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- गीतगोविन्द सर्ग १ सामोद दामोदर
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- गीतगोविन्द सर्ग १२ सुप्रीत पीताम्बर
- अष्टपदी २२
- अष्टपदी २१
- गीतगोविन्द सर्ग ११ सामोद दामोदर
- अग्निपुराण अध्याय ७३
- अग्निपुराण अध्याय ७२
- गीतगोविन्द सर्ग १० चतुर चतुर्भुज
- मनुस्मृति अध्याय २
- गीतगोविन्द सर्ग ९ मुग्ध मुकुन्द
- मनुस्मृति अध्याय १
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अद्भुत रामायण सर्ग ६
अद्भुत रामायण सर्ग ६ में हरिमित्रोपाख्यान
तथा कौशिकादि का वैकुण्ठगमन वर्णन किया गया है।
अद्भुत रामायणम् षष्ठ: सर्गः
Adbhut Ramayan sarga 6
अद्भुत रामायण छटवाँ सर्ग
अद्भुतरामायण षष्ठ सर्ग
अद्भुत रामायण सर्ग ६- हरिमित्रोपाख्यान
अथ अद्भुत रामायण सर्ग ६
तस्मिन्क्षणे समारब्धो
मधुराक्षरपेशलैः ॥
महामहोत्सवस्तत्र
कौशिकप्रीतयेऽद्भुतः ॥ १ ॥
विपंचीगुणतत्त्वज्ञैर्वाद्यविद्याविशारदैः
॥
ततस्तच्छ्रवणायालं
चेटीकोटिसमावृत्ता ॥ २॥
उस समय कौशिक की प्रीति के लिए,
मधुर अक्षरों से युक्त वीणा के गुण और तत्त्वों को जाननेवालों ने
तथा वाद्यविद्या में विशारदों ने महामहोत्सव का प्रारम्भ किया । तब उसका श्रवण
करने के लिए करोड़ों दासियों से घिरी हुई ॥ १-२ ॥
गायमाना समायाता
लक्ष्मीविष्णुपरिग्रहः ॥
वृता सहस्त्रकोटी-
भिर्वेत्रपाणिभिराशुगैः ॥ ३ ॥
हाथ में वेत्र धारण करनेवाली,
शीघ्र गमन करनेवाली हजारों दासियों के साथ गान करती हुई
विष्णु-परिग्रहा लक्ष्मी प्राप्त हुई ॥ ३ ॥
ब्रह्मादिसुरसंघानां धनं दृष्ट्वा
समाग- मम् ॥
चेटीगणाधिपा रुष्टा
भुशुंडीपरिघान्विताः ॥ ४ ॥
तब ब्रह्मा आदि देवताओं का घना
समागम देखकर भुशुण्डी - शस्त्र- धारी चेटीगणों के अधिपति रुष्ट हुए ।। ४॥
ब्रह्मादींस्तर्जयंत्यस्तान्मुनोंश्चापि
समन्ततः ।
उत्सार्य दूरं संहृष्ट विष्ठिताः
पर्वतोपमाः ॥ ५ ॥
वे ब्रह्मा आदि उन मुनियों का चारों
ओर से तिरस्कार करने लगे । उन्हें दूर (बिठा) करके स्वयं आनन्दित होकर पर्वत के
समान ( वहाँ ) बैठ गये ।। ५ ।।
सर्वे बहिविनिर्याताः सार्द्धं वै
ब्रह्मण सुराः ॥
युक्तमित्येव भावन्तः प्रभोरग्रे
वयं तु के ॥ ६ ॥
ब्रह्मा के साथ बाहर निकाले गये
सारे देवता लोग कहने लगे- "ठीक ही तो है । भगवान के सामने हम कौन होते हैं ?"
