श्राद्ध में महत्वपूर्णतथ्य

श्राद्ध में महत्वपूर्णतथ्य  

श्राद्ध में कुछ महत्वपूर्णतथ्य, सूत्र व जो प्रमाण प्रस्तुत किये गये हैं, उन्हीं प्रमाणों को यहाँ संगृहीत किया गया है-

श्राद्ध में महत्वपूर्णतथ्य

श्राद्ध में महत्वपूर्णतथ्य  

 ( १ ) अन्त समय में एक बार भगवन्नामोच्चारण से परमगति की प्राप्ति

प्राण-प्रयाण के समय भगवान्का एक बार नाम लेनेमात्र से मनुष्य इस संसार सागर को पार कर भगवान्के परमधाम को प्राप्त कर लेता है-

प्राणप्रयाणसमये यस्य नाम सकृत् स्मरन् ॥

नरस्तीर्त्वा भवाम्भोधिमपारं याति तत्पदम् । (अ०रामा० सुन्दर० १।४-५ )

(२) गंगा की संनिधि में मृत्यु से मोक्ष की प्राप्ति

ज्ञान से अथवा अज्ञान से, इच्छा से अथवा अनिच्छा से जो गंगा में मरता है, वह स्वर्ग तथा मोक्ष प्राप्त करता है-

ज्ञानतोऽज्ञानतो वापि कामतोऽकामतोऽपि वा ।

गङ्गायां च मृतो मर्त्यः स्वर्गं मोक्षं च विन्दति ॥ (ब्रह्मपुराण)

( ३ ) मरणासन्नावस्था में तुलसी एवं शालग्राम के सांनिध्य से विष्णुलोक की प्राप्ति

(क) पापात्मा व्यक्ति भी यदि तुलसी की मिट्टी से लिप्त होकर प्राण त्याग करता है तो वह भगवान् विष्णु की संनिधि प्राप्त करता है-

तुलसीमृत्तिकाऽऽलिप्तो यदि प्राणान् विमुञ्चति ॥

याति विष्ण्वन्तिकं नित्यं यदि पापशतैर्युतः ॥ (गरुडपुराण, वी०मि० पूजाप्रकाश)

(ख) मृत्युकाल में जिसके शरीर में तुलसी-चन्दन का सम्पर्क रहता है,वह भगवत्स्वरूप होकर भगवान्‌ को प्राप्त करता है-

मृतिकाले तु सम्प्राप्ते तुलसीतरुचन्दनम् ।

भवेच्च यस्य देहे तु हरिर्भूत्वा हरिं व्रजेत् ॥ (पद्मपुराण)

(ग) कदाचित् तुलसीवन में पापी की भी मृत्यु हो जाय तो वह यम को भयभीत करता हुआ लीलापूर्वक प्रभु के धाम में जाता है

तुलसीकानने जन्तोर्यदि मृत्युर्भवेत् क्वचित् ।

स निर्भत्स्य यमं पापी लीलयैव हरिं व्रजेत् ॥ (शुद्धितत्त्व)

(घ) मृत्यु के समय जिसके मुख में तुलसीदल दिया जाता है वह चाहे कैसा ही पापात्मा हो, मोक्ष प्राप्त करता है

प्रयाणकाले यस्यास्ये दीयते तुलसीदलम् ।

निर्वाणं याति पक्षीन्द्र पापकोटियुतोऽपि वा ॥ (गरुडपुराण, वी०मि०पूजाप्रकाश)

(ङ) शालग्रामशिला में भगवान् नारायण की नित्य संनिधि रहती है, अतः उसकी संनिधि में प्राण त्याग करनेवाला विष्णु के परमपद को प्राप्त करता है

शालग्रामशिला यत्र तत्र सन्निहितो हरिः ।

तत्सन्निधौ त्यजेत् प्राणान् याति विष्णोः परं पदम् ॥ (शुद्धितत्त्व, पूजारत्नाकर)

(च) अन्तकाल में शालग्रामशिला के जल की एक बूँद भी जो पीता है, वह सभी पापों से मुक्त होकर वैकुण्ठधाम को जाता है

शालग्रामशिलातोयं यः पिबेद् बिन्दुमात्रकम् ।

स सर्वपापनिर्मुक्तो वैकुण्ठभुवनं व्रजेत् ॥ (गरुडपुराण - सारोद्धार ९ । २२)

(४) दाह-संस्कार से पूर्व रोने का निषेध

मृत प्राणी के लिये आत्मीयजनों को भूलकर भी रोना नहीं चाहिये। अपितु उसकी सद्गति के लिये भगवत्स्मरण पूर्वक यथाशक्ति और्ध्वदैहिक क्रिया करनी चाहिये। रोने से जो आँसू आदि निकलते हैं वे ही उस प्राणी को खाने पड़ते हैं-

श्लेष्माश्रु बान्धवैर्मुक्तं प्रेतो भुङ्क्ते यतोऽवशः ।

अतो न रोदितव्यं हि क्रियाः कार्याः स्वशक्तितः ॥ (याज्ञ० स्मृति प्राय० १ । ११, गरुडपुराण प्रेतखण्ड १५ । ५८)

कपालक्रिया के अनन्तर ही जोर से रोने का शास्त्र ने विधान किया है, उससे मृत प्राणी को सुख मिलता है।

(५) उद्यापन के बिना व्रत की निष्फलता

जीवन में कितने ही लोग व्रत करते हैं, परंतु व्रत का उद्यापन नहीं कर पाते। व्रत की पूर्णता के लिये उद्यापन अवश्य करना चाहिये, जो ऐसा नहीं करता उसका वह व्रत निष्फल हो जाता है-

उद्यापनं विना यत्तु तद् व्रतं निष्फलं भवेत् । (नन्दीपुराण एवं निर्णयसिन्धु)

मरणासन्न व्यक्ति यदि व्रत का उद्यापन न कर सका हो तो वह स्वयं या अपने प्रतिनिधि ब्राह्मण को सादर बुलाकर उनकी आज्ञा प्राप्त कर व्रतोद्यापन के अनुकल्प के रूप में अपने सामर्थ्यानुसार द्रव्यादान दे। इससे शास्त्रविधि के अनुसार उद्यापन की विधि पूर्ण हो जाती है।

(६) ब्राह्मणवचनों से व्रत की पूर्णता

सदाचारी विद्वान् ब्राह्मणों की वाणी में महान् शक्ति रहती है। व्रत आदि कर्मों में यदि कोई त्रुटि, अपूर्णता आदि रह जाय तो वह ब्राह्मणों के वचन से दूर हो जाती है और व्रत पूर्ण हो जाता है

विप्रवाक्यं स्मृतं शुद्धं व्रतस्य परिपूर्तये ॥ (नारदपुराण)

(७) दान देनेवाले तथा ग्रहण करनेवाले की पूर्वोत्तराभिमुखता

दान देते समय दाता का मुँह पूर्व की ओर, प्रतिग्रहण करनेवाले ब्राह्मण का मुख उत्तर की ओर होना चाहिये-

 सर्वत्र प्राङ्मुखो दाता प्रतिग्राही उदङ्मुखः।

(८) आचमन के जल की मात्रा

आचमन के लिये ब्राह्मण इतना जल ले कि वह हृदय तक पहुँच जाय, क्षत्रिय के लिये यह जल इतना हो कि कण्ठ तक पहुँच जाय और वैश्य के लिये यह जल तालु तक पहुँचना चाहिये । स्त्री, शूद्र और अनुपनीत ये तीनों तालु से एक बार ही जल के स्पर्श हो जाने से शुद्ध हो जाते हैं-

हृत्कण्ठतालुगाभिस्तु यथासंख्यं द्विजातयः ।

शुध्येरन् स्त्री च शूद्रश्च सकृत्स्पृष्टाभिरन्ततः॥ (याज्ञ० स्मृ०आ० २।२१, नित्य० पूजा०)

(९) आचमन के अनन्तर भी पवित्री की पवित्रता

पवित्री धारण कर आचमन करना चाहिये। आचमन करने से पवित्री जूठी नहीं होती। भोजन के अनन्तर पवित्री जूठी हो जाती है-

सपवित्रेण हस्तेन कुर्यादाचमनक्रियाम् ।

नोच्छिष्टं तत्पवित्रं तु भुक्तोच्छिष्टं तु वर्जयेत् ॥ (श्राद्धचिन्तामणि में मार्कण्डेयजी का वचन)

(१०) गोदान से जीवन भर के पापों का नाश

गौ सर्वदेवमयी और विलक्षण प्रभाव से सम्पन्न है, वह पवित्र तथा पुण्यतमा है। उसके दान की विशेष महिमा है। गोदान करने से सम्पूर्ण जीवन के मन, वाणी तथा कर्म द्वारा किये गये तीनों प्रकार के पाप नष्ट हो जाते हैं

आजन्मोपार्जितं पापं मनोवाक्कायकर्मभिः ।

तत्सर्वं नाशमायाति गोप्रदानेन केशव ॥ (ब्राह्मणपरिशिष्ट)

(११) और्ध्वदैहिक दान की गया श्राद्ध से भी अधिक महिमा

मरणासन्न-अवस्था को प्राप्त भूमि पर पड़े अपने पिता आदि के निमित्त पुत्र यदि शास्त्रोक्त दानों को देता है तो वह दान गया श्राद्ध तथा सैकड़ों अश्वमेधयज्ञों से भी विशिष्ट फल देनेवाला होता है

दृष्ट्वा स्थानस्थमासन्नमर्धोन्मीलितलोचनम् ।

भूमिष्ठं पितरं पुत्रो यदि दानं प्रदापयेत् ॥

तद् विशिष्टं गया श्राद्धादश्वमेधशतादपि । (निर्णयसिन्धु तृ०परि०उ०आ० प्रकरण)

(१२) और्ध्वदैहिक दान की अवश्यकरणीयता

(क) जो अपने पिता आदि के निमित्त और्ध्वदैहिक (मरणासन्न अवस्था में तथा मृत्यु के उपरान्त) दानादि नहीं करता, उसके पितर अत्यन्त कष्टपूर्वक यमलोक की यात्रा करते हैं। इसलिये अपनी शक्ति के अनुसार इन दानों को अवश्य देना चाहिये-

और्ध्वदैहिक दानानि यैर्न दत्तानि काश्यप ।

महाकष्टेन ते यान्ति तस्माद् देयानि शक्तितः ॥ (ग०पु०प्रेतखण्ड १९ । १३)

(ख) सामान्यरूप से दस विशिष्ट पदार्थों के दान को महादान कहा गया है। इन दानों के देने से जीव परलोक में सुख प्राप्त करता है-

महादानेषु दत्तेषु गतस्तत्र सुखी भवेत् ॥(ग०पु० प्रेतखण्ड १९ । ३)

(१३) दस महादान कौन से हैं ?

गाय, भूमि, तिल, सोना, घी, वस्त्र, धान्य, गुड़, चाँदी तथा नमक-इन दस वस्तुओं का दान दस महादान कहलाता है। यह दान पितरों के निमित्त दिया जाता है। किसी कारणवश मृत्यु के समय न किया जा सके तो एकादशाह अथवा द्वादशाह के दिन करना चाहिये-

गोभूतिलहिरण्याज्यं वासो धान्यं गुडानि च ।

रौप्यं लवणमित्याहुर्दशदानान्यनुक्रमात् ॥ (निर्णयसिन्धुमें मदनरत्नका वचन)

( १४ ) अष्ट महादान कौन से हैं ?

तिल, लोहा, सोना, कपास, नमक, सप्तधान्य, भूमि तथा गौ- इन आठ का दान अष्ट महादान कहलाता है। ये सभी पवित्र करनेवाले हैं-

तिला लोहं हिरण्यं च कार्पासो लवणं तथा ।

सप्तधान्यं क्षितिर्गावो ह्येकैकं पावनं स्मृतम् ॥(गरुडपुराण - सारोद्धार ८।३३)

(१५) सप्तधान्य

 (क) जौ, गेहूँ, धान, तिल, टाँगुन, साँवा तथा चना-ये सप्तधान्य कहलाते हैं-

यवगोधूमधान्यानि तिलाः कङ्कुस्तथैव च ।

श्यामाकं चीनकञ्चैव सप्तधान्यमुदाहृतम् ॥ ( षट्त्रिंशन्मत)

(ख) मतान्तर से जौ, धान, तिल, कँगनी, मूँग, चना तथा साँवा - ये सप्तधान्य कहलाते हैं-

यवधान्यतिलाः कंगुः मुद्गचणकश्यामकाः ।

एतानि सप्तधान्यानि सर्वकार्येषु योजयेत् ॥

( १६ ) धान्य आदि की परिभाषा

खेत में जो तैयार फसल खड़ी है उसे शस्य कहते हैं, तुषयुक्त अनाज को धान्य कहते हैं (जैसे धान), तुषा (छिलका)-रहित अनाज को आमान्न (कच्चा अन्न) तथा आग में पके हुए अनाज को सिद्ध अन्न कहते हैं

शस्यं क्षेत्रगतं प्राहुः सतुषं धान्यमुच्यते ।

आमान्नं वितुषं प्रोक्तं सिद्धमन्नं प्रकीर्तितम् ॥

(१७) आचमन-दान

पूजन में धूप, दीप, नैवेद्य, वस्त्र, यज्ञोपवीत, स्नान, अर्घ और मधुपर्क-समर्पण के बाद आचमन प्रदान करना चाहिये-

धूपे दीपे च नैवेद्ये स्नानेऽर्धे मधुपर्कके ।

वस्त्रे यज्ञोपवीते च दद्यादाचमनीयकम् ॥(स्क०पु० उत्कल ख० )

( १८ ) शव के कर्णनासादि छिद्रों में स्वर्ण-प्रक्षेप तथा घृत- प्रक्षेप का विधान

(क) शव के कान, नाक आदि सात छिद्रों में सोने के टुकड़ों को छोड़कर श्मशान ले जाना चाहिये-

हिरण्यशकलान्यस्य क्षिप्त्वा छिद्रेषु सप्तसु ।

मुखेष्वथाभिधायैनं निर्हरेयुः सुतादयः ॥ (निर्णयसिन्धु)

(ख) क्रमशः मुख में एक, नाक में दो, दोनों आँखों में एक-एक तथा दोनों कानों में एक-एक सोने का टुकड़ा डालना चाहिये-

