक्ष की अष्टमी तिथि हो तो उस रात्रि में, अत्यन्त वैभव - विस्तार के अनुसार देवी का पूजन करना चाहिये ॥ २३ ॥

नवम्यां बलिदानं तु कर्त्तव्यं वै यथाविधि ।

जपं होमं च विधिवत् कुर्यात् तत्र विभूतये ।

सम्पूजयेन्महादेवीमष्टपुष्पिकया नरः।। २४ ।।

नवमी तिथि को विधिवत् बलिदान करना चाहिये। उस समय ऐश्वर्यप्राप्ति लिए विधिपूर्वक जप-होम भी करना चाहिये । तथा साधक मनुष्य, आठ पुष्पों की पुष्पाञ्जलि अर्पण कर महादेवी का भलीभाँति पूजन करे।।२४।।

रामस्यानुग्रहार्थाय रावणस्य वधाय च ।

रात्रावेव महादेवी ब्रह्मणा बोधिता पुरा ।। २५ ।।

प्राचीन काल में ब्रह्मा ने राम पर कृपा करने और रावण के वध के निमित्त रात्रि में ही महादेवी का बोधन (जागरण) किया था ।। २५ ।।

ततस्तु त्यक्तनिद्रा सा नन्दायामाश्विने सिते ।

जगाम नगरीं लङ्कां यत्रासीद्राघवः पुरा ।। २६ ।।

तब वे देवी आश्विनमास के शुक्ल पक्ष की नन्दातिथि (प्रतिपद्) को निद्रा छोड़कर, लङ्कापुरी में गईं जहाँ राघव (रामचन्द्र ) पहले से ही थे ॥२६॥

तत्र गत्वा महादेवी तदा तौ रामरावणौ ।

युद्धं नियोजयामास स्वयमन्तर्हिताम्बिका ।। २७ ।।

तब वहाँ जाकर महादेवी, अम्बिका ने स्वयं अन्तर्हित रहते हुए ही उन दोनों राम-रावण को युद्ध में नियोजित किया ॥२७॥

रक्षसां वानराणां च जग्ध्वा सा मांसशोणिते ।

रामरावणयोर्युद्धं सप्ताहं सा न्ययोजयत् ।। २८ ।।

उन्होंने राक्षसों एवं वानरों के मांस और शोणित के भोजन तथा राम रावण के युद्ध का सप्ताह पर्यन्त आयोजन किया ॥२८॥

व्यतीते सप्तमे रात्रौ नव्यां रावणं ततः।

रामेण घातयामास महामाया जगन्मयी ।। २९ ।।

तब सात रातें बीत जाने पर नवमी तिथि को जगत्स्वरूपा, उस महामाया ने, राम के माध्यम से, रावण को मार दिया ॥ २९ ॥

यावत्तयोः स्वयं देवी युद्धकेलिमुदैक्षत ।

तावत् तु सप्तरात्राणि सैव देवैः सुपूजिता ।। ३० ।।

जब तक देवी स्वयं उन दोनों की युद्ध-क्रीड़ा को देखती रहीं तब तक, सात- रात्रि तक वे ही देवताओं द्वारा भी सुन्दरढंग से पूजी जाती रहीं ॥ ३० ॥

निहते रावणे वीरे नवम्यां सकलैः सुरैः।

विशेषपूजां दुर्गायाश्चक्रे लोकपितामहः।। ३१ ।।

ततः सम्प्रेषिता देवी दशम्यां शार्वरोत्सवैः।। ३२ ।।

नवमी को वीर रावण के मारे जाने पर, लोकपितामह ब्रह्मा ने समस्त देवताओं के सहित दुर्गादेवी की विशेष पूजा की। तत्पश्चात् दशमी तिथि को देवी प्रसन्नतापूर्वक उन देवों द्वारा शार्वरोत्सव के द्वारा विदा की गई ।। ३१-३२ ।।

शाक्रोऽपि देवसेनाया नीराजनमथाकरोत् ।

शान्त्यर्थं सुरसैन्यानां देवराज्यस्य वृद्धये ।। ३३ ।।

देवराज इन्द्र ने भी देवसेना का नीराजन, अपनी देवसेना की शक्ति तथा देवताओं के राज्य की वृद्धि हेतु किया ॥ ३३ ॥

रामरावणबाणेन युद्धं चावेक्ष्य भीतिदम् ।

तृतीयायां तु लङ्कायाः पूर्वोत्तरदिशि स्थितम् ।। ३४ ।।

स्वातीनक्षत्रयुक्तायां भीतं सुरबलं महत् ।

शान्त्यर्थं वरयामास देवेन्द्रो वचनाद् हरेः।। ३५ ।।

स्वाती नक्षत्रयुक्त तृतीया को राम-रावण के बाणों से किये जाते उस भयप्रद- युद्ध को देखकर देवताओं की विशाल सेना भयभीत हो तथा स्तब्ध हो गई। उस समय वह लङ्का के पूर्वोत्तर भाग में स्थित हो गई थी। उसी की शान्ति हेतु देवराज इन्द्र ने भगवान विष्णु के वचनानुसार उसे रोक दिया था।। ३४-३५ ।।

ततस्तु श्रवणेनाथ दशम्यां चण्डिकां शुभाम् ।

विसृज्य चक्रे शान्त्यर्थं बलनीराजनं हरिः।। ३६ ।।

तब श्रवण नक्षत्र में कल्याणकारिणी चण्डिकादेवी का दशमी को विसर्जन करने के पश्चात् हरि (इन्द्र) ने शान्ति हेतु अपनी सेना का नीराजन किया ।। ३६ ।।

नीराजितबलः शक्तस्तत्र रामं च राघवम् ।

सम्प्राप्य प्रययौ स्वर्गं सह देवैः शचीपतिः।। ३७ ।।

वहाँ अपनी सेना का नीराजन (एक प्रकार की पूजा विशेष ) हो जाने के पश्चात् रघुवंश में उत्पन्न राम को पाकर, देवी शची के पति, देवराज इन्द्र, देवताओं के सहित स्वर्ग को चले गये॥ ३७॥

इतिवृत्तं पुराकल्पे मनोः स्वायम्भुवेऽन्तरे ।

प्रादुर्भूता दशभुजा देवी देवहिताय वै ।

नृणां त्रेतायुगस्यादौ जगतां हितकाम्यया ।। ३८ ।।

यह सब पहले कल्प में स्वायम्भुव मन्वन्तर में त्रेतायुग के आरम्भ में हुआ था। उस समय मनुष्यों और देवताओं के कल्याण के लिए सम्पूर्ण जगत् के हित की कामना से दशभुजादुर्गा देवी प्रकट हुई थीं ॥ ३८ ॥

पुराकल्पे यथावृत्तं प्रतिकल्पं तथा तथा ।

प्रवर्तते स्वयं देवी दैत्यानां नाशनाय वै ।। ३९ ।।

पहले कल्प में जैसा हुआ था वैसे ही प्रत्येक कल्प में देवी, दैत्यों के नाश के लिए प्रवृत्त होती हैं ।। ३९॥

प्रतिकल्पं भवेद्रामो रावमश्चापि राक्षसः।

तथैव जायते युद्धं तथा त्रिदशसङ्गमः ।। ४० ।।

प्रत्येक कल्प में राम तथा राक्षसराज रावण और राक्षसों एवं देवसमूह का युद्ध हो तो भी उसी भाँति होता है ॥ ४० ॥

