कालिका पुराण अध्याय ६१
कालिका पुराण
अध्याय ६१ में कामाख्या माहात्म्य अंतर्गत देवी के अङ्गमन्त्रों का वर्णन है ।
कालिका पुराण अध्याय ६१
Kalika puran chapter 61
कालिकापुराणम् एकषष्टितमोऽध्यायः कामाख्यामाहात्म्यम् ( १ )
अथ श्रीकालिका
पुराण अध्याय ६१
।।और्व्व
उवाच।।
यथाह भगवान्
देवो भैरवाय महात्मने ।
वेतालाय
नृपश्रेष्ठ तथा त्वं प्रस्तुतं शृणु ।। १ ।।
और्व बोले- हे
राजाओं में श्रेष्ठ ! भगवान शिव ने महात्मा वेताल और भैरव से जो कहा था, उसे अब तुम आगे सुनो ॥१॥
।।श्रीभगवानुवाच।।
उग्रचण्डा च
या मूर्तिरष्टादशभुजाऽभवत् ।
सा नवम्यां
पुरा कृष्णपक्षे कन्यां गते रवौ ।
प्रादुर्भूता
महामाया योगिनीकोटिभिः सह ।। २ ।।
श्रीभगवान
बोले- प्राचीनकाल में कन्याराशि में सूर्य के आने पर (आश्विनमास के) कृष्णपक्ष की
नवमी तिथि को उग्रचण्डा देवी के अठ्ठारह भुजाओं वाले रूप में, महामाया करोड़ों योगिनियों के साथ उत्पन्न
हुई थीं ॥२॥
आषाढस्य तु
पूर्णायां सत्रं द्वादशवार्षिकम् ।
दक्षः कर्तुं
समारेभे वृताः सर्वे दिवौकसः।। ३ ।।
सभी देवताओं
का वरण कर दक्षप्रजापति ने आषाढ़ की पूर्णिमा से बारह वर्षों तक चलने वाला यज्ञ, प्रारम्भ किया॥३॥
ततोऽहं न
वृतस्तेन दक्षेण सुमहात्मना।
कपालीति सती
चापि तज्जायेति च नो वृता।। ४ ।।
उसमें उस
महात्मा दक्ष ने कपाली मानकर न तो मुझे आमन्त्रित किया और न उस कपाली की (मेरी)
पत्नी होने कारण सती को ही आमन्त्रित किया ॥४॥
ततो
रोषसमायुक्ता प्राणास्तत्याज सा सती ।
त्यक्तदेहा
सती चापि चण्डमूर्तिस्तदाऽभवत् ।।५ ।।
तब क्रोध से
युक्त हो, अपने प्राणों को छोड़, वह देवी सती ही अपना शरीर छोड़कर, उग्रचण्डा के प्रचण्डरूप
में उत्पन्न हुई थीं ॥ ५ ॥
ततः प्रवृत्ते
यज्ञेऽपि तस्मिन् द्वादसवार्षिके ।
नवम्यां
कृष्णपक्षे तु कन्यायां चण्डमूर्तिधृक् ।। ६ ।।
योगनिद्रा
महामाया योगिनीकोटिभिः सह ।
सतीरूपं
परित्यज्य यज्ञभङ्गमथाकरोत् ।। ७ ।।
शङ्करस्य गणैः
सर्वैः सहिता शङ्करेण च ।
स्वयं बभ़ञ्ज
सा देवी महासत्रं महात्मनः।। ८ ।।
कन्या के
सूर्य रहने पर ही आश्विनमास के कृष्णपक्ष की नवमी को योगनिद्रा महामाया ने, अपने सतीरूप को छोड़कर करोड़ों योगिनियों
के साथ, चण्डरूप धारण कर, उस समय हो
रहे, उस बारह वर्षीय दक्ष के यज्ञ को भङ्ग कर दिया। स्वयं उस
देवी ने शङ्कर और उनके गणों के सहयोग से महात्मा दक्ष के महान्यज्ञ को नष्ट कर
दिया ।। ६-८ ।।
ततो देव्या
महाक्रोधे व्यतीते त्रिदिवौकसः।
पूजयाञ्चक्रुरतुलां
देवीं पूर्वोदितेन वै ।। ९ ।।
तब देवी के
महान क्रोध के समाप्त हो जाने पर, देवताओं ने पूर्व वर्ण के अनुसार उनकी अतुलनीय पूजा की ॥९॥
पूर्वोदितविधानेन
पूजामस्या दिवौकसः।
कृत्वैव
परमामापुर्निवृतिं दुःखहानये ।। १० ।।
एवमन्यैरपि
सदा कार्यं देव्याः प्रपूजनम् ।
विभूतिमतुलां
प्राप्तं चतुर्वर्गप्रदायिकाम् ।। ११ ।।
अपने दुःख की
हानि हेतु, पूर्वोक्त
विधान से इस प्रकार का उनका पूजन कर, देवताओं ने परम सन्तोष
को प्राप्त किया। ऐसे अन्य भक्तों द्वारा भी अतुल ऐश्वर्य की प्राप्ति हेतु,
चतुवर्ग प्रदान करने वाली देवी का सदैव पूजन किया जाना चाहिये ।।
१०-११ ।।
यो
मोहादथवाऽऽलस्याद् देवीं दुर्गां महोत्सवे ।
न पूजयति
दम्भाद् वा द्वेषाद्वाऽप्यथ भैरव ।। १२ ।।
क्रुद्धा
भगवती तस्य कामानिष्टान्निहन्ति वै ।
परत्र च
महामाया-बलिर्भूत्वा प्रजायते ।। १३ ।।
हे भैरव ! जो
साधक मोह, आलस्य, अहंकार या
द्वेषवश, शारदीय महोत्सव में देवी दुर्गा का पूजन नहीं करता,
उससे भगवती क्रुद्ध हो, उसकी समस्त इष्ट-
कामनाओं को नष्ट कर देती हैं तथा अगले जन्म में वह महामाया का बलि (भोजन) होकर
जन्म लेता है ॥ १२-१३ ॥
अष्टम्यां
रुधिरैश्चैव महामांसैः सुगन्धिभिः।
पूजयेद्बहुजातीयैर्बलिभिर्भोजनैः
शिवाम् ।। १४ ।।
सिन्दूरैः पट्टवासोभिर्नानाविधविलेपनैः
।
पुष्पैरनेकजातीयैः
