श्राद्ध में निषिद्ध

श्राद्ध में निषिद्ध

श्राद्ध में कुछ ऐसी बातें हैं जो वर्ज्य हैं अर्थात् निषिद्ध हैं, उन्हें श्राद्ध के दिन नहीं करना चाहिये

श्राद्ध में वर्ज्य- -निषिद्ध बातें

श्राद्धकर्ता के लिये निषिद्ध सात बातें

दन्तधावन (दतुअन आदि न करे), ताम्बूल (पान आदि न खाये), तैलमर्दन, उपवास, स्त्रीसम्भोग, ओषध (दवाई आदि न ले) तथा परान्नभक्षण (दूसरे का भोजन न करे) - ये सात बातें श्राद्धकर्ता के लिये वर्जित हैं।

दन्तधावनताम्बूलं तैलाभ्यङ्गमभोजनम् ।

रत्यौषधं परान्नं च श्राद्धकृत् सप्त वर्जयेत् ॥ (महा० शा०; श्राद्धकल्प०)

श्राद्धभोक्ता के लिये आठ वस्तुओं का निषेध

पुनर्भोजन (दुबारा भोजन न करे), यात्रा, भार ढोना, परिश्रम, मैथुन, दान, प्रतिग्रह तथा होम - श्राद्धान्न भोजन करनेवाले को इन आठ बातों से बचना चाहिये ।

पुनर्भोजनमध्वानं भारमायासमैथुनम् ।

दानं प्रतिग्रहो होमः श्राद्धभुक् त्वष्ट वर्जयेत् ॥ (विष्णुरह०; यमस्मृति, श्राद्धकल्पलता)

श्राद्ध में लोहे के पात्र का सर्वथा निषेध

श्राद्ध में लोहे के पात्र का उपयोग कदापि नहीं करना चाहिये। लोहपात्र में भोजन करना भी नहीं चाहिये तथा ब्राह्मण को भोजन कराना भी नहीं चाहिये । यहाँ तक कि भोजनालय या पाकशाला में भी उसका कोई उपयोग न करे। केवल शाक, फल आदि के काटने में उसका उपयोग कर सकते हैं, लोहे के दर्शनमात्र से पितर वापस लौट जाते हैं।

न कदाचित् पचेदन्नमयः स्थालीषु पैतृकम् ।

अयसो दर्शनादेव पितरो विद्रवन्ति हि ॥

कालायसं विशेषेण निन्दन्ति पितृकर्मणि ।

फलानां चैव शाकानां छेदनार्थानि यानि तु ॥

महानसेऽपि शस्तानि तेषामेव हि संनिधिः । (चमत्कारखण्ड, श्राद्धकल्पलता)

श्राद्ध में निषिद्ध कुश

चिता में बिछाये हुए, रास्ते में पड़े हुए, पितृतर्पण एवं ब्रह्मयज्ञ में उपयोग में लिये हुए, बिछौने, गन्दगी से और आसन में से निकाले हुए, पिण्डों के नीचे रखे हुए तथा अपवित्र कुश निषिद्ध समझे जाते हैं।

चितौ दर्भाः पथिदर्भा ये दर्भा यज्ञभूमिषु ।

स्तरणासनपिण्डेषु षट् कुशान् परिवर्जयेत् ॥

ब्रह्मयज्ञे च ये दर्भा ये दर्भाः पितृतर्पणे ।

हता मूत्रपुरीषाभ्यां तेषां त्यागो विधीयते ॥ (श्राद्धसंग्रह, श्राद्धविवेक, श्राद्धकल्पलता)

श्राद्ध में निषिद्ध गन्ध

श्राद्ध में श्रीखण्ड, चन्दन, खस, कर्पूरसहित सफेद चन्दन ही पितृकार्य के लिये प्रशस्त हैं। अन्य पुरानी लकड़ियों के चन्दन तथा निर्गन्ध काष्ठों का चन्दन के लिये उपयोग नहीं करना चाहिये । कस्तूरी, रक्तचन्दन, गोरोचन, सल्लक तथा पूतिकं आदि निषिद्ध हैं ।

श्राद्धेषु विनियोक्तव्या न गन्धा जीर्णदारुजाः ।

कल्कीभावं समासाद्य न च पर्युषिताः क्वचित् ॥

पूतीकां मृगनाभिं च रोचनां रक्तचन्दनम् ।

कालीयकं जोङ्गकं च तुरुष्कं चापि वर्जयेत् ॥ (मरीचिस्मृति, श्राद्धप्रकाश, श्राद्धकल्पलता)

श्राद्ध में त्याज्य पुष्प

कदम्ब, केवड़ा, मौलसिरी, बेलपत्र, करवीर, लाल तथा काले रंग के सभी फूल तथा उग्र गन्धवाले और गन्धरहित सभी फूल -ये श्राद्ध में वर्जित हैं।

