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अथ द्व्यशीतितमोऽध्यायः
ईश्वर उवाच
वक्ष्ये
संस्कारदीक्षाया विधानं शृणु षण्मुख ।
आवाहयेन्महेशस्य
वह्निस्थस्य शिरो हृदि ।। १ ।।
संश्लिष्टौ तौ
समभ्यर्च्य सन्तर्प्प हृदयान्मना ।
ततोः सन्निधये
दद्यात्तेनैवाहुतिपञ्चकं ।। २ ।।
कुसुमेनास्त्रलिप्तेन
ताडयेत्तं हृदा शिशुं ।
प्रस्फुरत्तारकाकारं
चैतन्यं तत्र बावयेत् ।। ३ ।।
प्रविश्य तत्र
हुङ्कारमुक्तं रेचकयोगतः।
संहारिण्या
तदाकृष्य पूरकेण हृदि न्यसेत् ।। ४ ।।
भगवान् शिव
कहते हैं-षडानन! अब मैं संस्कार- दीक्षा की विधि का वर्णन करूँगा, सुनो- अग्नि में स्थित महेश्वर के शिवा-
शिवमय (अर्ध- नारीश्वर ) रूप का अपने हृदय में आवाहन करे । शिव और शिवा दोनों एक
शरीर में ही परस्पर सटे हुए हैं- इस प्रकार ध्यान द्वारा देखकर उनका पूजन करके
हृदय मन्त्र से संतर्पण करे। फिर उनके संनिधान के लिये हृदय मन्त्र से ही अग्नि में
पाँच आहुतियाँ दे । तदनन्तर अस्त्र-मन्त्र से अभिमन्त्रित पुष्प द्वारा शिष्य के हृदय
में ताड़ना दे, अर्थात् उसके वक्ष पर उस फूल को फेंके। फिर
उसके भीतर प्रकाशमान नक्षत्र की आकृति में चैतन्य (जीव ) - की भावना करे।
तत्पश्चात् हुंकारयुक्त रेचक प्राणायाम के योग से शिष्य के हृदय में भावना द्वारा
प्रवेश करके संहारिणीमुद्रा द्वारा उस जीव चैतन्य को वहाँ से खींचकर पूरक
प्राणायाम के योग से उसे अपने हृदय में स्थापित करे ॥ १-४ ॥
ततो
वागीश्वरीयौनौ मुद्रयोद्भवसञ्ज्ञया ।
हृत्सम्पुटितमन्त्रेण
रेचकेन विनिक्षिपेत् ।। ५ ।।
ओं हां हां
हां आत्मने नमः ।
जाज्वल्यमाने
निर्द्धूमे जुहुयादिष्टसिद्धये ।
अप्रवृद्धे
सधूमे तु होमो वह्नौ न सिध्यति ।। ६ ।।
स्निग्धः
प्रदक्षिणावर्त्तः सुगन्धिः शस्यतेऽनलः।
विपरीतस्फुलिङ्गी
च भूमिस्पर्शः प्रशस्यते ।। ७ ।।
तदनन्तर 'उद्भव' नामक मुद्रा का
प्रदर्शन करके हत्सम्पुटित आत्ममन्त्र का उच्चारण करते हुए रेचक प्राणायाम के
सहयोग से उसका वागीश्वरी देवी की योनि में भावना द्वारा आधान करे। उक्त मन्त्र का
स्वरूप इस प्रकार है - ॐ हां हां हामात्मने नमः । इसके बाद अत्यन्त
प्रज्वलित एवं धूमरहित अग्नि में अभीष्ट सिद्धि के लिये आहुति दे। अप्रज्वलित तथा
धूमयुक्त अग्नि में किया गया होम सफल नहीं होता है। यदि अग्नि की लपटें
दक्षिणावर्त उठ रही हों, उससे उत्तम गन्ध प्रकट हो रही हो
तथा वह अग्नि सुस्निग्ध प्रतीत होती हो तो उसे श्रेष्ठ बताया गया है। इसके विपरीत
