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अगहन बृहस्पति व्रत व कथा
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
भुवनेश्वरी त्रैलोक्य मोहन कवच
माँ भुवनेश्वरी का यह त्रैलोक्य मोहन
कवच सभी कामनाओं की पूर्तिं करनेवाला और सभी अभीष्ट फलों का देनेवाला है।
श्रीभुवनेश्वरी त्रैलोक्यमोहनकवचम्
Bhuvaneshvari trailokya mohan kavach
अथ श्रीभुवनेश्वरी त्रैलोक्य मोहन कवच
श्रीदेव्युवाच-
भगवन्,
परमेशान, सर्वागमविशारद ।
कवचं भुवनेश्वर्याः कथयस्व महेश्वर!
॥
श्रीदेवी ने कहा- हे सभी आगमों के
ज्ञाता भगवन् महेश्वर! भुवनेश्वरी के कवच को बताइये ।
श्री भैरव उवाच-
शृणु देवि,
महेशानि! कवचं सर्वकामदम् ।
त्रैलोक्यमोहनं नाम
सर्वेप्सितफलप्रदम् ॥
श्रीभैरव ने कहा- हे महेशानि!
त्रैलोक्यमोहन नामक कवच सभी कामनाओं की पूर्तिं करनेवाला और सभी अभीष्ट फलों का देनेवाला
है । उसे सुनो ।
भुवनेश्वरी त्रैलोक्यमोहन कवचम्
विनियोगः-
ॐ अस्य श्रीत्रैलोक्यमोहनकवचस्य
श्रीसदाशिव ऋषिः ।
विराट् छन्दः । श्रीभुवनेश्वरी
देवता ।
चतुर्वर्गसिद्ध्यर्थं कवचपाठे
विनियोगः ।
ऋष्यादिन्यासः-
श्रीसदाशिवऋषये नमः शिरसि ।
विराट्छन्दसे नमः मुखे ।
श्रीभुवनेश्वरीदेवतायै नमः हृदि ।
चतुर्वर्गसिद्ध्यर्थं कवचपाठे
विनियोगाय नमः सर्वाङ्गे ।
भुवनेश्वरी त्रैलोक्य मोहन कवचम्
अथ कवचस्तोत्रम् ।
ॐ ह्रीं क्लीं मे शिरः पातु श्रीं
फट् पातु ललाटकम् ।
सिद्धपञ्चाक्षरी पायान्नेत्रे मे
भुवनेश्वरी ॥ १॥
श्रीं क्लीं ह्रीं मे श्रुतीः पातु
नमः पातु च नासिकाम् ।
देवी षडक्षरी पातु वदनं मुण्डभूषणा
॥ २॥
ॐ ह्रीं श्रीं ऐं गलं पातु जिह्वां
पायान्महेश्वरी ।
ऐं स्कन्धौ पातु मे देवी महात्रिभुवनेश्वरी
॥ ३॥
ह्रूं घण्टां मे सदा पातु
देव्येकाक्षररूपिणी ।
ऐं ह्रीं श्रीं हूं तु फट्
पायादीश्वरी मे भुजद्वयम् ॥ ४॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं फट् पायाद्
भुवनेशी स्तनद्वयम् ।
ह्रां ह्रीं ऐं फट् महामाया देवी च
हृदयं मम ॥ ५॥
ऐं ह्रीं श्रीं हूं तु फट् पायात्
पार्श्वौ कामस्वरूपिणी ।
ॐ ह्रीं क्लीं ऐं नमः पायात्
कुक्षिं महाषडक्षरी ॥ ६॥
ऐं सौः ऐं ऐं क्लीं फट् स्वाहा
कटिदेशे सदाऽवतु ।
अष्टाक्षरी महाविद्या देवेशी
भुवनेश्वरी ॥ ७॥
ॐ ह्रीं ह्रौं ऐं श्रीं ह्रीं फट्
पायान्मे गुह्यस्थलं सदा ।
षडक्षरी महाविद्या साक्षाद्
ब्रह्मस्वरूपिणी ॥ ८॥
ऐं ह्रां ह्रौं ह्रूं नमो देव्यै
देवि! सर्वं पदं ततः,
दुस्तरं पदं तारय तारय प्रणवद्वयम्
।
स्वाहा इति महाविद्या जानुनि मे
सदाऽवतु ॥ ९॥
ऐं सौः ॐ ऐं क्लीं फट् स्वाहा
जङ्घेऽव्याद् भुवनेश्वरी ।
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं फट् पायात्
पादौ मे भुवनेश्वरी ॥ १०॥
ॐ ॐ ह्रीं ह्रीं श्रीं श्रीं क्लीं
क्लीं ऐं ऐं सौः सौः वद वद ।
वाग्वादिनीति च देवि विद्या या
विश्वव्यापिनी ॥ ११॥
सौःसौःसौः ऐंऐंऐं क्लीङ्क्लीङ्क्लीं
श्रींश्रींश्रीं ह्रींह्रींह्रीं ॐ ।
ॐ ॐ चतुर्दशात्मिका विद्या पायात्
बाहू तु मे ॥ १२॥
सकलं सर्वभीतिभ्यः शरीरं भुवनेश्वरी
।
ॐ ह्रीं श्रीं इन्द्रदिग्भागे
पायान्मे चापराजिता ॥ १३॥