एका वक्त्रे तु दातव्या घ्राणयुग्मे तथा पुनः ।

अक्ष्णोश्च कर्णयोश्चैव द्वे द्वे देये यथाक्रमम् ॥(ग०पु० प्रेतखण्ड १५ । ९)

(ग) यदि सुवर्ण न हो तो इसी क्रम से घी की बूँद डाले-

सुवर्णस्याप्यभावे तु आज्यं ज्ञेयं विचक्षणैः ॥ (निर्णयसिन्धु)

( १९ ) अस्पृश्य द्वारा शव स्पर्श होने पर प्रायश्चित्त की आवश्यकता

श्मशान के लिये ले जाते समय शव को शूद्र, सूतिका, रजस्वला के स्पर्श से बचाना चाहिये। ऐसी स्थिति में प्रायश्चित्त करना चाहिये । प्रायश्चित्त किये बिना दाह आदि सम्पूर्ण कर्म निष्फल हो जाते हैं और मृतक तथा दाहकर्ता दोनों को नरक प्राप्त होता है-

श्मशाने नीयमानशवस्य शूद्रस्पर्शे शूद्रेण वहने वा 

सूतिकारजस्वलयोः स्पर्शेऽप्येवमेव प्रायश्चित्तम्।

प्रायश्चित्तं विना दाहादिकृतं व्यर्थं भवेत् । 

उभयोश्च नरकः । (धर्मसिन्धु उत्तरार्ध परिच्छेद ३)

स्पर्शादि होने पर भगवत्स्मरणपूर्वक जल से शुद्धि कर लेनी चाहिये ।

श्राद्ध में महत्वपूर्णतथ्य  

(२०) शूद्रादि द्वारा लायी गयी दाहादि सामग्री की निष्फलता दाह आदि में लकड़ी-तृण आदि कोई भी सामग्री शूद्र आदि से न मँगाये, ऐसा करने से वह सारा कर्म निष्फल हो जाता है। अतः सपरिवार स्वयं सब कार्य करना चाहिये-

शूद्राऽऽनीतैः कृतं कर्म सर्वं भवति निष्फलम्। (धर्मसिन्धु)

( २१ ) पितृकर्म में अपसव्यत्व एवं दक्षिणाभिमुखता

सामान्यरूप से पितृकर्म अपसव्य होकर और दक्षिण की ओर मुँह करके करने का विधान है

अपसव्येन कृत्वैतद् वाग्यतः पित्र्यदिङ्मुखः । (छन्दोगपरिशिष्ट)

(२२) चिता-पिण्डदान के अनन्तर प्रेत संज्ञा गरुडपुराण में एक वचन आया है-

चितापिण्डप्रभृतितः प्रेतत्वमुपजायते ।

तदादि तत्र तत्रापि प्रेतनाम्ना प्रदीयते ॥ (गरुड०प्रेत० १५ । ३७-३८)

इस वचन के अनुसार चिता-पिण्ड देने के बाद ही संकल्प में प्रेत शब्द का उच्चारण करना चाहिये, किंतु 'सूत्रशाटकन्याय' से भावी प्रेतत्व का आरोप करके संकल्प-वाक्यों में प्रारम्भ से ही प्रेत शब्द का प्रयोग किया जा सकता है।

( २३ ) अन्त्येष्टिकर्म में छः पिण्डदान का प्रयोजन

१. मृत स्थान में पिण्डदान से भूम्यधिष्ठातृदेवता सन्तुष्ट होते हैं ।

२. द्वारदेश में पिण्डदान से गृहवास्त्वधिष्ठातृदेवता प्रसन्न होते हैं ।

३. चौराहे पर पिण्डदान से मृतक शव पर कोई उपद्रव नहीं होता ।

४. विश्रामस्थान में और

५. काष्ठ-चयन के पिण्डदान से राक्षस, पिशाच आदि प्राणी हवनीय देह को अपवित्र नहीं करते तथा

६. अस्थिसंचयननिमित्तक पिण्डदान से दाहजन्य पीड़ा शान्त जाती है-

मृतस्थाने शवो नाम तेन नाम्ना प्रदीयते ॥

तेन भूमिर्भवेत् तुष्टा तदधिष्ठातृदेवता । 

द्वारदेशे भवेत् पान्थस्तेन नाम्ना प्रदीयते ॥

तेन दत्तेन तुष्यन्ति गृहवास्त्वधिदेवताः । 

चत्वरे खेचरो नाम तमुद्दिश्य प्रदीयते ॥

तेन तत्रोपघाताय भूतकोटिः पलायते । 

विश्रामे भूतसंज्ञोऽयं तेन नाम्ना प्रदीयते ॥

पिशाचा राक्षसा यक्षा ये चान्ये दिशि वासिनः । 

तस्य होतव्यदेहस्य नैवायोग्यत्वकारकाः ॥

चितायां साधकं नाम वदन्त्येके खगेश्वर ॥ 

प्रेतपिण्डं प्रदद्याच्च दाहार्तिशमनं खग । (ग०पु० २।५।३१-३६, ५१)

(२४) कुशास्तरण से पूर्व अवनेजन – दान का विधान

कई प्रयोग पद्धतियों में कुशास्तरण के बाद अवनेजन प्रदान करने की व्यवस्था दी गयी है। परंतु श्राद्ध के आधारभूत ग्रन्थ पारस्करगृह्यसूत्र तथा उसके भाष्यकारों के निम्न वचनों के अनुसार कुशास्तरण के पूर्व वेदी के मध्य खींची गयी रेखा पर अवनेजन देने का विधान है

दर्भेषु त्रींस्त्रीन् पिण्डानवनेज्यदद्यात् । (पारस्करगृह्यसूत्र परिशिष्ट श्राद्धसूत्रकण्डिका ३)

अवनेजन देकर दर्भों के ऊपर पिण्डदान करे। उपर्युक्त पारस्करगृह्यसूत्र पर कर्काचार्यजी का भाष्य इस प्रकार है-

पिण्डपितृयज्ञवदुपचार सूत्रितत्वात् ।

'पिण्डपितृयज्ञवदुपचारः पित्र्ये' (श्राद्धकाशिका २ । २ तथा पा०गृ० श्राद्धसूत्रकण्डिका २)

इस सूत्र अनुसार पिण्डपितृयज्ञ में जिस प्रक्रिया का आश्रयण किया गया है, उसी तरह अन्य श्राद्धों में भी किया जाय। दर्शपौर्णमास में पितृयज्ञ का प्रकरण है, जिसमें पहले अवनेजन करके बाद में कुशास्तरण की विधि है।

गदाधरभाष्य- अत्राह याज्ञवल्क्यः -

सर्वमन्नमुपादाय सतिलं दक्षिणामुखः । 

उच्छिष्टसन्निधौ पिण्डान् दद्याद्वै पितृयज्ञवदिति ॥

अत्र पदार्थक्रमः - उल्लेखनम्, उदकालम्भः, उल्मुकनिधानम्, अवनेजनम्, सकृदाच्छि-न्नास्तरणम्, पिण्डदानम् ।

अर्थात् उच्छिष्ट की संनिधि में दक्षिणाभिमुख होकर सभी अन्नों को लेकर सतिलपितृयज्ञवत् पिण्ड प्रदान करना चाहिये। यहाँ पदार्थक्रम निम्नलिखित है-

(१) उल्लेखन (रेखाकरण), (२) उदकालम्भन, (३) उल्मुकसंस्थापन (अंगारभ्रमण), (४) अवनेजन, (५) कुशास्तरण तथा (६) पिण्डदान ।

( २५ ) शव का सिर और मुख किस दिशा में करे ?

शवदाह से पूर्व शवदाह से पूर्व शव का सिरहाना उत्तर अथवा पूर्व की ओर करने का वचन है, किंतु परम्परा से उत्तर की ओर सिरहाना करना प्रशस्त है-

(क) प्राक् शिरसं उदक् शिरसं वा भूमौ निवेशयेत्। (हरिहरभाष्य)

(ख) ततो नीत्वा श्मशानेषु स्थापयेदुत्तरामुखम्। (गरुडपुराण)

एक वचन यह भी है कि 'दक्षिणशिरसं कृत्वा सचैलं तु शवं तथा।' इसमें शव को दक्षिण की ओर सिरकर लिटाने को लिखा गया है। यह नियम सामवेदियों के लिये है। अन्य लोगों को तो उत्तर की ओर ही सिर रखना चाहिये और उत्तान ही लिटाना चाहिये

'सामेतरेषामुत्तरशिरस्त्वम्।' (श्राद्धतत्त्व)

दाह के समय चिता पर –

(क) भूप्रदेशे शुचौ देशे पश्चाच्चित्यादिलक्षणे । 

तत्रोत्तानं निपात्यैनं दक्षिणाशिरसं मुखे ॥ (छन्दोगपरिशिष्टमें कात्यायनका मत)

चिता में शव को दक्षिण सिर करके उत्तान देह रख दे।

(ख) आदिपुराण में आये निम्न वचन-

अधोमुखो दक्षिणादिक् चरणस्तु पुमानिति ।

स्वगोत्रजैः गृहीत्वा तु चितामारोप्यते शवः ॥

उत्तानदेहा नारी तु सपिण्डैरपि बन्धुभिः ।

-के अनुसार पुरुष को उत्तर की तरफ सिर तथा अधोमुख (नीचे की तरफ मुख करके) चिता पर स्थापित करना चाहिये तथा स्त्री को उत्तर सिर तथा उत्तान देह करके रखना चाहिये। शुद्धितत्त्वादि ग्रन्थों में ऐसी ही व्यवस्था है। पारस्करगृह्यसूत्र के 'विवाहश्मशानयोः ग्रामं प्रविशतात्' इस वचन के अनुसार देशाचार के अनुसार करना चाहिये।

( २६ ) दाह में तुलसीकाष्ठ का प्राशस्त्य

जो मृतक के सर्वांग में तुलसीकाष्ठ देकर दाह करता है, वह भी पाप से शुद्ध हो जाता है। तुलसीकाष्ठ से दाह करने पर उस जीव की पुनरावृत्ति नहीं होती-

दत्त्वा तु तुलसीकाष्ठं सर्वाङ्गेषु मृतस्य च । 

पश्चाद् यः कुरुते दाहं सोऽपि पापात् प्रमुच्यते ॥

तुलसीकाष्ठदग्धस्य न तस्य पुनरावृतिः ॥ (स्कन्द पु०, पूजाप्र०)

(२७) नग्न शव के दाह का निषेध

नग्न शव का दाह नहीं करना चाहिये-

नग्नदेहं दहेन्नैव । (प्रचेता)

( २८ ) दाह के लिये निषिद्ध अग्नि

चाण्डाल की अग्नि, अमेध्याग्नि (अपवित्र अग्नि), सूतिकाग्नि, पतिताग्नि और चिताग्नि को शिष्ट लोग कभी भी ग्रहण न करें-

चाण्डालाग्निरमेध्याग्निः सूतिकाग्निश्च कर्हिचित् ।

पतिताग्निश्चिताग्निश्च न शिष्टग्रहणोचितः ॥ (निर्णयसिन्धु में देवलका वचन)

कर्पूर अथवा घी की बत्ती से स्वतः अग्नि तैयार कर लेनी चाहिये। अन्य किसी से अग्नि नहीं लेनी चाहिये।

(२९) पंचकदाह और पंचकशान्ति

सूतक के अन्त में सपिण्डीकरण के पूर्व एकादशाह अथवा द्वादशाह को श्राद्धकर्ता को पंचकशान्ति भी करनी चाहिये ।

निर्णयसिन्धु और धर्मसिन्धु के आधार पर विशेष बात यह बतायी गयी है कि यदि मृत्यु पंचक के पूर्व हो गयी हो और दाह पंचक में होना हो तो पुत्तलों का विधान करे तब शान्ति की आवश्यकता नहीं रहती। इसके विपरीत कहीं पंचक में मृत्यु हो गयी हो और दाह पंचक के बाद हुआ हो तो शान्तिकर्म करे-

नक्षत्रान्तरे मृतस्य पञ्चके दाहप्राप्तौ पुत्तलविधिरेव न शान्तिकम् ।

पञ्चकमृतस्याश्विन्यां दाहप्राप्तौ शान्तिकमेव न पुत्तलविधिः । (धर्मसिन्धुमें उ०परि०३ )

यदि मृत्यु भी पंचक में हुई हो और दाह भी पंचक में हो तो पुत्तलदाह तथा शान्ति दोनों कर्म करे ।

(३०) चिताग्नि सिर की ओर दे

दाह के समय सर्वप्रथम सिर की ओर अग्नि देनी चाहिये-

शिरः स्थाने प्रदापयेत्। (वराहपुराण)

( ३१ ) कपालक्रिया

'शव के आधे अथवा प्रायः पूरे जल जाने पर उसके मस्तक का भेदन करना चाहिये। गृहस्थ की बाँस आदि की लकड़ी द्वारा तथा यतियों की श्रीफल से कपालक्रिया करनी चाहिये-

अर्द्ध दग्धेऽथवा पूर्णे स्फोटयेत् तस्य मस्तकम् ।

गृहस्थानां तु काष्ठेन यतीनां श्रीफलेन च ॥ (गरुडपुराण- सारोद्धार १० । ५६)

( ३२ ) कपालक्रिया के अनन्तर रोने पर मृतात्मा को सुख की प्राप्ति

कपालक्रिया के बाद पारिवारिक जनों के द्वारा जोर से रोने पर मृत प्राणी को सुख मिलता है-

रोदितव्यं ततो गाढं येन तस्य सुखं भवेत् ॥ (गरुडपुराण - सारोद्धार १०।५९ )

( ३३ ) शव की सात प्रदक्षिणा

कपालक्रिया के अनन्तर दाहकर्ता एक-एक समिधा (एक वित्ते की यज्ञीय लकड़ी) लेकर चिता की सात प्रदक्षिणा करे और प्रदक्षिणा के अन्त में 'क्रव्यादाय नमस्तुभ्यम्' कहकर एक-एक समिधा चिता में डालता जाय-

गच्छेत् प्रदक्षिणाः सप्त समिद्भिः सप्तभिः सह ॥ (आदि०)