॥ ६॥
तस्थुः प्रांजलयः सर्वे त्रिदशागत
मन्यवः ॥
तस्मिन्क्षणे समाहूत
स्तुम्बुरुर्मानपूर्वकम् ॥ ७ ॥
अतः क्रोधरहित सब देवता हाथ जोड़कर
खड़े रहे । उस समय तुम्बुरु (गंधर्व) को मानपूर्वक बुलाया गया ॥ ७ ॥
प्रविवेश समीपं वे देव्या देवस्य
चैव हि ।।
तत्रासीनो यथायोगं नानामूर्च्छाक्षरान्वितम्
॥ ८ ॥
जगौ कलपदं हृष्टो विपंचों
चाप्यवादयत् ।
विष्णुना कौशिक प्रीत्यै
प्रत्युक्तो गायकोत्तमः ॥ ९ ॥
वह देवी और देव के निकट आया । यहाँ
उचित रूप से बैठकर अनेक मूर्च्छनाओं से युक्त मधुर पद ( वह) आनंदित होकर गाने लगा
तथा वीणा भी बजाने लगा । कौशिक की प्रीति के लिए विष्णु ने उत्तम गायक नियुक्त
किया ॥ ८-९ ॥
नानारत्नसमायुक्तदिव्यंराभरणोत्तमैः
।
दिव्यमाल्यैश्च वसनैः पूजितो
विष्णुमंदिरात् ॥ १० ॥
निर्गतस्तुम्बुरुहृष्टो जगाम स
यथागतम् ॥
ब्रह्माद्यास्त्रिदशाः सर्वे
मुनयश्च यथागतम् ।। ११ ॥
अनेकविध रत्नों से युक्त उत्तम,
दिव्य आभूषणों से तथा दिव्य माला और वस्त्रों से पूजित होकर ( वह )
विष्णु के मंदिर से आनंदित होकर जैसा आदरपूर्वक तुम्बुरु आया था, वैसा ही विदा हुआ । ब्रह्मा आदि देवता तथा सब मुनि भी जैसे आये थे,
उसी प्रकार ।। १०-११ ।।
जग्मुर्विष्णुं प्रणम्योच्चैर्जयेति
भाषिणस्ततः ।
नारदोऽथ मुनिर्दृ ष्ट्वा तुंबरोः
सत्क्रियां हरेः ॥ १२ ॥
विष्णु को प्रणाम करके 'जय हो' ऐसा कहते हुए विदा हुए। अब नारदमुनि विष्णु
द्वारा किया हुआ तुम्बुरु का सत्कार देखकर ।। १२ ।।
शोकाविष्टेन मनसा संतप्तहृदयेक्षणः
॥
चिन्तामापेदिवांस्तत्र शोकमूर्च्छाकुलांतरः
।। १३ ।।
शोकपूर्ण मन से,
संतप्त हृदय से और शोक की मूर्च्छा से व्यथित अतःकरण वाले होकर
सोचने लगे ॥ १३ ॥
ततः क्रोधेन महता जज्वाल मुनिपु-
गवः ।
लक्ष्मीं शशाप सहसा
तद्दासीभिस्तिरस्कृतः ॥ १४ ॥
तब वह मुनिश्रेष्ठ महा क्रोध से
जलने लगे । उन (लक्ष्मीजी) की दासियों से तिरस्कृत ( मुनि) ने सहसा लक्ष्मीजी को
शाप दे दिया । १४ ॥
यदहं राक्षसं भावं गृहीत्वा विष्णु
कांतया ॥
चेटोभिर्वारितो दूरं वेत्राघातेन
ताडितः ॥ १५ ॥
"विष्णुपत्नी मे मुझे
राक्षसभाव से ग्रहण करके दासियों द्वारा बहिष्कृत करवाया है तथा वेतघात से ताड़न
करवाया है ।।१५।।
तस्मात्संजायतां लक्ष्मी रक्षसां
गर्भसंभवा ॥
यतोऽहं बहिराक्षिप्तश्चेटीभिः
सावहेलनम् ।। १६ ।।
इसलिए राक्षस के गर्भ से लक्ष्मी का
जन्म होगा । मैं चेटियों द्वारा तिरस्कारपूर्वक बाहर निकाला गया हूँ ॥१६॥
हेल्या राक्षसी च त्वां बहिः
क्षेप्स्यति भूतले ।
इत्युक्ते नारदेनाथ चकंपे
भुवनत्रयम् ।। १७ ।।
अतः राक्षसी लीलापूर्वक तुमको
पृथ्वी पर बाहर फेंक देगी।" बाद में जब इस प्रकार कहा,
तब तीनों भुवन कंपित हो उठे ।। १७ ।।
हाहाकारं
ततश्चक्रुर्देवगंधर्वदानवाः ॥
नारदो विललापाथ धिग्धिङ मामिति च
ब्रुवन् ॥ १८ ॥
उस समय देव-गंधर्व और दानव हाहाकार
करने लगे,
तथा 'मुझे धिक्कार हो' ऐसा
बोलते हुए नारद विलाप करने लगे - ॥ १८ ॥
नारायणसमायोगो महालक्ष्मीसमीपतः ।
अहो तुंबुरुणा प्राप्तो धिङमां
मूढमचेतनम् ।। १९ ।।
"अहो ! तुम्बुरु को महालक्ष्मी
के समीप नारायण का योग प्राप्त हुआ । मूढ़ अचेतन मुझे धिक्कार हो ।। १९ ।।
योऽयं हरेः सन्निकासावर्तनर्वासितः
कथम् ।।
जीवन्यास्यामि कुत्राहं किं मे
तुंबुरुणा कृतम् ॥ २० ॥
दूतों द्वारा विष्णु के सान्निध्य
से क्यों दूर किया गया ? अब जीता हुआ मैं
कहाँ जाऊँगा ? तुम्बुरु ने मेरी क्या दुर्दशा कर दी ?"
