गीतगोविन्द सर्ग १ सामोद दामोदर

गीतगोविन्द सर्ग १ सामोद दामोदर

कवि श्रीजयदेवजीकृत गीतगोविन्द १२ वीं शताब्दी में लिखी गयी एक ऐसी काव्य रचना है जो हमें भगवान श्रीकृष्ण और राधारानी के प्रेम के बारे में बताती है। इसमें कुल १२ अध्याय हैं। इसके सर्ग १ जिसका नाम सामोद-दामोदर है।

गीतगोविन्द सर्ग १ सामोद दामोदर

गीतगोविन्दम् प्रथमः सर्गः सामोद-दामोदरः

गीतगोविन्द सर्ग १ सामोद-दामोदर

Shri Geet govinda sarga 1 Samod Damodar

श्रीगीतगोविन्द पहला सर्ग – सामोद दामोदर

अथ प्रथमः सर्गः

सामोद-दामोदरः  

गीतगोविन्द अध्याय-१ सामोद दामोदरम्

मेघैर्मेदुरमम्बरम् वनभुवः श्यामास्तमालद्रुमैः

नक्तम् भीरुरयम् त्वमेव तदिमम् राधे गृहम् प्रापय ।

इत्थम् नन्दनिदेशितश्चलितयोः प्रत्यध्वकुञ्जद्रुमम्

राधामाधवयोर्जयन्ति यमुनाकूले रहःकेलयः॥ १॥

अन्वय-[कदाचित् बालगोपालेन सह गोष्ठस्थितो नन्दः सायं समये मेघाडम्बरमालोक्य स्वयं कार्यान्तरव्यासक्ततया नन्दनं गृहं नेतुमशक्तः किमपि कार्यमुद्दिश्य तत्रोपस्थितां राधां प्रति आह];-अम्बरं (आकाशतलं) मेघैः मेदुरं (निविड़तमसाच्छन्नतया सान्द्र-स्निग्धं) वनभुवः (आरण्य-प्रदेशाः) तमालद्रुमैः (घनसन्निविष्टैः तमालवृक्षः) श्यामाः (गाढ़नीलवर्णाः) [तथा च] अयं [मम शिशुः] नक्तं (सप्तम्यन्तमव्ययम्, रात्री इत्यर्थः) भीरुः (नितरां भयशीलः) (पूर्वरात्रे) त्वां विहाय अन्याभिः कृतरमणापराधतया त्वत्कृत-बहु-नायिकावल्लभारोपणाशङ्की अतएव भीरुः]; तत् (तस्मात्) हे राधे, त्वमेव इमं (बालगोपालं) गृहं (आलयं) प्रापय (नय); इत्थं (एव) नन्दनिदेशतः (नन्दस्य आज्ञया); [अथवा नन्दयतीति नन्दः, नन्दश्चासौ निदेशश्चेति नन्दनिदेशः श्रीराधासखावचनं तस्मात्] प्रत्यध्वकुञ्जद्रुमं (कुञ्जेनोपलक्षितो द्रुमः कुञ्जद्रुमः, अध्वनः कुञ्जद्रुमोऽध्वकुञ्ज-द्रुमः, तं लक्ष्यीकृत्य तत्रेत्यर्थः) चलितयोः (प्रस्थितयोः) राधामाधवयोः यमुनाकूले रह:केलयः (विजनविहाराः) जयन्ति (सर्वोत्कर्षेण वर्तन्ते)। [श्रीकृष्णस्य स्वयं भगवत्त्वेन सर्वावतारेभ्यः, श्रीराधायाश्च सर्वलक्ष्मीमयत्वेनास्य सर्वप्रेयसीभ्यः श्रेष्ठ्यात् इतिभावः; तथाचोक्तं सूतेन एते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्इति।] वृहद्-गोतमीये च-देवी कृष्णामयी प्रोक्ता राधिका परदेवता सर्वलक्ष्मीमयी सर्वस्यान्तःसंमोहिनी पराइति ॥१॥

अनुवाद-हे राधे! समस्त दिशाएँ घनघोर घटाओं से आच्छादित हो गई हैं। वन वसुन्धरा श्यामल तमाल विटपावली की प्रतिच्छाया से तिमिरयुक्ता हो गई है। भीरु स्वभाववाले कृष्ण इस निशीथ में एकाकी नहीं जा सकेंगे-अतः तुम इन्हें अपने साथ ही लेकर सदन में पहुँचो। श्रीराधाजी, सखी द्वारा उच्चरित इस वचन का समादर करती हुई आनन्दातिशयता से विमुग्ध हो, पथ के पार्श्व में स्थित कुञ्जतरुवरों की ओर अभिमुख हुई और कालिन्दी के किनारे उपस्थित होकर एकान्त में केलि करने लगीं। श्रीयुगल माधुरी की यह रहस्यमयी लीला भक्तों के हृदय में स्फुरित होकर विजयी हो।

