अग्निपुराण अध्याय ७२
अग्निपुराण
अध्याय ७२ में स्नान, संध्या और तर्पण की विधि का वर्णन है।
अग्निपुराणम् अध्यायः ७२
Agni puran chapter 72
अग्निपुराण बहत्तरवाँ अध्याय
अग्नि पुराण अध्याय ७२
अग्निपुराणम् अध्यायः ७२- स्नानविशेषादिकथनम्
अथ
द्विसप्ततितमोऽध्यायः
ईश्वर उवाच
वक्ष्यामि
स्कन्द नित्याद्यं स्नानं पूजां प्रतिष्ठया ।
खात्वासिना
समुद्धत्य मृदमष्टाङ्गुलां ततः ॥१॥
सर्वात्मना
समुद्धत्य पुनस्तेनैव पूरयेत् ।
शिरसा
पयसस्तीरे निधायास्त्रेण शोधयेत् ॥२॥
तृणानि
शिखयोद्धत्य वर्मणा विभजेत्त्रिधा ।
एकया
नाभिपादान्तं प्रक्षाल्य पुनरन्यया ॥३॥
अस्त्राभिलब्धयालभ्य
दीप्तया सर्वविग्रहम् ।
निरुद्ध्याक्षाणि
पाणिभ्यां प्राणान् संयम्य वारिणि ॥४॥
निमज्यासीत
हृद्यस्त्रं स्मरन् कालानलप्रभम् ।
मलस्नानं
विधायेत्थं समुत्थाय जलान्तरात् ॥५॥
अस्त्रसन्ध्यामुपास्याथ
विधिस्नानं समाचरेत् ।
भगवान्
महेश्वर कहते हैं— स्कन्द ! अब मैं नित्य नैमित्तिक आदि स्नान,
संध्या और प्रतिष्ठा सहित पूजा का वर्णन करूँगा। किसी तालाब
या पोखरे से अस्त्रमन्त्र (फट्) के उच्चारणपूर्वक आठ अङ्गुल गहरी मिट्टी खोदकर
निकाले। उसे सम्पूर्ण रूप से ले आकर उसी मन्त्र द्वारा उसका पूजन करे। इसके बाद
शिरोमन्त्र ( स्वाहा ) – से उस मृत्तिका को जलाशय के तट पर रखकर अस्त्रमन्त्र से उसका
शोधन करे। फिर शिखामन्त्र ( वषट्) - के उच्चारणपूर्वक उसमें से तृण आदि को निकालकर,
कवच-मन्त्र (हुम्) -से उस मृत्तिका के तीन भाग करे। प्रथम
भाग की जलमिश्रित मिट्टी को नाभि से लेकर पैरतक के अङ्गों में लगावे । तत्पश्चात्
उसे धोकर,
अस्त्र-मन्त्र द्वारा अभिमन्त्रित हुई दूसरे भाग की
दीप्तिमती मृत्तिका द्वारा शेष सम्पूर्ण शरीर को अनुलिप्त करके,
दोनों हाथों से कान-नाक आदि इन्द्रियों के छिद्रों को बंद
कर,
साँस रोक मन-ही-मन कालाग्नि के समान तेजोमय अस्त्र का
चिन्तन करते हुए पानी में डुबकी लगाकर स्नान करे। यह मल (शारीरिक मैल) को दूर
करनेवाला स्नान कहलाता है। इसे इस प्रकार करके जल के
भीतर से निकल आवे और संध्या करके विधि-स्नान करे ॥ १-५ई ॥
सारस्वतादितीर्थानामेकमङ्कुशमुद्रया
॥६॥