एवं रामहस्राणि रावणानां सहस्रशः।

भवितव्यानि भूतानि तथा देवी प्रवर्तते ।। ४१ ।।

पूजयन्ति सुराः सर्वे बलं नीराजयन्त्यपि ।। ४२ ।।

इस प्रकार हजारों राम और हजारों रावण हुये हैं और होंगे तथा देवी उन्हें युद्ध में प्रवृत्त करती हैं। सभी देवगण भी उस समय उनका पूजन एवं सेना का नीराजन करते हैं। । ४१-४२॥

तथैव च नराः सर्वे कुर्युः पूजां यथाविधि ।

बलनीराजनं राजा कुर्याद् बलविवृद्धये ।। ४३ ।।

उसी प्रकार सभी मनुष्यों को विधिपूर्वक देवी का पूजन करना चाहिये । राजाओं को अपना बल बढ़ाने के लिए अपनी सेना का नीराजन भी करना चाहिये ॥४३॥

दिव्यालङ्कारयुक्ताभिर्वारुणीभिः प्रवर्तनम् ।

कर्त्तव्यं नृत्यगीतानि क्रीडाकौतुकमङ्गलैः।। ४४ ।।

दिव्य-आभूषणों से युक्त, मादक सुन्दरियों के नृत्य, गायन, क्रीड़ा-कौतुक आदि माङ्गलिक कार्यों का प्रवर्तन करे ॥४४॥

मोदकैः पिष्टकैः पेयैर्भक्ष्यभोज्यैरनेकशः।

कूष्माण्डैर्नारिकेलैश्च खर्जूरैः पनसैस्तथा ।। ४५ ।।

द्राक्षामलकशाडिल्यैः प्लीहैश्च करुणैस्तथा ।

कशेरुक्रमुकैर्मूलैः सजम्बूतिन्दुकादिभिः ।। ४६ ।।

गव्यैर्गुडैस्तथा मांसैर्मद्यैर्मधुभिरेव च ।

बालप्रियैश्च नैवेद्यैर्लाजाक्षतफलादिभिः।। ४७ ।।

इक्षुदण्डैः सिताभिश्च लवलीनागरङ्गकै ।

अजाभिर्महिषैरात्मशोणितसञ्चयैः ।। ४८ ।।

पक्ष्यादिबलिजातीयैस्तता नानाविधैर्मृगैः।

पूजयेच्च जगद्धात्रीं मांसशोणितकर्दमैः।। ४९ ।।

साधक को अनेक प्रकार के मोदक, चूर्ण, पीने योग्य और भोजन योग्य नैवेद्यों, कूष्माण्ड, नारीयल, खजूर, कटहल, अङ्गूर, आँवला, शाण्डिल्य (बेल), प्लीहा (केशर), करुण (चमेली), कशेरू, क्रमुक (सुपारी), मूल (मूली), जामुन, तिन्दुक, आदि फलों, गव्य (गोदुग्ध, दही, घी आदि ), गुड़, मांस, मद्य, मधु, बच्चों प्रिय नैवेद्य, लाजा (लावा), अक्षत, फल, ईख, मिश्री, लवली (लता विशेष), नारङ्गी, बकरियों, भैंसों, भेड़ों और अपने रक्तसञ्चय, बलियोग्य पक्षियों तथा अनेक प्रकार के पशुओं के रक्त और मांस के कीचड़ से जगत् को धारण करने वाली, महामाया का पूजन करना चाहिये ।।४५-४९ ॥

रात्रौ स्कन्दविशाखस्य कृत्वा पिष्टकपुत्रिकाम् ।

पूजयेच्छत्रुनाशाय दुर्गायाः प्रीतये तथा ।

होमं च सतिलैराज्यैर्मासैरपि तथा चरेत् ।। ५० ।।

वह रात्री में स्कन्द, विशाख की आटे की पुतली बनाकर, उनका दुर्गा देवी की प्रसन्नता तथा शत्रु के नाश के लिए पूजन करे। साथ ही तिल, घी, एवं मांस से होम भी करे ॥ ५०॥

उग्रचण्डादिकाः पूज्यास्तथाष्टौ योगिनीः शुभाः।। ५१ ।।

योगिन्यश्च चतुःषष्ठिस्तथा वै कोटियोगिनीः।

नवदुर्गास्तथा पूज्या देव्याः सन्निहिताः शुभाः।। ५२ ।।

उस समय उग्रचण्डा आदि शुभदायिनी ८ योगिनियों, चौंसठ योगिनियों किंवा करोड़ों योगिनियों का और मङ्गलमयी नवदुर्गाओं का जो सदैव देवी के साथ ही रहती हैं, पूजन करना चाहिये ॥ ५१-५२ ॥

जयन्त्यादिर्गन्धपुष्पैस्ता देव्या मूर्तयो यतः।

देव्यः सर्वाणि चास्त्राणि भूषणानि तथैव च ।। ५३ ।।

अङ्गप्रत्यङ्गयुक्तानि वाहनं सिंहमेव च ।

महिषासुरमर्दिन्याः पूजयेद् भूतये सदा ।। ५४ ।।

यतः (चूँकि) जयन्ती आदि देवियाँ, देवी का ही स्वरूप हैं अतः साधक को ऐश्वर्य प्राप्तिहेतु, अङ्ग-प्रत्यङ्गों से युक्त, सभी देवियों तथा वाहन, सिंह के सहित महिषमर्दिनी का सदैव पूजन करना चाहिये ।।५३-५४॥

पुराकल्पे महादेवी मनोः स्वायम्भुवेऽन्तरे ।

नृणां कृतयुगस्यादौ सर्वदेवैः स्तुता सदा ।। ५५ ।।

महिषासुरनाशाय जगतां हितकाम्यया ।

योगनिद्रा महामाया जगद्धात्री जगन्मयी ।। ५६ ।।

भुजैः षोडशभिर्युक्या भद्रकालीति विश्रुता ।

क्षीरोदस्योत्तरे तीरे बिभ्रती विपुलां तनुम् ।। ५७ ।।

महादेवी, महामाया, योगनिद्रा, जगत् को धारण करने वाली, जगत्मयी पहले कल्प के, स्वायम्भुव मनु के मन्वन्तर में, सत्ययुग के आरम्भ में, महिषासुर नाश के लिए तथा मनुष्यों एवं संसार के कल्याण के लिए सभी देवताओं द्वारा सदैव स्तुत हुई । उस समय वे सोलह भुजाओं से युक्त हो तथा विशाल शरीर को धारण कर क्षीर-सागर के उत्तरी तट पर, भद्रकाली नाम से प्रसिद्ध हुईं।। ५५-५७॥

कालिका पुराण अध्याय ६०- षोडशभुजाध्यान 

अतसीपुष्पवर्णाभा ज्वलत्काञ्चनकुण्डला ।

जटाजूटसखण्डेन्दुमुकुटत्रयभूषिता ।। ५८ ।।

वे तीसी के पुष्प के समान रंग की आभावाली थीं। उनके कुण्डल जलते हुए (तपे हुए), सोने के बने थे । वे जटाजूट, अर्धचन्द्र एवं स्वर्ण मुकुट तीनों से सुशोभित थीं।। ५८ ।।