कदम्बं बिल्वपत्रं च केतकी बकुलं तथा ।

बर्बरी कृष्णपुष्पाणि श्राद्धकाले न दापयेत् ॥

उग्रगन्धीन्यगन्धीनि चैत्यवृक्षोद्भवानि च ।

पुष्पाणि वर्जनीयानि रक्तवर्णानि यानि च । (शंखस्मृति, प्रयोग०, मत्स्य०, ब्रह्माण्ड०, श्राद्धप्रकाश)

निषिद्ध धूप

अग्नि पर दूषित गुग्गुल अथवा बुरा गोंद अथवा केवल घी डालना निषिद्ध है।

घृतं न केवलं दद्याद् दुष्टं वा तृणगुग्गुलुम् । (मदनरल, श्राद्धचन्द्रिका, श्राद्धप्र०, श्राद्धकल्पलता)

श्राद्ध में निषिद्ध ब्राह्मण

श्राद्ध में चोर, पतित, नास्तिक, मूर्ख, धूर्त, मांसविक्रयी, व्यापारी, नौकर, कुनखी, काले दाँतवाले, गुरुद्वेषी, शूद्रापति, भृतकाध्यापक-भृतकाध्यापित (शुल्क से पढ़ाने या पढ़नेवाला), काना, जुआरी, अन्धा, कुश्ती सिखानेवाला, नपुंसक इत्यादि अधम ब्राह्मणों को त्याग देना चाहिये। (मनु०, विष्णु, ब्रह्माण्ड०, मत्स्य०, वायु०, कूर्मपुराण)

श्राद्ध में निषिद्ध अन्न

जिसमें बाल और कीड़े पड़ गये हों, जिसे कुत्तों ने देख लिया हो, जो बासी एवं दुर्गन्धित हो - ऐसी वस्तु का श्राद्ध में उपयोग न करे। बैंगन और शराब का भी त्याग करे। जिस अन्न पर पहने हुए वस्त्र की हवा लग जाय, वह भी श्राद्ध में वर्जित है।

केशकीटावपन्नं च तथा श्वभिरवेक्षितम् ॥

पूति पर्युषितं चैव वार्ताक्यभिषवांस्तथा ।

वर्जनीयानि वै श्राद्धे यच्च वस्त्रानिलाहतम् ॥ (मार्कण्डेयपुराण ३२ । २५-२६)

राजमाष, मसूर, अरहर, गाजर, कुम्हड़ा, गोल लौकी, बैंगन, शलजम, हींग, प्याज, लहसुन, काला नमक, काला जीरा, सिंघाड़ा, जामुन, पिप्पली, कुलथी, कैथ, महुआ, अलसी, चना-ये सब वस्तुएँ श्राद्ध में वर्जित हैं।

(क) मसूरशणनिष्पावाराजमाषाः कुलुत्थकाः ॥

पद्मबिल्वार्कधत्तूरपारिभद्राटरूषकाः।

न देयाः पितृकार्येषु पयश्चाजाविकं तथा ॥

कोद्रवोदारवरटकपित्थं मधुकातसी ।

एतान्यपि न देयानि पितृभ्यः श्रियमिच्छता । (पद्मपुराण, सृष्टि० ९।६४६६)

(ख) पिप्पलीं क्रमुकं चैव तथा चैव मसूरकम् ।

कूष्माण्डालाबुवार्ताकान् भूस्तृणं सुरसं तथा ॥

कुसुम्भपिण्डमूलं वै तन्दुलीयकमेव च ।

राजमाषांस्तथा क्षीरं माहिषं च विवर्जयेत् ॥ (कूर्मपुराण, उ० २० । ४६-४७)

(ग) राजमाषानणूंश्चैव मसूरांश्च विसर्जयेत् ॥

अलाबुं गृज्ञ्जनं चैव पलाण्डुं पिण्डमूलकम् । (विष्णुपुराण ३ । १६ । ७-८)

श्राद्ध में मांस का निषेध

बृहत्पाराशर में कहा गया है कि श्राद्ध में मांस देनेवाला व्यक्ति मानो चन्दन की लकड़ी जलाकर उसका कोयला बेचता है। वह तो वैसा मूर्ख है जैसे कोई बालक अगाध कूएँ में अपनी वस्तु डालकर फिर उसे पाने की इच्छा करता है। श्रीमद्भागवत में कहा गया है कि न तो कभी मांस खाना चाहिये, न श्राद्ध में ही देना चाहिये। सात्त्विक अन्न-फलों से पितरों की सर्वोत्तम तृप्ति होती है । मनु का कहना है कि मांस न खानेवाले की सारी इच्छाएँ पूर्ण हो जाती हैं। वह जो कुछ सोचता है, जो कुछ चाहता है, जो कुछ कहता है, सब सत्य हो जाता है।