॥ २० ॥
रोदमानो मुहुवद्वान्धिमामिति च
चितयन् ।
ततो नारायणो लक्ष्म्याः शापं
श्रुत्वा सुदारुणम् ।। २१ ।।
वह विद्वान् 'मुझे धिक्कार हो', ऐसा सोचकर बार-बार रोने लगे । (
तब ) लक्ष्मी को ( दिये गये ) दारुण शाप को सुनकर नारायण ॥ २१ ॥
लक्ष्म्या सह हृषीकेश आजगाम यतो
मुनिः ।
रमां प्रसाद्य तं विप्रं प्रत्युवाच
कृतांजलिः ॥२२॥
हृषीकेश लक्ष्मी के साथ जहाँ मुनि
थे,
वहाँ पधारे। मुनि को प्रसन्न करके हाथ जोड़कर लक्ष्मीजी बोलीं- ॥ २२
॥
यदुक्तं भवता मह्यं तत्तथा न
तदन्यथा ।
तत्र किंचित्प्रार्थयामि मुने
तत्कृपया कुरु ॥ २३ ॥
"आपने मुझे जो कहा है,
वह वैसा ही होगा, अन्यथा नहीं होगा । उसके
बारे में मैं कुछ विनती करती हूँ । हे मुनि! कृपा करके वैसा कीजिए ।। २३ ।।
आरण्यानां मुनीनां वै स्तोकं स्तोकं
च शोणितम् ॥
कलशापूरितं भक्षेद्राक्षसी या च
कामतः ॥ २४ ॥
कलश में भरा हुआ वनवासी ऋषियों का
थोड़ा-थोड़ा रक्त जो राक्षसी अपनी इच्छा से भक्षण करेगी ॥ २४ ॥
तस्या गर्भे भविष्यामि
तच्छोणितसमुद्भवा ॥
इत्युक्तं रमया चित्यासंभवान्नो
भवेदिति ॥ २५ ॥
उसी के गर्भ से उस रुधिर से मैं
स्वयं जन्म लूंगी", पुनः लक्ष्मी ने
कहा - " ( परन्तु ) ऐसा कार्य अचिन्त्य होने के कारण संभव प्रतीत नहीं
होता" ।। २५ ।।
नारदस्तु तथेत्याह अस्याः सर्व हि
वारुणम् ॥
ततो नारायणो देवः प्रोक्तवान्नारदं
मुनिम् ॥ २६ ॥
नारद ने कहा- "वैसा ही होगा ।
परन्तु इस प्रसंग में सब कुछ दारुण ही दारुण ( भयंकर ) है ।" तब भगवान नारायण
ने नारद मुनि से कहा- ।। २६ ।।
नाहं दानेन तपसा नेज्यया नापि
तीर्थतः ॥
संतुष्यामि द्विजश्रेष यथा नाम्नां
प्रकीर्तनात् ॥ २७ ॥
"हे द्विजश्रेष्ठ ! मैं दान,
तप, यज्ञ या तीर्थ से वैसा संतुष्ट नहीं होता,
जैसा नाम संकीर्तन से होता हूँ ।। २७ ।।
गानेन नामगुणयोर्मम सायुज्य
माप्नुयात् ॥
निदर्शनं कौशिकोऽत्र
गानान्मल्लोकमाप्तवान् ॥ २८॥
(मेरे) नाम और गुण के गान से भक्त सायुज्य को
प्राप्त होता है । यहाँ उदाहरणरूप है कौशिक, जिसने
गान से सालोक्य मुक्ति प्राप्त की है ।। २८ ।।
मूर्च्छनादियुतं गानं नाम्नामति मम
प्रियम् ॥
तुंबुरुस्तत्प्रभावे
प्रियस्त्वत्तोपि मे द्विज ।। २९ ।।
मूर्च्छना आदि से जो मेरा नाम संकीर्तन
करता है,
वह मेरा अति प्रिय होता है । इसी के प्रभाव से हे द्विज, मुझे तुमसे भी अधिक तुम्बुरु प्रिय है ।। २९ ।।
मूर्च्छनातालयोगेन गानेन त्वं तथ भव
।।
उलूकं पश्य गत्वा त्वं यदि गाने
मतिस्तव ॥ ३० ॥
तुम ( भी ) मूर्च्छना ताल से युक्त
गान द्वारा वैसी योग्यता प्राप्त कर लो । यदि गान में तुम्हारी रुचि है तो जाकर
उलूक से मिलो ॥ ३० ॥
मानसोत्तरशैले तु गानबंधुरिति
स्मृतः ।
तद्गच्छ शीघ्रं शैलेंद्र
गानवांस्त्वं भविष्यसि ।। ३१ ।।
मानसरोवर के उत्तर में पर्वत पर वह 'गानबंधु' नाम से विख्यात है। तो तुम शीघ्र ही उस
पर्वतश्रेष्ठ (की दिशा में) चले जाओ। तुम गान-विद्या-संपन्न हो जाओगे" ।। ३१
।।
इत्युक्तो विस्मयाविष्टो नारदो
वाग्विदां वरः ॥