नगहारेम सहिता स्वर्महारविभूषिता ।

शूलं चक्रं च खड्गं च शङ्खं बाणं तथैव च ।। ५९ ।।

शक्तिं वज्रं च दण्डं च नित्यं दक्षिणबाहुभिः।

बिभ्रती सततं देवी विकाशिदशनोज्ज्वला ।। ६० ।।

खेटकं चर्म चापं च पाशं चाङ्कुशमेव च ।

घण्टां पर्शुं च मुषलं बिभ्रती वामपाणिभिः।। ६१ ।।

वे नाग की माला के साथ ही सोने की माला से भी विशेषरूप से सुशोभित थीं। वे देवी नित्य अपनी दाहिनी भुजाओं में शूल, चक्र, खड्ग, शङ्ख, बाण, शक्ति, वज्र तथा दण्ड एवं बाईं भुजाओं में खेटक, चर्म (ढाल), धनुष, पाश, अङ्कुश, घण्टा, परशु और मुसल धारण किये हुए थीं। उनके उज्ज्वल दाँत, खिले हुए (मुस्कान भरे) थे।। ५९-६१॥

सिंहस्था नयनै रक्तवर्णैस्त्रिभिरतिज्वला ।

शूलेन महिषं भित्त्वा तिष्ठन्ती परमेश्वरी ।

वामपदेन चाक्रम्य तत्र देवी जगन्मयी ।। ६२ ।।

वे सिंह पर सवार थीं, अपने लाल रंग के तीनों नेत्रों से वे अत्यन्त प्रकाशित हो रही थीं । जगत्स्वरूपादेवी, महामाया (भद्रकाली), परमेश्वरी, ऐसे रूप में शूल से महिषासुर को भेदकर तथा अपने बाएँ पैर से उसे आक्रान्त कर वहाँ स्थित थीं ॥ ६२॥

तां दृष्ट्वा सकला देवाः प्रणम्य परमेश्वरीम् ।

किञ्चन तं तृष्ट्वा निहतं महिषासुरम् ।। ६३ ।।

उन्हें देखकर सभी देवताओं ने उन परमेश्वरी को प्रणाम किया। वे महिषासुर को मारा गया देखकर सहसा कुछ भी न बोल सके ॥६३॥

ततः प्रोवाच देवांस्तान् ब्रह्मादीन् परमेश्वरी ।

स्मितप्रभिन्नवदना विकाशिवदनोज्जवला ।। ६४ ।।

मुस्कान से खुले और प्रसन्न तथा उज्ज्वल मुखवाली, परमेश्वरी महामाया उन ब्रह्मा आदि देवताओं से बोलीं- ॥ ६४ ॥

।। देव्युवाच ।।

गच्छन्तु भोः सुरगणा जम्बुद्वीपान्तरं प्रति ।

हिमवत् पर्वतासन्ने वरं कात्यायनाश्रमम् ।।६५ ।।

तत्रैव भवतां साध्यं भविष्यति न संशयः।। ६६ ।।

श्रीदेवी बोलीं- हे देवगण! आप जम्बूद्वीप में, हिमालय पर्वत के निकट कात्यायनमुनि के आश्रम पर जायें। वहीं आपका प्रयोजन, सिद्ध होगा। इसमें कोई संशय नहीं है । ६५-६६ ॥

।। श्रीभगवानुवाच ।।

इत्युक्त्वा सा महादेवी तत्रैवान्तरधीयत ।

देवा आपि तदा जग्मुः कात्यायनमुनेः पुरम् ।। ६७ ।।

श्रीभगवान् बोले- ऐसा कह कर वह महादेवी वहाँ ही अन्तर्ध्यान हो गईं । तदनन्तर देवता भी कात्यायनमुनि के निवास स्थान को गये ॥६७॥

आश्रमं प्रति ते गत्वा विस्मयाविष्टमानसाः।

निहतो महिषो देव्या दिष्टोऽस्माभिर्यदर्थतः।। ६८ ।।

स्तुता चैषा महादेवी जगद्धात्री जगन्मयी ।

किमर्थमाह सा देवी गन्तुं कात्यायनाश्रमम् ।। ६९ ।।

किमन्यद् वाञ्छितं कार्यमस्माकं वा भविष्यति ।

इति ब्रुवन्तस्ते सर्वे गच्छन्ति स्म परस्परम् ।

हिमवत्-पर्वतासन्नं मुनि-कात्यायनाश्रमम् ।। ७० ।।

उस हिमालय पर्वत के समीप स्थित, कात्यायन मुनि के आश्रम पर जाते हुए आश्चर्यचकित होकर वे सभी आपस में इस प्रकार से कह रहे थे- हम सब के भाग्य से देवी द्वारा यह महिषासुर मारा गया। जिसके लिए हम लोगों ने इस जगत्मयी, जगत् का पालन करने वाली, महादेवी की स्तुति की थी । अब किस निमित्त उन्होंने हमें कात्यायन मुनि के आश्रम पर जाने को कहा है ? वहाँ पर हम लोगों का कौन सा अन्य इच्छितकार्य सम्पन्न होगा ।। ६८-७० ।।

ततः सेन्द्राः सदिक्पाला ब्रह्मविष्णुशिवास्तथा ।

निषेदुः सुचिरं प्रीता दुर्गादर्शनलालसाः।। ७१ ।।

तब वहाँ जाकर इन्द्रादि अन्य दिक्पालों के सहित, ब्रह्मा-विष्णु तथा शिव अत्यधिक प्रसन्नता एवं भगवती दुर्गा के दर्शन की लालसा से वहीं बैठ गये॥ ७१ ॥

ततो रुद्रगणाः सर्वे महिषासुरचेष्टितम् ।

आगत्य कथयामासुर्देवलोकपराभवम् ।। ७२ ।।

तब रुद्र के सभी गणों ने महिषासुर के कार्यों तथा लोक के पराजय का वृत्तान्त वहाँ आकर कहा ॥७२॥

ततस्तत्र महाकोपं ब्रह्मविष्णुशिवादयः।। ७३ ।।

चक्रुः कोऽन्योऽस्ति महिषो हतो देव्या स दानवः।

पुनर्येनेह क्रियते जगद्विध्वंसनं भृशम् ।। ७४ ।।

तब वहाँ उपस्थित ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि इन देवताओं ने महान् क्रोध किया कि जब वह दानव महिषासुर देवी के द्वारा पहले ही मार दिया गया है, यह अन्य कौन महिषासुर उत्पन्न हो गया जिसने इस प्रकार जगत् का विध्वंश कर दिया है ।।७३-७४ ।।

इति प्रकुप्यतां तेषां शरीरेभ्यः पृथक् पृथक् ।

निश्चक्रमुश्च तेजांसि शक्तिरूपाणि तत्क्षणात् ।। ७५ ।।

जब वे इस प्रकार क्रोध कर रहे थे तभी उनके शरीरों से, शक्ति के रूप में अलग-अलग तेज निकले ॥७५ ॥

तत्तेजोभिर्धृतवपुर्देवी कात्यायन्न वै ।

सन्धुक्षिता पूजिता च तेन कात्यायनी स्मृता ।। ७६ ।।

उस तेजराशि से शरीर धारण की हुई देवी, कात्यायन मुनि द्वारा पूजी गईं। इसी से वे कात्यायनी नाम से स्मरण की जाती हैं ।। ७६ ।।

ततस्तेनैव मन्त्रेण दशबाहुयुतेन वै ।

पश्चाज्जघान महिषं जगद्धात्री जगन्मयी ।। ७७ ।।

तब जगतस्वरूपा, जगत् का पालन करने वाली, दशभुजाओं से युक्त उस महादेवी ने उसी रूप में पश्चात्वर्ती महिषासुर का भी वध किया ॥७७॥