पद्यानुवाद

मेघ भरित अम्बर अति श्यामल तरु तमाल की छाया,

कान्ह भीरु ले जा राधे! गृह, व्याप्त रातकी माया ।

पा निर्देश यह नन्द महरका हरि-राधा मदमाते,

यमुन-पुलिनके कुज-कुञ्जमें क्रीड़ा करते जाते ॥१॥

बालबोधिनी- गीतगोविन्द नामक इस प्रबन्ध में श्रीराधामाधव की ऐकान्तिकी प्रेममयी निकुञ्ज लीला का चित्रण किया गया है। रचनाकार महाकवि श्रीजयदेव गोस्वामी ने श्रीराधामाधव की स्मरकेलि-लीला का वर्णन कर उन दोनों की सर्वश्रेष्ठता स्थापित की है। ग्रन्थकृति के प्रारम्भ में श्रीकविराजजी ने तमालवृक्ष के तमःपुञ्ज द्वारा समाच्छादित कुञ्ज-भवन में श्रीराधा-माधव की प्रविष्टि का चित्रण किया है।

परम प्रेयसी श्रीराधा अपनी सखी के वचनों का स्मरण कर श्रीकृष्ण को साथ लेकर कुञ्ज में प्रवेश कर जो सुखक्रीड़ाएँ करती हैं, उन्हीं को मङ्गलाचरण के रूप में प्रस्तुत किया गया है। ग्रन्थ का प्रतिपाद्य-तत्त्व श्रीराधामाधव की लीलामाधुरी है; अतः यह प्रबन्ध सभी के लिए मङ्गलदायी और कल्याणकारी है।

मेधैर्मेदुरमम्बरम्इस श्लोक में कह रहे हैं कि श्रीराधामाधव की सर्वोत्कृष्ट रह: केलि जययुक्त हो। माधवपद के द्वारा इस कार्य की सूचना दी गई है कि यद्यपि श्रीभगवान् लक्ष्मीपति हैं फिर भी उनका श्रीराधा में ही प्रेमाधिक्य है। श्रीकृष्ण स्वयं-भगवान् हैं, सर्व-अवतारी हैं; सभी अवतारों में सर्वश्रेष्ठ हैं; श्रीमद्भागवत में श्रीसूतजी ने ऐसा ही निर्णय किया है। श्रीबृहद्गौतमीय तन्त्र में कहा गया है-

देवी कृष्णामयी प्रोक्ता राधिका परदेवता ।

सर्वलक्ष्मीमयी सर्वस्यान्तःसंमोहिनी परा।

श्रीमती राधिका द्योतमाना, परमा सुन्दरी हैं। ये कृष्णक्रीड़ा की वसति नगरी अर्थात् आश्रय स्वरूपा हैं। कृष्णमयी-कृष्ण इनके भीतर-बाहर अवस्थित रहते हैं। निरन्तर कृष्ण की अभिलाषा पूर्ण करती हैं; समस्त देवताओं में सर्वश्रेष्ठा हैं; समस्त लक्ष्मियों में परम लक्ष्मी-स्वरूपा हैं। सभी की हृदय-स्वरूपा हैं, श्रीकृष्ण-चित्ताकर्षका हैं, परा है।

ये श्रीश्रीराधामाधव इस काव्य-रचना की निर्विघ्न परिसमाप्ति के लिए अनुग्रह प्रदान करें-इस प्रकार कवि के द्वारा शिष्टाचार परम्परा का निर्वाह किया गया है।

जय शब्द से तात्पर्य है-लीलाओं का सर्वोत्कृष्ट और भक्तजनों के द्वारा नमस्करणीय होना। ये लीलाएँ भगवान्की स्वरूपशक्ति की वृत्तिरूपा हैं, अतः ये जययुक्त हों।

अब प्रश्न होता है कि कौन-सी लीलाएँ जययुक्त हों? इसके उत्तर में कहा है-यमुनाकूले-यमुना के तट पर अवस्थित श्रीराधामाधव की कुञ्जगृह की लीला जययुक्त हों। इस पद के द्वारा रतिजनित श्रम को दूर करने वाला शिशिर समीर सम्प्राप्ति युक्तत्व को सूचित किया गया है।

यह कुञ्ज तमाल वृक्षों के द्वारा सघन रूप से आच्छादित होकर श्यामवर्ण हो गया है, इसको लक्ष्य करके पथ का निर्देश किया गया है।