(३४) शवदाह की प्रक्रिया

अन्त में शव का किंचित् भाग अर्थात् कपोत-परिमाण (कबूतर के बराबर तक) जल में डाल देना चाहिये। पूरा जलाना मना है-

निःशेषस्तु न दग्धव्यः शेषं किञ्चित् त्यजेत् ततः ।

(३५) गंगा-किनारे दाह होने पर अस्थि-विसर्जन

जहाँ गंगा के किनारे दाह-संस्कार किया जाय, वहाँ अस्थियों को तत्काल गंगा में प्रवाहित करने की परम्परा है। अस्थि-संचयन की आवश्यकता नहीं रहती ।

( ३६ ) गंगा में अस्थि-विसर्जन की महिमा

दस दिनों के भीतर गंगा में अस्थिप्रक्षेप करने से मरनेवाले को वही फल प्राप्त होता है, जो गंगा में (गंगातट पर) मरने से होता है-

दशाहाभ्यन्तरे यस्य गङ्गातोयेऽस्थि मज्जति ।

गङ्गायां मरणं यादृक् तादृक् फलमवाप्नुयात्॥ (मदनरत्न में वृद्धमनु का वचन)

( ३७ ) दाह के अनन्तर गृहप्रवेश के पूर्व के कृत्य

बच्चों को आगे करके सभी शवयात्री घर की ओर बढ़ें। पीछे न देखें। दरवाजे पर आकर थोड़ी देर रुक जायँ। वहाँ नीम की पत्तियाँ चबायें। आचमन करें। जल, गोबर, तेल, मिर्च, पीली सरसों और अग्नि का स्पर्श करें। फिर पत्थर पर पैर रखकर घर में प्रवेश करें। कुछ देर बैठकर भगवान्‌ का चिन्तन करें और मृतात्मा की शान्ति की कामना करें। उस दिन खरीदकर अथवा अपने सम्बन्धी से प्राप्त भोजन करें तथा अलग-अलग बिछावन पर शयन करें-

(क) अनवेक्षमाणा ग्राममायान्ति रीतीभूताः कनिष्ठपूर्वाः ॥ 

निवेशनद्वारे पिचुमन्दपत्राणि विदश्याचम्योदक- 

मग्नि गोमयं गौरसर्षपांस्तैलमालभ्याश्मानमाक्रम्य प्रविशन्ति ॥ (पारस्करगृह्यसूत्र ३ । १० । २३-२४)

(ख) इति संश्रुत्य गच्छेयुर्गृहं बालपुरःसराः । 

विदश्य निम्बपत्राणि नियता द्वारि वेश्मनः ॥ 

आचम्याग्न्यादि सलिलं गोमयं गौरसर्षपान् । 

प्रविशेयुः समालभ्य कृत्वाऽश्मनि पदं शनैः ॥ 

प्रवेशनादिकं कर्म प्रेतसंस्पर्शिनामपि । 

क्रीतलब्धाशना भूमौ स्वपेयुस्ते पृथक् पृथक् । (याज्ञ० स्मृति, प्रायश्चित्ता० आ०प्र० १।१२- १४, १६ )

( ३८ ) दाहकर्ता तथा सपिण्डी अशौचियों के पालनीय नियम

(क) दाहकर्ता के लिये

(१) प्रथम दिन क्रय करके अथवा किसी निकट सम्बन्धी (ससुराल अथवा ननिहाल ) - से भोज्यसामग्री प्राप्त करके कुटुम्ब सहित भोजन करना चाहिये।

(२) ब्रह्मचर्य के नियमों का पालन करना चाहिये ।

(३) भूमि पर शयन करना चाहिये ।

(४) किसी को न तो छूना और न किसी से अपने को छुआना ही चाहिये ।

(५) सूर्यास्त से पूर्व एक समय भोजन बनाकर करना चाहिये ।

(६) नमकरहित भोजन करना चाहिये ।

(७) मिट्टी के पात्र अथवा पत्तल में भोजन करना चाहिये ।

(८) प्रथम दिन अथवा प्रथम तीन दिन तक उपवास अथवा फलाहार करना चाहिये ।

(९) पहले गोग्रास निकालकर तथा प्रेत के निमित्त घर से बाहर भोजन किसी को देकर अथवा रखकर तब भोजन करना चाहिये ।

(१०) सब प्रकार के भोगों का परित्याग करना चाहिये तथा दैन्यभाव से रहना चाहिये।

(ख) कुटुम्ब तथा सपिण्डों के लिये

(१) ब्रह्मचर्य के नियमों का पालन करना चाहिये।

(२) सबको पृथक्-पृथक् आसन पर शयन करना चाहिये।

(३) प्रेत के उद्देश्य से प्रतिदिन स्नान करना चाहिये तथा जलांजलि देनी चाहिये ।

(४) मांस आदि आमिष भोजन नहीं करना चाहिये।

(५) शरीर में तथा कपड़ों में साबुन आदि नहीं लगाना चाहिये।

(६) केशों का मार्जन, पैर दबवाना तथा तेल आदि की मालिश न करे। क्षौरकर्म भी न करे ।

(७) पहले, तीसरे, सातवें तथा दसवें दिन बन्धु-बान्धव एक साथ भोजन करें; इससे प्रेत की तृप्ति होती है।

(८) मन्दिर में न जाय, देवताओं की पूजा न करे। देवमूर्ति का स्पर्श निषिद्ध है।दान और स्वाध्याय भी वर्जित है।

(९) किसी को न तो प्रणाम करे, न आशीर्वाद दे ।

(१०) घर में प्रतिष्ठित देवताओं की पूजा किसी ब्राह्मण से या असगोत्री सम्बन्धी से अथवा देवालय में भिजवाकर करवाये, स्वयं न करे ।

(११) दूसरे का भोजन नहीं करना चाहिये तथा दूसरों को भोजन भी नहीं कराना चाहिये-

क्रीतलब्धाशनाः सर्वे स्वपेयुस्ते पृथक् पृथक् ।

अक्षारलवणान्नाः स्युर्निमज्जेयुश्च ते त्र्यहम्॥

अमांसभोजनाश्चाधः शयीरन् ब्रह्मचारिणः ।

परस्परं न संस्पृष्टा दानाध्ययनवर्जिताः 

मलिनाश्चाधोमुखाश्च दीना भोगविवर्जिताः ।

अङ्गसंवाहनं केशमार्जनं वर्जयन्ति ते ॥

मृण्मये पत्रजे वापि भुञ्जीरंस्ते च भाजने ।

उपवासं तु ते कुर्युरेकाहमथ वा त्र्यहम् ॥॥ (गरुडपुराण, प्रेतखण्ड ५/४-७)

प्रथमेऽह्नि तृतीये च सप्तमे दशमे तथा ।

ज्ञातिभिः सह भोक्तव्यमेतत् प्रेतेषु दुर्लभम् ॥ (शंख)    

( ३९ ) देशाचार की प्रामाणिकता

पारस्करगृह्यसूत्र के विवाहश्मशानयोः ग्रामं प्रविशतात्' इस वचन के अनुसार शास्त्र की कोई स्पष्ट व्यवस्था उपलब्ध न रहने पर अथवा वैकल्पिक व्यवस्था होने पर देशाचार के अनुसार करना चाहिये ।

श्राद्ध में महत्वपूर्णतथ्य  

(४०) अशौच में क्या न करे

अशौच में सन्ध्या, दान, जप, होम, स्वाध्याय, पितृतर्पण, ब्राह्मण भोजन तथा व्रत नहीं करना चाहिये-

सन्ध्यां दानं जपं होमं स्वाध्यायं पितृतर्पणम् ।

ब्रह्मभोज्यं व्रतं नैव कर्तव्यं मृतसूतके ॥ (गरुडपुराण- सारोद्धार १३ । २१ )

( ४१ ) आशौच में की जानेवाली सन्ध्या का स्वरूप

यद्यपि सामान्यरूप से आशौच में सन्ध्या का निषेध है, किंतु नित्यकर्म होने से वह प्रतिदिन करणीय है। आशौच में सन्ध्या की विशेष विधि है। आशौच की सन्ध्या में प्राणायाम मन्त्रहीन करना चाहिये, मार्जन – मन्त्रों का मानस उच्चारण करके मार्जन कर लेना चाहिये तथा गायत्री का सम्यक् उच्चारण करके सूर्यार्घ देना चाहिये-

सूतके मृतके कुर्यात् प्राणायामममन्त्रकम् । 

तथा मार्जनमन्त्रांस्तु मनसोच्चार्य मार्जयेत् ॥

गायत्रीं सम्यगुच्चार्य सूर्यायार्घ्यं निवेदयेत् । (भारद्वाज आचारभूषण १०३ - १०४)

(४२) दस दिन तक दीप-दान तथा दीपक की दिशा

प्रेत के कल्याण के लिये दस दिनतक दक्षिणाभिमुख तिल के तेल का अखण्ड दीपक जलाना चाहिये। देवों के निमित्त दीपक का मुख पूर्व या उत्तर और पितरों के निमित्त दक्षिण करना चाहिये-

(क ) तत्र प्रेतोपकृतये दशरात्रमखण्डितम् ।

कुर्यात् प्रदीपं तैलेन वारिपात्रञ्च मार्तिकम् ॥ (देवयाज्ञिककारिका)

( ख ) प्राङ्मुखोदङ्मुखं दीपं देवागारे द्विजालये ।

कुर्याद् याम्यमुखं पैत्र्ये अद्भिः संकल्प्य सुस्थिरम् ॥(निर्णयसिन्धु)

( ४३ ) दशगात्र के दस पिण्डों से यातना-देह का निर्माण दशगात्र के प्रथम पिण्ड से सिर, द्वितीय पिण्ड से कर्ण, नेत्र और नासिका, तृतीय पिण्ड से गला, स्कन्ध, भुजा तथा वक्षःस्थल, चतुर्थ पिण्ड से नाभि, लिंग अथवा योनि तथा गुदा, पंचम पिण्ड से जानु, जंघा तथा पैर, षष्ठ पिण्ड से सभी मर्मस्थान, सप्तम पिण्ड से सभी नाडियाँ, अष्टम पिण्ड से दन्त, लोम आदि, नवम पिण्ड से वीर्य अथवा रज और दशम पिण्ड से शरीर की पूर्णता, तृप्तता तथा क्षुद्विपर्यय होता है

शिरस्त्वाद्येन पिण्डेन प्रेतस्य क्रियते सदा । 

द्वितीयेन तु कर्णाक्षिनासिकाश्च समासतः ॥

गलांसभुजवक्षांसि तृतीयेन यथाक्रमात् । 

चतुर्थेन तु पिण्डेन नाभिलिङ्गगुदानि च ॥

जानुजंघे तथा पादौ पञ्चमेन तु सर्वदा । 

सर्वमर्माणि षष्ठेन सप्तमेन तु नाडयः ॥

दन्तलोमाद्यष्टमेन वीर्यं तु नवमेन च । 

दशमेन तु पूर्णत्वं तृप्तता क्षुद्विपर्ययः ॥ (श्राद्धविवेक द्वितीय परि०)

 (४४) श्राद्धदेश का स्वरूप

शून्य स्थान, गोशाला, नदीतट अथवा एकान्त स्थान में श्राद्ध करने से पितर सन्तुष्ट होते हैं। श्राद्धभूमि दक्षिण की ओर ढालवाली तथा गोमय आदि से लीपकर पवित्र बनायी गयी होनी चाहिये-

अवकाशेषु चोक्षेषु नदीतीरेषु चैव हि । 

विविक्तेषु च तुष्यन्ति दत्तेन पितरः सदा ॥ (मनु० ३ । २०७)

गोमयेनोपलिप्ते तु दक्षिणा प्रवणे स्थले । 

श्राद्धं समारभेद् भक्त्या गोष्ठे वा जलसन्निधौ ॥(मत्स्य०, पद्म० )

( ४५ ) पिण्डदान का द्रव्य

पिण्डका द्रव्य –

(क) शास्त्र में बताया गया है कि जौ आदि का सत्तू, संयाव (गेहूँ के आटे से निर्मित पदार्थ), पायस (खीर), पिण्याक (तिलकल्क) तथा इंगुदी (एक फल) अथवा गुड़ से पिण्डदान करना चाहिये-

सक्तुभिः पिण्डदानं च संयावैः पायसेन वा । 

कर्तव्यं ऋषिभिः प्रोक्तं पिण्याकेनैगुदेन वा ॥

गुडेन वा इति पाठः । (देवीपुराण)

(ख) अग्निपुराण में बताया गया है कि पिण्डद्रव्य में इन वस्तुओं का प्रयोग किया जा सकता है-

घृतमिश्रित पायस (खीर), सत्तू, चरु (जौके आटेसे बना), तण्डुल (चावल) अथवा तिलमिश्रित गेहूँ ।

पायसेनाज्ययुक्तेन सक्तुना चरुणा तथा ।

पिण्डदानं तण्डुलैश्च गोधूमैस्तिलमिश्रितैः ॥ (गौडीय श्राद्धप्रकाश)

 (ग) दशगात्र का प्रथम पिण्डदान जिस द्रव्य से किया गया हो, दसों पिण्ड उसी द्रव्य से देने चाहिये-

 (अ) प्रथमेऽहनि यद् द्रव्यं तदेव स्याद् दशाह्निकम् । (गरुडपुराण)

(ब) प्रथमेऽहनि यद् दद्यात् तद् दद्यात् उत्तरेऽहनि ॥ ( आदित्यपुराण)

(४६) श्राद्ध में हाथ से बनाये गये मिट्टी के पात्रों का प्रयोग

जो आसुर पात्र के द्वारा तिलोदक प्रदान करता है, उसे उसके पितर ग्रहण नहीं करते। कुम्हार बनाये गये पात्र को 'आसुर पात्र' कहते हैं, अतः उसका प्रयोग नहीं करना चाहिये। हाथ से बनाये गये मिट्टी के पात्र का ही प्रयोग करना चाहिये-

आसुरेण तु पात्रेण यस्तु दद्यात् तिलोदकम् । 

पितरस्तस्य नाश्नन्ति दशवर्षाणि पञ्च च ॥

कुलालचक्रघटितमासुरं पात्रमुच्यते । 

तदेष हस्तघटितं स्थाल्यादि दैविकं भवेत् ॥ (पा०गृ०सू० गदाधरभाष्य)