यदा स्तुता महादेवी बोधिता चाश्विनस्य च ।

चतुर्दशी कृष्णपक्षे प्रादुर्भूता जगन्मयी ।। ७८ ।।

देवानां तेजसां मूर्तिः शुक्लपक्षे सुशोभने ।

सप्तम्यां साऽकरोद् देवी अष्टम्यां तैरलङ्कृता ।। ७९ ।।

नवम्यामुपहारैस्तु पूजिता महिषासुरम् ।

निजघान दशम्यां तु विसृष्टान्तर्हिता शिवा ।। ८० ।।

जब स्तुति किये जाने और ब्रह्मादि द्वारा जागृत किये जाने पर, जगन्मयी देवी आश्विन के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी तिथि को उत्पन्न हुईं तो उन्होंने शुक्लपक्ष की सप्तमी तिथि को देवताओं के तेज से मूर्तरूपधारण किया तथा अष्टमी को उन्हीं के द्वारा किये गये अलङ्कारों से विभूषित एवम् नवमी को उन्हीं के उपहारों से पूजित हो, महिषासुर का वध किया। तत्पश्चात् वह शिवा, दशमी को विसर्जित किये जाने पर अन्तर्धान हो गईं ॥ ७८-८०।।

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

श्रुत्वेमां सगरो राजा देव्याः सङ्गतिमुत्तमाम् ।

संशयालुश्च तद्रूपे पुनरौर्व्वमपृच्छत् ।। ८१ ।।

मार्कण्डेय बोले- जब राजा सगर ने देवी के इस उत्तम रूप को सुना तो उस रूप के प्रति संशय (उत्सुकता वश, और्वमुनि से पुनः पूछा ॥ ८१ ॥

।। सगर उवाच ।।

यदि पस्चान्महादेवी जघान महिषासुरम् ।

कथं पूर्वं भद्रकाली-रूपाभून्महिषासुरम् ।। ८२ ।।

तथाहि दर्शनं तस्याः पादाक्रान्तस्चकार च ।

हृदि शूलेन निर्भिन्नं ददृशुः सकलाः सुराः।

एवं तु संशयं छिन्धि मुनिश्रेष्ठ ममाधुना ।। ८३ ।।

सगर बोले- यदि महादेवी ने बाद में महिषासुर का वध किया तो पहले अपने भद्रकाली रूप में जिस महिषासुर को पैरों से कुचलकर, त्रिशूल से उसके हृदय को भिन्न किये हुए रूप में देवी ने दर्शन दिया था। जिसे सभी देवताओं ने देखा भी था। वह क्या था? यह अन्तर कैसे हुआ। हे मुनियों में श्रेष्ठ ! आप मेरे इस संशय का समाधान कीजिये ।। ८२-८३ ॥

।। और्व्व उवाच ।।

शृणुत्वं नृपशार्दूल भद्रकाली यथा पुरा ।

प्रादुर्भूता महामाया महिषेण सहैव तु ।। ८४ ।।

और्व बोले- हे राजाओं में सिंह के समान श्रेष्ठ ! जिस कारण से प्राचीनकाल में महिषासुर के सहित ही भद्रकाली उत्पन्न हुई थीं । उसे सुनो - ॥८४॥

महिषासुर एवासौ निद्रायां निशि पर्वते ।

स्वप्नं प्रददृसे वीरो दारुणं घोरदर्शनम् ।। ८५ ।।

महामाया भद्रकाली छित्त्वा खड्गेन मे शिरः।

पपौ तस्य च रक्तानि व्यादितास्यातिभीषणा ।। ८६ ।।

एक समय जब वह पर्वत पर रात्रि में निद्रामग्न था वीर महिषासुर ने एक भयानक दिखाई देनेवाला, कष्टकर, स्वप्न देखा। उसने देखा, महामाया भद्रकाली ने खड्ग से मेरे (उसके सिर को काट कर रक्त को पी लिया था और वे भयानकमुख खोले हुए थीं । ८५-८६ ॥

ततः प्रातर्भययुतः स दैत्यो महिषासुरः।

तामेव पूजयामास सुचिरं सानुगस्तदा ।। ८७ ।।

तत्पश्चात् प्रातः काल भयभीत हो, उस दैत्य महिषासुर ने अपने अनुयायियों सहित, चिरकाल तक, उस समय, उसी देवी, भद्रकाली, का पूजन किया ॥८७॥

आराधिता तदा देवी महिषेणासुरेण वै ।

प्रादुर्भूता भद्रकाली भुजैः षोडशभिर्युता ।। ८८ ।।

तब उस महिषासुर द्वारा आराधना किये जाने पर देवी भद्रकाली, सोलह भुजाओं से युक्त हो प्रकट हुईं ॥८८॥

ततः प्रणम्य महिषो महामायां जगन्मयीम् ।

उवाचेदं वचो नम्रमूर्तिर्भक्तियुतोऽसुरः।। ८९ ।।

तब उस जगत्मयी महामाया को प्रणामकर, नम्रतापूर्वक, भक्तियुक्त हो महिषासुर ने ये वचन कहे ॥ ८९ ॥

।। महिष उवाच ।।

देवि खड्गेन सञ्छिद्य शोणितानि शिरो मम ।

त्वया मुक्तानि दृष्टानि मया स्वप्नेन निश्चितम् ।। ९० ।।

अवश्यं तु त्वया कार्यं मया ज्ञातं प्रमाणतः।

एतद्रुधिरपानं मे तत्रैकं देहि मे वरम् ।। ९१ ।।

द्वारा खड्ग से काटकर मेरा सिर और रक्त, भक्षण कर लिया गया है। अवश्य ही आप द्वारा यह मेरे रुधिरपान का कार्य सम्पन्न होगा, यह लक्षणों से मुझे ज्ञात हो गया है । अतः मुझे एक वरदान दीजिये ।। ९०-९१ ।

वध्यस्तवाहं नात्रास्ति संशयः परमेश्वरि ।

ममापि तत्र नो दुःखं नियतिः केन लङ्घ्यते ।। ९२ ।।

हे परमेश्वरि ! मैं आपके द्वारा मारा जाने वाला हूँ। इसमें न कोई संशय है और न मुझे कोई दुःख ही है। नियति को कौन टाल सकता है (कोई नहीं टाल सकता) ।। ९२ ।।

किन्तु त्वयैव सहितः शम्भुराराधितः पुरा ।

मम पित्रा मदर्थेन जातः पश्चादहं ततः।। ९३ ।।

किन्तु प्राचीनकाल में मेरे पिता ने, मेरे लिए ही, आपके सहित भगवान शिव की आराधना की थी, जिसके फलस्वरूप मैं उत्पन्न हुआ था ।। ९३ ।।

मयाप्याराधितः शम्भुः प्राप्ताश्चेष्टास्तथाविधाः।

मन्वन्तरत्रयं यावदासुरं राज्यमुत्तमम् ।। ९४ ।।

अकण्टकं मया भुक्तमनुतापो न विद्यते ।

कात्यायनेन मुनिना शप्तोऽहं शिष्यकारणात् ।

सीमन्तिनी विनाशं ते करिष्यति न संशयः।। ९५ ।।

मेरे द्वारा भी शिव की आराधना की गई, जिससे इस प्रकार की प्रवृत्तियाँ तथा तीन मन्वन्तर की कालावधि का निर्विघ्न (शत्रुरहित), असुरों का उत्तम राज्य, मेरे द्वारा भोगा गया। अतः अब कोई दुःख नहीं है किन्तु अपने शिष्य के कारण कात्यायन मुनि द्वारा मुझे शाप दिया गया कि सुन्दरी ही तुम्हारा विनाश करेगी। इसमें कोई संशय नहीं है ।। ९४-९५ ।।