हृदाकृष्य तथा
स्नाप्य पुनः संहारमुद्रया ।
शेषं
मृद्भागमादाय प्रविश्य नाभिवारिणि ॥७॥
वामपाणितले
कुर्याद्भागत्रयमुदङ्मुरव: ।
अङ्गैर्दक्षिणमेकाद्यं
पूर्वमस्त्रेण सप्तधा ॥८॥
शिवेन दशधा
सौम्यं जपेद्भागत्रयं क्रमात् ।
सर्वदिक्षु
क्षिपेत् पूर्वं हूं फडन्तशरात्मना ॥९॥
हृदय-मन्त्र(नमः) - के उच्चारणपूर्वक अकुशमुद्रा• द्वारा
सरस्वती आदि तीर्थों में से किसी एक तीर्थ का भावना द्वारा आकर्षण करके,
फिर संहारमुद्रा• द्वारा उसे अपने समीपवर्ती जलाशय में स्थापित करे। तदनन्तर शेष (तीसरे भाग की)
मिट्टी लेकर नाभितक जल के भीतर प्रवेश करे और उत्तराभिमुख हो,
बायीं हथेली पर उसके तीन भाग करे। दक्षिणभाग की मिट्टी को
अङ्गन्यास- सम्बन्धी मन्त्रों द्वारा (अर्थात् ॐ हृदयाय नमः,
शिरसे स्वाहा, शिखायै वषट्, कवचाय हुम्, नेत्रत्रयाय वौषट् तथा अस्त्राय फट् - इन छः मन्त्रों द्वारा)
एक बार अभिमन्त्रित करे। पूर्वभाग की मिट्टी को 'अस्त्राय फट् ' - इस मन्त्र का सात बार जप करके अभिमन्त्रित करे तथा उत्तरभाग
की मिट्टी का 'ॐ नमः शिवाय' - इस मन्त्र का दस बार जप करके अभिमन्त्रण करे। इस तरह
पूर्वोक्त मृत्तिका के तीन भागों का क्रमशः अभिमन्त्रण करना चाहिये। तत्पश्चात्
पहले उन मृत्तिकाओं में से थोड़ा- थोड़ा-सा भाग लेकर सम्पूर्ण दिशाओं में छोड़े।
छोड़ते समय 'अस्त्राय हुं फट् ' का जप करता रहे। इसके बाद 'ॐ नमः शिवाय। - इस शिव – मन्त्र का तथा 'ॐ सोमाय स्वाहा।' इस सोम-मन्त्र का जप करके जल में अपनी भुजाओं को घुमाकर उसे
शिवतीर्थ स्वरूप बना दे तथा पूर्वोक्त अङ्गन्यास- सम्बन्धी मन्त्रों का जप करते
हुए उसे मस्तक से लेकर पैर तक के सारे अङ्गों में लगावे ॥ ६-९ ॥
•1 मध्यमा अँगुली को सीधी रखकर
तर्जनी को निचले पोरुतक उसके साथ सटाकर कुछ सिकोड़ ले यही अङ्कुश मुद्रा है।
•2 अधोमुख वामहस्त पर ऊर्ध्वमुख
दाहिना हाथ रखकर अंगुलियों को परस्पर ग्रथित करके घुमाये यह संहार मुद्रा है।
(मन्त्रमहार्णव)
कुर्याच्छिवेन
सौम्येन शिवतीर्थं भुजक्रमात् ।
सर्वाङ्गमङ्गजप्तेन
मूर्धादिचरणावधि ॥१०॥
दक्षिणेन
समालभ्य पठन्नङ्गचतुष्टयम् ।
पिधाय खानि
सर्वाणि सम्मुखीकरणेन च ॥११॥