(४७) दशगात्र के दस पिण्डदानों की व्यवस्था

(क) प्रतिदिन पिण्डदान करना चाहिये-

दिवसे दिवसे देयः पिण्ड एवं क्रमेण तु। (शुद्धितत्त्वमें आदिपुराणका वचन, अन्त्यकर्मदीपक)

(ख) प्रथमे च तृतीये वा पञ्चमे सप्तमे तथा । 

नवमे दशमे चैव पिण्डदानं प्रकीर्तितम् ॥ (वृद्धगार्ग्य)

(ग) देशाचार के अनुसार कुछ लोग तीसरे दिन से पिण्डदान प्रारम्भ करते हैं, जिसमें प्रथम तथा द्वितीय दिन के दो पिण्डों का अनुकर्षण करके तीन पिण्डदान कर दिये जाते हैं।

(घ) जो लोग प्रतिदिन पिण्डदान न करें, वे तीसरे दिन (तीन), पाँचवें दिन (दो), सातवें दिन (दो) नवें दिन (दो) तथा दसवें दिन (एक) पिण्डदान कर सकते हैं अथवा दसवें दिन एक साथ भी दस पिण्डदान कर सकते हैं। प्रतिदिन पिण्डदान करना उत्तम पक्ष है।

( ४८ ) दशगात्र के बीच में अमावास्या के आने पर

माता और पिता के अतिरिक्त किसी अन्य सम्बन्धी का दशगात्र हो रहा हो तो बीच में अमावास्या आ जानेपर अमावास्या के दिन ही सम्पूर्ण दशगात्र के पिण्ड प्रदान कर देने चाहिये। माता-पिता के दशगात्र के लिये दस दिनतक पिण्डदान करना चाहिये-

अन्तर्दशाहे दर्शश्चेत् तत्र सर्वं समापयेत् ।

पित्रोऽस्तु यावदाशौचं दद्यात् पिण्डाञ्जलाञ्जलीन् ॥ (अन्त्यकर्मदीपक गौतम)

( ४९ ) अशौच-प्रवृत्ति की व्यवस्था

जो अग्निहोत्री नहीं हैं, उनके अशौच की गणना मृत्यु के दिन से करनी चाहिये और जो अग्निहोत्री हैं, उनके अशौच की गणना दाह के दिन से करनी चाहिये। अतः इसी व्यवस्था के अनुसार दशगात्र के पिण्डदान की भी व्यवस्था समझनी चाहिये-

मरणादेव कर्तव्यं संयोगो यस्य नाग्निना ।

दाहादूर्ध्वमशौचं स्याद् यस्य वैतानिको विधिः ।।(शातातप)

(५०) रात्रि में जन्म, मरण या रजोदर्शन होने पर अशौचकाल की व्यवस्था

रात्रि में जन्म, मरण या रजोदर्शन होने पर अशौच-दिन के ग्रहण की गणना कब से होगी, इस सम्बन्ध में तीन भिन्न-भिन्न वचन प्राप्त होते हैं। अतः देशाचार के अनुसार इन वचनों की व्यवस्था समझनी चाहिये। एक मत के अनुसार-रात्रि के तीन भाग करके दो भाग अर्थात् रात्रि दो बजे तक पूर्व दिन से तथा इसके बाद अगले दिन से अशौच मानना चाहिये-

रात्रिं त्रिभागां कुर्यात् तु द्वौ भागौ पूर्व एव तु ।

उत्तरांशः प्रभातेन युज्यते ऋतुसूतके ॥ (निर्णयसिन्धुटीका में कश्यपका वचन)

दूसरे मत के अनुसार- रात्रि में अर्थात् सूर्योदय से पूर्व जन्म, मृत्यु अथवा रजोदर्शन होनेपर रात्रि के पूर्व दिन को ही प्रथम दिन मानकर अशौच मानना चाहिये-

उदिते तु यदा सूर्ये नारीणां दृश्यते रजः । 

जननं वा विपत्तिर्वा यस्याहस्तस्य शर्बरी ॥

अर्धरात्रावधिः कालः सूतकादौ विधीयते । 

रात्रावेव समुत्पन्ने मृते रजसि सूतके ॥

पूर्वमेव दिनं ग्राह्यं यावन्नोदयते रविः । (निर्णयसिन्धुटीका में कश्यपका वचन)

तीसरे मत के अनुसार- आधीरात तक का समय पूर्वदिन में ग्रहीत होगा तथा आधीरात के बाद अगले दिन से अशौच की गणना होगी-

'अर्धरात्रावधिः कालः सूतकादौ विधीयते।' (निर्णयसिन्धुटीकामें कश्यपका वचन)

(५१) मासिकादि श्राद्धों में तिथि-ग्रहण की व्यवस्था

जिस मास, जिस पक्ष तथा जिस तिथि में जो मरता है, उसी मास, उसी पक्ष तथा उसी तिथि को क्षयाह माना जायगा। (दिन का ग्रहण नहीं होगा) व्रत के पारण तथा मरण में तात्कालिक तिथि का ही ग्रहण होता है-

मासपक्षतिथिस्पृष्टे यो यस्मिन् म्रियतेऽहनि । 

प्रत्यब्दं तु तथाभूतं क्षयाहं तस्य तं विदुः ॥

पारणे मरणे नृणां तिथिस्तात्कालिकी मता ॥ (निर्णयसिन्धुसटीकमें गौडीयव्यवस्था)

५२) ताताम्बादि पितृ-परिगणन

धर्मशास्त्रों में श्राद्ध तथा तर्पण के लिये विभिन्न गोत्रवाले पितरों (ताताम्बादि बान्धवों) की गणना इस प्रकार की गयी है

ताताम्बात्रितयं सपत्नजननी मातामहादित्रयम् सस्त्रिस्त्रीतनयादितातजननी स्वभ्रातरस्तत्स्त्रियः ।

ताताम्बाऽऽत्मभगिन्यपत्यधवयुग् जायापिता सद्गुरुः शिष्याप्ताः पितरो महालयविधौ तीर्थे तथा तर्पणे ॥

(१) पिता, (२) पितामह (दादा), (३) प्रपितामह (परदादा), (४) माता, (५) पितामही (दादी), (६) प्रपितामही (परदादी), (७) विमाता (सौतेली माँ), (८) मातामह (नाना), (९) प्रमातामह (परनाना), (१०) वृद्धप्रमातामह (वृद्धपरनाना), (११) मातामही (नानी), (१२) प्रमातामही (परनानी), (१३) वृद्धप्रमातामही (वृद्धपरनानी), (१४) स्त्री (पत्नी), (१५) पुत्र (पुत्री), (१६) चाचा, (१७) चाची, (१८) चाचा का पुत्र (चचेरा भाई), (१९) मामा, (२०) मामी, (२१) मामा का पुत्र (ममेरा भाई), (२२) अपना भाई, (२३) भाभी, (२४) भाई का पुत्र (भतीजा), (२५) फूफा, (२६) फूआ, (२७) फूआ का पुत्र, (२८) मौसा (२९) मौसी, (३०) मौसा का पुत्र, (३१) अपनी बहन, (३२) बहनोई, (३३) बहन का पुत्र - भान्जा, (३४) श्वशुर, (३५) सासु, (३६) सद्गुरु, (३७) गुरुपत्नी, (३८) शिष्य, (३९) संरक्षक, (४०) मित्र तथा (४१) भृत्य (सेवक)।

(५३) दसवें दिन मुण्डन एवं क्षौर का विधान

दसवें दिन सभी बन्धुओं को मुण्डन तथा क्षौर कराना चाहिये। क्रियाकर्ता पुत्र का यद्यपि पहले दिन मुण्डन हो जाता है, किंतु उसे दसवें दिन भी मुण्डन कराना चाहिये-

दशमे दिवसे क्षौरं बान्धवानां च मुण्डनम् ।

क्रियाकर्तुः सुतस्यापि पुनर्मुण्डनमाचरेत् ॥ (गरुडपुराण - सारोद्धार ११ । ३८)

(५४) प्रेतश्राद्ध में निषिद्ध कर्म*

सपिण्डीकरण-श्राद्ध के पूर्व प्रेतश्राद्ध में निम्नलिखित पदार्थों का निषेध है, इन्हें नीचे लिखा जा रहा है-

(१) गोत्रं नो वर्धताम्' इत्यादि मन्त्र पढ़कर आशीर्वाद नहीं माँगना चाहिये तथा ब्राह्मण द्वारा आशीर्वाद देने की भी विधि नहीं है।

(२) कुशों को मोटक की तरह द्विगुण नहीं करना चाहिये अर्थात् मोटक का प्रयोग न करके कुशों को समूल सीधा रखने की विधि है।

(३) 'उदीरतामवर', 'पुरुषसूक्त', तथा 'रुचिस्तव' इत्यादि पैतृक मन्त्रों का जप नहीं करना चाहिये ।

(४) 'स्वस्ति नो भवन्तो ब्रुवन्तु' यह स्वस्ति-वचन नहीं बोलना चाहिये।

(५-६) 'अस्मत्पितः अस्मन्मातः' इस तरह सम्बन्ध के साथ पिता आदि शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिये। भाव यह है कि 'अस्मत्पितः' कहने पर सम्बन्ध का बोध होता है, इस सम्बन्ध को न कहे। पिता आदि शब्दों का प्रयोग न करके 'प्रेत' शब्द का प्रयोग करे-

सपिण्डीकरणादर्वाक् प्रेतशब्देन तं वदेत् । (पारस्करगृह्यसूत्र, श्राद्धविधि कं० ५)      

(७) 'शर्मन्, वर्मन् ' आदि शब्दों का प्रयोग न करे अर्थात् सपिण्डीकरण के बाद 'अस्मत्पितः शर्मन्' जो कहा जाता है, वैसा न कहे।

(८) दोनों हथेलियों को स्वस्तिकाकार करके 'पृथिवी ते पात्रम्०' आदि मन्त्रों से जो पात्रालम्भरूप कर्म अर्थात् भोजनपात्र का स्पर्श किया जाता है, उसे न करे।

(९) 'कृष्ण! कव्यं रक्ष' आदि मन्त्रों से जो अवगाह (अंगुष्ठनिवेशन) किया जाता है, उसे न करे।

(१०) 'ये रूपाणि' मन्त्र बोलकर उल्मुक (जलती हुई अग्नि अथवा लकड़ी या अंगार को) न घुमाये ।

(११) 'अपहता असुरा' मन्त्र पढ़कर रेखा न खींचे। (उल्लेखन)

(१२) वेदी पर सकृदाच्छिन्न कुशास्तरण न करके समूल कुशों का आस्तरण करे।

(१३) 'स्वादितं सुस्वादितम्' कहकर तृप्ति विषयक प्रश्न ब्राह्मण से न पूछे।

(१४) 'अग्निदग्धाश्च' आदि मन्त्र से विकिरदान न करे।

(१५) 'शेषमन्नं किं क्रियताम्' इस वाक्य से बचे हुए अन्न के सम्बन्ध में न पूछे।

अर्थात् सपिण्डीकरण के बाद होनेवाले श्राद्धों में श्राद्धकर्ता ब्राह्मणों से पूछता है कि ब्राह्मण भोजन के बाद जो अन्न बच गया है, उसका क्या करें ? –

'शेषमन्नं किं क्रियताम्।' तब ब्राह्मण आदेश देते हैं कि 'इष्टैः सह भुज्यताम्' अपने लोगों के साथ भोजन करो। इस आदेश को पाकर श्राद्धकर्ता अपने लोगों के साथ श्राद्ध का प्रसाद पाता है। किंतु सपिण्डन के पहले होनेवाले एकोद्दिष्ट आदि प्रेत- श्राद्धों में बचे हुए अन्न का खाना निषिद्ध है'नवश्राद्धेषु यच्छिष्टं तन्न भुञ्जीत ।' अतः शेष बचे हुए अन्न को क्या करें? यह प्रश्न निषिद्ध है। इस शिष्ट अन्न को श्राद्ध में भोजन करनेवालों को ही समर्पण कर दे अथवा उनकी आज्ञा से जल आदि में डाल दे। न तो स्वयं भोजन करे और न तो किसी को दे।

(१६) श्राद्ध में 'अभिरम्यताम्' कहकर ब्राह्मणों का विसर्जन किया जाता है, वह इसमें नहीं होगा।

(१७) विसर्जन के बाद ब्राह्मणों की प्रदक्षिणा न करे ।

(१८) ब्राह्मणों के साथ चलकर उनको पहुँचाना भी मना है। सीमा तक उन्हें नहीं पहुँचाना चाहिये। उपर्युक्त कृत्य सपिण्डीकरण-श्राद्ध तक निषिद्ध हैं। इसी तरह-

(१९) प्रणव का उच्चारण न करे।

(२०) 'स्वधा' का उच्चारण न करे-

उदाहरेत् स्वधाकारं न तु वेदाक्षराणि वै ।(ग०पु० २ । १६ । २५)

(२१) विश्वेदेव सम्बन्धी प्रार्थना न करे ।

(२२) अग्नौकरण न करे।

* (क) आशिषो द्विगुणा दर्भा जपाशीः स्वस्तिवाचनम् । 

पितृशब्दः स्वसम्बन्धः शर्मशब्दस्तथैव च ॥

वगाहः पात्रालम्भश्च उल्मुकोल्लेखनादिकम् । 

तृप्तिप्रश्नश्च विकिरः शेषप्रश्नस्तथैव च ॥

प्रदक्षिणा विसर्गश्च सीमान्तगमनं तथा ।

अष्टादशपदार्थांस्तु प्रेतश्राद्धे विवर्जयेत् ॥ (चतुर्वर्गचिन्तामणि तृ०खं०, रत्नावली भाग १, निर्णयसिन्धु परि०३)

(ख) विकिरं नैव दातव्यं न कुर्यादाशिवं जपम् । 

षडञ्जलीन्न कुर्वीत एकोद्दिष्टेषु सर्वदा ॥

आशिषो द्विगुणा दर्भा जपाशी: स्वस्तिवाचनम् । 

पितृशब्दः ससम्बन्धः शर्मशब्दस्तथैव च ॥

पात्रालम्भोऽवगाहश्च उल्मुकोल्लेखनादिकम् । 

तृप्तिप्रश्नश्च विकिरः शेषमन्नं तथैव च ॥

प्रदक्षिणा विसर्गश्च सीमान्तानुव्रजस्तथा ।

अष्टादशपदार्थांश्च प्रेतश्राद्धे विवर्जयेत् ॥ (पा०गृ०सूत्र परि०में सुमन्तुका वचन)