पुरा मुनिं तपस्यन्तं रौद्राश्वं नाम सत्तमम् ।

मुनेः कात्यायनाख्यस्य शिष्यं हिमवदन्तिके ।। ९६ ।।

दिव्यस्त्रीरूपमतुलं कृत्वाहं कौतुकात् तदा ।

मया सम्मोहितो विप्रोऽत्यजत् सद्यस्तदा तपः।। ९७ ।।

प्राचीनकाल में कात्यायन नामक मुनि के शिष्य श्रेष्ठमुनि रौद्राश्व, जब हिमालय पर्वत पर तपस्या कर रहे थे तब कौतुकवश मेरे द्वारा अतुलनीया, दिव्य-स्त्री का रूप धारणकर उन्हें सम्मोहित किया गया। उस समय उस मुनि ने शीघ्र ही अपनी तपस्या छोड़ दी ।। ९६-९७ ।।

नदूरात् संस्थितेनाहं मुनिना कात्यसूनुना ।

ज्ञात्वा मायां तदा शप्तः शिष्यार्थे क्रोधवह्निना ।। ९८ ।।

तब समीप में ही स्थित कात्यमुनि के पुत्र, मुनिवर कात्यायन द्वारा मेरी माया को जानकर, शिष्य के निमित्त क्रोधाग्निवश, मुझे शाप दिया गया था ।। ९८ ।।

यस्मात् त्वया मे सिष्योऽयं मोहितस्तपसश्च्युतः।

कृतस्त्वया स्त्रीरूपेण तत् त्वां स्त्री निहनिष्यति ।। ९९ ।।

मेरा यह शिष्य, तुम्हारे द्वारा स्त्रीरूप से मोहित कर तपस्या से वञ्चित किया गया है । अतः स्त्री ही तुम्हारा वध करेगी ॥९९॥

इति मां शप्तवान् पूर्वं मुनिः कात्यायनः स्वयम् ।

तस्य शापस्य कालोऽयमागत्य समुपस्थितः।। १०० ।।

ऐसा पहले ही स्वयं कात्यायन मुनि ने मुझे शाप दिया था। उस शाप की पूर्णता का समय भी अब उपस्थित हो गया है ।। १०० ॥

देवेन्द्रत्वं मया प्राप्तं भुक्तं त्रिभुवनं समम् ।

किञ्चिन्न शोच्यं मेऽत्रास्ति वाञ्छनीयं हि यन्मया ।। १०१ ।।

तस्मात् त्वां वै प्रपन्नोऽहं प्रार्थ्यं शेषं हि यन्मम ।

यदू देहि देवि दुर्गे त्वं भूयस्तुभ्यं नमो नमः।। १०२ ।।

मुझे देवेन्द्रपद भी प्राप्त हुआ तथा मैंने एक साथ तीनों लोकों का भोग भी किया। अब मुझे कुछ भी सोचने को नहीं है, जो मुझे अपेक्षित हो। अतः हे देवी दुर्गे ! मैं आपकी शरण में हूँ । अब जो मेरा वाञ्छित शेष रह गया है, उसे ही आप प्रदान करें। मैं बारम्बार आपको नमस्कार करता हूँ ।। १०१-१०२॥

।। देव्युवाच ।।

प्रार्थनीयो वरो यस्ते तं वृणुष्व महासुर ।

दास्यामि ते वरं प्रार्थ्यं संशयो नात्र विद्यते ।। १०३ ।।

देवी बोलीं- हे महान् असुर ! जो भी तुम्हारा प्रार्थनीय (वाञ्छित) हो उसे मांग लो। मैं तुम्हारा अभीष्ट अवश्य प्रदान करूंगी। इसमें कोई संशय नहीं है ॥१०३॥

।। महिष उवाच ।।

यज्ञभागमहं भोक्तुमिच्छामि त्वत्प्रसादतः।

यथा मखेषु सर्वेषु पूज्योऽहं स्यां तथा कुरु ।। १०४ ।।

महिषासुर बोला- मैं आपकी कृपा से यज्ञ में अपना यज्ञभाग भोग करना चाहता हूँ, जैसे सभी यज्ञों में मैं पूजा जा सकूँ, वैसा ही आप कीजिये ॥ १०४ ॥

त्वत्पादसेवां न त्यक्ष्ये यावत्सूर्यः प्रवर्तते ।

एवं वरद्वयं देहि यदि देयो वरो मम ।। १०५ ।।

जब तक सूर्य एवं चन्द्रमा हैं। तब तक मैं आपके चरणों की सेवा का त्याग नहीं करूँ । यदि आप मुझे वर देना चाहती हैं, तो यही दो वर मुझे दीजिये ॥ १०५ ॥

।। देव्युवाच ।।

यज्ञभागाः सुरेभ्यस्तु कल्पिता वै पृथक् पृथक् ।

भागो न विद्यते चान्यो यं दास्यामि तवाधुना ।। १०६ ।।

देवी बोलीं- यज्ञ-भाग तो देवताओं द्वारा पहले ही अलग-अलग निर्धारित कर लिये गये हैं। अब कोई ऐसा भाग, शेष नहीं है जो मैं तुम्हें दूँ ॥ १०६ ॥

किन्तु त्वयि मया युद्धे निहते महिषासुर ।

नैव त्यक्ष्यसि मत्पादं सततं नात्र संशयः।। १०७ ।।

किन्तु हे महिषासुर ! युद्ध में मेरे द्वारा तुम्हें मारे जाने पर, तुम निरन्तर मेरे पैरों को नहीं छोड़ोगे ॥ १०७॥

मम प्रवर्तते पूजा यत्र यत्र च तत्र ते ।

पूज्यश्चिन्त्यश्च तत्रैव कायोऽयं तव दानव ।। १०८ ।।

हे दानव ! जहाँ-जहाँ मेरी पूजा होगी वहाँ-वहाँ तुम्हारा यह शरीर पूजित होगा तथा इसका भी चिन्तन (ध्यान) किया जायेगा ।। १०८ ।।

इति श्रुत्वा वचस्तस्याः प्रत्यूषे महिषासुरः।

वरं प्राप्येह मुदितः प्रसन्नवदनस्तदा ।। १०९ ।।

प्रातःकाल के समय में महिषासुर, उन देवी के इस प्रकार के वचनों को सुनकर तथा इस प्रकार का वरदान प्राप्त कर, प्रसन्नमुख हो बोला ॥। १०९ ।।

उग्रचण्डे भद्रकालि दुर्गे देवि नमोऽस्तुते ।

प्रभूता मूर्तया देवि भवत्या सकलात्मिकाः।। ११० ।।

काभिस्ते मूर्तिभिः पूज्यो यज्ञेऽहं परमेश्वरि ।

तत् समाचक्ष्व यदि मे भवत्येह कृपा कृता ।। १११ ।।

हे देवि उग्रचण्डे, हे भद्रकाली, हे दुर्गे ! आपको नमस्कार है । हे सब की आत्मरूप देवी ! आपकी अनेक मूर्तियाँ हैं। हे परमेश्वरि ! आपकी किन-किन मूर्तियों के साथ यज्ञों में मेरी पूजा होगी ? यदि मेरे पर आपकी कृपा हो, तो आप इसे बतायें ।। ११०-१११ ॥

