मरणासन्न अवस्था में करनेयोग्य कार्य
मृत्यु के
अवसर अर्थात मरणासन्न अवस्था में करनेयोग्य कार्य निम्न है-
मरणासन्न अवस्था में करनेयोग्य कार्य
things to do in dying condition
देह-त्याग के पहले के कृत्य-
मृत्यु के
अवसर पर सावधान हो जाय जब कोई व्यक्ति कहीं जाने लगता है तब उसके परिवार के सदस्य
उसकी उस यात्रा को सुखमय बनाने के लिये तन-मन और धन से जुट जाते हैं। किंतु प्रायः
देखा जाता है कि लोग अपने परिवार के किसी सदस्य की मृत्यु के अवसर पर शोक में डूब
जाते हैं और रोना-धोना प्रारम्भ कर देते हैं। वे भूल जाते हैं कि मृत्यु भी एक
यात्रा है और इसको भी उन्हें सुखमय बनाने का प्रयास करना चाहिये। सच तो यह है कि
मृत्यु 'यात्रा' ही नहीं, अपितु 'महायात्रा' है। इसलिये परिवार के प्रत्येक सदस्य का यह कर्तव्य हो जाता
है कि अपने प्रियजन की इस महायात्रा को सुखमय बनाने के लिये पहले से भी अधिक
प्रयास करे । यदि कोई व्यक्ति मृत्यु के अवसर पर मरणासन्न से एक बार भी 'ॐ, राम, कृष्ण, शिव, नारायण'
आदि नाम का मन से भी स्मरण और उच्चारण करवा देता है तो उसने
सचमुच अपने प्रियजन की इस महायात्रा को पूर्ण सफल बना दिया। जिस लक्ष्य को पाने के
लिये यह मरणासन्न प्राणी अनादि काल से यात्रा-पर-यात्रा करता चला आ रहा था,
उस लक्ष्य को इस आत्मीय ने नामोच्चारण करवाकर प्राप्त करा
दिया।* अतः सभी परिजनों को अन्तिम समय में
उच्च स्वर से भगवन्नाम का संकीर्तन करना चाहिये तथा मरणासन्न व्यक्ति के कान में
भगवन्नाम-स्मरण करने की प्रेरणा करनी चाहिये।
* (क)
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन् मामनुस्मरन् ।
यः
प्रयाति त्यजन् देहं स याति परमां गतिम्॥ (गीता ८। १३)
(ॐकार का यह उच्चारण योगियों और संन्यासियों के
लिये विहित है।)
(ख)
प्राणप्रयाणसमये यस्य नाम सकृत्स्मरन् ॥
नरस्तीर्त्वा
भवाम्भोधिमपारं याति तत्पदम्। (अध्या०रामा०, सुन्दरका० १।४-५ )
प्राण-प्रयाण
के समय जिनके नाम का एक बार स्मरण करने से ही मनुष्य अपार संसार-सागर को पारकर
उनके परम धाम को चला जाता है।
(अ) क्या न करे ?
(क) भूलकर भी रोये नहीं; क्योंकि इस अवसर पर रोना मृत प्राणी को घोर यन्त्रणा प्रदान
करता है। रोने से जो आँसू और कफ निकलते हैं, इन्हें उस मृत प्राणी को विवश होकर पीना पड़ता है। यह
साधारण यात्रा तो है नहीं, साधारण यात्रा में यात्री सब काम के लिये स्वतन्त्र होता
है। वह चाहे तो आत्मीयजनों के दिये पाथेय को खाये या न खाये,
परंतु मरने पर उसकी यह स्वतन्त्रता छिन जाती है और आत्मीयों
के दिये हुए पाथेय को ही उसे खाना पड़ता है। शास्त्र ने बताया है-
श्लेष्माश्रु
बान्धवैर्मुक्तं प्रेतो भुङ्क्ते यतोऽवशः ।
अतो न
रोदितव्यं हि क्रियाः कार्याः स्वशक्तितः ॥ (याज्ञवल्क्यस्मृति, प्रायश्चित्ताध्याय १ । ११; ग०पु०, प्रे० १५1५८)
अर्थात् मृत
प्राणी के लिये आत्मीयजनों को भूलकर भी नहीं रोना चाहिये,
अपितु उसके परलोक को सुधारने के लिये डटकर प्रयास करना
चाहिये। रोने से आँखों से जो आँसू और नाक एवं मुँह से जो कफ निकलते हैं,
मृत प्राणी को इन्हें ही विवश होकर खाना-पीना पड़ता है। इस
अवसर पर रोकर हम अपने मृतजन को केवल कफ और आँसू-जैसी घृणित वस्तु ही नहीं
खिलाते-पिलाते अपितु स्वर्ग से भी नीचे गिरा देते हैं-
शोचमानास्तु
सस्नेहा बान्धवाः सुहृदस्तथा ।
पातयन्ति गतं स्वर्गमश्रुपातेनराघव
॥ (वाल्मीकीय रामायण)
कहाँ तो
मृतात्मा अपने पुण्य के बल से स्वर्ग जा पहुँचा था और कहाँ हमारे रोने की भूल ने
उसे वहाँ से खींचकर नीचे गिरा दिया। यह भूल कितनी पीड़ा देनेवाली हो गयी ?