मानसोत्तरशैले तु गानबंधु जगाम वै ॥
३२ ॥
ऐसा कहने पर वक्ताओं में श्रेष्ठ
नारदजी विस्मययुक्त मानसोत्तर पर्वत पर 'गानबंधु'
के पास गये ॥ ३२ ॥
गंधर्वाः किन्नरा यक्षास्तथा
चाप्सरसां गणाः ॥
समासीनास्तु परितो गानबंधुश्च
मध्यतः ॥३३॥
वहाँ गंधर्व,
किन्नर, यक्ष तथा अप्सराओं का समूह चारों ओर
बैठा हुआ था तथा मध्य में 'गानबंधु' विराजमान
थे ॥३३॥
गानाशिक्षासमापन्नाः शिक्षिता स्तेन
पक्षिणा ।
स्निग्धकंठस्वरास्तत्र समासीना
मुदान्विताः ॥ ३४ ॥
उस पक्षी ने अनेकों को शिक्षित करके
गान-विद्या में निपुण कर दिया था। मधुर कंठस्वर वाले अनेक आनंदित हो वहाँ बैठे थे
।। ३४ ॥
ततो नारदमालोक्य गानबंधुरुवाच ह ।।
प्रणिपत्य यथा न्याय्यं
स्वागतेनाभ्यपूजयत् ।। ३५ ।।
तब नारद को देखकर गानबंधु ने
(विधिपूर्वक) प्रणाम करके (नारद का) पूजन से स्वागत किया और बोले - ।। ३५ ।।
किमर्थं भगवन्नत्र चागतोऽसि
महद्युते ।।
किं कार्यं हि महाब्रह्मन्ब्रूहि
किं करवाणि ते ।। ३६ ॥
"हे महातेजस्वी भगवान् ! आप
किस हेतु से यहाँ पधारे हैं ? हे
महाब्रह्मन् ! यहाँ पर आपका क्या काम है ? कहिए, मैं आपके लिए क्या करूँ ?" ।। ३६ ।।
तच्छुवा नारदो धीमान्प्रत्युवाच
सपक्षिणम् ।
उलूकेन्द्र महाप्राज्ञ शृणु सर्वं
यथातथम् ।। ३७ ।।
यह सुन बुद्धिमान उस पक्षी से नारद
ने कहा- "हे महाबुद्धिशाली उलूकेन्द्र ! आप सब कुछ सुनिए ॥ ३७ ॥
मम वृत्तं प्रवक्ष्यामि तच्च भूतं
महाद्भुतम् ।
वैकुण्ठनगरेब्रह्मन्नारायणसमीपगम्
।। ३८ ।।
मैं अपना अति अद्भुत वृत्तान्त आपको
बताता हूँ ! हे ब्रह्मन् ! बैकुण्ठनगर में नारायण के निकट गये हुए ॥ ३८ ॥
मां विनिर्धूय संदृष्टं समाहूय च
तुंबुरुम् ।
लक्ष्मीसमन्वितो
विष्णुशृणोद्गानमुत्तमम् ॥ ३९॥
"मेरा तिरस्कार करके तुम्बुरु
को बुलाकर लक्ष्मी सहित विष्णु ने उनके गान का श्रवण किया ।। ३९ ।।
ब्रह्मादयो वयं सर्वे निरस्ताः
स्थानतश्च्युताः ॥
कौशिकाद्याः समासीना गानयोगेन वं
हरिम् ॥ ४० ॥
ब्रह्मा आदि हम सब बाहर निकाल दिये
गये तथा वहाँ बैठे हुए कौशिक आदि ने गानयोग से हरि का ॥ ४० ॥
समाराध्यैव संप्राप्ता गाणपत्यं
यथासुखम् ॥
तेनाहमतिदुःखा यत्तप्तं तु मया तपः
॥ ४१ ॥
समाराधन किया। इससे उन्होंने
गाणपत्य पद की सुखपूर्वक प्राप्ति की। इससे मैं दु:ख से अत्यंत कातर हो गया हूँ। मैंने
जो कुछ तप किया है, ॥ ४१ ॥
यद्दत्तं यद्युतं चैव यच्चापि
श्रुतमे हि ॥
यदधीतं च गानस्य कलां नार्हति
षोडशीम् ॥ ४२ ॥
जो दान किया है,
हवन किया है तथा जो कुछ श्रवण किया है, विद्या
प्राप्त की है, वह गान -विद्या की सोलहवीं कला के बराबर भी
नहीं है"॥ ४२ ॥
विष्णोर्माहात्म्ययुक्तस्य
गानयोगस्य वै ततः ॥
पश्चात्तापं च दृष्ट्वा मां च
नारायणोऽब्रवीत् ॥ ४३ ॥
विष्णु के माहात्म्ययुक्त गानयोग (
की अधिकता ) को देखकर बने हुए मेरा पश्चात्ताप देखकर नारायण ने कहा- ॥ ४३ ॥
उलूकं गच्छ देवर्षे गानब मतिर्यदि ।
गाने च वर्तते ब्रह्मस्तत्र त्वं
गानमाप्स्यसि ॥ ४४ ॥
"हे देवषि ! यदि गान में