।। देव्युवाच ।।

यानि नामानि प्रोक्तानि त्वयेह महिषासुर ।

तासु मूर्तिषु संपृष्टः पूज्यो लोके भविष्यसि ।। ११२ ।।

देवी बोलीं- हे महिषासुर ! तुमने इस समय जिन-जिन नामों को कहा है। उन्हीं मूर्तियों से युक्त होकर तुम संसार में पूजे जाओगे ॥ ११२ ॥

उग्रचण्डेति या मूर्तिर्भद्रकाली ह्यहं पुनः।

यया मूर्त्यात्वां हनिष्ये सा दुर्गेति प्रकीर्तिता ।। ११३ ।।

जो उग्रचण्डी नामक मूर्ति है, वही मैं भद्रकाली भी हूँ तथा जिस रूप से तुम्हारा वध करूँगी, मेरी वही मूर्ति, दुर्गा के नाम से भी पुकारी जाती है ॥ ११३ ॥

एतासु मूर्तिषु सदा पादलग्नो नृणां भवान् ।

पूज्यो भविष्यति स्वर्गे देवानामपि रक्षसाम् ।। ११४ ।।

इन सभी मूर्तियों के चरणों में संलग्न तुम, सदैव मनुष्यों द्वारा, स्वर्ग में देवताओं द्वारा और राक्षसों द्वारा भी पूजे जाओगे ॥११४॥

आदिसृष्टावुग्रचण्डामूर्त्या त्वं निहितः पुरा ।

द्वितीयसृष्टौ तु भवान् भद्रकाल्या मया हतः।। ११५ ।।

प्रथम सृष्टिकाल में तुम मेरे उग्रचण्डारूप के द्वारा प्राचीनकाल में मारे गये, दूसरे सृष्टिकाल में तुम भद्रकालीरूप से मारे गये हो ॥ ११५ ॥

दुर्गारूपेणाधुना त्वां हनिष्वामि सहानुगम् ।

किन्तु पूर्वं न गृहीतस्त्वं मया पादयोस्तले ।। ११६ ।।

अधुना प्रार्थितवरो गहीतः पूर्वकामयोः।

ग्रहीतव्यश्च पश्चात् त्वं यज्ञभागोपभुक्तये ।। ११७ ।।

अब मैं अपने दुर्गारूप से, अनुयायियों सहित तुम्हें मारूंगी किन्तु तुमने इसके पहले कभी मेरे चरणों में आश्रय नहीं ग्रहण किया था। अब तुमने प्रार्थना कर मुझसे वर मांग लिया है। तुम बाद में मुझसे यज्ञभाग प्राप्ति के लिए वर प्राप्त कर लोगे ।। ११६-११७॥

।। और्व्व उवाच ।।

इत्युक्त्वा सा महामाया उग्रचण्डाह्वयां तनुम् ।

दर्शयामास च तदा महिषायासुराय वै ।। ११८ ।।

या मूर्तिः षोडशभुजा भद्रकालीति विश्रुता ।

तथैव मूर्तिं बाहुभ्यामपराभ्यां तु बिभ्रती ।। ११९ ।।

दक्षिणाधो गदां वामपाणिना पानपात्रकम् ।

सुरापूर्णं च शिरसा मुण्डमालां बिलेशयम् ।। १२० ।।

भिन्नाञ्जनचयप्रख्या प्रचण्डा सिंहवाहिनी ।

रक्तनेत्रा महाकाया युक्ताऽष्टादशबाहुभिः।। १२१ ।।

और्व बोले- तब इस प्रकार से कह कर महामाया ने अपनी उग्रचण्डा नामक मूर्ति का महिषासुर को दर्शन कराया जो सोलहभुजाओंवाली भद्रकालीरूप में प्रसिद्ध है, वही मूर्ति अपनी दाहिनी भुजाओं में गदा, बायें में पानपात्र (कपाल चषक) तथा मस्तक पर बिल में निवास करने वाले नाग की माला तथा गले में मुण्डमाला धारण की हुई थी। उसका रंग, काले अञ्जन के चट्टान के समान था । वह प्रचण्ड (उग्र) तथा सिंह पर सवार थी। उसके नेत्र लाल थे, उसका शरीर विशाल था और वह अठारह भुजाओं से युक्त थी ॥। ११८-१२१ ॥

उग्रचण्डा भद्रकाली देव्या मूर्तिद्वयं तथा ।

महिषः प्रणनामाशु दुष्ट्वा विस्मयमागतः ।। १२२ ।।

उन उग्रचण्डा और भद्रकाली नामक देवी के दोनों रूपों को देखकर महिषासुर ने आश्चर्य चकित हो, उन्हें शीघ्रतापूर्वक प्रणाम किया ॥ १२२ ॥

ततो यथा पदाक्रम्य निहतो महिषासुरः।

तथैव जगृहे पादतले देवीद्वयं तु तम् ।। १२३ ।।

तत्पश्चात् जिस रूप में देवी ने अपने चरणों से दबाकर उस महिषासुर का अपने दुर्गारूप से वध किया, वैसे ही उन दोनों देवियों ने भी उसे अपने चरणों में स्वीकार कर लिया ।। १२३ ।।

हृदि शूलेन निर्भिन्नं माहिषं विशिरस्ककम् ।

गृहीतकेशं देव्या तु निर्यदन्त्रविभूषितम् ।। १२४ ।।

वमद्रक्तं महाकायं दृष्ट्वा पूर्वतनुं स्वकम् ।

भयं प्राप्यासुरः सोऽथ शुशोच मुमोह च ।। १२५ ।।

सिर- विहीन तथा त्रिशूल से हृदय बिंधा हुआ, आँते निकली हुईं, देवी द्वारा केश पकड़े हुए, रक्त वमन करते, अपने पूर्ववर्ती विशाल भैंसे के रूप को देखकर वह दैत्य भयभीत हो, चिन्तित और मोहग्रस्त भी हो गया था ।। १२४-१२५ ।।

ततस्तु क्षणमात्मानं संस्तभ्य स तु दानवः।

प्रणम्य वचनं देवीमिदमाह स गद्गगदम् ।। १२६ ।।

तब क्षणभर में अपने को संभाल कर, उस दानव ने देवी को प्रणाम कर गदगद (भावविभोर) वाणी से, ये वचन कहे- ॥ १२६ ॥

।। महिष उवाच ।।

यदि देवी प्रसन्नासि यज्ञभागाश्च कल्पिताः।

तदा ममान्यदा नाश एवमेतद् भवेन्न हि ।। १२७ ।।

महिष (असुर) बोला- हे देवि ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं और आपने मुझे यज्ञभाग भी निर्धारित कर दिया है, तो ऐसा वरदान दें कि पुनः मेरा अन्यत्र नाश न हो ॥ १२७ ॥

यथाहं न सुरैः सार्धं करिष्ये वैरमद्भुतम् ।

तथा मां कुरु भो देवि न जन्म प्रलभे यथा ।। १२८ ।।

जिससे मैं देवताओं के साथ अद्भुत (पूर्ववत्) वैर न करूँ, वैसी ही आप मेरे जन्म और मरण की व्यवस्था कीजिये॥१२८॥

