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कर्मकाण्ड

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गीतगोविन्द पाँचवाँ सर्ग साकांक्ष पुण्डरीकाक्ष

गीतगोविन्द पाँचवाँ सर्ग साकांक्ष पुण्डरीकाक्ष

कवि श्रीजयदेवजीकृत गीतगोविन्द पाँचवाँ सर्ग साकांक्ष पुण्डरीकाक्ष में १० वां और ११ वां अष्ट पदि को पिछले अंक में आपने पढ़ा । अब यहाँ इस सर्ग का साकांक्षपुण्डरीकाक्ष को दिया जा रहा है।

गीतगोविन्द पाँचवाँ सर्ग साकांक्ष पुण्डरीकाक्ष

श्रीगीतगोविन्दम्‌ पञ्चमः सर्गः साकांक्षपुण्डरीकाक्षः

श्रीगीतगोविन्द पंचम सर्ग साकांक्ष पुण्डरीकाक्ष

Shri Geet govinda sarga 5 SaAkanksha pundarikaksh

श्रीगीतगोविन्द सर्ग 5 साकांक्ष पुण्डरीकाक्ष

अथ पञ्चमः सर्गः

विकिरति मुहुः कुश्वासानाशाः पुरो मुहुरीक्षते

प्रविशति मुहुः कुञ्ज गुञ्जनमुहुर्बहू ताम्यति ।

रचयति मुहुः शय्यां पर्याकुलं महुरीक्षते

मदन- कदन- क्लान्तः कान्ते! प्रियस्तव वर्तते ॥१ ॥

अन्वय- [अतिशीघ्रमभिसारयितुं प्रियतमदुःखं वर्णयति] - हे कान्ते ( चार्वङ्गि) तव प्रियः (कृष्णः ) [ प्रिया मे नागता इति मत्वा] मुहुः (बारंबार) श्वासान् (निश्वासान् विरहजनितान् आयातीति सम्भाव्य ] पुरः (अग्रतः) मुहुः आशाः (दिशः) ईक्षते (आलोकयति); [ कदाचित् अन्येन पथा आग मत्वा] मुहुः कुञ्ज प्रविशति [ तत्रापि त्वामपश्यन् कथं नागतेति] मुहुः (पुनःपुनः ) गुञ्जन् (कथं नागता, किंवा पथि काचित् दुर्घटना जातेत्यादि अव्यक्तं वदन्) बहु ( अत्यन्तं) ताम्यति ( ग्लायति ); [मयि बद्ध दृढानुरागा सा साम्प्रतमेवा- गमिष्यतीति] मुहुः शय्यां रचयति [ मच्चित्त - जिज्ञासार्थं कदाचित् इतो निर्गता तिष्ठतीति मत्वा ] मुहुश्च पर्याकुलं (परितः आकुलं यथा तथा) ईक्षते (पश्यति) [ इत्थं] मदन- कदन- क्लान्तः (मदनस्य कदनेन पीड़नेन क्लान्तः कातरः सन् ) वर्त्तते ॥१ ॥

अनुवाद - हे कामिनि ! तुम्हारे प्रिय श्रीकृष्ण मदन – यन्त्रणा से सन्तप्त होकर निकुंज गृह में तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं। वे बार-बार दीर्घ श्वास लेते हुए चकित नेत्रों से चहुँ दिशि देखते हैं। बार-बार अस्फुट शब्दों से विलाप करते हुए लताकुंज से बाहर आते हैं और पुनः उसमें प्रवेश करते हैं एवं दुःखी होते हैं। बार-बार शय्या का निर्माण करते हैं और आकुल होकर बार-बार तुम्हारा आगमन पथ देखते हैं।

