अष्टपदी २१
कवि
श्रीजयदेवजीकृत गीत गोविन्द सर्ग ११
सामोद दामोदर में ३ अष्टपदी
है। जिसका २०वाँ अष्ट पदि को पिछले अंक में आपने पढ़ा । अब यहाँ अष्ट पदि २१दिया जा
रहा है।
गीतगोविन्द सर्ग ११ सामोद दामोदर - अष्टपदी २१
Ashtapadi
21
गीतगोविन्द ग्यारहवाँ सर्ग सामोद दामोदर - अष्टपदी २१
श्रीगीतगोविन्दम् एकादशः सर्गः सामोद दामोदरः अष्ट पदि २१
एकादशः सर्गः
- सामोद - दामोदरः
गीतम् ॥२१॥
वराडीरागरूपकतालाभ्यां
गीयते ।
मञ्जुतर-कुञ्जतल-
केलिसदने ।
विलस रतिरभसहसितवदने ! ॥१ ॥
प्रविश राधे !
माधवसमीपमिह । ध्रुवपदम् ।
अन्वय- रति-रभस-हसित-वदने (रतिरभसेन सुरतोत्साहेन हसितं सहास्य
वदनं यस्याः, अयि तादृशि; तव उच्छलितं मनः अत्युत्सुकतया
हास्यमिषेण प्रियमिलनाय बहिर्निर्गतमितिभावः) अयि राधे, इह
मञ्जुतर - कुञ्जतल-केलिसदने (मञ्जुतरम् अतिमनोहरं कुञ्जतलं कुञ्जाभ्यन्तरमेव
केलिसदनं तत्र) माधव-समीपं प्रविश [ततः] विलस (विहर) ॥ १ ॥
अनुवाद
- हे राधे! तुम्हारा वदन
रतिजन्य उत्साह से अतिशय रस के साथ उत्फुल्लित हो रहा है, तुम इस मनोहर निकुञ्ज के केलिगृह में
प्रवेश करो और माधव के समीप जाकर उनके साथ विलास करो।
पद्यानुवाद-
चल राधा !
प्रिय ढिग उपवनमें-
मंजु कुंजतल
अति मनभावन ।
विहँस विलस
रति केलि-सदनमें
चल राधा !
पिय-ढिग उपवनमें ॥
बालबोधिनी - सखी श्रीराधा से कहती है- रतिक्रीड़ा के उत्साह से प्रसन्नमुखवाली हे
राधिके! अब तो प्रेम के आवेग में तुम मुस्कराकर हर्षित हो रही हो, इस मनोहर झुरमुट के बीच में ही केलिगृह बना
हुआ है, उसी क्रीड़ागृह में जाइए और माधव के समीप जाकर उनके
साथ रमण कीजिए।
नव-
भवदशोक-दल-शयन - सारे
विलस
कुचकलशतरल हारे!
प्रविश....