।। देव्युवाच ।।

आराधिताऽहं भवता वरो दत्तो मया तव ।

वध्यश्च त्वं ममैवेह नात्र कार्या विचारणा ।। १२९ ।।

यत् त्वया प्रार्थितं चापि सर्वैः सुरगणैः सह ।

विरोधो मे सदा मा भूदिति चापि भविष्यति ।। १३० ।।

देवी बोलीं- मैं तुम्हारे द्वारा आराधित हुई हूँ। मेरे द्वारा तुम्हें वर दिया गया है । अत: इसी जन्म में तुम मेरे द्वारा मारे जाओगे। इस सम्बन्ध में तुम्हें इस पर विचार करने की आवश्यकता नहीं है। जैसा तुमने प्रार्थना की कि सभी देवगणों के साथ तुम्हारा सदैव वैर न रहे, वह भी होगा ॥ १२९-१३० ।।

मत्पादतलसंस्पर्शाच्छरोरं तव दानव ।

यज्ञभागोपभोगाय विशीर्णं न भविष्यति ।। १३१ ।।

हे दानव ! मेरे चरणों के स्पर्श के कारण यज्ञभाग के उपभोग के लिए तुम्हारा यह शरीर कभी नष्ट नहीं होगा ।। १३१ ॥

तव जीवात्मभिः प्राणाः सर्व एव महासुरः।

हरस्य पादसंयोगाच्चिरं स्थास्यति केवलम् ।। १३२ ।।

हे महान् असुर ! तुम्हारा जीव, आत्मा, प्राण सभी केवल शिव के चरणों के संसर्ग को प्राप्त कर स्थायीरूप से रहेंगे ॥ १३२ ॥

कल्पकोटिसहस्राणि त्रिंशत् त्वं महिषासुर ।

शतानि चाष्टावन्यानि जन्म ते न भविष्यति ।। १३३ ।।

हे महिषासुर ! तीस हजार आठ सौ करोड़ कल्पों तक तुम्हारा पुनर्जन्म नहीं होगा ॥१३३॥

।। और्व उवाच ॥

इति देवी वरं दत्त्वा महिषायासुराय वै ।

प्रणता तेन शिरसा तत्रेवान्तरधीयत ।। १३४ ।।

और्व बोले- महिषासुर को उपर्युक्त वर देकर, उसके द्वारा मस्तक झुका कर प्रणाम किये जाने के पश्चात् देवी वहीं अन्तर्ध्यान हो गईं ॥ १३४ ॥

महिषोऽपि निजस्थानं ययौ संमोहितः पुनः।

मायया चासुरं भावमादय नृप पूर्ववत् ।। १३५ ।।

हे राजन् ! महिषासुर भी अपने स्थान को चला गया और मायावश पुनः पहले की भाँति आसुरी भावों को प्राप्त हुआ ।। १३५ ।।

।। सगर उवाच ।।

अनेके निहिता दैत्या मायया लोकभूतये ।

न ते पुनः प्रगृहीतास्तेभ्यो दत्त्वा वराञ्शुभान् ।। १३६ ।।

केन वा कारणेनायं प्रगृहीतो वरः कथम् ।

दत्तास्तस्मै समाचक्ष्व मम सम्यग् द्विजोत्तम ।। १३७।।

सगर बोले- हे द्विजों में श्रेष्ठ ! लोक के कल्याण हेतु, महामाया द्वारा अनेक दैत्य मारे गये हैं, किन्तु न तो उन्हें उत्तम वर ही मिला और न देवी ने ही उन्हें अपनाया, तब किस कारण से इस महिषासुर को देवी द्वारा ग्रहण किया गया तथा उसे वर भी दिया गया ? इसे आप भली-भाँति मुझे बताइये ।। १३६ - १३७।।

।। और्व्व उवाच ।।

आराधितो महादेवो रम्भेण सुरवैरिणा ।

चिरेण स च सुप्रीतस्तपसा तस्य शङ्करः।। १३८।।

अथ तुष्टो महादेवः प्रत्यक्षं रम्भमूचिवान् ।

प्रीतोऽस्मि ते वरं रम्भ वरयस्व यथेप्सितम् ।। १३९ ।।

और्व बोले- जब देवताओं के शत्रु रम्भ द्वारा दीर्घकाल तक महादेव की आराधना की गई तब उसकी तपस्या से भगवान शङ्कर प्रसन्न और सन्तुष्ट होकर उन्होंने प्रत्यक्षरूप में रम्भ से कहा- हे रम्भ ! मैं तुमसे प्रसन्न हूँ। अब तुम अपना इच्छितवर, मुझ से माँग लो ।। १३८-१३९ ।।

एवमुक्तः प्रत्युवाच रम्भस्तं चन्द्रशेखरम् ।

अपुत्रोऽहं महादेव यदि ते मय्यनुग्रहः। 

मम जन्मत्रये पुत्रो भवान् भवतु शङ्कर ।। १४० ।।

अवध्यः सर्वभूतानां जेता च त्रिदिवौकसाम् ।

चिरायुश्च यशस्वी च लक्ष्मीवान् स च शङ्कर ।। १४१ ।।

ऐसा कहे जाने पर चन्द्रशेखर को उत्तर देते हुए रम्भ ने कहा- हे महादेव ! हे भगवान् शङ्कर ! मैं पुत्रहीन हूँ। यदि आप की मुझ पर कृपा हो तो मेरे तीन जन्मों में आप मेरे पुत्र हों तथा मेरा वह पुत्र देवताओं को जीतने वाला, दीर्घायु, यशस्वी, लक्ष्मीवान होवे।।१४०-१४१॥

एवमुक्तस्तु दैत्येन प्रत्युवाच वृषध्वजः।। १४२ ।।

भवत्वेतद्वाञ्छितं ते भविष्यामि सुतस्तव ।

इत्युक्त्वा स महादेवस्तत्रैवान्तरधीयत ।।१४३ ।।

उस दैत्य द्वारा ऐसा कहे जाने पर वृषभध्वज शिव ने कहा- तुम्हारा इच्छित, ऐसा ही हो, मैं तुम्हारा पुत्र होऊँगा। ऐसा कहकर वे महादेव, वहीं अन्तर्ध्यान हो गये ।। १४२-१४३॥

रम्भोऽपि यातः स्वस्थानं हर्षोत्फुल्लविलोचनः।

पथि गच्छन् स रम्भोऽथ ददर्श महिषीं शुभाम् ।

त्रिहायणीं चित्रवर्णां सुन्दरीमृतुशालिनीम् ।। १४४ ।।

जब वह रम्भ हर्ष से प्रफुल्ल नेत्र होकर, अपने निवास स्थान को जा रहा था तो मार्ग में उसने तीन वर्ष की एक उत्तम चितकबरी, सुन्दरी, ऋतुमती, भैंस को देखा ॥ १४४ ॥

स तां दृष्ट्वाथ महिषीं रम्भः कामेन मोहितः।। १४५ ।।

दोर्भ्यां गृहीत्वा च तदा चकार सुरतोत्सवम् ।

तयोः प्रवृत्ते सुरते तदा सा तेजसा ।। १४६ ।।

दधार महिषी गर्भं तदाऽभून्महिषासुरः।

तस्यां स्वांशेन गिरिशस्तत्पुत्रत्वमवाप्तवान् ।।१४७।।

उस भैंस को देखकर रम्भ, काम मोहित हो गया तथा दोनों भुजाओं से उसे पकड़कर उसने सुरतोत्सव (मैथुन) किया। उन दोनों के सुरत में प्रवृत्त होने के कारण उस समय रम्भ के तेज़ से महिषी ने गर्भ धारण किया और उसी में अपने अंश से भगवान शिव, महिषासुर के रूप में, उसके पुत्रत्व को प्राप्त किये ।। १४५ - १४७॥