पद्यानुवाद-

तेरे आनेकी आशा जब लगती पल पल घटने ।

तभी विकलता बढ़ जाती है, लगता धीरज हटने ॥

कभी प्रतीक्षा-दृगसे लखते और उसासें भरते ।

होकर भ्रान्त कुंजमें जाते फिर आँखोंसे ढरते ॥

बार-बार शय्या रचते हैं, खूब साधना साधे ।

मदन- कदन - परिक्लान्त कान्त हैं तेरे री सखि ! राधे ॥

बालबोधिनी - इस प्रबन्ध की उपसंहृति करते हुए कवि कहते हैं कि सखी श्रीराधा को श्रीकृष्ण के सन्निकट पहुँचने के लिए अनेक प्रकार से प्रेरित कर रही है कि श्रीकृष्ण तुम्हारे विरह में कामजन्य कष्ट से दुःखी हैं। तुम अभी तक आयी नहीं हो ऐसा सोचकर बार-बार साँस लेते हैं, दीर्घ निःश्वासधारा छोड़ते हैं। तुम अभी तक उनके पास पहुँची नहीं हो - प्रतीक्षारत होकर बार-बार चारों दिशाओं में देखते हैं। तुम किस दिशा से आ रही हो, यह देखने के लिए लताकुंज से बाहर आते हैं। पुनः लताकुंज में प्रवेश करते हैं, यह समझकर कि तुम कहीं आकर वहाँ छिप तो नहीं गयी हो ? कभी बाहर, कभी अन्दर, बार-बार क्यों ऐसा करते हैं? इसलिए कि वह आ तो नहीं रही हैं, वह क्यों नहीं आयीं, किस कारण से रुक गयीं अथवा कहीं डर तो नहीं गयीं - इस प्रकार से उसके अनागमन के कारण का विचार करके बार - बार बहुत प्रकार से अव्यक्त शब्द करते हैं। पुनः यह सब सोच-विचारना व्यर्थ है- वह अवश्य ही आयेंगी-ऐसा निश्चय कर शय्या की रचना करना प्रारम्भ कर देते हैं। 'कदन' शब्द से तात्पर्य है मुझसे अनुराग होने के कारण अवश्य ही आयेंगी। अतः उत्कण्ठित होकर बार-बार देखते हैं।

प्रस्तुत श्लोकमें हरिणी छन्द तथा 'दीपक' अलंकार है ।

त्वद्वाम्येन समं समग्रमधुना तिग्मांशुरस्तं गतो

गोविन्दस्य मनोरथेन च समं प्राप्तं तमः सान्द्रताम् ।

कोकानां करुणस्वनेन सदृशी दीर्घा मदभ्यर्थना

मुग्धे ! विफलं विलम्बनमसौ रम्योऽभिसार- क्षणः ॥ २ ॥

अन्वय - [ अतः सम्प्रत्येव गमनं साम्प्रतमिति समयानुकूल्य- माह] - अधुना त्वद्वाम्येन ( तव प्रतिकूलतया अभिमान-वशात् मौनभावेन इति भावः) समं (सह) तिग्मांशुः (सूर्य) समग्रं (सम्पूर्ण यथा तथा ) अस्तं गतः गोविन्दस्य मनोरथेन च समं तमः (तिमिरं) सान्द्रतां (निविड़तां) प्राप्तम् [त्वयि गोविन्दस्य अनुरागः यथा क्रमशः गाढ़तां गतः तद्वदन्धकारोऽपि क्रमशः निविड़ः सञ्जात इत्यर्थः) मदभ्यर्थना (मम अभ्यर्थना अनुरोधश्च ) कोकानां (चन्द्रकाराणां) करुणस्वरेन ( कातरविलापेन ) [ रात्रौ तेषां विच्छेदादिति भावः]; तत् (तस्मात्) अयि मुग्धे, विलम्बनं विफलम्; [यतः ] असौ अभिसारक्षणः (कान्ताभिगमन- कालः) रम्यः (प्रीतिप्रदः ) [ प्रियतमः उत्कण्ठितः रम्यश्च अभिसारक्षणः, चिरमभ्यर्थनपरा सखी, तथापि वेशादिव्याजेन गमनविलम्बनमिति मौग्धम् ] ॥२॥