शिवं
स्मरन्निमज्जेत हरिं गङ्गेति वा स्मरन् ।
वौषडन्तषडङ्गेन
के कुर्यादभिषेचनम् ॥१२॥
कुम्भपात्रेण
रक्षार्थं पूर्वादौ निक्षिपेज्जलम् ।
स्नात्वा
रजोपचारेण सुगन्धामलकादिभिः ॥१३॥
स्नात्वा
चोत्तीर्य तत्तीर्थं संहारिण्योपसंहरेत् ।
अथातो
विधिशुद्धेन संहितामन्त्रितेन च ॥१४॥
निवृत्यादिविशुद्धेन
भस्मना स्नानमाचरेत् ।
तदनन्तर
अङ्गन्यास सम्बन्धी चार मन्त्रों का पाठ करते हुए दाहिने से आरम्भ करके बायें- तक के
हृदय,
सिर, शिखा और दोनों भुजाओं का स्पर्श करे तथा नाक,
कान आदि सारे छिद्रों को बंद करके सम्मुखीकरण-मुद्रा द्वारा
भगवान् शिव, विष्णु अथवा गङ्गाजी का स्मरण करते हुए जल में गोता लगावे। 'ॐ हृदयाय नमः ।' 'शिरसे स्वाहा।' 'शिखायै वषट्।' 'कवचाय हुम्।' 'नेत्रत्रयाय वौषट् ।' तथा 'अस्त्राय फट् । - इन षडङ्ग- सम्बन्धी मन्त्रों का उच्चारण
करके,
जल में स्थित हो, बायें और दायें हाथ दोनों को मिलाकर,
कुम्भमुद्रा द्वारा अभिषेक करे। फिर रक्षा के लिये पूर्वादि
दिशाओं में जल छोड़े। सुगन्ध और आँवला आदि राजोचित उपचार से स्नान करे। स्नान के
पश्चात् जल से बाहर निकलकर संहारिणी मुद्रा द्वारा उस तीर्थ का उपसंहार करे। इसके
बाद विधि- विधान से शुद्ध, संहितामन्त्र से अभिमन्त्रित तथा निवृत्ति आदि के द्वारा
शोधित भस्म से स्नान करे ॥ १०- १४ ई ॥
शिरस्तः
पादपर्यन्तं हूं फडन्तशरात्मना ॥१५॥
तेन कृत्वा
मलस्नानं विधिस्त्रानं समाचरेत् ।
ईशतत्पुरुषाघोरगुह्यकाजातसञ्चरैः
॥१६॥
क्रमेणोद्धूनयेन्मूर्ध्नि
वक्त्रहृद्गुह्यविग्रहान् ।
सन्ध्यात्रये
निशीथे च वर्षापूर्वावसानयोः ॥१७॥
सुप्ता
भुक्त्वा पयः पीत्वा कृत्वा चावश्यकादिकम् ।
स्त्रीपुन्नपुंसकं
शूद्रं विडालशशमूषिकम् ॥१८॥
स्नानमाग्नेयकं
स्पृष्ट्वा शुचा वुद्धलकं चरेत् ।
सूर्यांशुवर्षसम्पर्कैः
प्राङ्गवेनोर्ध्वबाहुना ॥१९॥
माहेन्द्रं
स्नानमैशेन कार्यं सप्तपदावधि ।
गोसङ्घमध्यगः
कुर्यात् खुरोत्खातकरेणुभिः ॥२०॥
पावनं
नवमन्त्रेण स्नानन्तद्वर्मणाथवा ।
'ॐ अस्त्राय हुं फट् ।' - इस मन्त्र का उच्चारण करके, सिर से पैरतक भस्म द्वारा मलस्नान करके फिर विधिपूर्वक