॥२॥
अन्वय - [नहि मे मनः उच्छलितम् अस्य तव नागरस्य वैकल्यमाकलष्य
मद्ववदनं हसतीति चेत् तत्राह] - कुच कलस- तरल-हारे (कुचकलसयोः स्तनकुम्भयोः तरलः कम्पवशात् चञ्चलः हारः यस्याः, अयि तादृशि) [राधे] [कुचकलसकम्पेन
अन्तर्वृत्तिर्व्यक्ता अतो वाम्यं न युक्तमितिभावः] नव-भवदशोक- दल - शयनसारे
[नवभवद्भिः तरुणैः अशोकदलै रचितं शयनसारं शयनश्रेष्ठं यत्र तादृशे) इह [केलिसदने]
माधव - समीपं प्रविश [ततश्च] विलस (विहर) ॥ २ ॥
पद्यानुवाद-
नवल अशोक-
दलोंकी मृदुतर,
शैया झलक रही
है मनहर ।
अनुवाद - प्रिय समागम सूचक कम्पनमय कुचकलशों में विराजित चञ्चल
हारवाली राधे ! नूतनोद्भव अशोक-पत्रों में विरचित शय्या पर तुम प्रवेश करो और माधव
के समीप जाकर उनके साथ विलास करो।
बालबोधिनी - सखी कहती है-कलश सरीखे स्तनों पर चञ्चल मुक्ताहार धारण
करनेवाली राधे ! तुम्हारा यह चञ्चल हार संकेत कर रहा है कि तुम भी रतिचपल हो ।
तुम्हारे लिए यह किसलय शय्या नवीन अशोक पत्तों से रचाई गई है। जाओ, इस सुसज्जित शय्या पर विलसो ।
कुसुमचय -
रचित - शुचि - वासगेहे ।
विलस कुसुम -
सुकुमार - देहे ॥
प्रविश.... ॥
३ ॥
अन्वय- अयि कुसुम - सुकुमार देहे (कुसुमेभ्योऽपि सुकुमारः कोमलः
देहः यस्याः तादृशि) राधे कुसुमचय-रचित-शुचिवास-गेहे (कुसुमचयेन पुष्पसमूहेन रचितं
शुचेः शृङ्गारस्य वासगेहं यत्र तस्मिन् निकुञ्जस्याभ्यन्तरे पुष्पगृहरचनाविशेष इति
न पौनरुक्त्यम्) इह (केलिसदने) माधवसमीपं प्रविश [ततश्च] विलस (विहर) ।
[निकुञ्जगृहद्वारगतः प्रियस्त्वां प्रतीक्षते; अतो वाम्यं न युक्तमितिभावः] ॥३॥
अनुवाद – कुसुम से भी मनोहर सुकुमार देह श्रीराधे ! कुसुम – समूह से
सुसज्जित पवित्र केलि-वास भवन में तुम प्रवेश करो और माधव के समीप जाकर उनके साथ
विलास करो।
पद्यानुवाद-
तरल हार धर
विलस उरज पर-
विविध सुमनसे
सजे भवनमें
चल राधा !
पिय-ढिग उपवनमें।
बालबोधिनी - सखी कहती है- तुम्हारा शरीर फूलों से भी अति सुकुमार है
और यह पूरा का पूरा केलिमण्डप चयन किये गये फूलों से रचा गया है और उन फूलों की
चमक से उद्दीप्त हो रहा है, अतएव इस पवित्र शयनगृह में जाओ और श्रीकृष्ण के साथ आमोद करो। चलो,
निर्भय प्रवेश करो, यह तुम्हारा ही घर है।
मृदुचल - मलय
- पवन - सुरभि - शीते ।
विलस
मदन-शर-निकर-भीते ॥
प्रविश.... ॥४
॥
विलस
रसलविलसितगीते - यह पाठ भी
मिलता है।
अन्वय - [अथ उद्दीपनाय अतिशयेन केलिसदनमेव वर्णयति] -
रति-वलित-ललित गीते (रतौ वलितं रतियोग्यं ललितं मनोहरं गीतं यस्याम् अयि तादृशि)
राधे चल-मलयवन- पवन- सुरभि शीते (चलेन मलयवन - पवनेन सुरभि च तत् शीतं शीतलञ्च यत्
तस्मिन्) इह (केलिसदने) माधवसमीपं प्रविश [ततश्च] विलस (विहर) ॥४ ॥
अनुवाद – मदन के बाण समूह से भयभीत राधे ! तुम रतिरस सम्बन्धीय सुललित गीत गा रही हो, तुम कोमल तथा चञ्चल मलय-पवन से प्रवाहित
सुरभित तथा सुशीतल लता - केलि-गृह में प्रवेश करो और माधव के समीप जाकर उनके साथ
विलास करो।
पद्यानुवाद-
मलय वायु यह 'मह मह' बहती,
हुलस मदन-शर
भीते! कहती,
बालबोधिनी
- सखी कहती है-राधे! तुम
मदन के बाणसमूह से भयभीत हो गई हो। अतः तुम इस शृङ्गारगृह में प्रवेश करो। इसमें
मलय पर्वत की दखिनइया बयार झिरझिर बह रही है। पुष्पों के मध्यभाग से आने के कारण
मृदुल स्पर्शवाली यह वायु लताकुञ्ज को और भी सुरभित एवं शीतल बना रही है। जाओ इस
प्रेम मन्दिर में जाकर श्रीकृष्ण के साथ विहार करो, यह तो तुम्हारे भीतर के रस को प्राणों के द्वारा गीतों में
मुखरित करने का क्षण आया है, गाओ, प्रेम
के उन्मादित गीत गाओ।
वितत- बहु-
वल्लि -नव - पल्लव - घने
विलस चिरमलस-
पीनजघने !