नन्दनिदेशतः’-नन्द अर्थात् जो सबके आनन्द का विधान करते हैं। नन्दश्चासौ निदेशश्चेति-इस प्रकार से यह नन्दमहाराज का निर्देश भी कहा जा सकता है। इस पद से यह भी इङ्गित होता है कि जो सदा सर्वदा आनन्द में डूबे हुए हैं, उन नन्दनन्दन का निर्देश पाकर। यद्यपि नन्दनिदेशतःपद के बहुत प्रकार के अर्थ बतलाये गये हैं, फिर भी उक्त पद का अभिप्राय परम प्रेयसी श्रीराधा अपनी सखी के वचनों को सुनकरही समुचित लगता है, क्योंकि महाराज नन्द का श्रीमती राधा को श्रीकृष्ण के साथ कुञ्ज में विहार करने के लिए आदेश देना कुछ अटपटा-सा रसाभास-सा प्रतीत होता है। वैसे ही स्वयं श्रीकृष्ण का वैसा आदेश भी अटपटा ही प्रतीत होता है। यहाँ यही अभिप्रेत है कि सखी वचन का समादर करती हुई श्रीराधिका कृष्ण को साथ लेकर चलने लगीं। सखीवचन-हे राधे! यह कृष्ण भीरु स्वभावयुक्त हैं क्योंकि पिछली रात तुम्हें छोड़कर दूसरी नायिका के साथ मिलित हुए थे, अपने इस अपराध के कारण तुमसे डरे हुए हैं, उनका भयभीत होना स्वाभाविक ही है। तुम्हारे द्वारा लगाया गया अपराध बहु नायिका-वल्लभठीक ही है, अब तुम ही मर्मपीड़ित श्रीकृष्ण को अपने में प्राप्त कराओ।

गृहं प्रापय’-हे राधे! श्रीकृष्ण को लेकर गृहं प्रापय अर्थात् मञ्जु वृक्षों से सुशोभित केलि सदन में प्रवेश करो, क्योंकि यही तुम्हारे लिए अनुकूल है। अथवा घर में ले जाओ अर्थात् कुञ्जगृह में प्रवेश कराकर गृहस्थ अर्थात् अपने में मिलाकर गृहिणी मान कराओ। गृहं प्रापयइस वाक्य के गृहशब्द में तटस्थ लक्षणा है और गृहशब्द गृह में रहनेवाली गृहिणीरूपी अर्थ को लक्षित करता है तथा प्र-पूर्वक आपधातु उदयार्थक है। एवकार के द्वारा-इनकी भार्या होने योग्य केवल तुम ही हो।

यदि कोई कहे कि उनकी भार्या तो रुक्मिणी हैं क्योंकि कुण्डिन नगरवासी जनों ने रुक्मिणी को आशीर्वाद दिया था-तुम श्रीकृष्ण की भार्या बनो।इसी प्रकार हे राधे! तुम भी इनकी भार्या बनो, क्योंकि वह गृह, गृह नहीं जिसमें गृहिणी न हो।

श्रीराधिका सखी से कहती हैं, इस ज्योत्स्नामयी रात्रि में जनसमूह के मध्य होकर श्रीकृष्ण के साथ में कैसे जाऊँ? तदुत्तर कवि ने अनुकूल समय का चयन किया है। तदनुसार-हे राधे! सम्प्रति आकाश बादलों से भरे हुए होने के कारण मनोज्ञ हो गया है, जिससे चन्द्रमा की किरणें अदृश्य हो रही हैं, श्रीकृष्ण की प्रिया-मिलन की इच्छा को जानकर घटाओं ने मानो चन्द्रमा को समाच्छादित कर लिया है। अथवा जिस प्रकार श्यामवर्ण के मेघों ने गौरवर्ण चन्द्रमा का आलिङ्गन कर रखा है, उसी उद्दीपन से विभावित हो श्रीश्याम गौराङ्गी श्रीराधा से मिलने की तीव्र इच्छा से उत्कण्ठित हो रहे हैं। यह समय भी अनुकूल है। रात्रि की बेला है, वनभूमि तमाल वृक्षों से समाच्छादित होकर श्यामवर्ण हो गई है, चहुँ ओर निविड़ अन्धकार व्याप्त है, कोई तुम्हें देख नहीं सकता। डरने की तनिक भी आवश्यकता नहीं है। इस प्रकार महाकवि ने सूचित किया है कि इस काव्य का अङ्गी-रस रसराज शृङ्गार है। अन्धकारमय रात्रिकाल, मेघाच्छादित अम्बर तथा तमाल वृक्षों से सुशोभित शस्यश्यामला वनभूमि-ये उद्दीपन विभाव हैं; श्रीमती राधा आलम्बन विभाव हैं। रति स्थायी भाव है। हर्ष, आवेग, औत्सुक्य आदि व्यभिचारी भाव हैं। भीरुत्व अनुभाव है। शृङ्गार-रस में नायिका का प्राधान्य होने के कारण श्रीराधाजी का यहाँ पहले निरूपण हुआ है।

इस लीला के अवसर पर सखी इस प्रकार कहेगी-चारों ओर देख सुनकर चलना उचित है-इत्यादि। इन वचनों से-राधे ! जब तक चन्द्र-ज्योत्स्ना दृश्यमाना नहीं होती, तब तक वन में प्रविष्ट हो जाओ।श्रीमद्भागवत में श्रीशुकदेवजी ने १०-३० में कहा है-अन्धकारमय स्थान को देखकर