शुद्ध स्नान करे। ईशान, तत्पुरुष, अघोर, गुह्यक या वामदेव तथा सद्योजात- सम्बन्धी मन्त्रों द्वारा
क्रमशः मस्तक, मुख,
हृदय, गुह्याङ्ग तथा शरीर के अन्य अवयवों में उद्वर्तन (अनुलेप)
लगाना चाहिये। तीनों संध्याओं के समय, निशीथकाल में, वर्षा के पहले और पीछे, सोकर, खाकर, पानी पीकर तथा अन्य आवश्यक कार्य करके आग्नेय स्नान करना
चाहिये। स्त्री, नपुंसक, शूद्र, बिल्ली, शव और चूहे का स्पर्श हो जाने पर भी आग्नेय स्नान का विधान है। चुल्लूभर
पवित्र जल पी ले, यही 'आग्नेय स्नान' है। सूर्य की किरणों के दिखायी देते समय यदि आकाश से जल की
वर्षा हो रही हो तो पूर्वाभिमुख हो, दोनों भुजाएँ ऊपर उठाकर, ईशान मन्त्र का उच्चारण करते हुए,
सात पग चलकर उस वर्षा के जल से स्नान करे। यह 'माहेन्द्र स्नान' कहलाता है। गौओं के समूह के मध्यभाग में स्थित हो उनकी
खुरों से खुदकर ऊपर को उड़ी हुई धूल से इष्टदेव- सम्बन्धी मूलमन्त्र का जप करते
हुए अथवा कवच- मन्त्र (हुम् ) का जप करते हुए जो स्नान किया जाता है,
उसे 'पावनस्नान' कहते हैं ॥ १५-२० ई ॥
सद्योजातादिभिर्मन्त्रैरम्भोभिरभिषेचनम्
॥२१॥
मन्त्रस्नानं
भवेदेवं वारुणाग्नेययोरपि ।
मनसा
मूलमन्त्रेण प्राणायामपुरःसरम् ॥२२॥
कुर्वीत मानसं
स्नानं सर्वत्र विहितं च यत् ।
वैष्णवादौ च
तन्मन्त्रैरेवं स्नानादि कारयेत् ॥२३॥
सद्योजात आदि
मन्त्रों के उच्चारणपूर्वक जो जल से अभिषेक किया जाता है,
उसे 'मन्त्रस्नान' कहते हैं। इसी प्रकार वरुण देवता और अग्नि देवता-सम्बन्धी
मन्त्रों से भी यह स्नान कर्म सम्पन्न किया जाता है। मन-ही-मन मूलमन्त्र का
उच्चारण करके प्राणायामपूर्वक मानसिक स्नान करना चाहिये। इसका सर्वत्र विधान है।
विष्णुदेवता आदि से सम्बन्ध रखनेवाले कार्यों में उन-उन देवताओं के मन्त्रों से ही
स्नान करावे ॥ २१ - २३ ॥
सन्ध्याविधिं
प्रवक्ष्यामि मन्त्रैर्भिन्नैः समं गुह ।
संवीक्ष्य
त्रिः पिवेदम्बु ब्रह्मतीर्थेन शङ्करैः ॥२४॥
स्वधान्तैरात्मतत्त्वाद्यैस्ततः
खानि स्पृशेद्धदा ।
शकलीकरणं
कृत्वा प्राणायामेन संस्थितः ॥२५॥
त्रिः
समावर्तयेन् मन्त्री मनसा शिवसंहिताम् ।
आचम्य न्यस्य
सन्ध्याञ्च ब्राह्मीं प्रातः स्मरेन्नरः ॥२६॥
कार्तिकेय !