तुम्हारी इच्छा हो तो गानबन्धु उलूक के पास जाओ, वह गान का आचार्य है । हे ब्रह्मन् ! वहाँ तुमको गानप्राप्ति होगी" ॥
४४ ॥
इत्यहंप्रेषितस्तेन
त्वत्समीपमिहागतः ।
किं करिष्यामि शिष्यो तब मां
पालयाव्यय ॥४५ ॥
इस प्रकार उनके द्वारा भेजा हुआ मैं
यहाँ आपके पास आया हूँ ! मैं क्या करूँ ? हे
अव्यय ! मैं आपका शिष्य हूँ । आप मेरा पालन कीजिए" ।। ४५ ।।
नारदं प्राह धर्मात्मा गानबन्धुर्मह
यशः ।
शृणु नारद यद्वृत्तं पुरा मम महामते
॥ ४६ ॥
धर्मात्मा,
महान् यशस्वी गानबन्धु ने नारद से कहा - " हे नारद ! हे महामति
! मेरे पूर्वजन्म का वृत्तान्त सुनिए ! ॥४६॥
अत्याश्चर्यसमायुक्तं सर्वपापहरं
शुभम् ॥
भुवनेशइति स्यात राजाभूद्धार्मिकः
पुरा ।। ४७ ।।
जो कि अत्यन्त आश्चर्यमय तथा पापों
का हरण करनेवाला एवं शुभ है। पहले के जमाने में 'भुवनेश' नाम से सुविख्यात एक धार्मिक राजा था ॥ ४७ ॥
अश्वमेधसहस्रैश्च वाजपेया युते च ।।
अन्यैश्च
विविधैर्यज्ञैरिष्टवान्भूरिदक्षिणैः ॥ ४८ ॥
उसने सहस्र अश्वमेध,
दस सहस्र वाजपेय तथा और भी अनेक बड़ी-बड़ी दक्षिणा वाले यज्ञ किये ॥
४८ ॥
गवां कोटयर्बुदं चैव सुवर्णस्य तथैव
च ॥
वाससां रथनागानां कन्या श्वानां
तथैव च ।। ४९ ।।
(और) करोड़ों गौ,
अरबों सुवर्ण मुद्रा, वस्त्र, रथ, हाथी, कन्या, अश्व आदि ।। ४९ ।।
दत्त्वा स राजा विप्रेभ्यो मेदिनीं
पर्यपालयत् ।।
न्यवारयत्त्वके राज्ये गानयोगेन
केशवम् ॥ ५० ॥
( दक्षिणा में ) ब्राह्मणों को देकर
उस राजा ने पृथ्वी का पालन किया । (तथा) अपने राज्य में गानयोग से केशव का निवारण
किया (तथा) उसने घोषणा की - ॥ ५० ॥
अन्यं वा गानयोगेन गायेद्यदि स मे
भवेत् ॥
वध्यः सर्वात्मना तस्माद्वेवैरीडः
परः पुमान् ॥ ५१ ॥
'यदि कोई दूसरा (व्यक्ति) गानयोग
से ( हरि का) गान करेगा तो वह मेरे लिए
वध्य होगा; कारण, परपुरुष की स्तुति
वेद-वचनों से ही की जाती है ।। ५१ ।।
न ब्राह्मणैश्च गातव्यं वह-
द्भिर्वेदमुत्तमम् ॥
गानयोगेन सर्वत्र स्त्रियो गायंतु
मां सदा ॥ ५२ ॥
उत्तम वेदधारी ब्राह्मणों को गान
नहीं करना चाहिए। गानयोग से सर्वत्र स्त्रियाँ मेरा गान करें ।। ५२ ॥
सूतमागधसंघाश्च गीतं मे कारयन्तु वै
।।
इत्याज्ञाप्य महातेजा राज्यं वै
पर्यपालयत् ॥ ५३ ॥
सूत और मागधों के संघ मेरा ही गान
करवाये,
इस प्रकार आज्ञा करके वह महातेजस्वी (राजा) राज्य का पालन करने लगा
।। ५३ ॥
तस्य राज्ञः पुराभ्याशे हरिमित्र
इति स्मृतः ॥
ब्राह्मणो विष्णुभक्तश्च
सर्वद्वंद्वनिर्वाजितः ॥ ५४ ॥
उस राजा के नगर के समीप 'हरिमित्र' नाम का सारे द्वन्द्वों से रहित
विष्णुभक्त ब्राह्मण था ।। ५४ ।।
नदीपुलिनमासाद्य प्रतिमाञ्च हरेः
शुभाम् ॥
समभ्यर्च्य यथाशास्त्रं
घृतदध्युत्तरं बहु ।। ५५ ।।
( वह) नदी के किनारे जाकर विष्णु की
प्रतिमा का शास्त्रानुसार अर्चन करके घृत, दही-
सहित ।। ५५ ।।
मिष्टान्नं पायसं दत्त्वा
हरेरावेद्य धूपकम् ॥
प्रणिपत्य यथान्यायं तत्र
विन्यस्तमानसः ।। ५६ ।।
मिष्टान्न तथा खीर देकर एवं भगवान
को धूप का निवेदन करके, यथायोग्य प्रणाम