ववृधे स तदा राम्भिः सुक्लपक्षशशाङ्कवत् ।

तं च कात्यायनमुनिः शप्तवान्महिषासुरम् ।

दुर्नयं वीक्ष्य शिष्यार्थे शिष्यानुग्रहकारकः ।। १४८ ।।

तब वह रम्भ-पुत्र, महिषासुर, शुक्लपक्ष के चन्द्रमा की भाँति बढ़ने लगा और कात्यायनमुनि ने अपने शिष्य पर अनुग्रह कर अपने शिष्य के प्रति उसकी दुर्नीति को देखकर, उसे शाप दिया ॥ १४८ ॥

कात्यायनेन शप्तं तं विज्ञाय महिषासुरम् ।

प्राह प्रणामपूर्वं तु चण्डिकां चन्द्रसेखरः ।। १४९ ।।

कात्यायनमुनि से महिषासुर को शापित जानकर, प्रणाम करते हुए भगवान् शिव ने चण्डिका से कहा -- ॥१४९॥

।। ईश्वर उवाच ।।

देवी कात्यायनेनायं शप्तोऽद्य महिषासुरः।

योषिद्विनाशकर्त्रीति भवितेति जगन्मये ।

नि-संशयमृषेर्वाक्यं भविष्यति न संशयः।। १५०।।

ईश्वर (शिव) बोले- हे देवि ! हे जगन्मयि ! आज इस महिषासुर को कात्यायनमुनि ने शाप दे दिया है कि स्त्री तुम्हारा विनाश करने वाली होगी, ऋषि का कथन निश्चितरूप से पूर्ण होगा, इसमें कोई संशय नहीं है ।। १५०॥

मदीयो माहिषः कायो देवि कार्यस्त्वया त्वयि ।

हन्तव्यः सततं योगयुक्तः पूर्वे परेऽपि च ।। १५१ ।।

हे देवि ! मेरा यह महिष शरीर भी तुम्हारे द्वारा बनाया गया है। यह निरन्तर योग युक्त शरीर पहले की भाँति आगे भी तुम्हारे ही द्वारा मारा जाना चाहिये ॥ १५१ ॥

हरिर्हरिस्वरूपेण न त्वां वोढुं क्षमोऽधुना ।

ममायं माहिषः कायस्तव वोढा भविष्यति ।।१५२।।

भगवान विष्णु, सिंह रूप में तुम्हें ढोने में अब समर्थ नहीं हैं इसलिए अब यह मेरा महिषरूप शरीर ही तुम्हें ढोने वाला होगा ॥। १५२ ।।

इति पूर्वं महादेवी देवीं प्रार्थितवान् पुरा ।

तेन देवी महादेवं जग्राह महिषासुरम् ।। १५३ ।।

ऐसा पहले ही महादेव ने देवी से वर मांग लिया था। इसी से देवी ने महिषासुररूपी महादेव को ग्रहण किया ।। १५३ ।।

त्रिषु जन्मसु पुत्रोऽभूद्रम्भस्य भगवान् हरः।। १५४  ।।

सृष्टित्रये स रम्भोऽपि रम्भ एव व्यजायत ।

आसुर तादृशं तेपे तपः परमदारुणम् ।।१५५ ।।

तथैवाराधितः शम्भुः पुत्रार्थे प्रददौ वरम् ।

तथैव महिषीं भेजे प्रथमं सुरताय सः।।१५६ ।।

तस्यां तथाऽभवद्वीरो दानवो महिषासुरः।

तथैव शेपे भगवान् मुनिः कात्यायनस्तु तम् ।।१५७ ।।

तीन जन्मों तक भगवान् शिव, रम्भ के पुत्र हुए। अपनी तीन सृष्टि (जन्म) तक वह रम्भ भी रम्भ ही हुआ और उस असुर ने उसी प्रकार कठोर तप किया। भगवान् शिव ने भी उसकी आराधना से तुष्ट हो पुत्र के निमित्त वर दिया, पूर्ववत् उसने सुरति के लिए भैंस का सम्पर्क किया और उससे वीरदानव, महिषासुर उत्पन्न हुआ। उसी प्रकार उसे भगवान् कात्यायन मुनि ने शाप दिया ।।१५४-१५७।।

इति प्रवृत्ते पूर्वोऽस्मिन् परस्मिन् स तु जन्मनि ।

महिषः पूजयित्वाऽथ देवीं वरमयाचत ।। १५८।।

तृतीये जन्मनि वरं प्राप्य कल्पानशेषतः।

नेह मे जन्म भवितेत्येवं वरमयाचत ।। १५९ ।।

ऐसा पहले ही की भाँति आगामी जन्मों में भी होने से, महिष ने देवी की पूजा कर वर प्राप्त किया तथा तीसरे जन्म में वर पाकर, उसने यह वर मांगा कि अब सम्पूर्ण कल्पों में उसका पुनर्जन्म न हो ।। १५८-१५९।।

तेन देवीपादतले तिष्ठत्येषोऽसुरोऽधुना ।

नोत्पत्तिरपि तस्याथ संवर्तान्तादभून्नृप ।। १६०।।

हे राजन् ! इसी से यह असुर आज भी देवी के चरणों में स्थित है। तथा संसार के प्रलय पर्यन्त, इसका अन्त भी नहीं होगा ।। १६० ।।

एवं देवीप्रसादेन महादेवांशसम्भवः।

परामवाप सततं प्रतिपत्तिं महासुरः ।। १६१ ।।

इस प्रकार महादेव शिव के अंश से उत्पन्न महिषासुर ने देवी की कृपा से निरन्तर श्रेष्ठ शरणागति को प्राप्त किया।।१६१॥

इति ते कथितं राजन् यथा स महिषासुरः।

देवीपादतलं प्राप्य यथा सोऽद्यापि मोदते ।

प्रस्तुतं शृणु भो राजन् कथयामि नृपोत्तम ।। १६२ ।।

हे राजाओं में उत्तम राजा ! जिस प्रकार से महिषासुर, देवी के चरणों में स्थान प्राप्त कर आज भी आनन्दित हो रहा है। वह मैंने तुमसे कहा। अब आगे जो कहता हूँ उसे सुनो ॥ १६२ ॥

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

इति वः कथितं राजा सगरः सहितो यथा ।

और्व्वेण चक्रे संवादं देवीमहिषयोजने ।। १६३ ।।

पुनर्यदाह भूयोऽपि सगराय महात्मने ।

तच्छृण्वन्तु मुनिश्रेष्ठा गुह्याद् गुह्यतरं परम् ।। १६४ ।।

मार्कण्डेय बोले- इस प्रकार राजा सगर ने और्व मुनि से देवी और महिषासुर के सम्बन्ध में जो संवाद किया था। वह तुम दोनों से कह दिया । हे मुनियों में श्रेष्ठ मुनिजन! पुनः महात्मा सगर से उन्होंने जो आगे कहा उस अत्यन्त गुप्त से गुप्त प्रकरण को अब आप सुनें ।। १६३-१६४।।

॥ इति श्रीकालिकापुराणे महिषासुरोपाख्यानोनाम षष्टितमोऽध्यायः ।। ६० ।।

॥ श्रीकालिकापुराण में महिषासुरोपाख्यान नामक साठवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ।। ६० ।।

आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 61

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