अब मैं विभिन्न मन्त्रों द्वारा संध्या- विधि का सम्यग् वर्णन करूँगा। भली भाँति
देख- भालकर ब्रह्मतीर्थ से तीन बार जल का मन्त्रपाठ पूर्वक आचमन करे। आचमन काल में
आत्मतत्त्व, विद्यातत्त्व और शिवतत्त्व- इन शब्दों के अन्त में 'नमः' सहित 'स्वाहा' शब्द जोड़कर मन्त्रपाठ करना चाहिये। यथा 'ॐ आत्मतत्त्वाय नमः स्वाहा।' * ॐ विद्यातत्त्वाय नमः स्वाहा।''ॐ शिवतत्त्वाय नमः स्वाहा।' इन मन्त्रों से आचमन करने के पश्चात् मुख,
नासिका, नेत्र और कानों का स्पर्श करे। फिर प्राणायाम द्वारा
सकलीकरण की क्रिया सम्पन्न करके स्थिरतापूर्वक बैठ जाय। इसके बाद मन्त्र-साधक
पुरुष मन ही मन तीन बार शिवसंहिता की आवृत्ति करे और आचमन एवं अङ्गन्यास करके
प्रातः काल ब्राह्मी संध्या का इस प्रकार ध्यान करे ॥ २४-२६ ॥
हंसपद्मासनां
रक्तां चतुर्वक्त्रां चतुर्भुजाम् ।
प्रस्कन्दमालिनीं
दक्षे वामे दण्डकमण्डलुम् ॥२७॥
तार्क्ष्यपद्मासनां
ध्यायेन्मध्याह्ने वैष्णवीं सिताम् ।
शङ्खचक्रधरां
वामे दक्षिणे सगदाभयम् ॥२८॥
रौद्रीं
ध्यायेद् वृषाब्जस्थां त्रिनेत्रां शशिभूषिताम् ।
त्रिशूलाक्षधरां
दक्षे वामे साभयशक्तिकाम् ॥२९॥
साक्षिणीं
कर्मणां सन्ध्यामात्मानं तत्प्रभानुगम् ।
चतुर्थी
ज्ञानिनः सन्ध्या निशीथादौ विभाव्यते ॥३०॥
संध्यादेवी
प्रातः काल ब्रह्मशक्ति के रूप में उपस्थित हैं। हंस पर आरूढ हो कमल के आसन पर
विराजमान हैं। उनकी अङ्गकान्ति लाल है। वे चार मुख और चार भुजाएँ धारण करती हैं।
उनके दाहिने हाथों में कमल और स्फटिकाक्ष को माला तथा बायें हाथों में दण्ड एवं
कमण्डलु शोभा पाते हैं। मध्याह्नकाल में वैष्णवी शक्ति के रूप में संध्या का ध्यान
करे। वे गरुड की पीठ पर बिछे हुए कमल के आसन पर विराजमान हैं। उनकी अङ्गकान्ति
श्वेत है। वे अपने बायें हाथों में शङ्ख और चक्र धारण करती हैं तथा दायें हाथों में
गदा एवं अभय की मुद्रा से सुशोभित हैं। सायंकाल में संध्यादेवी का रुद्रशक्ति के
रूप में ध्यान करे। वे वृषभ की पीठ पर बिछे हुए कमल के आसन पर बैठी हैं। उनके तीन
नेत्र हैं। वे मस्तक पर अर्धचन्द्र के मुकुट से विभूषित हैं। दाहिने हाथों में
त्रिशूल और रुद्राक्ष धारण करती हैं और बायें हाथों में अभय एवं शक्ति से सुशोभित
हैं। ये संध्याएँ कर्मो की साक्षिणी हैं। अपने-आपको उनकी प्रभा से अनुगत समझे। इन
तीन के अतिरिक्त एक चौथी संध्या है, जो केवल ज्ञानी के लिये है। उसका आधी रात के आरम्भ में
बोधात्मक साक्षात्कार होता है ॥ २७-३० ॥
द्विदुब्रह्मरन्ध्रेषु