फलैर्बहुविधैरपि ।। १५ ।।
अष्टमी को
रक्त, महामांस, सुगन्धियों,
अनेक प्रकार की बलि, भोजन, सिन्दूर, रेशमीवस्त्र, विविध प्रकार
के चन्दनों और अनेक प्रकार के फल और पुष्पों से शिवा का पूजन करना चाहिये ।। १४-१५
।।
उपवासं
महाष्टम्यां पुत्रवान् न समाचरेत् ।। १६ ।।
यथा तथैव
पूतात्मा व्रती देवीं प्रपूजयेत् ।
पूजयित्वा
महाष्टम्यां नवम्यां बलिभिस्तथा ।। १७ ।।
पुत्रवान्
साधक को महाष्टमी को व्रत नहीं रखना चाहिये । जैसे भी हो, पवित्र हो, व्रतपूर्वक
(नियम से) अष्टमी को तथा नवमी को बलि आदि से देवी का पूजन करे ॥१६-१७॥
विसर्जयेद्
दशम्यां तु श्रवणे सावरोत्सवैः।
अन्त्यपादो
दिवाभागे श्रवणस्य यदा भवेत् ।। १८ ।।
तब दशमी तिथि
को श्रवण नक्षत्र में दिन के अन्तिम भाग में सायंकाल शार्वरोत्सवपूर्वक देवी का
विसर्जन करे ॥ १८ ॥
तदा
सम्प्रेषणं देव्या दशम्यां कारयेद् बुधः।
सुवासिनी
कुमारीभिर्वेश्याभिर्नर्तकैस्तथा ।। १९ ।।
सङ्खतूर्यनिनादैश्च
मृदङ्गैः पटहैस्तथा ।
ध्वजैर्वस्त्रैर्बहुविधार्लाजपुष्पप्रकीर्णकैः।।
२० ।।
धूलिकर्दमविक्षेपैः
क्रीडाकौतुकमङ्गलैः।
भगलिङ्गाभिधानैश्च
भगलिङ्गप्रगीतकैः।
भगलिङ्गादिशब्दैश्च
क्रडयेयुरलं जनाः।। २१ ।।
तब विद्वान्, दशमी को देवी का विसर्जन, समारोह पूर्वक करे। जिसमें सुवासिनी (सुहागिन) स्त्रियाँ, कुमारी कन्याएँ, वेश्याएँ तथा नर्तक, नृत्य-गान करें । शङ्ख, तूर्य (तुरही), मृदङ्ग और नगाड़े बजाये जाते हो । विविध प्रकार के ध्वज, वस्त्र, लावा और फल बिखरे हों, धूल, कीचड़ फेंकते हुए भगलिङ्गोच्चार सम्बन्धी गीतों
सहित भगलिङ्गक्रीड़ा कौतुक के साथ माङ्गलिक गीत गाये जा रहे हों। उस उत्सव में
लोगों को भगलिङ्गादि शब्दों के उच्चारणपूर्वक क्रीड़ा करनी चाहिये ।।१९-२१ ॥
परैर्नाक्षिप्यते
यस्तु यः परान्नक्षिपेद् यदि ।
क्रुद्धा
भगवती तस्य शापं दद्यात् सुदारुणम् ।। २२ ।।
यदि उस उत्सव
में जो साधक दूसरों को आक्षेप नहीं करता, जिसे दूसरे आक्षेप नहीं करते, उससे
भगवती, क्रुद्ध हो जाती हैं और उसे भयानक शाप देती हैं ॥ २२
॥
आदिपादो
निशाभागे श्रवणस्य यदा भवेत् ।
तदा देव्याः
समुत्थानं नवम्यां न पुनर्दिवा ।। २३ ।।
यदि नवमी के
रात्रि में श्रवण नक्षत्र का प्रथम चरण हो तो देवी का नवमी के दिन में समुत्थान
नहीं करना चाहिये॥२३॥
अन्त्यपादो
निशाभागे श्रवणस्य यदा भवेत् ।
तदा देव्याः
समुत्थानं नवम्यां दिनभागतः।। २४ ।।
यदि नवमी की
रात्रि में श्रवण नक्षत्र का अन्तिम चरण पड़े तो नवमी को दिन में ही देवी का
समुत्थान करना चाहिये॥२४॥
विसर्जनमनेनैव
मन्त्रेण वत्स भैरव ।
कर्तव्यमम्भसि
स्थाप्य विसृज्य च विभूतये ।। २५ ।।
हे वत्स भैरव
! ऐश्वर्य प्राप्ति हेतु जल में प्रतिमा को स्थापित और विसर्जित कर नीचे लिखे
मन्त्र उत्तिष्ठ देवि--मम् से देवी का विसर्जन करना चाहिये ॥ २५॥
उत्तिष्ठ देवि
चण्डेशे सुभां पूजां प्रगृह्य च ।
कुरुष्व मम
कल्याणमष्टभिः शक्तिभिः सह ।। २६ ।।
गच्छ गच्छ परं
स्थानं स्वस्थानं देवि चण्डिके ।। २७ ।।
यत् पूजतिं
मया देवि परिपूर्णं तदस्तु मे ।
व्रज त्वं
स्रोतसि जले तिष्ठ गेहे च भूतये ।। २८ ।।
निमज्जाम्भसि
सन्त्यज्य पत्रिकावजिते जले ।
पुत्रायुर्धनवृद्ध्यर्थं
स्थापितासि जले मया ।। २९ ।।
मन्त्रार्थ-
हे देवि ! हे चण्डेश्वरी । उठो और मेरी इस उत्तम पूजा को स्वीकार करो तथा अपनी
आठों शक्तियों के सहित, हे चण्डिका देवि ! आप अपने श्रेष्ठ स्थान को जाओ । हे देवि ! आप मेरे
द्वारा जो पूजी गई हैं, वह पूर्णता को प्राप्त हो । आप जल
में पधारो तथा मेरे कल्याण हेतु, सूक्ष्मरूप से मेरे घर में
निवास करो । जल में, आपका विसर्जन कर, पत्रिका
आदि को भी जल में स्थापित कर, पुत्र, आयु, धन की अभिवृद्धि के लिए जल में आप मेरे द्वारा स्थापित की गई हैं।।२६-२९॥
इत्यनेन तु
मन्त्रेण देवीं संस्थापयेज्जले ।
सर्वलोक-हितार्थाय