स्त्रीं ऐं ह्रीं विजया
पायादिन्दुमदग्निदिक्स्थले ।
ॐ श्रीं सौः क्लीं जया पातु याम्यां
मां कवचान्वितम् ॥ १४॥
ह्रीं ह्रीं ऐं सौः हसौः
पायान्नैरृतिर्मां तु परात्मिका ।
ॐ श्रीं श्रीं ह्रीं सदा पायात्
पश्चिमे ब्रह्मरूपिणी ॥ १५॥
ॐ ह्रां सौः मां भयाद् रक्षेद्
वायव्यां मन्त्ररूपिणी ।
ऐं क्लीं श्रीं सौः सदाऽव्यान्मां
कौवेर्यां नगनन्दिनी ॥ १६॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं महादेवी
ऐशान्यां पातु नित्यशः ।
ॐ ह्रीं मन्त्रमयी विद्या
पायादूर्ध्वं सुरेश्वरी ॥ १७॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं मां
पायादधस्था भुवनेश्वरी ।
एवं दशदिशो रक्षेत् सर्वमन्त्रमयो
शिवा ॥ १८॥
प्रभाते पातु चामुण्डा श्रीं क्लीं
ऐं सौः स्वरूपिणी ।
मध्याह्नेऽव्यान्मामम्बा श्रीं
ह्रीं क्लीं ऐं सौः स्वरूपिणी ॥ १९॥
सायं पायादुमादेवी ऐं ह्रीं क्लीं
सौः स्वरूपिणी ।
निशादौ पातु रुद्राणी ॐ क्लीं क्रीं
सौः स्वरूपिणी ॥ २०॥
निशीथे पातु ब्रह्माणी क्रीं ह्रूं
ह्रीं ह्रीं स्वरूपिणी ।
निशान्ते वैष्णवी पायादोमै ह्रीं
क्लीं स्वरूपिणी ॥ २१॥
सर्वकाले च मां पायादो ह्रीं श्रीं
भुवनेश्वरी ।
एषा विद्या मया गुप्ता
तन्त्रेभ्यश्चापि साम्प्रतम् ॥ २२॥
भुवनेश्वरी त्रैलोक्य मोहन कवच फलश्रुति
देवेशि! कथितां तुभ्यं कवचेच्छा
त्वयि प्रिये ।
इति ते कथितं देवि! गुह्यन्तर परम्
।
त्रैलोक्यमोहनं नाम कवचं
मन्त्रविग्रहम् ।
ब्रह्मविद्यामयं चैव केवलं
ब्रह्मरूपिणम् ॥ १॥
हे देवेशि । तुम्हारी कवचेच्छा के
अनुसार यह अति गोपनीय त्रैलोक्यमोहन नामक मन्त्रात्मक कवच कहा गया। हे भद्रे! यह ब्रह्मविद्या से भरा
हुआ है और मात्र ब्रह्मरूपात्मक है ॥ १॥
मन्त्रविद्यामयं चैव कवचं
बन्मुखोदितम् ।
गुरुमभ्यर्च्य विधिवत् कवचं
धारयेद्यदि ।
साधको वै यथाध्यानं तत्क्षणाद्
भैरवो भवेत् ।
सर्वपापविनिर्मुक्तः कुलकोटि
समुद्धरेत् ॥ २॥
मेरे मुख से निकला यह कवच
मन्त्रविद्यात्मक है । गुरुदेव की पूजाकर विधिपूर्वकं इस कवच को यदि साधक
ध्यानपूर्वक धारण करता है, तो वह तत्क्षण ही
सभी पापों से मुक्त होकर भैरवस्वरूप बन जाता है और करोडों कुलों का उद्धार कर देता
है ॥ २॥
गुरुः स्यात् सर्वविद्यासु
ह्यधिकारो जपादिषु ।
शतमष्टोत्तरं चास्य पुरश्चर्याविधिः
स्मृता ।
शतमष्टोत्तरं जप्त्वा तावद्धोमादिकं
तथा ।
त्रैलोक्ये विचरेद्वीरो गणनाथो यथा
स्वयम् ॥ ३॥
इस कवच के प्रभाव से साधक गुरुवत्
सभी विद्याओं के जप करने का अधिकारी बन जाता है । इस स्तोत्र का पुरश्चरण १०८ वार
के पारायण से होता है । १०८ बार इसका जप कर उतना ही होम करें । इससे साधक तीनों
लोकों में गणनाथ के समान विचरण करता है ॥ ३॥
गद्यपद्यमयी वाणी भवेद्
गङ्गाप्रवाहवत् ।
पुष्पाञ्जल्यष्टकं दत्वा मूलेनैव
पठेत् सकृत् ॥ ४॥
आठ पुष्पाञ्जलियां भगवती भुवनेश्वरी
को अर्पित कर मूल कवच का पाठ करने से साधक की वाणी गङ्गा की धारा के समान गद्यपद्यमयी
होकर धाराप्रवाह वह निकलती है ॥ ४॥
इति श्रीभुवनेश्वरीत्रैलोक्यमोहनकवचं सम्पूर्णम् ।
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