रूपा तु परे स्थिता ।
शिवबोधपरा या
तु सा सन्ध्या परमोच्यते ॥३१॥
पैत्र्यं मूले
प्रदेशिन्याः कनिष्ठायाः प्रजापतेः ।
ब्राह्मयमङ्गुष्ठमूलस्थं
तीर्थं दैवं कराग्रतः ॥३२॥
सव्यपाणितले
वह्नेस्तीर्थं सोमस्य वामतः ।
ऋषीणां तु
समग्रेषु अङ्गुलीपर्वसन्धिषु ॥३३॥
ततः
शिवात्मकैर्मन्त्रैः कृत्वा तीर्थं शिवात्मकम् ।
मार्जनं
संहितामन्त्रैस्तत्तोयेन समाचरेत् ॥३४॥
वामपाणिपतत्तोययोजनं
सव्यपाणिना ।
उत्तमाङ्गे
क्रमान्मन्त्रैर्मार्जनं समुदाहृतम् ॥३५॥
ये तीन
संध्याएँ क्रमशः हृदय, बिन्दु और ब्रह्मरन्ध्र में स्थित हैं। चौथी संध्या का कोई
रूप नहीं है। वह परमशिव में विराजमान है; क्योंकि वह शिव सबसे परे हैं, इसलिये इसे 'परमा संध्या' कहते हैं। तर्जनी अँगुली के मूलभाग में पितरों का,
कनिष्ठा के मूलभाग में प्रजापति का,
अङ्गुष्ठ के मूलभाग में ब्रह्मा का और हाथ के अग्रभाग में
देवताओं का तीर्थ है। दाहिने हाथ की हथेली में अग्नि का,
बायीं हथेली में सोम का तथा अँगुलियों के सभी पर्वो एवं
संधियों में ऋषियों का तीर्थ है। संध्या के ध्यान के पश्चात् शिव-सम्बन्धी
मन्त्रों द्वारा तीर्थ (जलाशय) को शिवस्वरूप बनाकर 'आपो हि ष्ठा' इत्यादि संहिता मन्त्रों द्वारा उसके जल से मार्जन करे।
बायें हाथ पर तीर्थ के जल को गिराकर उसे रोके रहे और दाहिने हाथ से
मन्त्रपाठपूर्वक क्रमशः सिर का सेचन करना 'मार्जन' कहलाता है ॥ ३१-३५॥
नीत्वा
तदुपनासाग्रं दक्षपाणिपुटस्थितम् ।
बोधरूपं सितं
तोयं वाममाकृष्य स्तम्भयेत् ॥३६॥
तत्पापं
कज्जलाभासम्पिङ्गयारिच्य मुष्टिना ।
क्षिपेद्वज्रशिलायान्तु
तद्भवेदघमर्षणम् ॥३७॥
स्वाहान्तशिवमन्त्रेण
कुशपुष्पाक्षतान्वितम् ।
शिवायार्घ्याञ्जलिन्दत्त्वा
गायत्रीं शक्तितो जपेत् ॥३८॥
इसके बाद
अघमर्षण करे। दाहिने हाथ के दोने में रखे हुए बोधरूप शिवमय जल को नासिका के समीप
ले जाकर बाँयी- इडा नाड़ी द्वारा साँस को खींचकर रोके और भीतर से काले रंग के पाप-
पुरुष को दाहिनी - पिङ्गला नाडी द्वारा बाहर निकालकर उस जल में स्थापित करे। फिर
उस पापयुक्त जल को हथेली द्वारा वज्रमयी शिला की भावना करके उस पर दे मारे । इससे
अघमर्षण कर्म सम्पन्न होता है। तदनन्तर कुश, पुष्प, अक्षत और जल से युक्त अर्ध्याञ्जलि लेकर उसे 'ॐनमः शिवाय स्वाहा।' इस मन्त्र से भगवान् शिव को समर्पित करे और यथाशक्ति
गायत्रीमन्त्र का जप करे।।३६-३८॥
तर्पणं सम्प्रवक्ष्यामि
देवतीर्थेन मन्त्रकात् ।
तर्पयेद्धौं
शिवायेति स्वाहान्यान् स्वाहया युतान् ॥३९॥