प्रस्तृत श्लोक में जयति शब्द के द्वारा नमस्कार का बोध होता है, ऐसे काव्य-प्रकाश में भी नमस्कार शब्द से सूचित किया है। यहाँ श्रीराधामाधव की रहःकेलि का जो प्रतिपादन हुआ है, उससे वस्तु निर्देश भी लक्षित होता है तथा यह आशीर्वाद स्वरूप भी है। इसलिए इसे महाकाव्य कहा जाता है।

काव्य के विषय में चर्चा करने पर देखा जाता है कि काव्य ग्रन्थ दो प्रकार के हैं- साधारण काव्य एवं महाकाव्य। महाकाव्य के मङ्गलाचरण श्लोक में तीन पक्षों का वर्णन हआ है-आशीर्वाद, नमस्कार एवं वस्तुनिर्देश। काव्यादर्श में सर्गबन्ध को महाकाव्य कहा गया है। प्रस्तुत श्लोक में श्रीराधामाधव की रहःकेलि का प्रतिपादन हुआ है। अतः यह वस्तुनिर्देशात्मक मङ्गलाचरण है, राधामाधव कहने से दोनों का अविच्छिन्न नित्य सम्बन्ध प्राप्त होता है।

राधाकृष्ण दुहे एक ही स्वरूप ।

लीलारस आस्वादिते धरे दुइ रूप ॥

श्रीचैतन्यचरितामृत में वर्णित इस पयार के अनुसार श्रीराधाकृष्ण दोनों में अव्यभिचारी सम्बन्ध सूचित होता है। ऋक परिशिष्ट में कहा है-राधया माधवो देवो माधवेनैव श्रीराधिका-राधा के साथ माधव एवं माधव के साथ श्रीराधिका विराजमान हैं। राधामाधव इस पद में द्वन्द्व समास के द्वारा दोनों का अभिन्न सम्बन्ध प्रकाशित होता है।

इस श्लोक के पूर्वार्द्ध में समुच्चयालङ्कार तथा उत्तरार्द्ध में आशीः अलङ्कार है। फलतः दोनों की संसृष्टि है। प्रस्तुत श्लोक में वैदर्भी रीति, कैशिकी वृत्ति, संभाविता गीति, मध्य लय, प्रसाद गुण, अनुकूल नायक तथा स्वाधीनभर्तृका नायिका है। इस श्लोक के पूर्वार्द्ध में अभिलाष लक्षण विप्रलम्भ शृङ्गार है तथा शार्दूल-विक्रीडित छन्द है॥१॥

वाग्देवताचरितचित्रितचित्तसद्मा

पद्मावतीचरणचारणचक्रवर्ती ।

श्रीवासुदेवरतिकेलिकथासमेतमेतम्

करोति जयदेवकविः प्रबन्धम् ॥ २॥

अन्वय-वाग्देवताचरितचित्रितचित्तसद्मा (वाग्देवतायाः सरस्वत्याः चरितेन चित्रितं सुशोभितं चित्तमेव सद्म भवनं यस्य तादशः; सर्वविद्याविशारद इत्यर्थः; यद्वा वाचां वक्तव्यत्वेन उपस्थितानां तत्केलिमयीनां देवता वक्ता प्रवर्तकश्च श्रीकृष्णः तच्चरितेन चित्ररूपेण लिखितं चित्तरूपं सद्य गृहं यस्य सः); [तथा] पद्मावतीचरणचारणचक्रवर्ती (पद्मावत्याः लक्ष्म्याः चरणयोः निमित्त भूतयोरेव चारणचक्रवर्ती नर्त्तकश्रेष्ठः; श्रियोऽपि प्रियसेवक इत्यर्थः); जयदेवकविः श्रीवासुदेवरतिकेलिकथासमेतं (श्रीवासुदेवस्य वासुर्नारायणः सचासौ देवश्चेति विग्रहः; श्रीवसुदेवसुतस्य वा रतिकेलिः सुरतोत्सवः तस्य कथा कीर्तनं तत्समेत) एतं प्रबन्धं (ग्रन्थं) करोति ॥२॥

अनुवाद- जिनके चित्त-सदन में समस्त वाणियों के नियन्ता श्रीकृष्ण की चरितावली सुचारु रूप से चित्रित हो रही है, जो श्रीराधाजी के चरणयुगल प्राप्ति की लालसा में निरन्तर नृत्यविधि के अनुसार निमग्न हो रहे हैं, ऐसे महाकवि जयदेव गोस्वामी श्रीकृष्ण की कुञ्ज-विहारादि सुरत लीला समन्वित इस गीतगोविन्द नाम के ग्रन्थ का प्रणयन कर भावग्राही भक्तजनों के उज्ज्वल भक्तिरस को उच्छलित कर रहे हैं॥२॥

पद्यानुवाद

चारु चरित वाणीके चिन्तित मन-मन्दिर में जिसके,

पद्यावती चरण-चारणसे अङ्ग-अङ्ग सिहरे जिसके ।

कवि जयदेव रचित है (जिसकी मति-गति अति तल्लीना)