अनुवाद - हे मुग्धे ! तुम्हारी वामता ( प्रतिकूलता) के साथ-साथ यह दिवाकर भी सम्पूर्ण रूप से अस्त हो गया। श्रीकृष्ण के मनोरथ के साथ ही अन्धकार सान्द्रता (घनत्व) को प्राप्त हो गया। विरह-विकल चक्रवाक पक्षी के रात्रिकाल में करुण स्वर निरन्तर विलाप के समान मेरी अभ्यर्थना भी व्यर्थ हो गयी। मैं अति दीर्घकाल से करुण प्रार्थना कर रही हूँ। अब विलम्ब करना व्यर्थ है। अभिसार की रमणीय बेला उपस्थित है।

बालबोधिनी - हे राधे, हे मुग्धे ! यह प्रियतम के समीप जाने का उपयुक्त समय है। अपने वाम स्वभाव के अधीन होकर तुम मान करके बैठी ही रहीं, अब तो मान समाप्त हो गया है और इधर सूर्य भी अस्त हो गया। तुम्हारे रति - अभिसरण में अब कोई बाधा नहीं है। गोविन्द के मन में तुम्हारे प्यार के जो मनोरथ उठे थे, उनके साथ-साथ अन्धकार भी और गहरा हो उठा, मिलन की आशा और तीव्र हो उठी। रात्रिकाल में चकवा चकवी दोनों एक-दूसरे से अलग-अलग होकर विरहाधिक्य के कारण दीर्घ करुण क्रन्दन करने लगते हैं। उसी दीर्घ पुकार के समान तुम्हारे समक्ष श्रीकृष्ण मिलन के लिए की गयी मेरी अभ्यर्थना व्यर्थ ही चली गयी। हे मुग्धे, अब समय व्यर्थ मत गँवाओ, अभिसार का विशेष समय होता है, घना अन्धकार है, प्रियतम तुम्हारे लिए उत्कण्ठित हैं, तुम वेश-भूषादि के बहाने आगमन में अब विलम्ब मत करो, जल्दी करो । प्रस्तुत श्लोक में सहोक्ति अलंकार है तथा शार्दूलविक्रीड़ित छन्द है ।

आश्लेषादनु चुम्बनादनु नखोल्लेखादनु स्वान्तज-

प्रोद्बोधादनु सम्भ्रमादनु रतारम्भादनु प्रीतयोः ।

अन्यार्थं गतयोर्भ्रमान्मिलितयोः सम्भाषणैर्जानतो-

दम्पत्योरिह को न को न तमसि व्रीड़ाविमिश्रो रसः ॥ ३ ॥

अन्वय- [अथ उत्कण्ठावर्द्धनाय सुरतप्रीतेरत्याधिक्यं दर्शयति ] - अन्यार्थं (अन्योन्यसङ्गलाभाय कार्यान्तरमुपलक्ष्य) गतयोः (सङ्केतस्थानं प्राप्तयोः) भ्रमात् (अन्वेषणाय भ्रमणात् ) इह ( ईदृशे सान्द्रे) तमसि (गाढ़ान्धकारे) मिलितयोः ( सङ्गतयोः) सम्भाषणैः (कण्ठध्वनिभिः) जानतोः (केयं कश्चायमिति विन्दतोः) दम्पत्योः (स्त्रीपुंसयोः) [ यथाक्रमं ] आश्लेषात् (आलिङ्गनात्) अनु (पश्चात्), चुम्बनात् अनु, नखोल्लेखात् (नखानाम् उल्लेखात् आघातात्) अनु, स्वान्तजप्रोवोधात् (स्वान्तजस्य कामस्य प्रोवोधात् प्रकाशनात्), अनु, सम्भ्रमात्  (साध्वसात्) अनु, रतारम्भात् (शृङ्गारारम्भणात्) अनु, प्रीतयोः (परितोषं गतयोः) कः कः व्रीड़ाविमिश्रः (व्रीड़या, कथं सहसैवं कर्त्तुमारब्धमित्येवं लज्जया विमिश्रः संवलितः ) रसः (सम्भोगाद्यास्वादः ) न [भवति ] न [ अपितु सर्वत्रैव सलज्जः रसास्वादः भवत्येव इत्यर्थः ] [ एतेन अभिसत्तुं श्रीराधिका- प्रोत्साहनमुक्तम्] ॥३॥