यस्तु प्राणिवधं कृत्वा मांसेन तर्पयेत् पितॄन् ।

सोऽविद्वांश्चन्दनं दग्ध्वा कुर्यादङ्गारविक्रयम् ॥

क्षिप्त्वा कूपे यथा किञ्चिद् बालः प्राप्तुं तदिच्छति ।

पतत्यज्ञानतः सोऽपि मांसेन श्राद्धकृत् तथा ॥

न दद्यादामिषं श्राद्धे न चाद्याद् धर्मतत्त्ववित् ।

मुन्यन्नैः स्यात् परा प्रीतिर्यथा न पशुहिंसया ॥ (बृह०परा०; श्रीमद्भा० ७। १५ । ७; मनु० ४। ४६-४७; हेमाद्रि, कालमा०; मदनरत्न; पृथ्वीचं०; स्मृतिरत्ना०; स्मृतिचन्द्रि०; दिवोदा० प्रका०; दीपिकाविवर०; श्राद्धकल्प० आदि)

श्राद्ध से जगत्की तृप्ति

मनुष्य को पितृगण की सन्तुष्टि तथा अपने कल्याण के लिये श्राद्ध अवश्य करना चाहिये । श्राद्धकर्ता केवल अपने पितरों को ही तृप्त नहीं करता, बल्कि वह सम्पूर्ण जगत्को सन्तुष्ट करता है-

यो वा विधानतःश्राद्धं कुर्यात् स्वविभवोचितम् ।

आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं जगत् प्रीणाति मानवः ॥

ब्रह्मेन्द्ररुद्रनासत्यसूर्यानलसुमारुतान् ।

विश्वेदेवान् पितृगणान् पर्यग्निमनुजान् पशून् ॥

सरीसृपान् पितृगणान् यच्चान्यद्भूतसंज्ञितान् ।

श्राद्धं श्रद्धान्वितः कुर्वन् प्रीणयत्यखिलं जगत् ॥(ब्रह्मपुराण)

'जो मनुष्य अपने वैभव के अनुसार विधिपूर्वक श्राद्ध करता है, वह साक्षात् ब्रह्मा से लेकर तृणपर्यन्त समस्त प्राणियों को तृप्त करता है। श्रद्धापूर्वक विधि-विधान से श्राद्ध करनेवाला मनुष्य ब्रह्मा, इन्द्र, रुद्र, नासत्य (अश्विनीकुमार), सूर्य, अनल (अग्नि), वायु, विश्वेदेव, पितृगण, मनुष्यगण, पशुगण, समस्त भूतगण तथा सर्पगण को भी सन्तुष्ट करता हुआ सम्पूर्ण जगत्को सन्तुष्ट करता है ।'

विष्णुपुराण में कहा हैश्रद्धायुक्त होकर श्राद्धकर्म करने से केवल पितृगण ही तृप्त नहीं होते बल्कि ब्रह्मा, इन्द्र, रुद्र, दोनों अश्विनीकुमार, सूर्य, अग्नि, आठों वसु, वायु, विश्वेदेव, पितृगण, पक्षी, मनुष्य, पशु, सरीसृप और ऋषिगण आदि तथा अन्य समस्त भूतप्राणी तृप्त होते हैं ।

ब्रह्मेन्द्ररुद्रनासत्यसूर्याग्निवसुमारुतान् ।

विश्वेदेवान् पितृगणान् वयांसि मनुजान् पशून् ॥

सरीसृपान् ऋषिगणान् यच्चान्यद्भूतसंज्ञितम् ।

श्राद्धं श्रद्धान्वितः कुर्वन् प्रीणयत्यखिलं जगत् ॥ (विष्णुपुराण ३ । १४ । १-२ )

इस प्रकार गृहस्थ को चाहिये कि वह हव्य से देवताओं का, कव्य से पितृगणों का तथा अन्न से अपने बन्धुओं का सत्कार तथा पूजन करे। श्रद्धापूर्वक देव, पितृ और बान्धवों के पूजन से मनुष्य परलोक में पुष्टि, विपुल यश तथा उत्तम लोकों को प्राप्त करता है ।

एवं सम्यग् गृहस्थेन देवताः पितरस्तथा ।

सम्पूज्या हव्यकव्येन अन्नेनापि स्वबान्धवाः ॥

परत्र च परां पुष्टिं लोकांश्च विपुलान् शुभान् ।

श्राद्धकृत् समवाप्नोति यशश्च विपुलं नरः ॥ (ब्रह्मपुराण)

यहाँ तक कहा है कि जो लोग देवता, ब्राह्मण, अग्नि और पितृगण की पूजा करते हैं, वे सबकी अन्तरात्मा में रहनेवाले विष्णु की ही पूजा करते हैं-

ये यजन्ति पितॄन् देवान् ब्राह्मणांश्च हुताशनान् ।

सर्वभूतान्तरात्मानं विष्णुमेव यजन्ति ते ॥( यमस्मृति)

श्राद्ध प्रकरण में आगे पढ़ें...... श्राद्ध में महत्वपूर्णतथ्य 

About कर्मकाण्ड

This is a short description in the author block about the author. You edit it by entering text in the "Biographical Info" field in the user admin panel.

0 $type={blogger} :

Post a Comment