ह्रां हृदयाय
ह्रीं शिरसे ह्रूं शिखायै ह्रैं कवचाय ।
अस्त्रायाष्टौ
देवगणान् हृदादित्येभ्य एव च ॥४०॥
हां वसूभ्योऽथ
रुद्रेभ्यो विश्वेभ्यश्चैव मरुद्भ्यः ।
भृगुभ्यो
हामङ्गिरोभ्य ऋषीन् कण्ठोपवीत्यथ ॥४१॥
अब मैं तर्पण की
विधि का वर्णन करूंगा। देवताओं के लिये देवतीर्थ से उनके नाममन्त्र के उच्चारणपूर्वक
तर्पण करे। 'ॐ हूं शिवाय स्वाहा।' ऐसा कहकर शिव का तर्पण करे। इसी प्रकार अन्य देवताओं को भी
उनके स्वाहायुक्त नाम लेकर जल से तृप्त करना चाहिये। 'ॐ हां हृदयाय नमः । ॐ ह्रीं शिरसे स्वाहा । ॐ हूं शिखायै
वषट् । ॐ हैं कवचाय हुम् । ॐ हौं नेत्रत्रयाय वौषट् । ॐ हः अस्त्राय फट् ।'
– इन वाक्यों को क्रमशः
पढ़कर हृदय, सिर,
शिखा, कवच, नेत्र एवं अस्त्र विषयक न्यास करना चाहिये। आठ देवगणों को
उनके नाम के अन्त में 'नमः' पद जोड़कर तर्पणार्थ जल अर्पित करना चाहिये । यथा - 'ॐ हां आदित्येभ्यो नमः । ॐ हां वसुभ्यो नमः । ॐ हां
रुद्रेभ्यो नमः । ॐ हां विश्वेभ्योदेवेभ्यो नमः । ॐ हां मरुद्भ्यो नमः । ॐ हां
भृगुभ्यो नमः । ॐ हां अङ्गिरोभ्यो नमः । तत्पश्चात् जनेऊ को कण्ठ में माला की
भाँति धारण करके ऋषियों का तर्पण करे ॥ ३९-४१ ॥
अत्रेयेऽथ
वसिष्ठाय नमश्चाथ पुलस्तये ।
कृतवे
भारद्वाजाय विश्वामित्राय वै नमः ॥४२॥
प्रचेतसे
मनुष्यांश्च सनकाय वषट् तथा ।
हां सनन्दाय
वषट् सनातनाय वै वषट् ॥४३॥
सनत्कुमाराय
वषट् कपिलाय तथा वषट् ।
पञ्चशिखाय
द्युभवे संलग्नकरमूलतः ॥४४॥
'ॐ हां अत्रये नमः । ॐ हां वसिष्ठाय नमः । ॐ हां पुलस्तये नमः । ॐ हां क्रतवे
नमः । ॐ हां भरद्वाजाय नमः । ॐ हां विश्वामित्राय नमः । ॐ हां प्रचेतसे नमः । ॐ
हां मरीचये नमः ।'- इन मन्त्रों को पढ़ते हुए अत्रि आदि ऋषियों को (ऋषितीर्थ से)
एक-एक अञ्जलि जल दे। तत्पश्चात् सनकादि मुनियों को (दो-दो अञ्जलि) जल देते हुए
निम्नाङ्कित मन्त्र वाक्य पढ़े- 'ॐ हां सनकाय वषट् । ॐ हां सनन्दनाय वषट् । ॐ हां सनातनाय
वषट् । ॐ ह्रां सनत्कुमाराय वषट्। ॐ हां कपिलाय वषट् । ॐ हां पञ्चशिखाय वषट् । ॐ
हां ऋभवे वषट् ।'- इन मन्त्रों द्वारा जुड़े हाथों की कनिष्ठिकाओं के मूलभाग से
जलाञ्जलि देनी चाहिये ॥ ४२ - ४४ ॥
सर्वेभ्यो
भूतेभ्यो वौषट् भूतान् देवपितृनथ ।
दक्षस्कन्धोपवीती
च कुशमूलाग्रतस्तिलैः ॥४५॥
कव्यबालानलायाथ
सोमाय च यमाय च ।
अर्यम्णे
चाग्निसोमाय वर्हिषयः स्वधायुतान् ॥४६॥
आाज्यपाय च
सोमाय विशेषसुरवत् पितृन् ।
'ॐ हां सर्वेभ्यो भूतेभ्यो वषट्' - इस मन्त्र से वषट्स्वरूप भूतगणों का तर्पण करे। तत्पश्चात्