अनुवाद - इस निविड़ तिमिर में नायक-नायिका एक-दूसरे को प्राप्त करने हेतु अन्वेषण के लिए भ्रमण करते हुए अन्य नायक तथा नायिका के भ्रम से मिले हुए सम्भाषण द्वारा एक दूसरे को पहचान लेने पर परस्पर आलिङ्गन पश्चात् चुम्बन, उसके बाद नखक्षत अर्पण, पश्चात् कामोद्रेक होने पर मदन के आवेश में सम्भ्रम के साथ रतिकेलिका प्रारम्भ होने पर सुरतक्रीड़ा के पश्चात् दोनों एक चमत्कारपूर्ण प्रीति का अनुभव करोगे। इस अन्धकार में व्रीड़ामिश्रित कौन-सा रस प्राप्त नहीं होगा ? अतएव हे सुन्दरि ! चलो, शीघ्रातिशीघ्र केलि-कुंज में चलें, भला ऐसे सुअवसर का क्या कभी त्याग किया जाता है?

बालबोधिनी - सखी श्रीराधा को प्रलोभन दे रही है कि हे सखी राधिके! वहाँ श्रीकृष्ण के समीप पहुँचने पर तुम्हें अनेक प्रकार का केलि कौतुक प्राप्त होगा - इस कथन से सखी श्रीराधा की उत्कण्ठा बढ़ाकर उन दोनों के मनोरथ का अभिव्यञ्जन कर रही है।

अन्धकार हो जाने पर नायक अन्य नायिका को तथा नायिका अन्य नायक को प्राप्त करने के लिए यदि निकले हों और जब वे परस्पर मिलित हो जाएँ तब जिस व्रीड़ा मिश्रित शृङ्गार रस की अनुभूति होती है। तब ऐसा कौन-सा रस है, जिसे प्राप्त करना अवशिष्ट रह जाय । उस व्रीड़ा मिश्रित रस में सब प्रकार के रसों का समागम हो जाता है ।

भ्रमात् से तात्पर्य है – कुंज की ओर भ्रमण करते हुए परस्पर मिल गये हों, अन्धकार में परस्पर वार्तालाप से पहचान लिये गये हों अथवा अन्य किसी प्रयोजन से गये हों और मिल गये हों। वार्तालाप होने से सात्विक भाव के द्वारा स्वर-भंग से पहचान लिये गये हों। मिलन के साथ ही वे सहसा आलिंगन करते हैं, किन्तु दोनों को भय रहता है कि कहीं किसी ने देख न लिया हो। अतः 'भयानक रस' प्रादुर्भूत होता है, जिसका 'भय' स्थायी भाव है। कान्ता के बार - बार मना किये जाने पर भी नायक अपनी हठवृत्ति के कारण उसका चुम्बन करता है, दन्तक्षत करता है। पर पुनः उसे शोक होता है-मैंने व्यर्थ ही इसे कष्ट पहुँचाया, लाख मना करने पर भी माना नहीं। अतः करुणा से उनका अन्तःकरण विगलित होता है। अतः यहाँ 'करुण रस प्राप्त होता है। काम को प्रोत्साहित करने के लिए परस्पर नखोल्लेख करते हैं, जिसका स्थायी भाव है 'उत्साह'