वासुदेव-श्री-केलि-कथामय, यह प्रबन्ध रस-भीना ॥२॥

बालबोधिनी- पूर्वश्लोक में एक पद के द्वारा सूचित श्रीराधामाधव की लीला स्फूर्ति प्राप्त होने से श्रीजयदेवजी का हृदय अतिशय आनन्द से परिप्लुत हो गया है। उस आनन्दराशि के प्लावन से प्लावित होकर महान् करुणा के पारावार कवि-चक्रवर्ती श्रीजयदेवजी भक्तों पर अनुग्रह प्रकाश करते हुए अपने प्रबन्ध काव्य में अपनी समर्थता वाग्देवताइति श्लोक के द्वारा अभिव्यक्त करते हुए कह रहे हैं-

जयदेवः- जय अर्थात् सर्वोत्कर्षता, देव अर्थात् द्योतयतिप्रकाशयति प्रकाश करते हैं। तात्पर्य यह है कि जो अपनी भक्ति के द्वारा श्रीकृष्ण की लीला की सर्वश्रेष्ठता प्रकाशित करते हैं, ऐसे श्रीजयदेवजी। साथ ही यह गीतगोविन्द नामक प्रबन्धकृति प्रकृष्ट रूप से श्रोताओं के हृदय को आकर्षित करती है अथवा प्रकृष्ट रूप से कृष्णलीला संसार-बन्धन मुक्त कर भक्तजनों के हृदय में उदित होती है।

अब प्रश्न होता है कि ग्रन्थ में श्रोताओं के हृदय को आकर्षित करने की क्षमता कहाँ से आई? इसके उत्तर में कहा है कि श्रीवासुदेव रतिकेलि कला समेतम्। यहाँ श्रीशब्द से राधा का तथा वसुदेव के पुत्र रूप में अवतीर्ण सम्पूर्ण जगत्के स्वामी एवं आत्मास्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण की रतिकेलि-कथा का वर्णन है। वासुदेव अर्थात् वसुवंश को प्रकाशित अथवा उज्ज्वल करनेवाले वसुदेव अर्थात् श्रीनन्दमहाराज जो वसुओं में प्रवर (सर्वश्रेष्ठ) हैं, ऐसे श्रीनन्दजी के पुत्र वासुदेव श्रीकृष्ण हैं। अतः इन दोनों की केलि कथाओं से परिपूर्ण लीलाओं के वर्णन से श्रीजयदेव कवि के हृदय में ऐसी क्षमता प्रकटित हुई। इस प्रकार यह प्रबन्ध सर्व-चित्ताकर्षक है। इस पद की व्युत्पत्ति में श्रीश्च वासुदेवश्च श्रीवासुदेवौ तयो रतिकेलि कथाः ताभिः समेतम् ।

अब प्रश्न होता है-इस प्रबन्ध का वर्णन कैसे हुआ है?

इसके उत्तर में वाणी एवं वक्तव्य रूप में केलि कलामय देवता, वक्ता एवं प्रवर्तक स्वयं श्रीकृष्ण जिनकी चित्तरूपी कन्दरा में सदा अवस्थित हैं, जिनकी इन्द्रियों के अधिष्ठातृ देवता श्रीकृष्ण उनमें शक्ति का सञ्चार करते हैं, ऐसे श्रीजयदेवजी अपने इष्टदेव को वाग्देवता के रूप में निरूपित कर रहे हैं। अतएव इस काव्य की रचना में श्रीकृष्ण का ही कर्तृत्व है।

श्रीजयदेव के चित्त-सद्म में समस्त लीलाएँ चित्रपट की भाँति संग्रथित हैं। चित्रकार के हृदय में जो स्फूर्ति होती है और चित्रफलक में जो उदित होता है वही चित्ररूप में बन जाता है, उसी प्रकार यह केलिचित्रण श्रीजयदेवजी की लेखनी पर अधिष्ठित होकर अंकित हुआ है। कवि का चित्तरूपी सद्म विलक्षण है तथा विचित्र कवितारूपी महाधन का भण्डार है और श्रीराधामाधव के केलि-चरित्रों से चित्रित है। कवि की वाणी और मन भी माधव परायण है। अतः निज कर्तृत्व का उनके द्वारा परित्याग कर दिया गया है।