यज्ञोपवीत को दाहिने कंधे पर करके दुहरे मुड़े हुए कुश के मूल और अग्रभाग से तिल सहित
जल की तीन-तीन अञ्जलियाँ दिव्य पितरों के लिये अर्पित करे। 'ॐ हां कव्यवाहनाय स्वधा । ॐ हां अनलाय स्वधा । ॐ हां सोमाय
स्वधा । ॐ हां यमाय स्वधा । ॐ हां अर्यम्णे स्वधा । ॐ हां अग्निष्वात्तेभ्यः स्वधा
। ॐ हां बर्हिषद्भ्यः स्वधा । ॐ हां आज्यपेभ्यः स्वधा। ॐ हां सोमपेभ्यः स्वधा ।'
- इत्यादि मन्त्रों का
उच्चारण कर विशिष्ट देवताओं की भाँति दिव्य पितरों को जलाञ्जलि से तृप्त करना
चाहिये ॥ ४५ - ४६ ई ॥
ॐ हां ईशानाय
पित्रे स्वधा दद्यात् पितामहे ॥४७॥
शान्तप्रपितामहाय
तथाप्रेतपितृस्तथा ।
पितृभ्यः
पितामहेभ्यः स्वधाथ प्रपितामहे ॥४८॥
वृद्धप्रपितामहेभ्यो
मातृभ्यश्च स्वधा तथा ।
हां
मातामहेभ्यः स्वधा हां प्रमातामहेभ्यश्च ॥४९॥
वृद्धप्रमातामहेभ्यः
सर्वेभ्यः पितृभ्यस्तथा ।
सर्भेभ्यः
स्वधा ज्ञातिभ्यः सर्वाचार्येभ्य एव च ॥५०॥
दिशां
दिक्पतिसिद्धानां मातृणां ग्रहरक्षसाम् ॥५१॥
ॐ हां ईशानाय
पित्रे स्वधा' कहकर पिता को, ॐ हां पितामहाय स्वधा' कहकर पितामह को तथा ॐ हां शान्तप्रपितामहाय स्वधा ।'
कहकर प्रपितामह को भी तृप्त करे। इसी प्रकार समस्त प्रेत
पितरों का तर्पण करे। यथा - 'ॐ हां पितृभ्यः स्वधा । ॐ हां पितामहेभ्यः स्वधा । ॐ हां
प्रपितामहेभ्यः स्वधा । ॐ हां वृद्धप्रपितामहेभ्यः स्वधा । ॐ हां मातृभ्यः स्वधा ।
ॐ हां मातामहेभ्यः स्वधा । ॐ हां प्रमातामहेभ्यः स्वधा । ॐ हां
वृद्धप्रमातामहेभ्यः स्वधा । ॐ हां सर्वेभ्यः पितृभ्यः स्वधा । ॐ हां सर्वेभ्यः
ज्ञातिभ्यः स्वधा । ॐ हां सर्वाचार्येभ्यः स्वधा । ॐ हां दिग्भ्यः स्वधा । ॐ हां
दिक्पतिभ्यः स्वधा । ॐहां सिद्धेभ्यः स्वधा । ॐ हां मातृभ्यः स्वधा ।ॐ हां
ग्रहेभ्यः स्वधा । ॐ हां रक्षोभ्यः स्वधा'- इन वाक्यों को पढ़ते हुए क्रमशः पितरों,
पितामहों, वृद्धप्रपितामहों, माताओं, मातामहों, प्रमातामहों, वृद्धप्रमातामहों, सभी पितरों, सभी ज्ञातिजनों, सभी आचार्यों, सभी दिशाओं, दिक्पतियों, सिद्धों, मातृकाओं, ग्रहों और राक्षसों को जलाञ्जलि दे ॥ ४७ - ५१ ॥
॥इत्यादिमहापुराणे
श्राग्नेये स्नानादिविधिर्नाम द्विसप्ततितमोऽध्यायः॥
इस प्रकार आदि
आग्नेय महापुराण में 'स्नान आदि की विधि का वर्णन' नामक बहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥७२॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 73
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