करके, उसमें चित्त लगाकर ।। ५६ ।।
अगायत हरि तत्र तालवीणालयान्वितम्
।।
अतीव
स्नेहसंयुक्तस्तद्गीतेनान्तरात्मना ।। ५७ ॥
ताल, वीणा, लय सहित नारायण का गान करता था तथा तन्मयता से
गाने के कारण अतिशय स्नेहपूर्ण बन जाता था ॥ ५७ ॥
ततो राज्ञः समादेशा लुटास्तस्य
समागताः ।
तदर्चनादि सकलं निर्धूय च समन्ततः ॥
५८ ॥
तब राजा की आज्ञा से वहाँ भट
उपस्थित हुए, तथा चारों ओर से पूजन आदि की
सामग्री नष्ट करके ॥ ५८ ॥
ब्राह्मणं च गृहीत्वा ते राज्ञे
सम्यङन्यवेदयन् ॥
ततो राज द्विजश्रेष्ठ परिभत्
सुदुर्मनाः ।। ५९ ।।
वे ब्राह्मण को पकड़कर राजा के पास
ले गये । तब अत्यन्त दुःखी होकर राजा ने द्विजश्रेष्ठ का तिरस्कार करके ।। ५९ ।।
राज्याशिर्वासयामास हृत्व
सर्वधनादिकम् ।
प्रतिमां च हरेश्चैव नापश्यत्स
यदृच्छया ।। ६० ॥
( उसका ) सब धन वग़ैरह हरण करके उसे
राज्य से निकाल दिया । उस राजा ने अपनी इच्छा से नारायण की मूर्ति का भी दर्शन
नहीं किया ।। ६० ।।
ततः कालेन महता कालधर्ममुपेयिवान् ॥
लोकान्तरमनुप्राप्य उलूकं
देहमाश्रितः ॥ ६१ ॥
फिर लम्बे समय के बाद वह काल-धर्म
(मृत्यु) को प्राप्त हुआ । लोकान्तर को प्राप्त करके उसने उलूक के देह का आश्रय
लिया ॥ ६१ ॥
सर्वत्र गच्छमानोपि भक्ष्यं किंचि
चाप्तवान् ॥
क्षुधार्तश्च सदा खिन्नो यममाह
सुदुःखितः ६२ ॥
सर्वत्र जाने पर भी उसे कुछ भी
भक्ष्य न मिला। क्षुधा से पीड़ित तथा सदा खिन्न और अतिशय दुःखी होकर उसने यमराज से
कहा - ॥६२॥
क्षुत्पीडा वर्तते देव दुर्गतस्य
सदा मम ।
मया पापं कृतं किंवा कि करिष्यामि
वै यम ॥ ६३ ॥
'हे देव ! हमेशा दुर्गतिवाले मुझे
क्षुधा से बड़ी पीड़ा होती है । मैंने ऐसा क्या पाप कर डाला है ? हे यम ! अब मैं क्या करूं ?' ॥ ६३ ॥
ततस्तं धर्मराट् प्राह
धर्माधर्मप्रदर्शकः ।
त्वया हि सुमहत्पापं कृतमज्ञानतो
नृप ॥ ६४ ॥
तब धर्म और अधर्म को दिखानेवाले
धर्मराज बोले- 'हे राजा तुमने,अज्ञानवश बहुत बड़ा पाप किया है ।। ६४ ॥
हरिमित्रं प्रति तदा वासुदेवपरायणम्
॥
हरिमित्रे कृतं पाप
वासुदेवार्चनादिषु ।। ६५ ।।
वासुदेव परायण हरिमित्र के प्रति उस
समय (तुमने पाप किया है । ) वासुदेव के पूजन आदि के बारे में तुमने हरिमित्र के
प्रति पाप किया है ।। ६५ ।।
तेन पापेन संप्राप्तः
क्षुद्बोधस्त्वां सदा नृप ।
दानयज्ञादिकं सर्वं प्रनष्टं ते
नराधिप ।। ६६ ॥
उस पाप से हे राजा ! तुमको हमेशा
क्षुधा का अनुभव होता है । हे नराधिप ! तुम्हारा दान-यज्ञ आदि सब नष्ट हो गया है ॥
६६ ॥
गीतनाटयलयोपेतं गायमानं सदा हरिम् ॥
हरिमित्रं समाहूय हृतवानसि तद्धनम्
॥ ६७ ॥
सदा गीत नाट्ययुक्त हरि का गान करते
हुए हरिमित्र को बुलाकर तुमने उसका धन ले लिया था ॥ ६७ ॥
उपहारविकं सर्वं वासुदेवस्य सधि ।
तव भृत्याः समाहृत्य पापं
चक्रुतवाज्ञया ।। ६८ ।।
वासुदेव के समीप उपहार वग़ैरह जो
कुछ था,
उस सारी सामग्री को तुम्हारे सेवकों ने तुम्हारी आज्ञा से छीनकर
फेंक देने का पाप किया ।। ६८ ।।
हरेः कीर्ति विना चान्यदब्राह्मणेन
नृपोत्तम ॥