जिस अग्नि से चिनगारियाँ छूटती हों तथा जिसकी लपट धरती को ही चूम रही हो, उसे उत्तम नहीं कहा गया है* ॥ ५-७
॥
* इस श्लोक के बाद सोमशम्भु की 'कर्मकाण्ड-क्रमावली में तीन श्लोक
अधिक उपलब्ध होते हैं, जिनमें शिष्य के पापविशेष को जानने के
लिये अग्नि के लक्षण दिये गये हैं। वे श्लोक इस प्रकार हैं-
अन्तेवासिकृतं
पापं जानीयादग्निलक्षणैः। विष्ठागन्धे स भूहर्ता ब्रह्महा गुरुतल्पगः ॥
सुरापो
गुरुहन्ता च गोष्नश्च कृतनाशनः । कृशेऽग्नौ शवगन्धे च गर्भभर्तुविनाशनः॥
भ्रमति
स्त्रीवधे वह्निः कम्पते हेमहर्तरि । बधे स्फुटति बालस्य निस्तेजा गर्भघातके॥
'हवनीय
अग्नि के लक्षणों से शिष्य द्वारा किये गये पापविशेष को जानना चाहिये। यदि उस
अग्नि से विष्ठा की-सी दुर्गन्ध प्रकट होती हो तो यह जानना चाहिये कि वह शिष्य
भूमिहर्ता ब्रह्महत्यारा, गुरुपत्नीगामी, शराबी, गुरुमाती, गोवध
करनेवाला तथा कृतघ्न रहा है। यदि अग्नि क्षीण हो और उससे मुर्दे की-सी बदबू आ रही
तो उस शिष्य को गर्भ हत्यारा और स्वामिघाती समझना चाहिये। यदि शिष्य में
स्त्रीवधजनित पाप हो तो उसके आहुति देते समय आग की लपट सब ओर चक्कर देती है और यदि
वह सुवर्ण की चोरी करनेवाला है तो उससे अग्निदेव में कम्पन होने लगता है। यदि
शिष्य ने बालहत्या का पाप किया है तो अग्नि में किसी वस्तु के फूटने की सी आवाज
होती है। यदि शिष्य गर्भपाती है तो उसके संनिहित होने से आग निस्तेज हो जाती है।'
इत्येवमादिभिश्चिह्नैर्हुत्वा
शिष्यष्य कल्मषं ।
पापभक्षणहोमेन
दहेद्वा तं भवात्मना ।। ८ ।।
द्विजत्वापादनार्थाय
तथा रुद्रांशभावने ।
आहारवीज
संशुद्धौ गर्भाधानाय संस्थितो ।। ९ ।।
सीमन्ते
जन्मतो नामकरणाच च होमयेत् ।
शतानि पञ्च
मूलेन वौषडादिदशांशतः ।। १० ।।
शिथिलीभूतबन्धस्य
शक्तावुत्कर्षणं च यत् ।
आत्मनो
रुद्रपुत्रत्वे गर्भाधानं तदुच्यते ।। ११ ।।
स्वान्तत्र्यात्मगुणव्यक्तिरिह
पुंसवनं मतं ।
मायात्मनोविवेकेन
ज्ञानं सीमन्तवर्द्धनं ।। १२ ।।
इस प्रकार के
चिह्नों से शिष्य के पाप को जानकर उसका हवन कर दे, अथवा पाप भक्षण-निमित्तक होम से उस पाप को जला डाले। फिर नूतन
रूप से उसमें द्विजत्व की प्राप्ति, रुद्रांश की भावना,
आहार और बीज की शुद्धि, गर्भाधान, गर्भ-स्थिति (पुंसवन), सीमन्तोन्नयन, जातकर्म तथा नामकरण के लिये पृथक् पृथक् मूल मन्त्र से एक सौ पाँच-पाँच
आहुतियाँ दे तथा चूडाकर्म आदि के लिये इनकी अपेक्षा दशमांश आहुतियाँ प्रदान करे।