अब पुनः प्रश्न होता है कि यह सब होने पर भी ऐसी चित्रण-शक्ति कहाँ से आई? इसके उत्तर में कहते हैं-श्री जयदेवजी की कायिकी-वृत्ति श्रीराधापरायणा अर्थात् श्रीराधाजी की प्रेरणा ही उनकी इन्द्रिय शक्ति है। श्रीराधा किस प्रकार उनमें अवस्थित हैं? उत्तर में-श्रीराधाजी पद्मावती हैं। पद्मं करे अस्ति यस्याः सा-यह पद्मावती शब्द की व्युत्पत्ति है अर्थात् जिसके हाथ में कमल विद्यमान है, वे श्रीराधाजी ही पद्मावती हैं। इन श्रीराधाजी के चरणकमलों की प्राप्ति की लालसा से चारण चक्रवर्ती-नर्तक-श्रेष्ठ नट-सार्वभौम श्रीजयदेवजी अपनी वाणीरूपी नृत्य-कला के द्वारा सदा उनकी आराधना में तत्पर हैं। इस प्रसङ्ग से यह भाव भी व्यक्त हो रहा है कि कविराजजी प्रधान रूप से श्रीराधाजी के उपासना-परायण हैं। एक और भी गूढ़ रहस्य है कि महाकवि श्रीजयदेवजी की पत्नी का नाम भी पद्मावती है। वे श्रीराधामाधव युगल की उच्चकोटि की प्रेममयी आराधिका हैं। उन श्रीपद्मावतीजी के प्रति भी महाकवि अपनी कृतज्ञता प्रकाश कर रहे हैं।

प्रस्तुत श्लोक में चित्त तथा सद्म का अभेद रूप होने से रूपकालङ्कार है तथा अनुज्ञालङ्कार भी। वसन्ततिलका छन्द, ओज गुण, गौड़ीया रीति, भारती वृत्ति तथा संभाविता गीति है ॥२॥

यदि हरिस्मरणे सरसम् मनो

यदि विलासकलासु कुतूहलम् ।

मधुरकोमलकान्तपदावलीम्

शृणु तदा जयदेवसरस्वतीम् ॥ ३॥

अन्वय-यदि हरिस्मरणे (श्रीकृष्णचिन्तने) मनः सरसं (रसवत्, स्निग्धमिति यावत्) [कर्तुमिच्छे:]; [तथा] यदि विलासकलासु [गतिस्थानासनादीनां मुखनेत्रादिकर्मणाम्। तात्कालिकन्तु वैशिष्ट्यं विलासः प्रियसङ्गजम्॥ इत्युज्ज्वलनीलमणिः । तात्कालिकं दयितालोकनादिभवम्।] (श्रीकृष्णरतिप्रसङ्गेषु रासकुञादिलीलायाः कलासु वैदग्धीचारुचेष्टासु इत्यर्थः) कुतूहलं (कौतुक) [स्यात्], तदा (तर्हि) मधुरकोमलकान्तपदावली (शृङ्गाररसप्राधान्यात् मधुरा माधुर्यगुणयुक्ताः कोमलाः सरसाः तथा गेयत्वात् कान्ताः मनोज्ञाः पदानाम् आवल्यः पङ्क्तयः यस्यां तादृशीं) जयदेव-सरस्वती (जयदेववाणी तत्कृतप्रबन्धमिति यावत्) शृणु॥३॥

अनुवाद- हे श्रोताओं! यदि श्रीहरि के चरित्र का चिन्तन करते हुए आपलोगों का मन सरस अनुरागमय होता है तथा उनकी रास-विहारादि विलास-कलाओं की सुचारु चातुर्यमयी चेष्टा के विषय में आपके हृदय में कुतूहल होता है तो मनोहर सुमधुर मृदुल तथा कमनीय कान्तिगुणवाले पदसमूह युक्त कवि जयदेव की इस गीतावली को भक्ति-भाव से श्रवण कर आनन्द में निमग्न हो जाएँ।

पद्यानुवाद

यदि हरि-चिन्तन-रस आतुर मन,

यदि रति-भाव हुलासे ।

तो मधु कोमलकान्त पदावलि,

सुनो, स्वर्ग-सुख भासे ॥३॥

बालबोधिनी- इस प्रबन्ध-काव्य की रचना करने में अपनी योग्यता प्राप्त करते हुए सिद्ध अर्थात् प्रतिज्ञात अर्थ के लिए कवि के मन में कोई खेद या विषाद नहीं रहा है। कदाचित् मन्दबुद्धि परायण व्यक्ति इसमें श्रद्धा न रखे, इसलिए इस महाकाव्य के अनुशीलन में अधिकारी का निश्चय किया गया है।

हे भक्तगण! यदि श्रीकृष्ण के निरन्तर स्मरण से मन स्निग्ध हो जाता है तथा उनकी रास-विहार कुञ्ज-विलास (स्त्रियों के हाव-भाव विशेष का नाम विलास है, गमनादि की क्रियाओं को भी विलास कहा जाता है), लीला-चातुरी, विदग्ध-माधुरी आदि चारु-चेष्टाओं के विषय में मन में कौतूहल परायणता होती हो तो शृङ्गार रस के वर्णन करनेवाले कवि जयदेवजी की इस मधुर वाणी का श्रवण करें।