प्रविश....
॥५॥
अन्वय- अयि अलस-पीन जघने (अलसञ्च पीनञ्च जघनं यस्याः तादृशि) राधे वितत-बहु वल्लि-नव-पल्लव-घने(विततानां विस्तृतानां बहुवल्लीनां नवैः पल्लवैः घने निविड़े) इह (केलिसदने) माधवसमीपं प्रविश [ततश्च] चिरं विलस [ईदृग्जघनं सफलं कुरु इत्यर्थः] ॥ ५ ॥
अनुवाद
- पीन जघन गुरु भार से सुमन्द अलस गति का सम्पादन करनेवाली
श्रीराधे! सुविस्तृत लताओं के नवीन पल्लवों के द्वारा निविड़तर रूप से आच्छादित इस
लता-केलि निभृत निकुंज में प्रवेश करो और माधव के समीप जाकर उनके साथ विलास करो।
पद्यानुवाद-
बहुवली पल्लव
नव छादित,
विलस अरी चिर
कुंज रमणमें ।
चल राधा !
पिय-ठिग उपवनमें ॥
बालबोधिनी
- सखी कहती है-राधे !
तुम्हारी जाँघें आलस्ययुक्त एवं स्थूल हैं और यह निकुंज भी अति विस्तृत विविध
लताओं से एवं पल्लवों से रचित है, इन लताओं से और भी नये-नये पल्लव प्रस्फुटित हुए हैं जिनसे यह लतानिकुञ्ज
और भी अधिक घना हो गया है। अतः इस कोमल-पत्र-कुंज में अपने प्रियतम श्रीकृष्ण के
साथ चिरकाल पर्यन्त विलास करती रहो।
मधु - मुदित -
मधुपकुल- कलित-रावे ।
विलस मदन- रस-
सरस- भावे ॥
प्रविश....
॥६॥
अन्वय- अयि मदन-रस-सरस भावे (मदनरसेन शृङ्गाररसेन सरसभावः
सारस्यं यस्याः अयि तादृशि) [ईदृगविधायास् तन्निकटप्रवेश एव योग्यः] राधे
मधुमुदित-मधुप-कुल-कलित-रावे (मधुना मकरन्देन मुदितं मत्तं मधुपकुलं भ्रमरवृन्दं
तेन कलितः विहितः रावः गुञ्जनं यत्र तस्मिन्) इह (केलिसदने) माधवसमीपं प्रविश
[ततश्च] विलस ॥ ६ ॥
अनुवाद
- मदन-रस से सरस अनुरागमयी राधे ! मधुपान में प्रमत्त
भ्रमरों के कलनाद से निनादित निकुञ्ज – गृह में प्रवेश करो और माधव के समीप जाकर
उनके साथ विलास करो।
पद्यानुवाद-
गीत भ्रमर
मद-माते गाते,
'सरस भाव' जन-हृदय जगाते-
बालबोधिनी
- सखी कहती है- हे राधे! कामदेव के उद्वेग से उत्पन्न
शृङ्गार रस में तुम भावमयी हो गयी हो। वसन्त में परम आनन्द पानेवाले, पुष्परस के आस्वादन से आनन्दपूर्वक गुंजार
करनेवाले मधुमत्त भौंरो के झुण्डवाले लताभवन में प्रवेश कर प्रेमरस का आस्वादन
करो। यह एक बहुत बड़े आनन्द की भूमिका है, प्रणय-मिलन का
मंगल मुखरण है- चलो, इसमें प्रवेश करो।
मधुरतर - पिक
- निकर - निनद- मुखरे ।
विलस दशन-
रुचि - रुचिर-शिखरे ॥
प्रविश... ॥७
॥