इस प्रकार जिसका बन्धन शिथिल हो गया है, उस जीवात्मा के भीतर
जो शक्ति का उत्कर्ष होता है, वही उसके रुद्रपुत्र होने में
निमित्त बनकर 'गर्भाधान' कहलाता है ।
स्वतन्त्रतापूर्वक उसमें जो आत्मगुणों की अभिव्यक्ति होती है, उसी को यहाँ 'पुंसवन' माना गया
है। माया और आत्मा- दोनों एक-दूसरे से पृथक् हैं, इस प्रकार
जो विवेक ज्ञान उत्पन्न होता है, उसी का नाम यहाँ 'सीमन्तोन्नयन' है ॥ ८- १२ ॥
शिवादितत्त्वश्रुद्धेस्तु
स्वीकारोजननं मतं ।
बोधनं
यच्छिवत्वेन शिवत्वार्हस्य नो मतं ।। १३ ।।
संहारमुद्रयात्मानं
स्फुरद्वह्निकणोपमं ।
विदधीत समादाय
निजे हृदयपङ्कजे ।। १४ ।।
ततः
कुम्भकयोगेन मूलमन्त्रमुदीरयेत् ।
कुर्य्यात्
समवशीभावं तदा च शिवयोर्हृदि ।। १५ ।।
शिव आदि शुद्ध
सद्वस्तु को स्वीकार करना 'जन्म' माना गया है। मुझमें शिवत्व है अथवा मैं शिव
हूँ, इस प्रकार जो बोध होता है, वही
शिवत्व के योग्य शिष्य का 'नामकरण' है।
संहार- मुद्रा से प्रकाशमान अग्निकण के समान प्रतीत होनेवाले जीवात्मा को लेकर
अपने हृदयकमल में स्थापित करे । तदनन्तर कुम्भक प्राणायाम के योगपूर्वक मूल मन्त्र
का उच्चारण करते हुए उस समय हृदय के भीतर शक्ति और शिव की समरसता का सम्पादन करे ॥
१३- १५ ॥
ब्रह्मादिकारणात्यागक्रमाद्रेचकयोगतः।
नीत्वा
शिवान्तमात्मानमादायोद्भवमुद्रया ।। १६ ।।
हृत्सम्पुटितमन्त्रेण
रेचकेन विधानवित् ।
शिष्यस्य
हृदयाम्भोजकर्णिकायां विनिक्षिपेत् ।। १७ ।।
पूजां शिवस्य
वह्नेश्च गुरुः कुर्य्यात्तदोचितां ।
प्रणतिञ्चात्मने
शिषयं समयान् श्रावयेत्तथा ।। १८ ।।
देवं न
निन्देच्छास्त्राणि निर्म्माल्यादिन लङ्घयेत् ।
शिवाग्निगुरुपूजा
च कर्त्तव्या जीवतावधि ।। १९ ।।
बालबालिशवृद्धस्त्रीभोगभुग्व्याधितात्मनां
।
यथाशक्ति
ददीतार्थं समर्थस्य समग्रकान् ।। २० ।।
ब्रह्मा आदि कारणों का क्रमशः त्याग करते हुए रेचक – योग से जीवात्मा को शिव के समीप ले जाकर फिर उद्भवमुद्रा के द्वारा उसे वापस ले ले और पूर्वोक्त हृत्सम्पुटित आत्ममन्त्र द्वारा रेचक प्राणायाम करते हुए विधानवेत्ता गुरु शिष्य के हृदय-कमल की कर्णिका में उस जीवात्मा को स्थापित कर दे। इसके बाद गुरु शिव और अग्नि की तत्कालोचित पूजा करे और शिष्य से अपने लिये प्रणाम करवाकर उसे समयाचार का उपदेश दे। वह उपदेश इस प्रकार है- 'इष्टदेवता (शिव) -की कभी निन्दा न करे; शिव-सम्बन्धी शास्त्रों की भी निन्दा से दूर रहे; शिव-निर्माल्य आदि को कभी न लाँघे जीवन पर्यन्त शिव, अग्नि तथा गुरुदेव की पूजा करता रहे। बालक, मूढ़, वृद्ध, स्त्री, भोगार्थी (भूखे) तथा रोगी मनुष्यों को यथाशक्ति धन आदि आवश्यक वस्तुएँ दे।' समर्थ पुरुष के लिये सब कुछ दान करने का नियम बताया गया है ॥१६-२०॥