सर्वलोकविभूतये ।। ३० ।।
साधक को
चाहिये कि इस प्रकार के ऊपर बताये मन्त्र से समस्त लोकों के कल्याण एवं ऐश्वर्य के
लिए देवी को जल में स्थापित करे ॥ ३० ॥
दुर्गा-तन्त्रेण
मन्त्रेण पूजितव्ये उभे अपि ।
भद्रकालीमुग्रचण्डां
महामायां महोत्सवे ।। ३१ ।।
महोत्सव में
महामाया की ही प्रतिमूर्ति उग्रचण्डा और भद्रकाली नामक दोनों ही देवियों का
दुर्गातन्त्र के मन्त्रों से पूजन करना चाहिये ॥३१॥
नेत्रबीजं तु
सर्वासां पूजने परिकीर्तितम् ।
योगिनीनां तु
सर्वासां मूलमूर्तेस्तथैव च ।। ३२ ।।
सभी के पूजन हेतु
नेत्रबीज बताया गया है। मूल देवियों की ही भाँति सभी योगिनियों का पूजन करना
चाहिये ॥३२॥
मन्त्रं
तथोग्रचण्डायाः पृथक् त्वं शृणु भैरव ।
आद्यद्वयं
नेत्रबीजं मन्त्रस्योपान्तमन्तरे ।
वह्निनाऽन्तःस्वरेणेन्दुबिन्दुभ्यां
तन्त्रमौग्रकम् ।। ३३ ।।
भैरव ! अब तुम
उग्रचण्डा के मन्त्र को अलग से सुनो। नेत्रबीज के पहले दो मन्त्रों के बीच
चन्द्रबिन्दु और अग्रि (र) जुड़ा अन्त से पहला वर्ण ह है, जो अन्तिम स्वर के साथ होने पर उग्रचण्डा
का मन्त्र ऐं ह्रीं ह्रौं बनता है ॥३३॥
नेत्रबीजं
द्वितीयं त द्विधावर्तितमुच्यते ।
भद्रकाल्यास्तु
मन्त्रोऽयं धर्मकामार्थसिद्धये ।। ३४ ।।
द्वितीय नेत्रबीज ह्रीं दो बार आवृत्त होकर धर्म,काम,अर्थ की सिद्धि हेतु ह्रीं ह्रीं यह भद्रकाली का मन्त्र हो जाता है॥३४॥
यदा तु
वैष्णवी देवी महामाया जगन्मयी ।
पूज्यते
वैष्णवी देवी तन्त्रोक्ता अष्टयोगिनीः।। ३५ ।।
ताः प्रोक्ताः
शैलपुत्र्याश्च पूर्वकल्पे च भैरव ।
उग्रचण्डादयश्चाष्टौ
दुर्गातन्त्रस्य कीर्तिताः।। ३६ ।।
हे भैरव ! जब
वैष्णवी देवी, जगन्मयी
महामाया, वैष्णवीतन्त्र में बताई गई विधि से पूजी जाती हैं,
उस समय के लिए पहले दी, विधि वर्णित शैलपुत्री
आदि आठ योगिनियाँ तथा दुर्गातन्त्र में उग्रचण्डा आदि आठ योगिनियाँ बताई गई हैं ।।
३५-३६॥
भद्रकाल्यास्तु
मन्त्रेण भद्रकालीं प्रपूजयेत् ।
पूजयेद्
भूतिवृद्ध्यर्थमेता एवाष्टयोगिनीः।। ३७ ।।
जयन्तीं
मङ्गलां कालीं भद्रकालीं कपालिनीम् ।
दुर्गां शिवां
क्षमां दात्रीं दलेष्वष्टसु पूजयेत् ।। ३८ ।।
भद्रकाली के
मन्त्र से भद्रकाली का पूजन करना चाहिये । ऐश्वर्य वृद्धि - हेतु साधक को जयन्ती, मङ्गलाकाली, भद्रकाली,
कपालिनी, दुर्गा, क्षमा,
शिवा, और धात्री नाम की आठ योगिनियों का
अष्टदलकमल के आठदलों में पूजन करना चाहिये ॥३७-३८।।
यदोग्रचण्डातन्त्रेण
सा देवी तत्र पूज्यते ।
योगिन्यस्तत्र
पूज्याः स्युरष्टावन्याश्च भैरव ।। ३९ ।।
कौशिकी
शिवदूती च उमा हैमवतीश्वरी ।
शाकम्भरी च
दुर्गा च सप्तमी च महोदरी ।। ४० ।।
हे भैरव ! यदि
देवी का पूजन उग्रचण्डातन्त्र से करना हो तो कौशिकी, शिवदूती, उमा, हैमवती,
ईश्वरी, शाकम्भरी, दुर्गा
और महोदरी इन आठ योगिनियों का वहाँ पूजन करना चाहिये ।। ३९-४० ।।
उमायाः
सौम्यमूर्तेस्तु तन्त्रं त्वं शृणु भैरव ।। ४१ ।।
पादिः
समाप्तिसहितः फडन्तो नान्त एव च ।
एकाक्षरस्त्र्यक्षरश्य
उमामन्त्र इति स्मृतः।। ४२ ।।
हे भैरव ! अब
तुम देवी उमा की सौम्यमूर्ति के मन्त्र को सुनो- समाप्ति (विसर्ग) के सहित पवर्ण
के पहले का वर्णन, यह एकाक्षर तथा न के अन्त में जो प है उसके साथ यह फः फट् के सहित
उमा का त्र्यक्षरमन्त्र बनता है ।। ४१-४२ ॥
कालिका पुराण अध्याय ६१- उमा ध्यान
सुवर्णसदृशीं
गौरीं भुजद्वयसमन्विताम् ।
नीलारविन्दं
वामेन पाणिना बिभ्रतीं सदा ।। ४३ ।।
शुक्लं तु
चामरं धृत्वा भर्गस्याङ्गेऽथ दक्षिणे ।
विन्यस्य
दक्षिणं हस्तं तिष्ठन्तीं परिचिन्तयेत् ।। ४४ ।।
दो भुजाओं से
युक्त, सोने के समान गौरवर्णवाली, बायें हाथ में नीला कमल धारण की हुई तथा एक श्वेत चामरयुक्त अपना दाहिना
हाथ शिव के दाहिने अङ्ग पर रखी हुई, उमा का ध्यान करे
।।४३-४४ ।।
विनापि शम्भूं
रुद्राणीं भक्तस्तु परिचिन्तयेत् ।
द्विभुजां