वस्तुतः किसी को सामान्य हरिःस्मरण से और किसी को श्रीहरि की विशिष्ट रासादि लीला के अवलोकन से परानन्द की अनुभूति होती है। अब यह काव्य कैसा है? इसके उत्तर में कहते हैं-यह काव्य शृङ्गार-रस प्रधान और अति मधुर है। इसका अर्थ सहज और बोधगम्य है। इस काव्य के पद अतिशय माधुर्य गुणोपेत-कोमल वर्णनों से ग्रथित तथा रमणीय हैं; क्योंकि वे राधाकृष्ण की कान्ति नामक गुण से युक्त हैं, जैसे-कान्ता कान्त की अतिशय प्रिया होती है, वैसे ही यह कमनीय पदावली भक्तजनों को अतिशय प्रिय है। इससे इसको सङ्गीतात्मकता तथा गेयता प्राप्त है। इसे मधुर कण्ठ से गाया जाना चाहिए।

प्राचीन अलङ्कारशास्त्रियों ने माधुर्य नामक गुण को दो प्रकार का बतलाया है-

शब्दाश्रित और अर्थाश्रित। वाक्यगत पृथक्पदत्व को शब्दाश्रित माधुर्य कहते हैं तथा उक्ति की विचित्रता को अर्थगत माधुर्य कहते हैं। ये दोनों प्रकार के माधुर्य इस काव्य में दृष्टिगोचर होते हैं। शब्द और अर्थगत कोमलता भी इस काव्य में पायी जाती है।

इन पद्यों में अभिधेय, प्रयोजन तथा अधिकारी का निरूपण हुआ है। श्रीराधामाधव की रहःकेलि अभिधेय है, प्रतिपाद्य श्रीराधामाधव हैं और प्रतिपादक ग्रन्थ है। यह स्मार्य-स्मारक सम्बन्ध है। श्रीराधामाधव की केलि-लीला का श्रवण कीर्तन करते हुए अनुमोदनजनित आनन्द का अनुभव और इसमें विभावित अन्तःकरणवाले वैष्णव ही इसके अधिकारी हैं।

इस पद्य में दीपकालङ्कार, पाञ्चाली रीति, कैशिकी वृत्ति तथा द्रुतविलम्बित छन्द है।

वाचः पल्लवयत्युमापतिधरः सन्दर्भशुद्धिम् गिराम्

जानीते जयदेव एव शरणः श्लाघ्यो दुरूहद्रुते ।

शृङ्गारोत्तरसत्प्रमेयरचनैराचार्यगोवर्धन

स्पर्धी कोऽपि न विश्रुतः श्रुतिधरो धोयी कविक्ष्मापतिः॥ ४॥

अन्वय-उमापतिधरः (तन्नामा कविः) वाचः (वाक्यानि) पल्लवयति, (विस्तारयति; सन्दर्भे वागाड़म्बरं प्रदर्शयति, न तु काव्यगुणयुक्ताः करोति) शरणः (तन्नामा कविः) दुरूहद्रुते (दुरूहस्य दुर्बोधस्य सन्दर्भस्य द्रुते शीघ्रवचने) श्लाघ्यः (प्रशंसनीयः) [नतु प्रसादादिगुणयुक्त]; शृङ्गारोत्तरसत्प्रमेयरचनैः (शृङ्गारोत्तराणि शृङ्गार-रसप्रधानानि सन्ति उत्कृष्टानि यानि प्रमेयाणि प्रबन्धाः तेषां रचनैः) कोऽपि [कविः] आचार्य-गोवर्द्धन-स्पी तेन तुल्यः) न विश्रुतः (न ज्ञातः) [नतु रसान्तर-वर्णने]; [तथा] कवि-क्ष्मापतिः (कविराजः) धोयी (तन्नामा कविः) श्रुतिधरः (श्रुत्या श्रवणमात्रेणैव अभ्यासकर्ता इत्यर्थः) नतु [स्वयं कवितारचनायाम्] [परन्तु] जयदेव एव [नत्वन्यः कोऽपि कविः] गिरां (वाचां) सन्दर्भशुद्धिं (विशुद्धग्रन्थन) जानीते [अथवा दैन्योक्तिरियम्-गिरां सन्दर्भशुद्धिं किं जयदेव एव जानीते? न जानीते एव; यत्र उमापतिधरो वाचः पल्लवयतीत्यादि ॥४॥

अनुवाद- उमापति धर नामक कोई विख्यात कवि अपनी वाणी को अनुप्रासादि अलङ्कार के द्वारा सुसज्जित करते हैं। शरण नाम के कवि अत्यन्त क्लिष्ट पदों में कविता का विन्यास कर प्रशंसा के पात्र हुए हैं। सामान्य नायक-नायिका के वर्णन में केवल शृङ्गार रस का उत्कर्ष वर्णन करने में गोवर्द्धन के समान दूसरा कोई कवि श्रुतिगोचर नहीं हुआ है। कविराज धोयी तो श्रुतिधर हैं। वे जो कुछ भी सुनते हैं, कण्ठस्थ कर लेते हैं। जब ऐसे-ऐसे महान् कवि सर्वगुणसम्पन्न नहीं हो सके, फिर जयदेव कवि का काव्य किस प्रकार सर्वगुणसम्पन्न हो सकता है?