तत्पश्चात् परस्पर दोनों एक दूसरे के साथ रतिक्रीड़ा के लिए तत्पर होते हैं। इस क्रीड़ा में उन्हें विस्मय-प्रधान अद्भुत रस की सुखानुभूति होती है। तत्पश्चात् कामोद्बोध होने पर नाना विलासों से विलसित हो परस्पर हास्य प्रधान बातें करते हैं और तब रतिक्रीड़ा में लिप्त होने पर दोनों को हास्य रस अनुभूत होता है। सुरत- क्रीड़ा सम्पन्न होने पर जब वे परस्पर आनन्द का अनुभव करते हैं, तब उन्हें सकल-रस-चक्रवर्ती रसराज शृङ्गार रस की मधुरानुभूति होती है। इस प्रकार तिमिर में मिलित पहले अनजान, फिर परस्पर पहचान लिये जाने पर दोनों को लज्जा होती है, परन्तु परस्पर दोषारोपण अथवा क्रोध नहीं करते, क्योंकि दोनों का समान दोष होता है। अतः पर नायक-नायिकाओं को अन्धकार में लज्जा मिश्रित सम्पूर्ण रसों का अनुभव होता है। राधे ! ऐसी प्रतीति होगी कि अहो! इतने दिनों के पश्चात् जब हम दोनों मिले, तब इतने गहरे शृङ्गार रस में क्यों डूबे ? प्रस्तुत सन्दर्भ में चौर्यरत के सम्पूर्ण क्रम को भी बतलाया गया है। भरतमुनि ने कहा है-

आश्लेषचुम्बननखक्षतकामबोधशीघ्रत्वमैथुनमनन्तसुखप्रबोधम् ।

प्रीतिस्ततोऽपि रसभावनमेव कार्यमेवं नितान्तनतुराः सुचिरं रमन्ते ॥

प्रस्तुत श्लोक में दीपक, समुच्चय तथा भ्रान्तिमान अलङ्कार द्रष्टव्य हैं। शार्दूलविक्रीडित छन्द है।

सभय - चकितं विन्यस्यन्तीं दृशौ तिमिरे पथि

प्रतितरु मुहुः स्थित्वा मन्दं पदानि वितन्वतीम् ।

कथमपि रहः प्राप्तामङ्गैरनङ्ग - तरङ्गिभिः

सुमुखि ! सुभगः पश्यन् स त्वामुपैतु कृतार्थताम् ॥ ४ ॥

अन्वय - [ अथैतच्छ्रवणव्यग्रतया गमनाय उद्यतामवलोक्य गमनप्रकार-माह] - अयि सुमुखि (सुवदने) सुभगः (भाग्यवान् तव प्रणय- सौभाग्यशालीति यावत्) [हरिः] तिमिरे ( तमसावृते इत्यर्थः) पथि ( वर्त्मनि ) प्रतितरु (प्रतिवृक्षे) सभयचकितं [ यथा तथा; कुत्रचित् तिष्ठता केनचित् द्रक्षेऽहमिति नेत्रस्य सभयचकितत्वम्) दृशं (नेत्र) विन्यस्यन्तीं (निक्षिपन्तीं) मुहुः (पुनः पुनः ) स्थित्वा (ससाध्वसं विश्रम्य) मन्दं [ यथा तथा ] पदानि वितन्वत (विक्षिपन्तीं ) [ दौर्बल्यात् शीघ्रगमनाशक्त्या पदयोः मन्द मन्द - विन्यासत्वम् ] [ अतः ] कथमपि (अतिक्लेशेन) रहः प्राप्तां (एकान्ते उपस्थितां) अनङ्ग-तरङ्गिभिः (कामतरङ्गपूर्णैः, उत्कण्ठया अनङ्ग-तरङ्गित्वसङ्गनानाम्) अङ्गः [उपलक्षितां] त्वां पश्यन् कृतार्थतां (साफल्यं) उपेतु ( प्राप्नोतु कृतार्थो भवतु इत्यर्थः) ॥४॥

अनुवाद - हे शोभने। तिमिरमय पथ पर भय और चकित दृष्टि से देखती हुई, तरुवरों के समीप खड़ी होकर पुनः शनैः-शनैः पग बढ़ाती हुई, किसी प्रकार एकान्त में पहुँची हुई, काम की तरंगों से कल्लोलित होती हुई तुम्हें देखकर सौभाग्यवान श्रीकृष्ण कृत्कृत्य होंगे।