स्वर्णगौराङ्गीं पद्मचामरधारिणीम् ।
व्याघ्रचर्मस्थिते
पद्मे पद्मासनगता सदा ।। ४५ ।।
यदि भक्त चाहे
तो वह विना शिव के भी रुद्राणी का ध्यान कर सकता है । ऐसा करते समय उसे पद्म और
चामर धारण की हुई, स्वर्ण के समान गोरे अङ्गों वाली, व्याघ्रचर्म में
स्थित, पद्म पर, पद्मासन में सदैव
विराजिता, गौरी का ध्यान करना चाहिये ॥४५॥
एतस्याः पूजने
प्रोक्ता अष्टौ वेतालभैरव ।
योगिन्यो
नायिकाश्चापि पृथक्त्वेन व्यवस्थिताः।। ४६ ।।
जया च विजया
चैव मातङ्गी ललिता तथा ।
नारायण्यथ
सावित्री स्वधा स्वाहा तथाऽष्टमी ।। ४७ ।।
हे वेताल और
भैरव ! इनके पूजन हेतु भी जया, विजया, मातङ्गी, ललिता,
नारायणी, सावित्री, स्वधा
और आठवीं स्वाहा ये आठ योगिनी नायिकाएँ अलग से बताई गई हैं ॥ ४६-४७ ॥
पूर्वं शुम्भो
निशुम्भश्च दानवौ भ्रातरावुभौ ।। ४८ ।।
बभूवतुर्महासत्त्वौ
महाकायौ महाबलौ ।
अन्धकस्य सुतौ
द्वौ तौ दन्तिनाविव दुर्मदौ ।। ४९ ।।
प्राचीनकाल
में शुम्भ निशुम्भ नामक दो महा बलवान्, दानवभाई हुये । वे दोनों ही अत्यधिकशक्ति और विशाल शरीर वाले
थे। अन्धक नामक असुर के पुत्र वे दोनों थे तथा वे हाथियों के समान मदान्ध थे
।।४८-४९ ।।
मया विनहते
तस्मिन्नन्धकाख्ये महाबले ।
ससैन्यवाहनौ
तौ तु पातालतलमाश्रितौ ।। ५० ।।
मेरे द्वारा
महाबली अन्धक नामक असुर के मारे जाने पर, वे दोनों अपनी सेना एवं वाहनों के सहित पाताललोक में चले गये
थे ॥५०॥
ततस्तप्त्वा
तपस्तोव्रं ब्रह्माणन्तौ महासुरौ ।
सम्यक्
तदाऽतोषयातां स सुप्रीतो वरं ददौ ।। ५१ ।।
तब ब्रह्मा के
समीप उन दोनों ने तीव्र तपस्या करके उन्हें भली भाँति प्रसन्न कर लिया, उस समय ब्रह्मा ने उन दोनों को वरदान दिया
। । ५१ ॥
तौ
ब्रह्मवरदृप्तौ तु समासाद्य जगत्त्रयम् ।
इन्द्रत्वमकरोच्छुम्भश्चन्द्रत्वं
च निशुम्भकः ।। ५२ ।।
सर्वेषामेव देवानां
यज्ञभागानुपाहरत् ।
स्वयं शुम्भो
निशुम्भश्च दिक्पालत्वं च तौ गतौ ।। ५३ ।।
ब्रह्मा से वर
प्राप्त कर, उन दोनों
ने तीनों लोकों पर अधिकार कर लिया। शुम्भ ने इन्द्रत्व तथा निशुम्भ ने चन्द्रत्व
प्राप्त कर लिया और सभी देवताओं के यज्ञभाग को भी छीन लिया। स्वयं शुम्भ और
निशुम्भ ने दिक्पालों के अधिकार भी ले लिए ।।५२-५३॥
सर्वे सुरगणाः
सेन्द्रास्ततो गत्वा हिमाचलम् ।
गङ्गावतारनिकटे
महामायां प्रतुष्टुवुः ।। ५४ ।।
तब सभी देवगण
अपने राजा इन्द्र के सहित हिमालय पर गये एवं वहाँ गङ्गावतार के निकट पहुँच कर
उन्होंने महामाया की स्तुति की ॥५४॥
अनकेशः स्तुता
देवी तदा सर्वामरोत्करैः।
मातङ्गवनितामूर्तिर्भूत्वा
देवानपृच्छत ।। ५५ ।।
तब देवी ने
सभी देवताओं द्वारा अनेक प्रकार से स्तुति किये जाने पर मातङ्ग ऋषि की पत्नी
(मातङ्गी) होकर सभी देवताओं से पूछा- ॥५५॥
युष्माभिरमरैरत्र
स्तूयते का च भामिनी ।
किमर्थमागता
यूयं मातङ्गस्याश्रमं प्रति ।। ५६ ।।
आप देवों
द्वारा यह किस स्त्री की स्तुति की जा रही है? आप सब मातङ्ग-ऋषि के आश्रम पर किस हेतु पधारे हैं?॥५६॥
एवं
ब्रुवन्त्या मातङ्ग्यास्तस्यास्तु कायकोषतः।
समुद्भूताऽब्रवोद्
देवी मां स्तुवन्ति सुरा इति ।। ५७ ।।
मातङ्ग ऋषि की
पत्नी जब इस प्रकार का कह रहीं थीं। तभी उनके शरीर की कोषिका से एक देवी यह कहती
हुई प्रकट हुई कि ये देवता मेरी स्तुति कर रहे हैं ॥५७॥
शुम्भो
निशुम्भो ह्यसुरौ बाधैते सकलान् सुरान् ।
तस्मात्
तयोर्वधायाहं स्तूये तैः सकलैः सुरैः।।५८ ।।
क्योंकि शुम्भ
और निशुम्भ नामक दो असुर, इन सभी देवताओं को कष्ट पहुँचा रहे हैं। अतः उनके वध के लिए मैं इन
देवताओं द्वारा स्तुत हो रही हूँ ।। ५८ ।।
विनिःसृतायां
देव्यां तु मातङ्ग्याः कायकोषतः।
भिन्नाञ्जननिभा
कृष्णा साऽभूद् गौरी क्षणादपि ।। ५९ ।।
कालिकाख्याऽभवत्
सापि हिमाचलकृताश्रया ।
तामुग्रतारामृषयो
वदन्तीह मनीषिणः ।
उग्रादपि
भयात्त्राति यस्माद् भक्तान् सदाम्बिका ।। ६० ।।
देवी मातङ्गी