(ग) अष्टादशैव वस्तूनि प्रेतश्राद्धे विवर्जयेत् । 

आशिषो द्विगुणान् दर्भान् प्रणवान् नैकपिण्डताम् ॥

अग्नौकरणमुच्छिष्टं श्राद्धं वै वैश्वदैविकम् । 

विकिरं च स्वधाकारं पितृशब्दं न चोच्चरेत् ॥

अनुशब्दं न कुर्वीत नावाहनमथोल्मुकम् । 

आसीमान्तं न कुर्वीत प्रदक्षिणविसर्जनम् ॥

न कुर्यात् तिलहोमञ्च द्विजः पूर्णाहुतिं तथा ।

न कार्यो वैश्वदेवश्च कर्ता गच्छत्यधोगतिम्॥ (ग०पु०, प्रेत० ३५ । २९-३२)

 (५५) एकादशाह से समन्त्रक श्राद्ध प्रारम्भ

दशगात्र के श्राद्ध अशौचकाल में होने से अमन्त्रक होते हैं और एकादशाह से अशौच की निवृत्ति हो जान के कारण सभी श्राद्ध मन्त्रों के साथ होते हैं-

एकादशाहे प्रेतस्य दद्यात् पिण्डं समन्त्रकम् । (ग०पु०, प्रे० खण्ड २४ । ४० )

( ५६ ) उत्तरीय वस्त्र की अनिवार्यता स्नान, दान, जप, होम, स्वाध्याय, पितृतर्पण - श्राद्ध तथा भोजन आदि में द्विज को अधोवस्त्र तथा उत्तरीय वस्त्र के रूप में गमछा आदि अवश्य धारण करना चाहिये-

स्नानं दानं जपं होमं स्वाध्यायं पितृतर्पणम् ।

नैकवस्त्रो द्विजः कुर्यात् श्राद्धभोजनसत्क्रियाः ॥ (श्राद्धचिन्तामणिमें योगियाज्ञवल्क्यका वचन)

(५७) नारायणबलि की आवश्यकता

शस्त्रघात से जिनकी मृत्यु हुई हो, मरणकाल में अस्पृश्य व्यक्ति से जिनका स्पर्श हो गया हो और जिनकी मरणकालिक शास्त्रोक्तविधि पूर्ण न की जा सकी हो, उन व्यक्तियों का इस प्रकार का मरण 'दुर्मरण' कहा जाता है। नारायणबलि बिना किये जो कुछ जीव के उद्देश्य से श्राद्ध आदि प्रदान किया जायगा, वह सब उसे प्राप्त न होकर अन्तरिक्ष में विनष्ट हो जायगा । इसलिये उसके शुभेच्छु पुत्र-पौत्रों को, सपिण्डों को प्राणी के निमित्त नारायणबलि अवश्य करानी चाहिये-

शस्त्रघातैर्मृता ये चास्पर्शस्पृष्टास्तथैव च ।

तत्तु दुर्मरणं ज्ञेयं यच्च जातं विधिं विना ॥

...नोपतिष्ठति तत्सर्वमन्तरिक्षे विनश्यति ॥

अतस्तस्य सुतैः पौत्रैः सपिण्डैः शुभमिच्छुभिः ।

नारायणबलिः कार्यों लोकगर्हाभिया खग ॥ (गौडीय श्राद्धप्रकाश)

(५८) मध्यमषोडशी की आवश्यकता

कुछ प्रदेशों में मध्यमषोडशी कराने का प्रचलन नहीं है तथा कुछ विशिष्ट विद्वानों (म०म० रुद्रधर एवं म०म० पं० नित्यानन्द पर्वतीय आदि महानुभावों)- ने श्राद्धपद्धति में मध्यमषोडशी का उल्लेख भी नहीं किया है, परंतु गरुडपुराण के निम्न श्लोकों के आधार पर मध्यमषोडशी करना आवश्यक है-

आद्यं शवविशुद्ध्यर्थं कृत्वान्यच्च त्रिषोडशम् । 

पितृपङ्गिविशुद्धयर्थं शतार्द्धेन तु योजयेत् ॥

शतार्द्धेन विहीनो यो मिलितः पङ्गिभान हि । 

चत्वारिंशत् तथैवाष्ट श्राद्धं प्रेतत्वनाशनम् ॥

सकृदूनशतार्द्धेन सम्भवेत् पङ्क्तिसन्निधः ।

मेलनीयः शतार्द्धेन सन्धिः श्राद्धेन तत्त्वतः ॥ (ग०पु०, प्रेतखण्ड ३५ । ३८-४० )

शव की विशुद्धि के लिये आद्य (महैकोद्दिष्ट ) - श्राद्ध तथा प्रेतत्व की निवृत्ति के लिये षोडशत्रय (मलिनषोडशी, मध्यमषोडशी तथा उत्तमषोडशी के ४८) श्राद्ध करने चाहिये। षोडशत्रय श्राद्ध से जीव के प्रेतत्व का नाश हो जाता है। इस प्रकार शव विशुद्धि तथा प्रेतत्वनिवृत्ति हो जाने के कारण ४९ श्राद्धों से पितरों की पंक्ति का सामीप्य प्राप्त हो जाता है। अतः सपिण्डीकरण- श्राद्ध में पचासवें प्रेतश्राद्ध का मेलन करने से पितृपंक्ति प्राप्त हो जाती है। उपर्युक्त वचनोंके आधारपर मध्यमषोडशी करना भी अनि है।

(५९) मध्यमषोडशी के षोडश पिण्डदान का स्वरूप

मध्यमषोडशी में प्रेत एवं १५ देवताओं को लेकर षोडश पिण्डदान किया जाता है, जिनका क्रम इस प्रकार है-

१.

पहला पिण्ड

(विष्णुके लिये)

२.

दूसरा पिण्ड

(शिवके लिये)

३.

तीसरा पिण्ड

(सपरिवार यमराजके लिये)

४.

चौथा पिण्ड

(सोमराजके लिये)

५.

पाँचवाँ पिण्ड

(हव्यवाहके लिये)

६.

छठा पिण्ड

(कव्यवाहके लिये)

७.

सातवाँ पिण्ड

(कालके लिये)

८.

आठवाँ पिण्ड

(रुद्रके लिये)

९.

नवाँ पिण्ड

(पुरुषके लिये)

१०.

दसवाँ पिण्ड

(प्रेतके लिये)

११.

ग्यारहवाँ पिण्ड

(विष्णुके लिये)

१२.

बारहवाँ पिण्ड

(ब्रह्माके लिये)

१३.

तेरहवाँ पिण्ड 

(विष्णुके लिये)

१४.

चौदहवाँ पिण्ड 

(शिवके लिये)

१५.

पंद्रहवाँ पिण्ड

( यमके लिये)

१६.

सोलहवाँ पिण्ड

(तत्पुरुषके लिये)

प्रथमं विष्णवे दद्याद् द्वितीयं श्रीशिवाय च । 

याम्याय परिवाराय तृतीयं पिण्डमुत्सृजेत् ॥

चतुर्थं सोमराजाय हव्यवाहाय पञ्चमम् । 

कव्यवाहाय षष्ठं च दद्यात् कालाय सप्तमम् ॥

रुद्राय चाऽष्टमं दद्यान्नवमं पुरुषाय च । 

प्रेताय दशमं चैवैकादशं विष्णवे नमः ॥

द्वादशं ब्रह्मणे दद्याद्विष्णवे च त्रयोदशम् । 

चतुर्दशं शिवायैव यमाय दशपञ्चकम् ॥

दद्यात्तत्पुरुषायैव पिण्डं षोडशकं खग । 

मध्यं षोडशकं प्राहुरेतत्तत्त्वविदो जनाः ॥(गरुडपुराण)

(६०) श्राद्ध में पितृगायत्री का पाठ

जिस प्रकार सन्ध्योपासना में ब्रह्मगायत्री का त्रिकाल जप आवश्यक है, उसी प्रकार श्राद्ध में पितरों के गायत्रीमन्त्र का जप आवश्यक है। श्राद्ध के प्रारम्भ, मध्य तथा अन्त में निम्न पितृगायत्री मन्त्र का जप करना चाहिये-

ॐ देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च ।

नमः स्वाहायै स्वधायै नित्यमेव नमो नमः ॥

आद्यावसाने श्राद्धस्य त्रिरावृत्त्या जपेत् सदा ।

पिण्डनिर्वपणे वाऽपि जपेदेवं समाहितः ॥(ब्रह्मपु० २२० । १४३ - १४४)     

( ६१ ) नीवीबन्धन

श्राद्ध में रक्षा के लिये किसी पत्ते में तिल तथा कुशत्रय से नीवीबन्धन किया जाता है । पितृकार्य में दक्षिण कटिभाग में तथा देवकार्य में वाम कटिभाग में नीवीबन्धन होता है-

पितॄणां दक्षिणे पार्श्वे विपरीता तु दैविके ।

दक्षिणे कटिदेशे तु कुशत्रयतिलैः सह ॥

तर्जयन्तीह दैत्यानां यथा नृणामयस्तथा ।

(६२) पितृकार्य में पातितवामजानु पितृकार्य में बाँया घुटना तथा देवकार्य में दाहिना घुटना जमीन पर लगाना चाहिये-

दक्षिणं पातयेज्जानुं देवान् परिचरन् सदा ।

पातयेदितरं जानुं पितॄन् परिचरन् सदा ॥

(६३) श्राद्ध में एकतन्त्र की निवृत्ति कहाँ-कहाँ

अर्घदान, अक्षय्योदकदान, पिण्डदान, अवनेजनदान ( तथा प्रत्यवनेजनदान) और स्वधावाचन में एकतन्त्र की विधि नहीं है-

अर्धेऽक्षय्योदके चैव पिण्डदानेऽवनेजने ।

तन्त्रस्य तु निवृत्तिः स्यात् स्वधावाचन एव च ॥ (कात्यायनस्मृति २४ । १५); (वीरमित्रोदय-श्राद्धप्रकाश)

( ६४) मण्डलकरण

देवताओं के लिये चतुष्कोण और प्रेत तथा पितरों के लिये वृत्ताकार मण्डल करना चाहिये-

(क)  'दैवे चतुरस्त्रं पित्र्ये वर्तुलं मण्डलम्' (बह्वृचपरिशिष्ट )

(ख) देवताओं के लिये दक्षिणावर्त तथा प्रेत एवं पितरों के लिये वामावर्त मण्डल बनाने की विधि है- 

प्रदक्षिणं तु देवानां पितॄणामप्रदक्षिणम्। (वीरमित्रोदय - श्राद्धप्रकाशमें कात्यायनका वचन )

(६५) देवपात्रालम्भन तथा पितृपात्रालम्भन

देवताओं का पात्रालम्भन उत्तान बायें हाथ पर उत्तान दाहिना हाथ स्वस्तिकाकार रखकर करना चाहिये तथा पितरों का पात्रालम्भन अनुत्तान दाहिने हाथ पर अनुत्तान बायें हाथ को स्वस्तिकाकार रखकर करना चाहिये-

(क) पित्र्येऽनुत्तानपाणिभ्यामुत्तानाभ्यां च दैवते । (यम)

एवमेव हेमाद्रिमदनरत्नप्रभृतयः ।

(ख) दक्षिणं तु करं कृत्वा वामोपरि निधाय च ।

देवपात्रमथालभ्य पृथ्वी ते पात्रमुच्चरेत् ॥

दक्षिणोपरि वामञ्च पित्र्यपात्रस्य लम्भनम् ।

पात्रालम्भनं कुर्याद् दत्त्वा चान्नं यथाविधि ॥ (श्राद्धकाशिकामें पद्मपुराणका वचन)

( ६६ ) अंगुष्ठनिवेशन

उत्तान हाथ के अँगूठे से अन्न स्पर्श करने पर वह श्राद्ध आसुर श्राद्ध हो जाता है और पितरों को उपलब्ध नहीं होता। इसलिये अनुत्तान हाथ के अँगूठे से अन्न आदि का स्पर्श करना चाहिये-

उत्तानेन तु हस्तेन कुर्यादन्नावगाहनम् । 

आसुरं तद्भवेच्छ्राद्धं पितॄणां नोपतिष्ठते ॥

जो अज्ञानवश उत्तान हाथ से अंगुष्ठ निवेशन करता है तो वह अन्न राक्षसों को प्राप्त होता है

उत्तानेन तु हस्तेन द्विजाङ्गुष्ठनिवेशनम् ।

यः करोति नरो मोहात् तद्वै रक्षांसि गच्छति ॥ (धौम्य)

(६७) भोजनपात्रों से तिलादि का अपसारण

पितरों के भोजनपात्रों से परोसने के पूर्व तिल आदि को हटा लेना चाहिये। ऐसा न करने से अर्थात् अन्नपात्रों में तिल देखकर पितर निराश होकर वापस लौट जाते हैं-

अन्नपात्रे तिलान् दृष्ट्वा निराशाः पितरो गताः ।

(६८) विकिरदान कहाँ करे ?