न गेययोगे मंतव्यं तस्मात्पापं
त्वया कृतम् ।। ६९ ।।
हे नृपोत्तम ! हरि की कीर्ति के
अतिरिक्त ब्राह्मणों को दूसरे किसी गानयोग में प्रवृत्त न होना चाहिए । अत: तुमने
पाप किया है ।। ६९ ।।
नष्टं ते स्वर्गलोकाद्यगच्छ
पर्वतकोटरम् ॥
पूर्वोत्सृष्टं स्वदेहं ते खाद
नित्यं निकृत्य वै ॥ ७० ॥
तुम्हारे स्वर्गलोकादि नष्ट हो गये
हैं । पर्वत की कोटर में जाओ (और) पहले जिसका त्याग किया है,
ऐसे (पूर्वजन्म के) शरीर को सदा नोच-नोच के खाते रहो ॥ ७० ॥
तस्मिन्क्षीणे त्वमं देहं खाद
नित्यं क्षुधान्वितः ।।
महानिरय- यसंस्थस्त्वं
यावन्मन्वंतरं भवेत् ॥ ७१ ॥
उस शरीर के क्षीण होने पर फिर
क्षुधा लगने पर तुम इस शरीर का भक्षण करते रहना । इस प्रकार एक मन्वन्तर तक तुम इस
महानरक में निवास करो ।। ७१ ॥
मन्वंतरे ततोऽतीते भूम्यां त्वं
श्वा भविष्यसि ॥
ततः कालेन कियता मानुष्यमनुलप्स्यसे
॥७२॥
मन्वन्तर पूरा होने पर तुम पृथ्वी
पर कुत्ता बनोगे । बाद में कुछ काल बीतने पर तुम मनुष्यत्व को प्राप्त करोगे'
।। ७२ ।।
एवमुक्त्वा यमो विद्वांस्तत्रैवान्तरधीयत
।
सोऽहं नारद भूपाल:
पुरेबानीमुलूकताम् ॥ ७३ ॥
ऐसा कहकर विद्वान् यम वहीं अंतर्धान
हो गये । अतः हे नारद ! मैं राजा पहले उलूकता को ।। ७३ ।।
लब्धवान्कर्मदोषेण हरिमित्रकृतेन वै
।
ततो मानसशैलेऽहं कोटरे हावसं मुने
।। ७४ ॥
प्राप्त करके हरिमित्र के प्रति
किये हुए कर्मदोष से हे मुनि, मानसशैल की
कोटर में रहने लगा ।। ७४ ।।
पूर्वी मृतक देहो में भक्षणाय
ह्युपस्थितः ॥
क्षुधान्वितोऽतंदेहं खादितुं
पचक्रमे ॥७५॥
मेरे भक्षण के लिए पूर्व का मृत देह
उपस्थित हुआ । क्षुधायुक्त होकर मैंने उस देह को खाना आरम्भ किया ।।७५।।
तत्क्षणं दैवयोगेन हरिमित्रो
महायशाः ।
विमानेनार्कवर्णेन
स्तूयमानोऽप्सरोगणैः ७६ ॥
उसी क्षण दैवयोग से महायशस्वी
हरिमित्र सूर्य के समान प्रकाशमान विमान में स्थित अप्सराओं द्वारा जिसकी स्तुति
हो रही थी ।। ७६ ।।
विष्णुदूतैः परिवृतः पथा तेनागतो
नृप ।
विष्णुभक्तो महातेजा पथि मां
दृष्टवान्प्रभु ॥७७॥
विष्णु के दूतों से घिरा हुआ उस
मार्ग से आये हुए उस महातेजस्वी विष्णुभक्त ने मार्ग में मुझे देखा ॥ ७७ ॥
भुवनेशशरीरंतद्ददर्शालूक सन्निधौ ।
पृष्टोऽहं तेन दयया
शवसन्निधिसंस्थितः ॥ ७८ ॥
( उन्होंने ) भुवनेश के शरीर को मुझ
उलूक के समीप देखा । शव के पास बैठे हुए मुझसे उन्होंने पूछा- ॥ ७८ ॥
भुवनेशस्य नृपतेर्देहोऽयं दृश्यते
खग ।
उलूक त्वं च किमिदं खादितुं चोद्यतो
भवान् ।। ७९ ।।
'हे पक्षी ! यह राजा भुवनेश का
शरीर दिखाई देता है । हे उलूक ! तुम इसे खाने के लिए क्यों तत्पर हो ?' ॥७९॥
तच्छ्रुत्वा हरिमित्राय प्रणम्य
विनयान्वितः ॥
कृतांजलिपुटो भत्वा बहुमानपुरः सरम्
॥ ८० ॥
यह सुनकर विनय से हाथ जोड़कर
हरिमित्र को प्रणाम करके बहुत संमानपूर्वक ॥ ८० ॥
तत्सर्वं पूर्ववृत्तांतं नारदास्मै
न्ववेदयम् ।
पुरापराधं त्वयि यत्तस्य
पाकोऽयमागतः ॥८१ ॥
हे नारदजी ! वह सारा पूर्ववृत्तान्त
उनको निवेदन किया और कहा- 'मैंने आपके प्रति