के शरीर की कोषिका से निकलते ही गौरी, क्षणभर में कालिका नाम से, अञ्जन के
समान काली हो गईं तथा उन्होंने भी वहीं हिमाचल में अपना स्थान बना लिया। मनीषीगण
एवं ऋषिजन उन्हें ही उग्रतारा कहते हैं। वे अम्बिका भी सदैव भक्तों की उग्रभयों से
रक्षा करती हैं इसीलिए उनका नाम उग्रतारा है।।५९-६०॥
एतस्याः
प्रथमं बीजं कथितं त्रयमेव च ।
एषैवैकजटाख्या
तु यस्मात्तस्माज्जटैकिका ।। ६१ ।।
शृणुतं चिन्तं
चास्याः सम्यग्वेतालभैरवौ ।
यथा ध्यात्वा
महादेवीं भक्तः प्राप्नोत्यभीप्सितम् ।। ६२ ।।
इसका प्रथम
बीज (ऐं) तथा तीनों ही बीज पहले ही बताये गये हैं। ये एक ही जटा धारण करती हैं।
इसीलिए ये एकजटा भी हैं। हे वेताल और भैरव ! अब तुम दोनों, उनके ध्यान को भली भाँति सुनो, जिससे महादेवी का ध्यान करके भक्त शीघ्र ही अपने अभीष्ट को प्राप्त कर
लेता है। ।।६१-६२।।
कालिका पुराण अध्याय ६१- उग्रतारा ध्यान
चतुर्भुजां
कृष्णवर्णां मुण्डमालाविभूषिताम् ।। ६३ ।।
खड्गं
दक्षिणपाणिभ्यां बिभ्रतीं चामरं त्वधः।
कर्त्रीं च
खर्परं चैव क्रमाद्वामेन बिभ्रतीम् ।। ६४ ।।
वे चार भुजाओं
से युक्त, कृष्णवर्ण की तथा मुण्डों की माला से
विभूषित हैं। उन्होंने अपने दाहिने दोनों हाथों में ऊपर खड्ग और नीचे चामर तथा
क्रम से बाईं ओर कैंची और खप्पर धारण कर रखा है ।।६३-६४॥
लिखन्तीं
जटामेकां बिभ्रतीं शिरसा स्वयम् ।
मुण्डमालाधरां
शीर्षे ग्रीवायामपि सर्वदा ।। ६५ ।।
वे एकजटा धारण
किये हुए, अपने मस्तक से आकाश को लिख रही(छू रही हैं।
उन्होंने अपने मस्तक और गले में सदैव मुण्डमाला धारण की है ॥ ६५ ॥
वक्षसा
नागहारं तु बिभ्रतीं सक्तलोचनाम् ।
कृष्णवस्त्रधरां
कट्यां व्याघ्रजिनसमन्विताम् ।। ६६ ।।
वे वक्षस्थल
पर नागहार धारण किये हैं। उनके नेत्र लाल हैं। वे ऊपर काले-वस्त्र तथा कटि में
व्याघ्रचर्म से युक्त हैं॥६६॥
वामपादं
शवहृदि संस्थाप्य दक्षिणं पदम् ।
विन्यस्य
सिंहपृष्ठे तु लेलिहानां शवं स्वयम् ।। ६७ ।।
साट्टहासां महाघोरां
रावयुक्तातिभीषणाम् ।
चिन्त्याग्रे
तारा सततं भक्तिमद्भिः सुखेप्सुभिः।। ६८ ।।
वे अपना बायां
पैर शव के हृदय पर तथा दाहिना पैर, सिंह की पीठ पर रखकर स्वयं शव को चाट रही हैं। महान् भयानक स्वर
तथा अत्यन्त घोर अट्टहास करती हुई इस रूप की तारा देवी का निरन्तर भक्तियुक्त होकर
सुख चाहने वाले साधक को चिन्तन करना चाहिये ।। ६७-६८ ।।
एतस्याः
सम्प्रवक्ष्यामि या अष्टौ योगिनीः स्मृताः ।
महाकाल्यथ
रुद्राणी उग्रा भीमा तथैव च ।। ६९ ।।
घोरा च
भ्रामरी चैव महारात्रिश्च सप्तमी ।
भैरवी चाष्टमी
प्रोक्ता योगिनीस्ताः प्रपूजयेत् ।। ७० ।।
अब मैं इनकी
बताई आठ योगिनियों के विषय में कहूँगा । वे महाकाली, रुद्राणी, उग्रा, भीमा,
घोरा, भ्रामरी, सातवीं
महारात्रि और आठवीं भैरवी, योगिनियाँ कही गई हैं, उनका पूजन करना चाहिये ।।६९-७० ।।
या
कायकोषान्निः सृता कालिकायास्तु भैरव ।
सा कौशिकीति विख्याता
चारुरूपा मनोहरा ।। ७१ ।।
हे भैरव ! जो
देवी कालिका के शरीर की कोशिका से निकलीं थीं । वे सुन्दररूपवाली, मनोहर देवी, कौशिकी
नाम से प्रसिद्ध हुईं ॥ ७१ ॥
निःसृता
हृदयाद् देव्या रसनाग्रेण चण्डिका ।
नैतस्याः
सदृशी मूर्त्या चारुरूपेण विद्यते ।
त्रिषु लोकेषु
कान्त्या वा नास्यास्तुल्या भविष्यति ।। ७२ ।।
चण्डिका देवी, देवी उग्रतारा के हृदय से ऊपर आकर जिह्वा
के अगले भाग से प्रकट हुई। तीनों लोकों में उनके समान रूप में सुन्दर न कोई मूर्ति
है और न कान्ति में उनके समान दूसरी कोई होगी ।। ७२ ।।
योगनिद्रा
महामाया या मूलप्रकृतिर्मता ।
तस्याः
प्राणस्वरूपेयं देवी या कौशिकी स्मृता ।। ७३ ।।
जो देवी, महामाया, योगनिद्रा
या मूलप्रकृति कही गई हैं, यह जो देवी कौशिकी हैं,उनका प्राणस्वरूप बताई गई हैं॥७३॥
नेत्रबीजं
तथैतस्या बीजं तु परिकीर्तितम् ।
मन्त्रमस्याः प्रवक्ष्यामि
मूर्तिरूपं च भैरव ।। ७४ ।।
हे भैरव !