अन्वय- अयि दशन- रुचि रुचिर शिखरे (दशना दन्ता एव रुच्या कान्त्या
रुचिराणि मनोज्ञानि शिखराणि माणिक्यविशेषाः यस्याः अयि तादृशि; पक्वदाड़िमवीजाभं माणिक्यं शिखरं विदुः इति
हारावली: ईदृग्दशनायास्तत्क्रियाविशेषकृत्यमेव योग्यमिति भावः) राधे
मधुरतर-पिक-निकर- निनद-मुखरे (मधुरतरैः निरतिशय- श्रुति-सुखकरैः पिकनिकराणां
कोकिलवृन्दानां निनदैः कूजनैः मुखरे शब्दिते) इह (केलिसदने) माधवसमीपं प्रविश [ततश्च]
विलस (विहर) ॥७ ॥
अनुवाद
- सुपक्व दाड़िम (अनार) के बीज एवं शिखर नामक मुक्ताओं के
समान दशन पंक्तिमयी राधे ! कोकिलनिकर के मधुरतर कूजन – कलाप से मुखरित लता-वास गृह
में तुम प्रवेश करो और माधव के समीप जाकर उनके साथ विलास करो।
पद्यानुवाद-
'विलसो' भर आनन्द स्वरोंमें—
कूक रही कोकिल
मधुवनमें।
चल राधा ! पिय
ढिग उपवनमें ॥
बालबोधिनी - सखी कहती है- हे दशन की दीप्ति से शोभायमान शिखर - मणिमयी राधे ! कोकिलाओं की
अत्यन्त मधुर काकली से गुञ्जायमान इस लता – निकुंज में प्रवेशकर श्रीकृष्ण के साथ
विहार करो। लताओं से सघन इस केलिगृह में श्रीहरि के साथ मनभर विलसो, देर देर तक विलसो ।
विहित
पद्मावती- सुख- समाजे ।
कुरु मुरारे!
मङ्गलशतानि ।
भणति जयदेव -
कविराज-राजे ॥
प्रविश.... ॥८
॥
अन्वय- हे मुरारे विहित पद्मावती- सुख- समाजे (त्वल्लीला- वर्णनेन
विहितः कृतः पद्मावत्या श्रीराधायाः स्वपत्न्या वा सुखसमाजः सुखसन्ततिः येन
तस्मिन् पद्मावती- सुखसम्पादके इत्यर्थः) भणति (तद्रसं कीर्त्तयति) जयदेव -
कविराजराजे (निजेष्टदेवोपासनाया नित्यत्व- सर्वोत्तमत्वनिश्चयावेशेन आत्मानं
बहुमन्यमानस्य कविराज राज इति प्रौढोक्तिरियं ) मङ्गलशतानि (प्रभूतानि मङ्गलानि)
कुरु ( विधेहि ) ॥ ८ ॥
अनुवाद
- कविकुलाधिराज कवि जयदेव के
द्वारा श्रीराधा के विविध आनन्द – प्रसादन के लिए इस स्तुति परक गीतिकी रचना की
गयी है। हे कृष्ण! आप इसका श्रवण कर प्रसन्न होवें और इस जगत का अनन्तान्त मङ्गल -
विधान करें।
बालबोधिनी - कवि जयदेव इस अष्टपदी को श्रीहरि चरणों में समर्पित करते
हुए कहते हैं- हे मुरारे! जयदेव कविराज के इस गीत को श्रवण कर आप सबका हजारों
प्रकार से मङ्गल विधान करें।
लक्ष्मीजी का एक
नाम पद्मावती है, जयदेव की पत्नी का नाम भी पद्मावती है। पद्मावती के आराधक हैं जयदेव जो