बालबोधिनी- कवि जयदेवजी ने अति दैन्य-विनय वचनों के द्वारा स्वयं को पद्मावती श्रीराधारानी के चरणकमलों का चारण चक्रवर्ती कहकर अपना परिचय दिया है, उसी आवेश में अन्य कवियों की कृतियों में प्राकृत भाव अथवा हेयता की उपलब्धि कर अपने काव्य में प्रौढ़ता अर्थात गाम्भीर्य का विस्तार करते हुए कहते हैं- महाराज लक्ष्मणसेन की सभा में छह प्रख्यात विद्वान थे।

(१) उमापतिधर नामक कवि राजा लक्ष्मणसेन के अमात्य थे, वे केवल अपनी वाणी का विस्तार मात्र करना जानते थे, उनके काव्य में वाङ्माधुर्य तथा शब्दार्थ गुणों का अभाव होता था। उन्होंने वाणी को शाखा-प्रशाखाओं में पल्लवित तो किया, परन्तु ग्राह्य नहीं बना पाये थे, फलतः उनका काव्य सहृदय स्वरूपा हादक अर्थात् आनन्ददायिनी न होकर केवल चित्रकोटि के काव्य में सन्निविष्ट होता था।

(२) शरण नाम के कवि दुरूह तथा शीघ्रतापूर्वक कविता का प्रणयन करने के लिए प्रख्यात थे। वे लोकप्रिय तो हुए, परन्तु उनका भी काव्य गूढार्थत्वादि दोषों से युक्त एवं प्रसादादि गुणों से रहित होता था।

(३) गोवर्द्धनाचार्य लक्ष्मणसेन की सभा के तीसरे पण्डित थे। शृङ्गार-रस जो क्रमशः अन्यान्य रसों से श्रेष्ठ है-ऐसे उसके आलम्बन स्वरूप साधारण नायक-नायिका के वर्णन करने में आचार्य गोवर्द्धन का कोई प्रतिस्पर्धी नहीं हुआ। परन्तु वे रसान्तर अर्थात् दूसरे-दूसरे रसों का वर्णन करने में समर्थ नहीं हो सके। उनके काव्य में निर्दोष अर्थ का सन्निवेश होता था।

(४) श्रुतिधर नामक कवि तो अपने गुणों के कारण ही प्रसिद्ध थे। वे केवल एक बार सुनकर ही काव्य को याद कर लेते थे।

(५) धोयी कवि अपनी कविराज की प्रथा से प्रसिद्ध थे। ग्रन्थ के अधिकारी बन तो जाते थे, परन्तु स्वयं कविता का निर्माण नहीं कर पाते थे।

(६) लक्ष्मणसेन की सभा के छठे कवि जयदेव थे। वाणी की शुद्धि केवल भगवान्के नाम, रूप, गुण एवं लीला आदि के वर्णन से होती है। इस वाणी-शोधन की प्रथा एकमात्र कवि जयदेव ही जानते हैं। श्रीमद्भागवत में श्रीनारदजी कह रहे हैं-तद्वाग् विसर्गों जनताघविप्लवो

अथवा कवि ने स्वयं दैन्य प्रकट किया है, तदनुसार इस श्लोक का भावार्थ होगा कि क्या वाणी की शुद्धि कवि जयदेव जानते हैं? नहीं, वे नहीं जानते।

उमापति वाणी का विस्तार कर सकते हैं, शरण कवि दुरूह वाक्यों को शीघ्र रचित करने के लिए प्रसिद्ध हैं, आचार्य गोवर्द्धन के समान कोई कवि हुआ ही नहीं, धोयी कविराज हैं, श्रुतिधर तो श्रुतिधर ही हैं, परन्तु जयदेव कवि कुछ नहीं जानते।

रसमञ्जरीकार लक्ष्मणसेन की सभा के पाँच कवियों को ही स्वीकार करते हैं और वे श्रुतिधरःपद को कवि-विशेष की संज्ञा न मानकर उसे धोयी कवि का ही विशेषण मानते हैं। इस विषय में उनका कहना है कि धोयी कवि तो किसी काव्य को एक बार सुनने मात्र से ही उसे कण्ठस्थ कर लेते हैं।

वाणी की अधिष्ठात्री देवी सरस्वतीजी ने प्रमाणित किया है कि पूर्वोक्त भावार्थ ही ठीक है। भगवान्की लीलाओं के वर्णन के कारण यह रचना समस्त प्रकार के काव्यों में श्रेष्ठ है। यह गीति-काव्य अति महत्वपूर्ण, सरस, गोपनीय एवं मधुर है।

इस श्लोक में शार्दूल विक्रीडित छन्द तथा समुच्चयालङ्कार है ॥४॥

आगे जारी........ गीतगोविन्द सर्ग 1 अष्ट पदि 1

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