नेत्र बीज ही उसका भी बीज बताया गया है। इस मूर्ति के अनुरूप इसके मन्त्र को कह
रहा हूँ ॥७४॥
कालिका पुराण अध्याय ६१- कौशिकी मन्त्र
समाप्तिनान्त्यदन्त्यस्तु
षड्वर्गादिसबिन्दुभिः।। ७५ ।।
षष्ठस्वरेण
संस्पृष्ठो बिन्दुना समलङ्कृतः।
कौशिकीमन्त्रतन्त्रोऽयं
सर्वकामार्थदायकः।। ७६ ।।
बिन्दुयुक्त
छओं वर्गों के आदि अक्षरों और बिन्दु से अलंकृत छठे स्वर ऊ तथा समाप्ति विसर्गयुक्त
अन्तिम दन्त्य अक्षर स के मेल से सूँ अं कं चं टं तं पं नामक, सभी कामनाओं को प्रदान करने वाला,यह कौशिकी मन्त्र-तन्त्र कहा गया है।।७५-७६॥
तस्यास्तु
सम्प्रवक्ष्यामि या मूर्तिरिह भैरव ।
शृणुष्वैकमना
भूत्वा जगदाह्लादकारकम् ।। ७७ ।।
हे भैरव ! अब
मैं जगत् को प्रसन्नता देने वाले उसके रूप के विषय में कहूँगा । तुम एकाग्रचित्त
होकर उसे सुनो ॥७७॥
कालिका पुराण अध्याय ६१- कौशिकी ध्यान
धम्मिल्लसंयतकचां
विधोश्चाधोमुखीं कलाम् ।
केशान्ते
तिलकस्योर्ध्वे दधती सुमनोहरा ।। ७८ ।।
वे जूड़े के
रूप में अपने केशों को व्यवस्थित की हैं तथा तिलक के ऊपर, चन्द्रमा की सुन्दर, अधोमुखी
कला, केश के अन्त में, ललाट पर,
धारण की हुई हैं ॥ ७८ ।।
मणिकुण्डलसंघृष्टगण्डा
मुकुटमण्डिता।
सज्जयोतिः
कर्णपूराभ्यां कर्णमापूर्य सङ्गता ।। ७९ ।।
उनके गण्डस्थल
मणिमय कुण्डलों से बार-बार रगड़े जा रहे हैं। उनका मस्तक, मुकुट से सुशोभित है। उनके कर्णाभूषणों से
फैली हुई ज्योति, कानों तक स्थित है ॥ ७९ ॥
सुवर्णमणिमाणिक्यनागहारविराजिता
।
सदा
सुगन्धिभिः पद्यैरम्लानैरतिसुन्दरी ।। ८० ।।
मालां बिभर्ति
ग्रीवायां रत्नकेयूरधारिणी ।
मृणालायतवृत्तैस्तु
बाहुभिः कोमलैः शुभैः।। ८१ ।।
वे सुवर्ण और
मणि- माणिक्य से बने हार तथा सर्पों के हार से सुशोभित हैं। वे सदैव सुगन्धित, खिले हुए कमलों की माला, गले में धारण की हैं। उन्होंने अपनी कमलनाल की तरह गोल, कोमल, उत्तम भुजाओं में रत्नजड़े हुए केयूर, धारण कर रखे हैं ॥ ८०-८१ ।।
राजन्ती
कञ्चुकोपेत-पीनोन्नतपयोधरा ।
क्षीणमध्या
पीतवस्त्रा त्रिवलीप्रख्यभूषिता ।। ८२ ।।
वे कञ्चुक से
ढके, अपने उठे हुए, पुष्ट,
स्तनों से शोभायमान हो रही हैं। उनकी कटि, पतली
और त्रिवलीयुक्त एवं पीतवस्त्र से सुशोभित है ॥८२॥
शूलं वज्रं च
बाणं च खड्गं शक्तिं तथैव च ।
दक्षिणैः
पाणिभिर्देवी गृहीत्वा तु विराजिता ।। ८३ ।।
गदां घण्टां च
चापं च चर्म शङ्खं तथैव च ।
ऊर्ध्वादिक्रमतो
देवी दधती वामपाणिभिः ।। ८४ ।।
वे अपनी
दाहिनी, भुजाओं में शूल, वज्र,
बाण, खड्ग और शक्ति धारण कर सुशोभित हैं,
उन्होंने अपनी बाईं बाहों में ऊपर से नीचे की ओर क्रमश: गदा,
घण्टा, धनुष, ढाल और
शङ्ख लिया हुआ है ।।८३-८४ ।।
सिंहस्योपरि
तिष्ठन्ती व्याघ्रचर्माणि कौशिकी ।
बिभ्रती
रूपमतुलं ससुरासुरमोहनम् ।। ८५ ।।
वे कौशिकी
देवी, व्याघ्रचर्म धारण की हुई तथा सिंह पर
विराजमान हैं, उनका देवताओं एवं असुरों को मुग्ध करने वाला
ऊपर वर्णित, यह अतुलनीयरूप है॥ ८५ ॥
एतस्याः शृणु
वत्स त्वं याः पूज्या अष्टयोगिनीः।
ताः पूजिताश्च
कुर्वन्ति चतुर्वर्गं नृणां सदा ।। ८६ ।।
हे वत्स ! इस
देवी की पूजने योग्य जो आठ योगिनियाँ हैं और जो पूजे जाने पर मनुष्यों (साधकों) को
सदैव चारों पुरुषार्थ प्रदान करती हैं, उनके विषय में सुनो ॥८६॥
ब्रह्माणी
प्रथमा प्रोक्ता ततो माहेश्वरी मता ।
कौमारी चैव
वाराही वैष्णवी पञ्चमी तथा ।। ८७ ।।
नारसिंहो
तथैवैन्द्री शिवदूती तथाऽष्टमी ।
एताः पूज्या
महाभागा योगिन्यः कामदायिकाः ।।८८ ।।
उनमें
सर्वप्रथम ब्रह्माणी तब माहेश्वरी, कौमारी, वाराही, पाँचवी
वैष्णवी तब नारसिंही, ऐन्द्री तथा आठवीं शिवदूती, ये महाभाग योगिनियाँ पूजने योग्य और भक्तों की कामनाओं को पूरा करने वाली
हैं ।। ८७-८८ ।।
देव्या
ललाटनिष्क्रान्ता या कालीति च विश्रुता ।
तस्या मन्त्रं
प्रवक्ष्यामि कामद शृणु भैरव ।। ८९ ।।
हे भैरव ! जो
देवी, देवी के ललाट से उत्पन्न हुईं तथा काली नाम
से विख्यात हैं । मैं उनके कामना पूरकमन्त्र के विषय में कहूँगा । तुम उसे सुनो
।।८९।।