बालबोधिनी - तुम्हारी प्राप्ति ही श्रीकृष्ण का सर्वस्व है, इसका दिग्दर्शन करते हुए सखी श्रीराधा से कह रही है – हे अतिशय सुन्दरि ! जब तुम यहाँ से चलने लगोगी, तब तुम्हारा मार्ग अन्धकार से परिपूर्ण होगा। उस अन्धेरे पथ पर चलते हुए भयभीत होकर चकित - सी तुम आगे पैर बढ़ाओगी। अन्धकार में भय का होना तो स्वाभाविक ही है, कहीं कोई देख न ले, अतः चकित होना भी सहज ही है। ऐसे निविड़ अन्धकार में मैं श्रीकृष्ण से मिलने के संकेत – स्थान पर जा रही हूँ - ऐसा विस्मय तो होगा ही, जाने पर श्रीकृष्ण से मिलन होगा या नहीं यह शंका भी होगी। स्तन एवं नितम्ब भार से तुम्हारा शरीर शीघ्र ही अतिशय क्लान्त हो जाता है, अतः शीघ्र जाने में असमर्थ अलसायी सी तुम प्रत्येक वृक्ष के नीचे ठहर-ठहर कर चलना । अनङ्ग की लहरें तुम्हारे शरीर पर क्रीड़ा कर रही हैं, इस शिथिलता से उपलक्षित संकेत स्थान पर तुम्हें देखकर शुभग श्रीकृष्ण कृत्कृत्य हो जाएँगे । वे प्रसन्नता के अतिशय आवेग में अवगाहन करने लगेंगे। प्रस्तुत श्लोक में हरिणी छन्द तथा अतिशयोक्ति नामक अलंकार है।

राधा-मुग्ध - मुखारविन्द - मधुपस्त्रैलोक्य- मौलि-स्थली

नेपथ्योचित - नील- रत्नमवनी - भारावतारान्तकः ।

स्वच्छन्दं व्रज - सुन्दरी - जन - मनस्तोष प्रदोषोदयः

कंस - ध्वंसन - धूमकेतुरवतु त्वां देवकी नन्दनः ॥५ ॥

इति श्रीगीतगोविन्दे अष्टमः सन्दर्भः इति श्रीगीतगोविन्दे महाकाव्येऽभिसारिका वर्णने साकाङ्क्षो नाम पञ्चमः सर्गः ।

अन्वय - [ अथ विरहं वर्णयन् व्याकुलः कविः तयोर्मिंथो-मिलनकाल- स्मरणजातहर्षः आशिषा सर्गमुपसंहरति] राधामुग्ध- मुखारविन्दमधुपः (राधायाः मुग्धं सुन्दरं यत् मुखारविन्दं वदनकमलं तस्य मधुपः भ्रमरः ) त्रैलोक्य- मौलि-स्थली- नेपथ्योचित - नीलरत्नं (त्रैलोक्यस्य त्रिभुवनस्य या मौलिस्थली शिरोभागः श्रीवृन्दावन भूमिरित्यर्थः तस्या नेपथ्योचितम् अलङ्कारभूतं नीलरत्नम् ) अवनीभारावतारक्षमः (अवन्याः क्षितेः भारस्य अवतारे दुर्वृत्तदमनादिना हरणे क्षमः समर्थः), [तथा ] व्रज - सुन्दरी - जन - मनस्तोष-प्रदोष (व्रजसुन्दरीजनानां मनसां तोषाय प्रदोषः रजनीमुखस्वरूपः ) [ तथा] कंस-ध्वंसन- धूमकेतुः (कंसस्य ध्वंसने धूमकेतुः ) देवकीनन्दनः त्वां चिरम् अवतु ( रक्षतु ) ॥ [अतएव श्रीराधाया गमनकाङ्क्षया सहितः पुण्डरीको यत्र इति सर्गोऽयं पञ्चमः ] ॥५ ॥

अनुवाद - जो श्रीराधाजी के मनोहर मुखारविन्द का मधुपान करने में मधुपस्वरूप हैं, जो त्रिभुवन के मुकुटमणि- सदृश वृन्दावनधाम के इन्द्रनील मणिमय विभूषण सदृश हैं, जो अनायास प्रदोष की भाँति ब्रजसुन्दरियों का सन्तोष विधान करने में समर्थ हैं, जो पृथ्वी के भाररूपी दैत्य दानवों का संहार करते हैं – ऐसे कंस - विध्वंसके धूमकेतु स्वरूप देवकीनन्दन श्रीकृष्ण आप सबकी रक्षा करें।