भूताङ्गानि
जटाभस्मदण्डकौपीनसंयमान् ।
ईशानाद्यैर्हृदाद्यैर्वा
परिजप्य यथाक्रमात् ।। २१ ।।
स्वाहान्तसंहितामन्त्रैः
प्रात्रेष्वारोप्य पूर्ववत् ।
सम्पादितद्रुतं
हुत्वा स्थण्डिलेशाय दर्शयेत् ।। २२ ।।
रक्षणाय
घटाधस्तादारोप्य क्षणमात्रकं ।
शिवादाज्ञां
समादाय ददीत व्रतिने गुरुः ।। २३ ।।
व्रत के अङ्गभूत जटा, भस्म, दण्ड, कौपीन एवं संयमपोषक अन्य वस्तुओं को ईशान आदि नामों से अथवा उनके आदि में 'नमः' लगाकर उन नाम- मन्त्रों से क्रमशः अभिमन्त्रित करके स्वाहान्त संहिता – मन्त्रों का पाठ करते हुए उन्हें पात्रों में रखे और पूर्ववत् सम्पाताभिहत ( संस्कारविशेष से संस्कृत) करके स्थण्डिलेश (वेदी पर स्थापित- पूजित भगवान् शिव ) - के समक्ष उपस्थित करे। इनकी रक्षा के लिये क्षणभर कलश के नीचे रखे। इसके बाद गुरु शिव से आज्ञा लेकर उक्त सभी वस्तुएँ व्रतधारी शिष्य को अर्पित करे ॥ २१ - २३ ॥
एवं
समयदीक्षायां विशिष्टायां विशेषतः।
वह्निहोमागमज्ञानयोग्यः
सञ्जायते शिशुः ।। २४ ।।
इस प्रकार विशेषरूप से विशिष्ट समय दीक्षा-सम्पन्न हो जाने पर शिष्य अग्निहोम तथा आगमज्ञान के योग्य हो जाता है* ॥ २४ ॥
* सोमशम्भु के ग्रन्थ में यहाँ
निम्नाङ्कित पंक्तियाँ अधिक हैं-
नाडीसंधान
होमस्तु मन्त्राणां तर्पणं तथा । पूर्वजातेः समुद्धारो दिजत्वापादनं तथा ॥
चैतन्यस्यापि
संस्कारो रुद्रांशापादनं तथा । दत्वा पवित्र होमशतं वाथ सहस्रकम् ॥
दीक्षैषा
सामयी प्रोक्ता रुद्रेशपददायिनी। (श्लोक ७४९-७५१)
'नाडीसंधान-
होम, मन्त्रतर्पण, शिष्य का पूर्व-जाति
से उद्धार उसमें नूतनरूप से द्विजत्व का सम्पादन, चैतन्यसंस्कार,
रुद्रांश का आपादन तथा पवित्रक दानपूर्वक सौ बार या सहस्र बार होम
इन क्रियाओं को 'सामयी दीक्षा' कहा गया
है। यह रुद्रेश पद प्रदान करनेवाली है।'
इत्यादिमहापुराणे
आग्नेये समयदीक्षाकथनं नाम द्व्यशीतितमोऽध्यायः॥ ८२ ॥
इस प्रकार आदि
आग्नेय महापुराण में 'समय-दीक्षा के अन्तर्गत संस्कार- दीक्षा की विधि का वर्णन' नामक बयासीवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ८२ ॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 83
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