कालिका पुराण अध्याय ६१- काली मन्त्र
समाप्तिसहितो
दन्त्यः प्रान्तस्तस्मात् पुरः सरः।
षष्ठस्वराग्निबिन्द्विन्दुसहितः
सादिरेव च ।
कालीमन्त्रमिति
प्रोक्तं धर्मकामार्थदायकम् ।। ९० ।।
छठें स्वर ऊ, अग्नि (र), चन्द्र-बिन्दु
से युक्त समाप्ति सहित अन्तिम से पहला दन्त्य ल उसके पहले स के पहले का वर्ण व
मिलकर धर्म, अर्थ, काम को देने वाला
कालीमन्त्र व्लू: कहा गया है ।। ९० ॥
एतन्मूर्ति
प्रवक्ष्यामि वत्सैकाग्रमनाः शृणु ।। ९१ ।।
अब मैं इसके
ध्यान के विषय में तुमसे कहूँगा । हे वत्स ! एकाग्र मन हो अब तुम इसे सुनो ॥ ९१ ॥
कालिका पुराण अध्याय ६१- काली ध्यान
नीलोत्पलदलश्यामा
चतुर्बाहुसमन्विता ।
खट्वाङ्गं
चन्द्रहासं च बिभ्रती दक्षिणे करे ।। ९२ ।।
वामे चर्म च
पाशं च ऊर्ध्वाधोभागतः पुनः।
दधती
मुण्डमालां च व्याघ्रचर्मधरा वराम् ।। ९३ ।।
वे नीले कमल
की पँखुड़ियों के समान श्यामवर्ण की तथा चार भुजाओं से युक्त हैं । वे अपने दाहिने
हाथों में खटवाङ्ग और चन्द्रहास तथा बाईं ओर हाथों में ढाल और पाश, ऊपर से नीचे की ओर धारण की हैं। वे
श्रेष्ठदेवी गले में मुण्डमाला पहने और शरीर पर व्याघ्रचर्म धारिणी, श्रेष्ठ नारीरूपा हैं ।।९२-९३ ।।
कृशाङ्गी
दीर्घदंष्ट्रा च अतिदीर्घातिभीषणा ।
लोलजिह्वा
निम्नरक्तनयना नादभैरवा ।। ९४ ।।
कबन्धवाहनासीना
विस्तारश्रवणानना ।
एषा ताराह्वया
देवी चामुण्डेति च गीयते ।। ९५ ।।
दुर्बल शरीर, लम्बे दाँत, अत्यन्त लम्बी
और भयानक किन्तु चञ्चल, जीभ, गहरे
किन्तु लाल रंग के नेत्र, भयानक स्वर तथा बड़े कान एवं मुख
से युक्त कबन्ध (शिर विहीन शव) पर विराजमान हैं। इन देवी चामुण्डा को तारा,
इस नाम से पुकारा जाता है ।। ९४-९५ ।।
एतस्या
योगिनीश्चाष्टौ पूजयेच्चिन्तयेद् यदि ।
त्रिपुरा
भीषणा चण्डी कर्त्री हर्त्री विधायिनी ।
कराला शूलिनी
चेति अष्टौ ताः परिकीर्तिताः।। ९६ ।।
इसकी आठ
योगिनियाँ हैं, जिनका
पूजन एवं ध्यान करना चाहिये। वे त्रिपुरा, भीषणा, चण्डी, कर्त्री, हर्त्री,
विधायिनी, कराला, और
शूलिनी ये आठ बताई गई हैं । ९६ ॥
एषाऽतिकामदा
देवी जाड्यहानिकरी सदा ।
एतस्याः सदृशी
काचित् कामदा न हि विद्यते ।। ९७ ।।
यह अत्यन्त
कामनाओं को पूरी करने वाली, सदैव जड़ता या मूर्खता को दूर करने वाली है। इसके समान कामनाओं को पूर्ण
करने वाली अन्य कोई शक्ति नहीं है ।। ९७॥
कौशिक्या
हृदयाद् देवी निःसृता ध्यायतो हरेः।
शिवदूतीति सा ख्याता
या च देवशतैर्वृता ।। ९८ ।।
जब हरि ध्यान
कर रहे थे। उस समय कौशिकी देवी के हृदय से सौ देवताओं से घिरी हुई, शिवदूती नामक देवी प्रकट हुईं ॥ ९८ ॥
मन्त्रमस्याः
प्रवक्ष्यामि धर्मकामार्थदायकम् ।
यच्छ्रुत्वा
साधको याति दुर्लभं सिवमन्दिरम् ।। ९९ ।।
यामाराध्य
महादेवीं शिवदूतीं शिवात्मिकाम् ।
नचिराल्लभते
कामान् नरः सर्वजयी भवेत् ।। १०० ।।
अब मैं इसके
धर्म, अर्थ, काम प्रदान
करने वाले मन्त्र के विषय में कहूँगा जिसे सुनकर साधक, दुर्लभ,
शिवलोक को जाता है तथा जिस शिवरूपा, महादेवी
शिवदूती की आराधना करके साधक, शीघ्र ही अपनी कामनाओं को
प्राप्त कर लेता है और वह सर्वत्र विजयी हो जाता है ।। ९९-१००॥
कालिका पुराण अध्याय ६१- शिवदूती मन्त्र
अन्तः
समाप्तिसहितो बिन्द्विन्दुभ्यां दशावरः।
स्वरेणोपान्तदन्त्येन
संस्पृष्टोऽन्तेन पूर्वशः।। १०१ ।।
स एव
बिन्दुयुगलपूर्वस्थोपान्तपावकः।
षष्ठस्वरकलाशून्यैः
सहितः प्रथमस्थितः।। १०२ ।।
मन्त्रोऽयं
शिवदूत्यास्तु शिवदूतीजयप्रदः।। १०३ ।।
अन्तिम
व्यञ्जन क्ष (क्ष) चन्द्र बिन्दु एव दशोत्तर ग्यारहवें स्वर ए सहित अन्तिम से
विसर्ग सहित पहले दन्त्यस् पर्कोपश्चयात वर्तीवर्ण फ (स्फे) को बिन्दुओं विसर्ग के
पहले स (सः); अन्तिम
व्यञ्जन से पहला (ह), अग्नि (र), चन्द्रकलायुक्त
छठे स्वर के सहित (हूँ) पहले पहले स्थित हो हूँ सः स्फें क्षः यह शिवदूती
का मन्त्र बनता है। यह शिवदूती जय प्रदान करनेवाली है । १०१-१०३ ।।
कालिका पुराण अध्याय ६१- शिवदूती ध्यान
रूपमस्याः
प्रवक्ष्यामि शृणु वत्सैकसम्मतः।
चतुर्भुजं