आभ्युदयिक (वृद्धि ) – श्राद्ध में पूर्व में, पार्वणश्राद्ध में नैर्ऋत्यकोण में, सांवत्सरिक श्राद्ध में अग्निकोण में तथा प्रेतश्राद्ध में दक्षिण दिशा में विकिरदान करना चाहिये-

आभ्युदयिके तु पूर्वे नैर्ऋत्ये पार्वणे तथा ।

अग्निकोणे क्षयाहे स्यात् प्रेतश्राद्धे च दक्षिणे ॥

( ६९ ) दान में दी जानेवाली शय्या की दिशा

देवशय्या का सिरहाना पूर्व, यज्ञशय्या का दक्षिण, तीर्थशय्या का पश्चिम और प्रेतशय्या का उत्तर की ओर होना चाहिये-

देवशय्याशिरः प्राच्यां मखशय्या तु दक्षिणे ।

पश्चिमे तीर्थशय्यायाः प्रेतशय्याशिरोत्तरे ॥(दानसंग्रह)

( ७० ) शय्यादान का स्वरूप

मृत प्राणी के निमित्त एकादशाह तथा द्वादशाह - दोनों दिन शय्या देने का विधान है। एकादशाह के दिन उत्तर की ओर सिरहाना कर शय्या को बिछाये । शय्या के नीचे ईशानकोण में सामर्थ्यानुसार धातु या मिट्टी से बना घृतपूर्णपात्र, अग्निकोण में कुमकुमपात्र, नैर्ऋत्यकोण में गेहूँ से भरा पात्र तथा वायव्यकोण में जलपात्र रखे। सिरहाने की ओर घृतपूर्ण कलश रखे। यह निद्रा कलश कहलाता है। शय्या पर गद्दा आदि बिछाकर श्वेत चादर से सुसज्जित कर दे। कोमल तकिया लगा दे। मृत व्यक्ति के द्वारा उपभोग में लायी गयी वस्तुएँ - वस्त्र, वाहन, पात्र आदि सामग्रियों को शय्या के पास इकट्ठा करे। शय्या के नीचे सप्तधान्य भी रख दे। मृत व्यक्ति को जो वस्तुएँ प्रिय थीं, निषिद्धेतर उन वस्तुओं को भी शय्या के पास रख दे। शय्या के ऊपर फल, फूल, माला, पान, कुमकुम, कर्पूर, अगरु, चन्दन, धोती, गमछा, मच्छरदानी, श्रृंगारपात्र, आभूषण, पुस्तक, जपमाला, स्वर्णमयी प्रेतप्रतिमा (कांचनपुरुष) और भोजनपात्र आदि रख दे- रम्यां हेमपट्टैरलङ्कृताम् ॥

(क) तस्माच्छय्यां समासाद्य सारदारुमयीं शुभाम् । 

दन्तपत्रचितां रम्यां हेमपट्टैरलङ्कृताम्॥

रक्ततूलिप्रतिच्छन्नां शुभशीर्षोपधानिकाम् । 

प्रच्छादनपटीयुक्तां गन्धधूपाधिवासिताम् ॥

तस्यां संस्थाप्य हैमञ्च हरिं लक्ष्म्या समन्वितम् । 

घृतपूर्णञ्च कलशं तत्रैव परिकल्पयेत् ॥

ताम्बूलं कुङ्कुमाक्षोदं कर्पूरागुरुचन्दनम् । 

दीपकोपानहौ छत्रं चामरासनभाजनम् ॥

पार्श्वेषु स्थापयेद् भक्त्या सप्तधान्यानि चैव हि। 

शयनस्थञ्च भवति यच्च स्यादुपकारकम् ॥

भृङ्गारकादर्शपञ्चवर्णवितानशोभितम् । 

शय्यामेवंविधां कृत्वा ब्राह्मणाय निवेदयेत् ॥ (गरुडपुराण अ० २४।५१ ५६ )

(ख) प्रेतोपभुक्तं यत्किञ्चिद् वस्त्रवाहनभाजनम् ।

यद् यदिष्टं च तस्यासीत् तत् सर्वं प्रतिपादयेत् ॥ (धर्मसि० तृ० प०)

(ग) प्रेतञ्च पुरुषं हैमं तस्यां संस्थापयेत् तदा ।

पूजयित्वा प्रदातव्या मृतशय्या यथोदिता ॥(धर्मसितृ० प०ठ०)

(घ) उच्छीर्षके घृतभृतं कलशं परिकल्पयेत्। (धर्मसिन्धु)

(ङ) हंसतूलिप्रतिच्छन्नां शुभ्रगण्डोपधानिकाम् ।

प्रच्छादनपटीयुक्तां गन्धधूपादिवासिताम् ॥

एकादशाहे शय्याया दाने एष विधिः स्मृतः । (धर्मसिन्धु )

एकादशाह के दिन देनेवाली शय्या प्रेतशय्या कही जाती है तथा द्वादशाह को दी जानेवाली शय्या पितृयज्ञ के निमित्त होती है, वह भी प्रेतशय्या की भाँति सभी उपकरणों से सम्पन्न रहती है, किंतु उसमें प्रेतोपभुक्त वस्तुएँ नहीं रहतीं और कांचनपुरुष के स्थान पर स्वर्ण की लक्ष्मी-नारायण की प्रतिमा स्थापित की जाती है। यह मांगलिक शय्यारूप है। इसका सिरहाना दक्षिण की ओर होता है।

( ७१ ) दान लेने के बाद 'स्वस्ति' का उच्चारण

वायु की पत्नी स्वस्तिदेवी सम्पूर्ण विश्व में पूजित हैं । प्रतिग्रहीता ब्राह्मण के द्वारा दान लेने के अनन्तर 'स्वस्ति' शब्द के न बोलने से लेना-देना सब विफल हो जाता है-

स्वस्तिदेवी वायुपत्नी प्रतिविश्वेषु पूजिता ॥

आदानञ्च प्रदानञ्च निष्फलं च यया विना । (श्रीमद्देवीभा० ९ । १ । १०० - १०१ )

( ७२ ) शय्या की प्रदक्षिणा

शय्यापूजन के अनन्तर 'प्रमाण्यै देव्यै नमः' कहकर हाथ जोड़कर शय्या की प्रदक्षिणा करनी चाहिये-

शय्यां तु पूजयित्वैवं तद्भक्तो मत्परायणः ।

कृताञ्जलिपुटो भूत्वा कुर्याच्छय्याप्रदक्षिणाम् ॥

नमः प्रमाण्यै देव्यै इति प्रणम्य चतुर्दिशि ।

(७३) शय्यादान का प्रयोजन और उसका फल

शय्यादान से मृत व्यक्ति को तो प्रलयपर्यन्त सुख मिलता ही है, दान देनेवाले का भी अभ्युदय होता है। मृत व्यक्ति को न तो यमदूतों की प्रताड़ना सहनी पड़ती है और न शीत- घाम आदि द्वन्द्व ही सहने पड़ते हैं। बस,सुख ही सुख प्राप्त होता है। इसी तरह दान देनेवाला व्यक्ति भी लाभ ही लाभ प्राप्त करता है-

स्वर्गे पुरन्दरपुरे सूर्यपुत्राल तथा । 

सुखं स्वपित्ययं जन्तुः शय्यादानप्रभावतः ॥

ताडयन्ति न तं याम्याः पुरुषा भीषणाननाः । 

न यमेन न शीताद्यैर्बाध्यते स नरः क्वचित् ॥

अपि पापसमायुक्तः स्वर्गलोकं स गच्छति । 

आभूतसम्प्लवं यावत् तिष्ठत्यन्तकवर्जितः ॥(भविष्य०)

जो ब्राह्मण को शय्यादान करता है अथवा उसके दान के महनीय फल का श्रवण करता है, वह स्वर्गलोक में दस हजार वर्ष तक प्रतिष्ठित होता है-

प्रदद्याद् यस्तु विप्राय शृणुयाद्वापि यत् फलम् ।

पुरुषः सुभगः श्रीमान् स्त्रीसहस्त्रैश्च संवृतः । 

दशवर्षसहस्त्राणि स्वर्गलोके महीयते ॥

(७४) वृषोत्सर्ग की महिमा

वृषोत्सर्ग 'काम्य-कर्म के साथ-साथ नित्यकर्म भी है। एकादशाह को होनेवाला वृषोत्सर्ग नित्यकर्म है। शास्त्र ने बताया है कि जो पुत्र पिता के लिये वृषोत्सर्ग नहीं करता, वह पुत्र, पुत्र नहीं अपितु उच्चार (मूत्र)- मात्र है।

इसका कारण यह है कि वृषोत्सर्ग के बिना मृत व्यक्ति को प्रेतत्व से छुटकारा नहीं मिलता, भले ही उसके लिये सैकड़ों श्राद्ध क्यों न कर लिये जायँ। इस वचन से यह नित्यविधि अर्थात् अवश्यकरणीय प्रतीत होती है। काम्य इसलिये है कि वृषोत्सर्ग करनेवाले को अश्वमेधयज्ञ करने का फल मिलता है। साथ-ही-साथ इसकी दस पीढ़ी पहले की और दस पीढ़ी आगे की फलान्वित और पवित्र बन जाती है। जिसके उद्देश्य से यह कृत्य किया जाता है, वह भी परमगति को प्राप्त करता है। नित्य वृषोत्सर्ग को स्वयं करना पड़ता है और काम्य वृषोत्सर्ग को आचार्यवरण पूर्वक भी कराया जा सकता है-

(क) स च नित्यः काम्यश्च । (निर्णयसिन्धु)

(ख) न करोति वृषोत्सर्गं सुतीर्थे वा जलाञ्जलीन् । 

न ददाति सुतो यस्तु पितुरुच्चार एव सः ॥(कूर्मपुराण)

(ग) एकादशाहे प्रेतस्य यस्य नोत्सृज्यते वृषः । 

प्रेतत्वं सुस्थिरं तस्य दत्तैः श्राद्धशतैरपि ॥ (गरुडपुराण, प्रेतखण्ड १३/८)

(घ) एवं कृते वृषोत्सर्गे फलं वाजिमखोचितम् । 

यमुद्दिश्योत्सृजेन्नीलं स लभेत परां गतिम् ॥

(ङ) यजेद् नीलं वा वृषमुत्सृजेत् ॥(ब्रह्मपुराण)

(च) अग्निहोत्रादिभिर्यज्ञैर्दानैश्च विविधैरपि । 

न तां गतिमवाप्नोति वृषोत्सर्गेण या भवेत् ॥

सर्वेषामेव यज्ञानां वृषयज्ञस्तथोत्तमः । 

तस्मात् सर्वप्रयत्नेन वृषयज्ञं समाचरेत् ॥(ग०पु०, प्रेतखण्ड ४ । १४-१५ )

(छ) अत्र स्वयमेव सर्वं कार्यम्

न तु काम्यवृषोत्सर्गवदाचार्यवरणम् । (धर्मसिन्धु तृ० प० उत्त०)

(७५) वृष का विकल्प

पितरों के निमित्त किये जानेवाले वृषोत्सर्ग कर्म के लिये यदि साक्षात् वृष उपलब्ध न हो तो शास्त्र ने बताया है कि मिट्टी, कुश अथवा जौ के आटे से वृषाकृति बनाकर विधिपूर्वक वृषोत्सर्ग करना चाहिये, क्रिया का लोप न करे-

(क) धर्मसिन्धु में भी कहा गया है-

वृषाऽभावे मृद्भिः पिष्टैर्वा वृषभं कृत्वा होमादिविधिना वृषोत्सर्गः ।

(ख) एकादशेऽह्निसम्प्राप्ते वृषाभावो भवेद् यदि । 

दर्भैः पिष्टैश्च सम्पाद्य तं वृषं मोचयेद् बुधः ॥

(ग) वृषोत्सर्जनवेलायां वृषाऽभावः कथञ्चन । 

मृत्तिकाभिश्च दर्भैर्वा वृषं कृत्वा विमोचयेत् ॥

७६ ) उत्सर्ग किये जानेवाले वृष एवं वत्सतरी की अवस्था

यथोक्त लक्षणों से युक्त वृष यदि प्राप्त न हो तो जो प्राप्त हो उसी का उत्सर्ग कर देना चाहिये। वृष एक वर्ष का हो अथवा दो वर्ष का हो। बछिया एक वर्ष से अधिक की हो, वे संख्या में चार हों अथवा एक ही हों, उनका उत्सर्ग किया जा सकता है-

(क) यथोक्तालाभे यथालाभो द्विवर्ष एकवर्षो वा वृषः

वर्षांधिकाश्चतस्त्र एका वा वत्सतरी स्यात् ।(धर्मसिन्धु तृ० प० उत्तरा०)

(ख) त्रिहायनीभिर्धर्म्याभिः सुरूपाभिः सुशोभितः । (ब्रह्मपुराण)

(७७) नील वृषभ का सामान्य लक्षण

(क) वृषभों में नील वृषभ का अधिक महत्त्व है। नील वृषभ पारिभाषिक शब्द है। जिसका रंग लाल हो, मुख और पूँछ पीत-धवल हो तथा खुर एवं सींग सफेद हो, उसे नील वृषभ कहते हैं।

लोहितो यस्तु वर्णेन मुखपुच्छे च पाण्डुरः । 

श्वेतः खुरविषाणाभ्यां स नीलो वृष उच्यते ॥

(ख) नील वृषभ उसे भी कहते हैं, जिसका सारा अंग तो श्याम हो, किंतु मुख आदि श्वेत हो

यद्वा सर्वश्यामस्य मुखादि श्वेतत्वे नीलवृषत्वम् । (धर्मसिन्धु तृ० प० उत्तरा० )

( ७८ ) पति-पुत्रवती नारी के निमित्त वृषोत्सर्ग न करे

पति तथा पुत्रवाली सौभाग्यवती स्त्री पति से पूर्व मृत्यु को प्राप्त हो जाय तो उसके निमित्त वृषोत्सर्ग न करे, बल्कि दूध देनेवाली गाय का दान करना चाहिये-

पतिपुत्रवती नारी भर्तुरग्रे मृता यदि । 

वृषोत्सर्गं न कुर्वीत गां तु दद्यात् पयस्विनीम् ॥ (संग्रह)

७९ ) वृष का उत्सर्ग कहाँ करे ?