बालबोधिनी - श्रीराधा और श्रीकृष्ण के विरह वर्णन करने के पश्चात् कवि दोनों के मिलन के संभोग पक्षीय श्रृंगार रस का चित्रण करते हुए पाठकों तथा श्रोताओं को आशीर्वाद प्रदान करते हुए कहते हैं कि-

मुग्धमुखारविन्दमधुप – श्रीराधा का मुख कमलवत् है। जिस प्रकार भ्रमर कमल का सेवन करते हुए उसके पराग मधु का पान करता है, उसी प्रकार श्रीकृष्ण श्रीराधा के मुख-कमल- माधुर्य का आस्वादन करते हैं। इसलिए वे 'मुग्धमधुप' पद से संबोधित हुए हैं। प्रस्तुत श्लोकांश से संयोग व्यक्त हुआ है।

त्रैलोक्यमौलिस्थलीनेपथ्योचितनीलरत्नः – त्रिभुवन में किरीट स्थानीय अर्थात् सर्वोत्कृष्ट स्थानों को विभूषित करनेवाले वे नील रत्न हैं। नेपथ्योचित का अर्थ है 'भूषणोचित'

अवनीभारावन्तारान्तक- शिशुपाल, दन्तवक्र तथा कंस आदि पृथ्वी का भार बढ़ाने के लिए उत्पन्न हुए थे, इन्हीं 'राक्षसों का विनाश करने के लिए श्रीकृष्ण अवतीर्ण हुए थे। अन्तक का अर्थ है 'यम' । श्रीकृष्ण अवनीभारावन्तारों के लिए यम के समान है।

स्वच्छन्दं व्रजसुन्दरीजनमनस्तोषप्रदोषोदयः- श्रीकृष्ण व्रजसुन्दरियों के मनों को तोषप्रदानकारी सायंकालवत् हैं। सायंकाल होने पर जैसे द्विजराज चन्द्रमा उदित होता है तथा कामिनियों को अपने प्रेमियों से मिलने का अवसर करता है, वैसे ही श्रीकृष्ण व्रजसुन्दरियों के हृदयों को स्वच्छन्दतापूर्वक आनन्द प्रदान कर उनकी अभिलाषा पूर्ण करते हैं।

कंसध्वसनधूमकेतुः - कंस नामक असुर के विनाशकारी श्रीकृष्ण धूमकेतु तारे के समान हैं। धूमकेतु एक तारा विशेष है। मान्यता है कि जब यह उदित होता है, तब राजा का विनाश अवश्यम्भावी होता है। श्रीकृष्णका अवतार कंस के विनाश का सूचक है।

धूमकेतु का अन्य अर्थ है – भानु के समान प्रकाशक । श्रीराधा के काम को शान्त करनेवाले श्रीकृष्ण धूमकेतु हैं।

प्रदोष अर्थात् प्रगतो दोषादयः ।

प्रस्तुत श्लोक में श्लेष, लुप्तोपमा, परिकर तथा वर्णोपमा नामक अलंकारों का समावेश है। शार्दूलविक्रीडित छन्द तथा पाञ्चाली रीति है।

इस प्रकार श्रीजयदेव प्रणीत गीतगोविन्द काव्य के अभिसारिका वर्णन में 'साकांक्षपुण्डरीकाक्ष' नामक पाँचवाँ सर्ग पूर्ण हुआ।

श्रीराधा के आगमन की प्रतीक्षा में पुण्डरीकाक्ष विराजमान हैं- ऐसा यह पाँचवाँ सर्ग सबके प्रति आनन्ददायी हो।

इति गीतिगोविन्द महाकाव्ये एकादश सन्दर्भे टीकायां बालबोधिनी वृत्ति ।

आगे जारी........ गीतगोविन्द सर्ग 6

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