अतः नरावतार अर्जुन की तरह शोक- मोह को दूरकर मृत व्यक्ति का
परलोक सँभालने के प्रयास में डट जाना चाहिये। मरणासन्न रोगी के सामने शोक का
प्रदर्शन होना ही नहीं चाहिये ।* शास्त्र ने रोने का
भी विधान किया है, किंतु कब ? जब दाहक्रिया के द्वारा उसके शरीर को संस्कृत करने लगते हैं;
तब कपालक्रिया करने के बाद परिजनों को उच्च स्वर में रोना
चाहिये। अब उसे अपने जनों के प्रेम का स्वाद चाहिये। इस अवसर पर अपने प्रियजनों के
प्रेमाश्रु का आस्वाद पाकर वह प्रफुल्लित हो उठता है—
रोदितव्यं ततो
गाढमेवं तस्य सुखं भवेत् । (गरुडपुराण,
प्रेतखण्ड
१५1५१)
* रोगिणोऽन्तिकमासाद्य शोचनीयं न बान्धवैः ॥ (गरुडपुराण)
(ख) देखा जाता है
कि कुछ लोग शोक के आवेश में आकर मरणासन्न प्राणी से पूछते हैं—'आप मुझे पहचान रहे हैं? मैं आपका पुत्र हूँ', 'मैं आपका मित्र हूँ' आदि-ऐसी चेष्टा कभी न करे; क्योंकि यह भयावह भूल है। इस कुकार्य से हम मृतात्मा को
दुनिया में घसीट लाते हैं, बन्धन में डाल देते हैं। हमारी चेष्टा तो ऐसी होनी चाहिये
कि जिससे मरणासन्न को सतत भगवान् का ही स्मरण होता रहे ताकि संसार की एक क्षण के
लिये भी उसे स्मृति न हो। अतः भगवान्के नामों का ही स्मरण करायें।
(ग) जबतक गाँव में, पास-पड़ोस में अथवा घर के समीप शव विद्यमान हो तबतक
खाना-पीना निषिद्ध है।
(घ) मरणासन्न व्यक्ति को आकाशतल में, ऊपर के तल पर अथवा खाट आदि पर नहीं सुलाना चाहिये ।
( आ ) क्या
करे ?
अन्तिम समय में
पोलरहित नीचे की भूमि पर ही सुलाना चाहिये।
(१) प्राणोत्सर्ग से पूर्व यदि सम्भव हो तो प्राणी को गंगा के
पावन तट पर ले जाय।* उस समय नारायण,
श्रीराम, श्रीकृष्ण, हरि, शिव आदि नाम का उच्चारण निरन्तर होता रहे।
* (क) ज्ञानतोऽज्ञानतो वापि कामतोऽकामतोऽपि वा ।
गङ्गायां
च मृतो मर्त्यः स्वर्गं मोक्षं च विन्दति ॥ (ब्रह्मपुराण)
ज्ञान
से अथवा अज्ञान से, इच्छा से अथवा अनिच्छा से जो गंगा में मरता है वह
स्वर्ग तथा मोक्ष प्राप्त करता है।
(ख) भाद्रपद कृष्ण चतुर्दशी को जल जहाँ तक पहुँचता है, उस
भूमि को गर्भ कहते हैं। गर्भ से डेढ़ सौ हाथतक की भूमि को तीर(तट)
कहते हैं, तीर
से दो कोसतक की भूमि को क्षेत्र कहते हैं।
(२) गंगातट पर ले
जाना सम्भव न हो तो घर पर ही पोलरहित नीचे की भूमि पर गोबर-मिट्टी तथा गंगाजल से
भूमि को शुद्ध कर दक्षिणाग्र कुश बिछा दे तथा तिल और कुश बिखेर दे। सम्भव हो तो
कुशासन बिछाकर नयी अथवा धोयी हुई सफेद चादर बिछा दे, जिसमें नीला-काला निशान न हो।
(३) यथासम्भव गोमूत्र, गोबर तथा तीर्थ के जल से, कुश के जल से और गंगाजल आदि से स्नान करा दे अथवा गीले
वस्त्र से बदन पोंछकर शुद्ध कर दे।*
* आसन्नमरणं ज्ञात्वा पुरुषं स्नापयेत् ततः ।
गोमूत्रगोमयसुमृत्तीर्थोदककुशोदकैः
॥
वाससी
परिधार्याथ धौते तु शुचिनी शुभे।
दर्भाण्यादौ
समास्तीर्य दक्षिणाग्रान्विकीर्य च ॥ (गरुडपुराण, प्रेतखण्ड ३२ । ८५-८६)
(४) यज्ञोपवीतधारी व्यक्ति हो तो उसे एक जोड़ा नूतन यज्ञोपवीत भी पहना दे।
(५) यदि नहाने की स्थिति न हो तो कुश से जल छिड़ककर मार्जन करा दे तथा नयी धोयी