कविराजों में सर्वश्रेष्ठ हैं। अतः कविराजवर श्रीहरि से प्रार्थना करते हैं- हे
मुरारे! मैंने प्रासाद के अन्तर में पद्मावती की प्रतिष्ठा की है, आपकी प्रसन्नता के लिए यह कविता की है, आप प्रसन्न
होवें और हमारा शतशः मङ्गल करें। अथवा श्रीजयदेव स्वयं श्रीराधा से अनुरोध कर रहे
हैं- जो लक्ष्मी की सारी सम्पदा, सारा सुख लेकर आज उपस्थित
हैं, आप उन मुरारि के लिए सौ-सौ प्रकार के मङ्गल विधान करें।
उनका मङ्गल तुम्हारे साथ रमण ही है।
गीतगोविन्द सर्ग ११ सामोद दामोदर
त्वां चित्तेन
चिरं वहन्नयमतिश्रान्तो भृशं तापितः
कन्दर्पेण च
पातुमिच्छति सुधा-सम्बाध - विम्बाधरम् ।
अस्याङ्क
तदलङ्कुरु क्षणमिह भ्रूक्षेप - लक्ष्मीलव-
क्रीते दास
इवोपसेवित-पदाम्भोजे कुतः सम्भ्रमः ॥ १ ॥
अन्वय
- [ अथ सखी तस्याः
प्रसादमालक्ष्य कौतुकेन सनमह] - [ सखि] चित्तेन (मनसा त्वां चिरं बहन् ( धारयन् )
[तव पीनस्तन - श्रोणी गुरुभारेण] अतिश्रान्तः, कन्दर्पेण भृशं (अत्यर्थं) तापितश्च;
[अतएव श्रमेण तापने च पिपासितः ] अयं (श्रीकृष्णः ) [व]
सुधासम्वाधम् (सुधया अमृतेन सम्वाधं सङ्कटं व्याप्तमिति यावत् ) विम्बाधरं पातुम्
इच्छति तत् (तस्मात्) अस्य अङ्कं (क्रोड़) क्षणम् अलङ्करु (शोभय) अन्तस्थितायाः
बहिः स्थितस्य पानानुपपत्तेरिति भावः ] । [ ननु अविदित चित्तस्य अङ्कप्रवेशे
मन्मनः सङ्कुचित इतिचेत् तत्राह ] - भ्रूक्षेप - लक्ष्मी-लव- क्रीते (भ्रुवोः
क्षेपः चालनं स एव लक्ष्मीः ऋद्धिः तस्या लवेन लेशेन क्रीते ) [ अतएव]
उपसेवित-पदम्भ (उपसेवितं पदाम्भोजं पादपद्मं येन तादृशे ) दासे इव [ अस्मिन्
श्रीकृष्णे] सम्भ्रमः (सङ्कोचः) कुतः [अल्पमूल्यक्रीते दासे इव क्रयक्रीते शङ्का न
युक्ता, क्रीतस्यैव सेवोपयोगादितिभावः ] ॥१ ॥
अनुवाद
- हे सुन्दरि ! तुम्हारे
सामने अवस्थित अनङ्ग ताप से सन्तप्त श्रीकृष्ण दीर्घकाल से तुमको मन-ही-मन धारण
किये हुए अतिशय क्लान्त हो गये हैं, वे तुम्हारे बिम्बसम अधर की मधुर सुधा का पान करने के लिए
लोलुप हो रहे हैं, तुम अभिलाषी प्रिय के अङ्क को अलंकृत करो।
वे तुम्हारे कटाक्षरूप विपुल वैभव के कणमात्र के क्षण-भर पान करने के लिए
चिरकृतज्ञ हो रहे हैं, उस कटाक्ष - विक्षेपरूपी मूल्य के
द्वारा क्रीतदास की भाँति तुम्हारे पदारविन्द के सेवक हो गये हैं, फिर सम्भ्रम क्यों? कैसी घबराहट?