पहले जो अपराध किया है, उसी का यह फल प्राप्त हुआ है ॥८१ ॥
यावन्मन्वन्तरं विप्रखादिष्यामि शवं
त्विमम् ।।
ततः श्वाहं भविष्यामि भविष्वामि ततो
नरः ॥८२॥
हे विप्र ! एक मन्वन्तर तक मैं इस
शरीर को खाता रहूँगा, बाद में मैं कुत्ता
बनूँगा और फिर मनुष्य बनूँगा' ॥८२॥
एतदाकर्ण्य करुणो हरिमित्रा महायशाः
।।
कृपया मां समाचष्ट शृणुलुक महीपते
।। ८३ ।।
यह सुनकर महायशस्वी दयालु हरिमित्र
मुझसे कृपापूर्वक कहने लगे - हे उलूक राजा ! सुनो ॥ ८३ ॥
मयि त्वयापराधं यत्तत्सर्वं
क्षान्तवानहम् ।
शवो ह्यदर्शनं यातु न च श्वा त्वं
भविष्यसि ॥ ८४ ॥
'तुमने मेरे प्रति जो कुछ अपराध
किया है, उन सबको मैं क्षमा कर देता हूँ ! यह शव अदृश्य हो
जाय और तुम भी कुत्ता नहीं बनोगे ॥ ८४ ॥
त्वामद्य गानयोगश्च प्राप्नोतु
मत्प्रसादतः ॥
स्तुहि विष्णुं च गाने जिल्ह्वा
स्पष्टा च जायताम् ।। ८५ ।।
मेरी कृपा से तुमको गानयोग की
प्राप्ति हो । गान से विष्णु की स्तुति करो। तुम्हारी जिह्वा स्पष्ट हो जाय ।।८५।।
सुरविद्याधराणां च गंधर्वाप्सरसां
तथा ।
गानाचार्यो भवेथास्त्वं
भक्ष्यभोज्यसमन्वितः ॥८६॥
देवता,
विद्याधर, गंधर्व तथा अप्सराओं के तुम
गायनाचार्य हो जाओ ! तथा ( अनेक प्रकार के) भक्ष्यभोज्य पदार्थों से युक्त होओ ॥ ८६
॥
ततः कतिपयाहोभिः सर्वं भद्रं
भविष्यति ।
हरिमित्रवचस्तच्च
विष्णुदूतोपबृंहितम् ।। ८७ ।।
बाद में थोड़े दिनों में ही
तुम्हारा सब कुछ कल्याण होगा ।' हरिमित्र के
इस वचन का विष्णुदूतों द्वारा समर्थन किया गया ।। ८७ ।।
सर्वं निरयसंशंमेक्षणादेव व्यनाशयत्
॥
प्रकृत्या विष्णुभक्तानामीदृशो
करुणा द्विज ॥ ८८ ॥
मेरी नरक की सारी सामग्री क्षण
मात्र में नष्ट हो गई । द्विज ! विष्णुभक्तों में स्वभाव से ही इस प्रकार की करुणा
होती है ॥ ८८ ॥
कृतापराधलोकानामपि दुखं व्यपोहति ॥
अमृतस्यन्दि वचनमुक्त्वा स प्रययौ
हरिम् ॥। ८९ ।।
(वे) अपराधी लोगों के दुःख भी दूर
करते हैं ।(इस प्रकार) अमृतपूर्ण वचन कहकर वे विष्णु के पास गये ।।८९।।
सर्वं ते कथितं येन
गानाचार्योहमुतमः ॥
प्रास्यामि हरिमेतेन
हरिमित्रप्रसादतः ।। ९० ।।
जिससे मैं उत्तम गायनाचार्य बना हूँ,
वह सब मैंने कह दिया । इसी फलस्वरूप हरिमित्र के प्रसाद से मैं
विष्णु को भी प्राप्त करूँगा ॥ ९० ॥
नारदैतदनुवर्णितं मया
पूर्वजन्मचरितं महाद्भुतम् ॥
यः शृणोति हरिमेत्य चेतसा स प्रयाति
भवनं गदाभृतः ॥ ९१ ॥
हे नारद ! मैंने अपने अति अद्भुत पूर्वजन्म
के चरित्र का वर्णन किया है । जो इसे ध्यानपूर्वक सुनते हैं,
वे गदा धारण करनेवाले (नारायण) के भवन को प्रयाण करते हैं ।। ९१ ॥
इत्यार्षे श्रीमद रामायणे
वाल्मीकीये अद्भुतोत्तरकाण्डे आदिकाव्ये हरिमित्रोपाख्यान नाम षष्ठः सर्गः ॥ ६ ॥
॥ इस प्रकार श्री वाल्मीकिविरचित
आदिकाव्य रामायण अद्भुतोत्तर काण्ड में हरिमित्रोपाख्यान नाम छटवां सर्ग समाप्त
हुआ ।। ६ ।।
आगे जारी...........अद्भुत रामायण सर्ग 7
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