हुई धोती पहना दे।*
* श्राद्धविवेक ।
(६) तुलसी की जड़
की मिट्टी और इसके काष्ठ का चन्दन घिसकर सम्पूर्ण शरीर में लगा दे।* इससे सारे
पाप नष्ट हो जाते हैं और विष्णुलोक प्राप्त होता है।
* (क) तुलसीमृत्तिकाऽऽलिप्तो यदि प्राणान् विमुञ्चति ।
याति
विष्ण्वन्तिकं नित्यं यदि पापशतैर्युतः ॥ (गरुडपुराण, वी०मि०पू०)
(ख) मृतिकाले तु सम्प्राप्ते तुलसीतरुचन्दनम् ।
भवेच्च
यस्य देहे तु हरिर्भूत्वा हरिं व्रजेत् ॥ (पद्मपुराण)
(७) भस्म, गंगा की मिट्टी, गोपीचन्दन लगा दे।
(८) गोबर से लिपी हुई और तिल बिखेरी गयी भूमि पर दक्षिणाग्र-कुशों को बिछाकर
मरणासन्न को उत्तर या पूर्व की ओर सिर करके लिटा दे।*
* दर्भाण्यादौ समास्तीर्य दक्षिणाग्रान्विकीर्य च
॥
तिलान्
गोमयलिप्तायां भूमौ तत्र निवेशयेत् ॥
प्रागुदक्
शिरसं वापि । (गरुडपुराण, प्रेतखण्ड ३२ । ८६-८८ )
(९) सिर पर
तुलसीदल रख दे। चारों ओर तुलसी के गमलों को सजाकर रख दे।*
* शालग्रामशिला
तत्र तुलसी च खगेश्वर ॥
विधेया
सन्निधौ सर्पिर्दीपं प्रज्वालयेत् पुनः ।
नमो
भगवते वासुदेवायेति जपस्तथा ॥
(१०) ऊँची जगह पर शालग्रामशिला को स्थापित कर दे ।*
* समभ्यर्च्य हृषीकेशं पुष्पधूपादिभिस्ततः ॥
प्रणिपातैः
स्तवैः पुष्पैर्ध्यानयोगेन पूजयेत्। (गरुडपुराण, प्रेतखण्ड ३२ । ८८ - ९१)
(११) घी का दीपक जला दे ।*
* शालग्रामशिला यत्र तत्र सन्निहितो हरिः ।
तत्सन्निधौ
त्यजेत् प्राणान् याति विष्णोः परं पदम् ॥ (शुद्धितत्त्व, पूजारत्नाकर)
(१२) भगवान्के नाम का निरन्तर उद्घोष होता रहे।*
*
तुलौकानने जन्तोर्यदि मृत्युर्भवेत् क्वचित् ।
स
निर्भत्स्य यमं पापी लीलयैव हरिं व्रजेत् ॥ (शुद्धितत्त्व)
(१३) यदि मरणासन्न व्यक्ति समर्थ हो तो उसी के हाथों से भगवान् की पूजा करा दे* अथवा उसके
पारिवारिकजन पूजा करें।
* शालग्रामशिलातोयं यः पिबेद् बिन्दुमात्रकम् ।
स
सर्वपापनिर्मुक्तो वैकुण्ठभुवनं व्रजेत् ॥
ततो
गङ्गाजलं दद्यात् । (गरुडपुराण- सारोद्धार ९ । २२-२३)
(१४) मुख में
शालग्राम का चरणामृत डालता रहे। बीच-बीच में तुलसीदल मिलाकर गंगाजल भी डालता रहे।* इससे इस
प्राणी के सम्पूर्ण पाप नष्ट होते हैं और वह वैकुण्ठलोक को प्राप्त करता है।
* प्रयाणकाले
यस्यास्ये दीयते तुलसीदलम् ।
निर्वाणं
याति पक्षीन्द्र पापकोटियुतोऽपि वा ॥ (गरुडपुराण, वी०मि०पू०)
(१५) उपनिषद्,
गीता, भागवत, रामायण आदि का पाठ होता रहे।
(१६) किसी व्रत आदि का उद्यापन न हो सका हो तो उसे भी कर लेना चाहिये ।
(१७) अन्तिम समय में दशमहादान-अष्टमहादान तथा पंचधेनुदान करना चाहिये। शीघ्रता में
यदि प्रत्यक्ष वस्तुएँ उपलब्ध न हों तो अपनी शक्ति के अनुसार निष्क्रय-द्रव्य का
उन वस्तुओं के निमित्त संकल्प कर ब्राह्मण को दे दे।
(१८) प्रत्येक दान में प्रतिज्ञा संकल्प, जिस ब्राह्मण को दान दिया जाय उसका वरणसंकल्प,
दान का मुख्य संकल्प तथा अन्त में दानप्रतिष्ठा के निमित्त
सांगतासिद्धि का संकल्प करना चाहिये ।
श्राद्ध प्रकरण में आगे पढ़ें...... व्रतोद्यापन का अनुकल्प (स्वर्ण या रजत-दान )
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