बालबोधिनी
- सखी श्रीराधा से कहती
है-हे राधे ! आपको चिरकाल तक हृदय में धारण करने के कारण श्रीहरि श्रान्त-क्लान्त
हो गये हैं, अन्दर ही
अन्दर अभितप्त हो गये हैं, कामदेव ने इन्हें अत्यन्त सन्तप्त
कर दिया है, आपके सुधारस से परिपूर्ण कुन्दरु फल के सदृश
अरुण अधरों की मधुराई का पान करना चाहते हैं। इसलिए हे प्रिये! अपने इन अभिलाषी
प्रिय के अंगों की शोभा बनिये एक क्षण के लिए ही कटाक्ष विक्षेप कर तुमने इन्हें
अपना क्रीतदास बना लिया है। तुम्हारे चरणों की सेवा करनेवाले श्रीकृष्ण के अंक को
समलंकृत करो, बिना संकोच के उनके वक्षःस्थल को अलंकृत करो।
इसमें कैसी लज्जा, कैसा भाव और कैसी हिचक?
प्रस्तुत
श्लोक में शार्दूलविक्रीडित छन्द तथा रूपक एवं उत्प्रेक्षा अलंकार है।
सा ससाध्वस-
सानन्दं गोविन्दे लोललोचना ।
सिञ्जान -
मञ्जु - मञ्जीरं प्रतिवेश निवेशनम् ॥ २ ॥
अन्वय
- गोविन्दे (
श्रीहरौ) लोल लोचना (लोले सतृष्णे लोचने यस्याः सा) सा (राधा) शिञ्जानमञ्जुमञ्जीरं
(शिञ्जानः शब्दायमानः मञ्जुमञ्जीरः मनोज्ञनूपुरः यत्र तद्यथा तथा) ससाध्वस-
सानन्दं (ससाध्वसं ससम्भ्रमं सानन्दञ्च यथा तथा; प्रथम-समागमवत् ससाध्वसं विनत्यनन्तर
प्राप्त्या सानन्दमिति ज्ञेयम्) निवेशनं (कुञ्जगृह) प्रविवेश ॥ २ ॥
अनुवाद - श्रीराधा स्पृहायुक्त हृदय से अपने चञ्चल नेत्रों से श्रीगोविन्द का अवलोकन
करती हुई लज्जा और हर्ष से मणिमय नूपुरों से मनोहर शब्द करती हुई निकुंज गृह में
प्रवेश करने लगीं।
पद्यानुवाद-
हुलस उठी राधा
मधुवनमें
अपना ही
प्रतिबिम्ब देखकर अपने जीवन- धनमें ।
चिर अभिलाष
विलास भरे हरि, डूबे हर्ष मदनमें,
सिहर उठी राधा
अति मनमें,
हुलस उठी राधा
मधुवनमें ।
बालबोधिनी
– सखी के द्वारा
समझा-बुझाने पर श्रीराधा ने रतिक्रीड़ा के लिए उपयोगी लता- निकुंज में भीतर-भीतर
कुछ काँपती हुई, कुछ उमगती
हुई, इधर-उधर देखकर साभिलाष श्रीगोविन्द को निहारती हुई,
चरण-नूपुरों को झंकारती हुई प्रवेश किया। प्रविष्ट होते हुए जब
उन्होंने श्रीकृष्ण को देखा तो उन्हें ऐसा लगा कि वे मानो अंग-अंग में श्रीराधा को
ही धारण कर रहे हैं।
इति एकविंशः
सन्दर्भः ।
आगे जारी........ गीतगोविन्द सर्ग 11 सामोद दामोदर अष्ट पदि 22
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