वृषोत्सर्गवाले वृष को किसी अरण्य, गोशाला, तीर्थ, एकान्तस्थान अथवा निर्जन वन में छोड़ना चाहिये-

(क) स त्वरण्ये भवेत् तीर्थे उत्सर्गो गोकुलेऽपि वा । (चतुर्वर्गचिन्तामणि)

(ख) विविक्तेष्वेव कुर्वन्ति । (देवल)

(ग) अयं गृहे न कार्यः । (धर्मसिन्धु तृ० प० उत्त० )

(घ) न गृहे मोचयेद् विद्वान् कामयन् पुष्कलं फलम् ॥ (ब्रह्मपुराण)

(ङ) प्रागुदक्प्रवणे देशे मनोज्ञे निर्जने वने । (ब्रह्मपुराण)

(च) वृषोत्सर्गः कार्य इति शेषः । (हेमाद्रि, श्राद्धकल्प अ० २०)

(८०) वृषोत्सर्ग के वृष का अंकन गरुडपुराण में कहा गया है – 'त्रिशूलं दक्षिणे पार्श्वे वामे चक्रं तु विन्यसेत्।' किंतु शास्त्रों में भिन्न-भिन्न मत पाये जाते हैं-

(क) 'वामे त्रिशूले दक्षिणे चक्रम्।' (विष्णुधर्मोत्तरपुराण)

(ख) ततोऽरुणेन गन्धेन मानस्तोक इतीरयन् । 

वृषस्य दक्षिणे पार्श्वे त्रिशूलाङ्कं समुल्लिखेत् ॥

वृषा ह्यसीति सव्येऽस्य चक्राङ्कमपि दर्शयेत् ॥ ( शु०तत्त्व, छन्दो० परिशिष्ट वचन )

(ग) बवृचपद्धति के अनुसार दोनों अंकन दोनों पुट्ठों पर ही होता है। (अन्त्यकर्मदीपक)

(घ) तप्तेन धातुना पश्चादयस्कारोऽङ्कयेद् वृषम् । 

सव्ये स्फिचि लिखेच्चक्रं शूलं बाहौ तु दक्षिणे । 

कुङ्कुमेनाङ्कमित्यादौ ब्राह्मणः सुसमाहितः ॥(सौर पु० )

ये भिन्नताएँ शाखा के अनुसार हैं। अपनी-अपनी शाखा और देशाचार के अनुसार व्यवस्था कर लेनी चाहिये ।

(ङ) यदि पिष्टमय वृषभ हो तो वहाँ मात्र चन्दन से त्रिशूल एवं चक्र अंकित कर देना चाहिये। दागने की आवश्यकता नहीं है।

( ८१ ) नवग्रहों की समिधाएँ

हवनकर्म में नवग्रहों के निमित्त भिन्न-भिन्न समिधाओं से हवन-कार्य किया जाता है।

मदार, पलाश, खैर, चिचिड़ा, पीपल, गूलर, शमी, दूब और कुश - ये क्रमश: सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु तथा केतु ग्रहों की समिधाएँ हैं

अर्कः पलाशखदिरावपामार्गोऽथ पिप्पलः ।

औदुम्बरः शमी दूर्वा कुशाश्च समिधः क्रमात् ॥ (मत्स्यपु० ९३।२७)

( ८२) कुशब्रह्मा

हवनकार्य में ब्रह्मा के निमित्त पचास कुशों से ब्रह्मा भी बनाये। इसे कुशब्रह्मा कहते हैं। पचीस कुशों का विष्टर बनता है-

पञ्चाशत् कुशैः ब्रह्मा तदर्थेन तु विष्टरः ।

ऊर्ध्वकेशो भवेद् ब्रह्मा लम्बकेशश्च विष्टरः ॥

दक्षिणावर्तको ब्रह्मा वामावर्तस्तु विष्टरः ॥

( ८३ ) आद्य (महैकोद्दिष्ट ) – श्राद्ध की आवश्यकता

कुछ लोग उत्तमषोडशी के अन्तर्गत किये जानेवाले प्रथम मासिक श्राद्ध को ही आद्यश्राद्ध मान लेते हैं तथा कुछ पद्धतिकारों ने 'षोडशश्राद्धान्तर्गतमाद्यश्राद्धं करिष्ये' और 'षोडशश्राद्धान्तर्गतसपिण्डीकरणश्राद्धं करिष्ये'ऐसे संकल्पवाक्य में योजना करके महैकोद्दिष्टश्राद्ध (आद्यश्राद्ध) तथा सपिण्डीकरण के प्रेतश्राद्ध को उत्तमषोडशी के अन्तर्गत बताया है, इससे भ्रम उत्पन्न होता है। परंतु गरुडपुराण के निम्न वचनों-

आद्यं शवविशुद्ध्यर्थं कृत्वान्यच्च त्रिषोडशम् । 

पितृपतिविशुद्धयर्थं शतार्द्धेन तु योजयेत् ॥

शतार्द्धेन विहीनो यो मिलितः पङ्गिभान हि । 

चत्वारिंशत् तथैवाष्ट श्राद्धं प्रेतत्वनाशनम् ॥

सकृदूनशतार्द्धेन सम्भवेत् पङ्क्तिसन्निधः । 

मेलनीयः शतार्द्धेन सन्धिः श्राद्धेन तत्त्वतः ॥ (ग० पु०, प्रेतखण्ड ३५ । ३८ - ४० ) 

के अनुसार सपिण्डीकरण श्राद्धान्तर्गत किये जानेवाले प्रेतश्राद्ध के पूर्व उनचास श्राद्धों (मलिनषोडशी के सोलह+मध्यमषोडशी के सोलह+महैकोद्दिष्ट (आद्य) – श्राद्ध का एक+उत्तमषोडशी के सोलह - उनचास श्राद्ध)- के पिण्डदानों की संख्या पूरी होनी चाहिये। जिसकी पूर्ति के लिये उत्तमषोडशी के अतिरिक्त आद्य(महैकोद्दिष्ट ) – श्राद्ध का पिण्डदान करना आवश्यक है। पचासवाँ श्राद्ध सपिण्डीकरण का प्रेतश्राद्ध है।

शव की विशुद्धि के लिये आद्य (महैकोद्दिष्ट) - श्राद्ध तथा प्रेतत्व की निवृत्ति के लिये षोडशत्रय (मलिनषोडशी, मध्यमषोडशी तथा उत्तमषोडशी ) - श्राद्ध करने चाहिये। षोडशत्रय श्राद्ध से जीव के प्रेतत्व का नाश हो जाता है। इस प्रकार शव विशुद्धि तथा प्रेतत्वनिवृत्ति हो जाने के कारण ४९ श्राद्धों से पितरों की पंक्ति का सामीप्य प्राप्त हो जाता है। अतः सपिण्डीकरणश्राद्ध के पचासवें प्रेतश्राद्ध का मेलन करने से पितृपंक्ति की प्राप्ति हो जाती है।

( ८४ ) ऊह-विचार

श्राद्ध की कई प्रयोग पद्धतियों में 'अत्र पितरो मादयध्वम्०', 'नमो वः पितरः०', 'अघोराः पितरः ' 'स्वधास्थ तर्पयत मे पितॄन्' आदि वैदिक मन्त्रों में ऊह करके लिंग-वचन तथा सम्बन्ध आदि का परिवर्तन कर दिया गया है अर्थात् एकोद्दिष्ट श्राद्धों में 'पितरः ०' इत्यादि बहुवचनान्त पदों में ऊह करके उन्हें एकवचनान्त कर दिया गया है। वैदिक मन्त्रों में आनुपूर्वी नियत होने के कारण ऊह करने से मन्त्रत्व नहीं रह जायगा और उन मन्त्रों की कर्मांगता भी नहीं हो सकेगी। इसी आशय से पातंजलमहाभाष्य में 'वैदिकाः खल्वपि ' - इसका व्याख्यान करते हुए आचार्य कैयट ने 'वेदे त्वानुपूर्वीनियमाद्वाक्यान्युदाहरति' - ऐसा लिखा है। ऊह न करने के विषय में निम्नलिखित प्रमाण ध्यातव्य हैं-

(क) अनाम्नातेष्वमन्त्रत्वमाम्नातेषु हि विभागः ॥ 

याज्ञिकप्रसिद्धिरूपस्य मन्त्रलक्षणस्यैतेष्वभावात् ।

न ह्यध्येतार ऊहादीन् मन्त्रकाण्डेऽधीयते । 

तस्मात् नास्ति मन्त्रत्वम् ।' (जैमिनीय न्यायमाला अ० २, पाद १, अधि० ९, सूत्र ३४ तथा व्याख्या)

(ख) ''एवञ्च पूर्वोक्ते मन्त्रजाते पितृशब्दस्य सपिण्डीकरणान्तश्राद्धजन्यपितृत्वपरत्वात्तस्य च मातामहादिष्वपि सद्भावान्नोहः । 

तथा पूयति वा एतद्वचोऽक्षरं यदेनदूहति तस्मादृचं नोहेत्' इति प्रतिषेधादपि नोहः । 

तथा अनु मन्त्रेषु एतद्वः पितरो वासोऽमीमदन्त पितरः' इत्यादिष्वपि पूर्वोक्तन्यायान्नोहः ।' (भगवन्तभास्कर, श्राद्धमयूख)

(८५) अर्घपात्रों की स्थापना का प्रकार

विद्वान्‌ को चाहिये कि अर्धप्रदान के बाद एकोद्दिष्टश्राद्ध में पात्र को उत्तान (सीधा) रखे और पार्वणश्राद्ध में उलटा (अधोमुख) रखे-

उत्तानं स्थापयेत् पात्रमेकोद्दिष्टे सदा बुधः । 

न्युब्जन्तु पार्वणे कुर्यात् ॥ (वीरमित्रोदय)

( ८६ ) कौन श्राद्ध किस समय करे

पूर्वाह्न में अन्वष्टका (मातृ) - श्राद्ध, अपराह्न में पितृश्राद्ध, मध्याह्न में एकोद्दिष्टश्राद्ध तथा प्रातःकाल में आभ्युदयिक (वृद्धि)-श्राद्ध करना चाहिये। एकोद्दिष्टश्राद्ध के लिये मध्याह्नव्यापिनी तिथि प्रशस्त है। उसमें ह्रास, वृद्धि का विचार नहीं करना चाहिये। सामान्यरूप से व्रत के पारण में तथा मृत्यु में तात्कालिक तिथि ग्राह्य है। पूर्वाह्नव्यापिनी तिथि देवकार्य के लिये फलप्रद होती है तथा अपराह्नव्यापिनी तिथि पितृकार्य के लिये प्रशस्त है-

(क) पूर्वाह्णे मातृकं श्राद्धमपराह्ने तु पैतृकम् । 

एकोद्दिष्टं तु मध्याहने प्रातर्वृद्धिनिमित्तकम् ॥(ब्रह्मपुराण)

(ख) मध्याह्नव्यापिनी या स्यात् सैकोद्दिष्टे तिथिर्भवेत् । 

तस्यां पितृभ्यो दातव्यं ह्रासवृद्धी न कारणम् ॥ (श्राद्धचिन्तामणिमें वृद्धगौतमका वचन)

(ग) पारणे मरणे नृणां तिथिस्तात्कालिकी स्मृता । 

पूर्वाह्णिकास्तु तिथयो देवकार्ये फलप्रदाः ।

अपराह्निकास्तथा ज्ञेयाः पित्रर्थे तु शुभावहाः ॥ (श्राद्धचिन्तामणिमें नारदीयपुराणका वचन )

(८७) एकोद्दिष्टके अनन्तर ही पार्वणश्राद्धकी करणीयता एकोद्दिष्ट श्राद्ध न करके जो पहले पार्वणश्राद्ध करता है, उसका वह श्राद्ध निष्फल होता है तथा कर्ता मातृपितृघातक कहलाता है-

एकोद्दिष्टं परित्यज्य पार्वणं कुरुते यदि । 

अकृतं तद्विजानीयात् स मातृपितृघातकः ॥ (श्राद्धचिन्तामणिमें यमका वचन)

( ८८ ) ब्राह्मण-दम्पति को भोजन

पति के रहते मृत नारी अथवा पति के साथ दाह से मृत नारी के श्राद्ध में ब्राह्मण के साथ सुवासिनी ब्राह्मणी को भी भोजन कराना चाहिये-

भर्तुरग्रे मृता नारी सहदाहेन वा मृता ।

तस्याः स्थाने नियुञ्जीत विप्रैः सह सुवासिनीम् ॥(मार्कण्डेय)

( ८९ ) विभक्ति निर्णय

अक्षय्योदकदान तथा आसनदान में षष्ठी, आवाहन में द्वितीया, अन्नदान में चतुर्थी विभक्ति तथा शेष स्थलों पर सम्बोधन बताया गया है-

अक्षय्यासनयोः षष्ठी द्वितीयावाहने तथा ।

अन्नदाने चतुर्थी स्याच्छेषाः सम्बुद्धयः स्मृताः ॥(निर्णयसिन्धु)

( ९० ) पवित्रीधारण की अनिवार्यता

जपे होमे तथा दाने स्वाध्याये पितृकर्मणि ।

अशून्यं तु करं कुर्यात् सुवर्णरजतैः कुशैः ॥(श्राद्धचिन्तामणिमें कात्यायनका वचन)

अर्थात् जप, होम, दान, स्वाध्याय तथा पितृकार्य में कुश की पवित्री अथवा सुवर्ण, रजत आदि धारण करना चाहिये। हाथ शून्य न रहे।

(९१) विभिन्न श्राद्धों में विश्वेदेव-निरूपण

इष्टिश्राद्ध में क्रतु तथा दक्ष, नान्दीमुखश्राद्ध में सत्य तथा वसु, नैमित्तिकश्राद्ध में काम तथा काल, काम्यश्राद्ध में धुरि तथा लोचन, पार्वणश्राद्ध में पुरूरवा तथा आर्द्रव-इन नामों से विश्वेदेव कहे गये हैं-

इष्टिश्राद्धे क्रतुर्दक्षः सत्यो नान्दीमुखे वसुः ।

नैमित्तिके कामकालौ काम्ये च धुरिलोचनौ ।

पुरूरवार्द्रवौ चैव पार्वणे समुदाहृतौ ॥(वीरमित्रोदय- श्राद्धप्रकाश)

( ९२ ) सपिण्डीकरण श्राद्ध में पिता, पितामह तथा प्रपितामह के अर्घों का संयोजन

प्रेत के प्रपितामह का अर्घपात्र हाथ में उठाकर उसमें स्थित तिल, पुष्प, पवित्रक, जल आदि प्रेतपितामह अर्घपात्र में छोड़ दे और प्रेतपितामह के अर्घपात्रस्थ जलादि को प्रेतपिता के अर्धपात्र में छोड़ दे। प्रेतपिता के अर्घपात्र को प्रेतपितामह के अर्घपात्र के ऊपर और उन दोनों अर्घपात्रों को प्रेतप्रपितामह के अर्धपात्र पर रखकर तीनों अर्घपात्रों को पिता के आसन के वाम पार्श्व अर्थात् पश्चिम दिशा में कुशत्रय बिछाकर 'पितृभ्यः स्थानमसि' कहकर उलटकर रख दे। इन एक के ऊपर एक उलटकर रखे गये अर्धपात्रों को ब्राह्मण विसर्जन से पूर्व न तो हिलाये और न उठाये ही । इसी प्रकार पार्वणश्राद्ध में पिता, पितामह तथा प्रपितामह के अर्घों का संयोजन होता है-

(क)दत्त्वार्घ्यं संस्रवांस्तेषां पात्रे कृत्वा विधानतः । 

पितृभ्यः स्थानमसीति न्युब्जं पात्रं करोत्यधः ॥(याज्ञ० स्मृ० आ० श्रा० २३५)

(ख) नोद्धरेत् न च चालयेत् । (यमस्मृति)

(ग) ब्राह्मणविसर्जनात्पूर्वं नोद्धरणीयम् । (कात्यायन)

( ९३ ) स्वाहा स्वधा कहाँ नहीं होगा ?