महाकायं सिन्दूरसदृशद्युति ।। १०४ ।।
रक्तदन्तं
मुण्डमालाजटाजूटार्धचन्द्रधृक् ।
नागकुण्डलहाराभ्यां
शोभितं नखरोज्जवलम् ।। १०५ ।।
व्याघ्रचर्मपरिधानं
दक्षिणे सूलखड्गधृक् ।
वामे पाशं तथा
चर्म बिभ्रदूर्ध्वापरक्रमात् ।। १०६ ।।
स्थूलवक्त्रं
च पीनोष्ठं तुङ्गमूर्ति भयङ्करम् ।
निक्षिप्य
दक्षिणं पादं सन्तिष्ठत् कुणपोपरि ।। १०७ ।।
वामपादं
शृगालस्य पृष्ठे फेरुशतैर्वृतम् ।
ईदृशीं
शिवदूत्यास्तु मूर्तिं ध्यायेद् विभूतये ।। १०८ ।।
हे बत्स - अब
मैं उसके स्वरूप का वर्णन करता हूँ। उसे तुम एकाग्रचित्त हो सुनो— वे देवी चार भुजाओं वाली, विशाल शरीर तथा सिन्दूर के समान शरीर की आभावाली, लाल
दाँतो से युक्त हो, मुण्डमाला, जटा -
जूट एवं अर्धचन्द्र, धारण करने वाली हैं । वे नागों से बने
कुण्डल और हार से सुशोभित हैं तथा उनके नाखून उज्ज्वल हैं। वे व्याघ्र- चर्म पहने
तथा अपने दाहिने हाथों में शूल और खड्ग एवं बायें हाथों में पाश, ढाल, ऊपर से नीचे की ओर, धारण
की हैं। उनका मुँह बड़ा, ओठ मोटे, शरीर
ऊँचा, भयङ्कर है और वह अपना दाहिना पैर, कुणप (शव) पर रखे हुए स्थित हैं। वे सैकड़ों शृगालों से घिरी हुई हैं।
उन्होंने अपना बायाँ पैर शृगाल की पीठ पर रखा है। ऐश्वर्यप्राप्ति हेतु, साधक को इस प्रकार की शिवदूती की मूर्ति का ध्यान करना चाहिये ।। १०४ -
१०८ ।।
ध्यानमात्रादथैतस्या
नरः कल्याणमाप्नुयात् ।
पूजनादचिराद्
देवी सर्वान् कामान् ददाति च ।। १०९ ।।
"इसके
ध्यान मात्र से ही साधक मनुष्य, कल्याण को प्राप्त कर लेता है और पूजन करने पर शीघ्र ही देवी साधक की
समस्त कामनाओं को प्रदान करती हैं ॥ १०९ ॥
यः शिवाविरुतं
श्रुत्वा विशदूतीं शुभप्रदाम् ।
प्रणमेत्
साधको भक्त्या तस्य कामाः करे स्थिताः।। ११० ।।
जो साधक शिवा
(सियारिन) की आवाज सुनकर उसे, शुभदायिनी शिव- दूती को भक्तिपूर्वक प्रणाम करता है, उसकी समस्त कामनाएँ, उसे हस्तगत हो जाती हैं ।। ११०
।।
यदा जघान
जगतां रक्तबीजं हिताय वै ।
महादेवी
महामाया तदास्याः कायतः सृताः।। १११ ।।
दूतं
प्रस्थापयामास शिवं शुम्भाय साम्बिका ।
सा शिवदूतीति
देवैः सर्वैः प्रगीयते ।। ११२ ।।
जब महादेवी
महामाया ने जगत् के कल्याण के लिए रक्तबीज का वध किया था । तब ये देवि उनके शरीर
से उत्पन्न हुईं थी । तथा उस अम्बिका ने शिव को अपना दूत बनाकर, शुम्भ नामक दैत्य के प्रति भेजा था,
इसी से वह देवी, सभी के द्वारा शिवदूती के रूप
में कही जाती हैं ।। १११-११२।।
क्षेमकारी च
शान्ता च वेदमाता महोदरी ।
कराला कामदा
देवी भगास्या भगमालिनी ।। ११३ ।।
भगोदरी
भगारोहा भगजिह्वा भगा तथा ।
एता द्वादश
योगिन्यः पूजने परिकीर्तिताः।। ११४ ।।
इसकी पूजा में
क्षेमकारी, शान्ता,
वेदमाता, महोदरी, कराला,
कामदा, देवी भगास्या, भगमालिनी,
भगोदरी, भगारोहा, भगजिह्वा
और भगा नाम की ये बारह योगिनियाँ बताई गई हैं ।। ११३- ११४ ।।
एता द्वादश
योगिन्यः शिवदूत्याः सदैव हि ।
विचरन्ती
स्वयं देवी यत्र तत्रैव गच्चति ।। ११५ ।।
ये शिवदूती की
बारह योगिनियाँ हैं। देवी, स्वयं जहाँ-जहाँ जाती हैं, वे सदैव वहीं जाती हैं ॥
११५ ॥
योगिन्यो ह्यथ
सख्यः स्युर्यथान्यासां तथा पुनः।
चण्डिकायास्तु
योगिन्यः सख्योऽत्र च प्रकीर्तिताः।। ११६ ।।
जैसे
योगिनियाँ अन्य देवियों की सखियाँ होती हैं, उसी प्रकार चण्डिका की ये योगिनियाँ उनकी सखियाँ ही हैं ।।११६ ॥
इति ते
त्वङ्गमन्त्राणि कथितानि समासतः।
कामाख्यायाश्च
महात्म्यं कल्पमात्रं वदामि वाम् ।। ११७ ।।
इस प्रकार
मैंने संक्षेप में देवी के अङ्गमन्त्रों को तुमसे कहा। अब मैं तुम दोनों से
कामाख्या का माहात्म्य और पूजा-पद्धति कहता हूँ ॥ ११७ ॥
।। इति
श्रीकालिकापुराणे कामाख्यामाहात्म्यनाम एकषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६१ ॥
॥
श्रीकालिकापुराण में कामाख्यामाहात्म्य नामक एकसठवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ ६१ ॥
आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 62
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