आसन, आवाहन, अर्घ, अक्षय्योदकदान, अवनेजन तथा क्षणदान -इनके संकल्प की वाक्य योजना में 'स्वधा' पद का प्रयोग नहीं करना चाहिये। उसके स्थान पर 'नमः' या 'अस्तु' का प्रयोग करना चाहिये-

आसनाह्वानयोरर्थ्ये तथाक्षय्येऽवनेजने ।

क्षणे स्वाहास्वधावाणीं न कुर्यादब्रवीन्मनुः ॥ (श्राद्धकाशिकामें धर्मप्रदीप)

( ९४ ) पितरों के लिये अपसव्य तथा वामावर्त पितरों को अर्पित किये जानेवाले गन्ध, जल, धूप तथा पवित्रक आदि पदार्थ अपसव्य तथा अप्रदक्षिण (वामावर्त) क्रम से देने चाहिये-

गन्धं तथोदकं चैव धूपादींश्च पवित्रकम् ॥

अपसव्यं ततः कृत्वा पितॄणामप्रदक्षिणम् । (गरुडपुराण पू० ९९ । १२-१३ )

( ९५ ) षड्दैवत्य, नवदैवत्य तथा द्वादशदैवत्यश्राद्ध

षड्दैवत्य आदि श्राद्धों का स्वरूप इस प्रकार है

( १ ) षड्दैवत्यसपत्नीक पिता, पितामह, प्रपितामह तथा सपत्नीक मातामह, प्रमातामह, वृद्धप्रमातामह(छः चट)।

(२) नवदैवत्यपिता, पितामह, प्रपितामह, माता, पितामही, प्रपितामही तथा सपत्नीक मातामह, प्रमातामह, वृद्धप्रमातामह - (नौ चट) ।

(३) द्वादशदैवत्य पिता, पितामह, प्रपितामह, माता, पितामही, प्रपितामही तथा मातामह, प्रमातामह, वृद्धप्रमातामह, मातामही, प्रमातामही, वृद्धप्रमातामही - (बारह चट)।

एकोद्दिष्टश्राद्ध से अतिरिक्त पार्वण आदि अन्य श्राद्धों के संदर्भ में चार प्रमाण प्राप्त होते हैं, जिनके अनुसार महालय (पितृपक्ष), गयाश्राद्ध, वृद्धिश्राद्ध तथा अन्वष्टका श्राद्ध में नवदैवत्य अथवा द्वादशदैवत्य श्राद्ध करने विधि है तथा तीर्थश्राद्ध, गोष्ठीश्राद्ध और मघाश्राद्ध में द्वादशदैवत्य की विधि है। एक प्रमाण (ग)-के अनुसार महालय, गया, वृद्धि तथा अन्वष्टका श्राद्ध से अतिरिक्त तीर्थश्राद्ध आदि सभी श्राद्ध षड्दैवत्य भी किये जा सकते हैं। प्रमाण (घ)-के अनुसार तीर्थश्राद्ध में नवदैवत्यश्राद्ध करने की भी विधि है। इनमें कोई भी श्राद्ध अपने देशाचार- कुलाचार के अनुसार करना चाहिये। इस सम्बन्ध में मूल वचन इस प्रकार हैं-

(क)महालये गयाश्राद्धे वृद्धावन्वष्टकासु च । 

ज्ञेयं द्वादशदैवत्यं तीर्थे गोष्ठे मघासु च ॥(निर्णयसिन्धु)

महालय (पितृपक्ष), गयाश्राद्ध, वृद्धिश्राद्ध, अन्वष्टकाश्राद्ध, तीर्थश्राद्ध, गोष्ठी श्राद्ध और मघाश्राद्ध में द्वादशदैवत्यश्राद्ध करना चाहिये ।

(ख) देवतानवकं वृद्धौ तथैवाऽन्वष्टकासु च । 

ज्ञेयं द्वादशदैवत्यं तीर्थे गोष्ठे गयासु च ॥(श्राद्धकल्पलता)

वृद्धिश्राद्ध तथा अन्वष्टकाश्राद्ध में नवदैवत्य तथा तीर्थ, गोष्ठी और गया में द्वादशदैवत्यश्राद्ध होता है।

(ग) महालये गयाश्राद्धे वृद्धावन्वष्टकासु च । 

नवदैवत्यमत्रेष्टं शेषं षाट्पौरुषं विदुः ॥ (विष्णुधर्मोत्तर)

महालय, गयाश्राद्ध, वृद्धिश्राद्ध तथा अन्वष्टका श्राद्ध में नवदैवत्य तथा शेष सर्वत्र षड्दैवत्यश्राद्ध करना चाहिये। 

(घ) 'पित्रादिनवदैवं वा तथा द्वादशदैवमिति ।' (गौडीय श्राद्धप्रकाश पृ० ३९ में उद्धृत अग्निपुराणका वचन) 

तीर्थश्राद्ध नवदैवत्य अथवा द्वादशदैवत्य किया जा सकता है।

( ९६ ) पार्वणविधि से किये जानेवाले सांकल्पिकश्राद्ध में निषिद्धकर्म

पार्वणविधि से किये जानेवाले पिण्डदानरहित श्राद्ध में कुछ कर्मों के निषेध सम्बन्धी वचन प्राप्त होते हैं, जो इस प्रकार हैं

(क) आवाहनं स्वधाशब्दं पिण्डाग्नौकरणं तथा । 

विकिरं चार्घ्यदानं च साङ्कल्पे षड् विवर्जयेत् ॥ (पृथ्वीचन्द्रोदयमें वसिष्ठका वचन)

अर्थात् सांकल्पिकश्राद्ध में आवाहन, 'स्वधा' शब्द का उच्चारण, पिण्डदान, अग्नौकरण, विकिरदान तथा अर्घदान- ये छः कर्म नहीं करने चाहिये ।

(ख) अग्नौकरणमर्घ्यञ्चावाहनञ्चावनेजनम् । 

पिण्डश्राद्धे प्रकुर्वीत पिण्डहीने निवर्तते ॥ (दानमयूख)

पिण्डदानात्मक श्राद्ध में अग्नौकरण, अर्घदान, आवाहन तथा अवनेजनदान करना चाहिये, किंतु पिण्डदानरहित श्राद्ध में ये कर्म निषिद्ध हैं।

(ग)आमश्राद्धे च वृद्धौ च प्रेतश्राद्धे तथैव च । 

विकिरं नैव कुर्वीत मुनिः कात्यायनोऽब्रवीत् ॥(श्राद्धकल्पलता)

आमान्नदानात्मक, वृद्धि तथा प्रेतश्राद्ध में विकिरदान नहीं करना चाहिये, ऐसा कात्यायनमुनि का कथन है।

(घ) त्यजेदावाहनं चार्घ्यमग्नौकरणमेव च । 

पिण्डांश्च विकिराक्षय्ये श्राद्धे साङ्कल्पसंज्ञके ॥ (निर्णयसिन्धु तृ० परि० में स्मृत्यन्तर) 

सांकल्पिकश्राद्ध में आवाहन, अर्घदान, अग्नौकरण, पिण्डदान, विकिरदान तथा अक्षय्योदकदान नहीं करना चाहिये ।

(९७) तीर्थश्राद्ध में निषिद्ध कर्म तीर्थश्राद्ध में पार्वणश्राद्ध तथा एकोद्दिष्ट श्राद्ध से कुछ भिन्नता है। इसमें विश्वेदेव की स्थापना नहीं की जाती तथा अर्घ, आवाहन, अंगुष्ठनिवेशन, तृप्तिप्रश्न और विकिरदान भी नहीं किया जाता-

अर्धमावाहनं चैव द्विजाङ्गुष्ठनिवेशनम् ।

तृप्तिप्रश्नं च विकिरं तीर्थश्राद्धे विवर्जयेत् ॥ (श्राद्धचिन्तामणिमें पद्मपुराणका वचन)

( ९८ ) दशविधस्नान

शास्त्रों में दस पदार्थों के द्वारा तत्तद् मन्त्रों का पाठ करते हुए दशविध (दस प्रकार के) - स्नान करने की विधि है। जैसेगायत्रीमन्त्र द्वारा गोमूत्र से स्नान, गन्धद्वारा० इस मन्त्र से गोमय द्वारा स्नान आदि। ये दशविध इस प्रकार हैं –

१ - गोमूत्रस्नान, २- गोमयस्नान, ३-क्षीरस्नान, ४-दधिस्नान, ५-घृतस्नान, ६-कुशोदकस्नान, ७- भस्मस्नान, ८-मृत्तिकास्नान, ९-मधुस्नान तथा १० - जलस्नान। (निर्णयसिन्धु तृ० परि०उत्त०)

गोमूत्रं गोमयं क्षीरं दधि सर्पिः कुशोदकम् ।

भस्ममृन्मधुवारीणि मन्त्रतस्तानि वै दश ॥

( ९९ ) पिण्डप्रतिपत्ति

श्राद्ध पूर्ण हो जाने के अनन्तर पिण्डों को पवित्र जल में विसर्जित कर दे अथवा ब्राह्मण, अग्नि, अज या गाय को प्रदान करे ( श्राद्धचिन्तामणिमें देवलका वचन) ।

ततः कर्मणि निर्वृत्ते तान् पिण्डांस्तदनन्तरम् ।

ब्राह्मणोऽग्निरजो गौर्वा भक्षयेदप्सु वा क्षिपेत् ॥

( १०० ) ऊनश्राद्धों की निषिद्ध तिथियाँ

नन्दायां भार्गवदिने चतुर्दश्यां त्रिपुष्करे । 

ऊनश्राद्धं न कुर्वीत गृही पुत्रधनक्षयात् ॥

एकद्वित्रिदिनैरूने त्रिभागेनोन एव वा । 

श्राद्धान्यूनादिकादीनि कुर्यादित्याह गौतमः ॥

नन्दातिथि - प्रतिपदा, षष्ठी तथा एकादशी, भार्गवदिन-शुक्रवार, चतुर्दशी और त्रिपुष्करयोग- कृत्तिका, पुनर्वसु, उत्तराफाल्गुनी, विशाखा, उत्तराषाढ़ा, पूर्वाभाद्रपदा - इन त्रिपादनक्षत्र, द्वितीया, सप्तमी तथा द्वादशी तिथि और मंगल, शनैश्चर तथा रविवार - इन तीनों के योग में त्रिपुष्करयोग होता है-इन दिनों को छोड़कर ऊनश्राद्ध करना चाहिये ।

( १०१ ) सर्वौषधि तथा सप्तमृत्तिका

मुरा, जटामांसी, वच, कुष्ठ, शिलाजीत, हल्दी, दारूहल्दी, सठी, चम्पक और मुस्ता- ये सर्वौषधि कहलाती हैं

मुरा माँसी वचा कुष्ठं शैलेयं रजनीद्वयम् ।

सठी चम्पकमुस्ता च सर्वौषधिगणः स्मृतः ॥ (अग्निपु० १७७।१७)

घुड़साल, हाथीसाल, बाँबी, नदियों के संगम, तालाब, राजा के द्वार और गोशाला - इन सात स्थानों की मिट्टी को सप्तमृत्तिका कहते हैं-

अश्वस्थानाद्गजस्थानाद्वल्मीकात्सङ्गमाद्धदात् ।

राजद्वाराच्च गोष्ठाच्च मृदमानीय निक्षिपेत् ॥

( १०२ ) पंचपल्लव एवं पंचरत्न

बरगद, गूलर, पीपल, आम तथा पाकड़-ये पंचपल्लव कहलाते हैं

न्यग्रोधोदुम्बरोऽश्वत्थश्चूतप्लक्षस्तथैव च।

सोना, हीरा, मोती, पद्मराग और नीलम-ये पंचरत्न कहे जाते हैं-

कनकं कुलिशं मुक्ता पद्मरागं च नीलकम् ।

एतानि पंचरत्नानि सर्वकार्येषु योजयेत् ॥

(१०३) पितरों की प्रसन्नता से श्राद्धकर्ता का परम कल्याण

पितर अत्यन्त दयालु तथा कृपालु होते हैं। वे अपने पुत्र-पौत्रादिकों से पिण्डदान तथा तर्पण की आकांक्षा रखते हैं। श्राद्धादि क्रियाओं द्वारा पितरों को परम प्रसन्नता तथा संतुष्टि होती है। प्रसन्न होकर वे पितृगण श्राद्धकर्ता को दीर्घ आयु, संतति, धन-धान्य, विद्या, राज्य, सुख, यश, कीर्ति, पुष्टि, बल, पशु, श्री, स्वर्ग एवं मोक्ष प्रदान करते हैं (मार्कण्डेयपुराण, याज्ञ०स्मृति आ०गण० २७०), (यमस्मृति, श्राद्धप्रकाश)।

(क) आयुःप्रजां धनं विद्यां स्वर्गं मोक्षं सुखानि च । 

प्रयच्छन्ति तथा राज्यं पितरः श्राद्धतर्पिताः ॥

(ख) आयुः पुत्रान् यशः स्वर्गं कीर्तिं पुष्टिं बलं श्रियम्। 

पशून् सौख्यं धनं धान्यं प्राप्नुयात् पितृपूजनात् ।

श्राद्ध प्रकरण में आगे पढ़ें...... श्राद्ध सम्बन्धी शब्दावली

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