अद्भुत रामायण सर्ग १
अद्भुत रामायण सर्ग १ में रामजानकी का
परब्रह्मरूप का प्रतिपादन किया गया है ।
अद्भुत रामायणम् प्रथमः सर्गः
Adbhut Ramayan sarga 1
अथ अद्भुत रामायण सर्ग १
श्रीगणेशाय नमः
दोहा
–
सीताराम लक्ष्मण सहित,
बंदों पवनकुमार ।
कृपाकटाक्ष विलोकि मोहि,
पूरण करहु विचार ॥
अद्भुत रामायण पहला सर्ग
नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव
नरोत्तमम् ।
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो
जयमुदीरयेत् ॥ १ ॥
नररूप नरोत्तम नारायण तथा देवी
सरस्वती और व्यासजी को प्रणामकर जय शब्द का उच्चारण करना चाहिये ।
नमस्तस्मै मुनींद्राय श्रीयुताय
यशस्विने ।
शांताय वीतरागाय वाल्मीकाय नमोनमः ॥
२ ॥
मुनींद्र लक्ष्मीयुक्त यशस्वी शांत
वीतराग वाल्मीकिजी के निमित्त नमस्कार है ।
रामाय रामभद्राय रामचन्द्राय वेधसे
।
रघुनाथाय नाथाय सीतायाः पतये नमः ॥
३ ॥
राम रामभद्र रामचन्द्र विधाता
रघुनाथ नाथ सीतापति के निमित्त नमस्कार है ।
जयति रघुवंशतिलकः कौशल्यानंद-
वर्द्धनो रामः ।
दशवदननिधनकारी दाशरथिः पुंडरीकाक्षः
॥ ४॥
रघुवंश के तिलक कौशल्या के हृदय के
आनन्ददाता रावणहन्ता दशरथपुत्र कमललोचन राम की जय हो ।
अद्भुत रामायण प्रथम- सर्ग
तमसातीरनिलयं निलयं तपसां गुरुम् ।
वचसां प्रथमस्थानं वाल्मीकि
मुनिपुंगवम् ।। १ ।।
विनयावनतो भूत्वा भरद्वाजो महा-
मुनिः ।
अपृच्छत्संमतः शिष्यः कृतांजलिपुटो
वशी ॥ २ ॥
तमसातीर निवासी तपस्वियों के गुरु
वाणी के प्रथम स्थान वाल्मीकी मुनिश्रेष्ठ से विनय से नम्र हो भरद्वाज महामुनि सम्मत
शिष्य जितेंद्रिय हाथ जोडकर कहने लगे ।। १- २ ।।
रामायणमिति ख्यातं
शतकोटिप्रविस्तरम् ।
प्रणीतं भवता च ब्रह्मलोके
प्रतिष्ठितम् ॥ ३ ॥
श्रूयते ब्राह्मणैनित्यमृषिभिः
पितृभिः सुरैः ।
पंचविंशतिसाहस्रं रामायणमिदं भुविः
॥ ४ ॥
जो कि,
सौ करोड श्लोकों में रामायण का विस्तार कहा है और जो आपकी बनाई
ब्रह्मलोक में प्रतिष्ठित है। जिसको ब्राह्मण पितर देवता नित्य श्रवण करते हैं,
जिसमें से पृथ्वी में २५००० सहस्र रामायण हैं ।। ३-४ ।।
तदार्काणतमस्माभिः सविशेषं महामुने
।
शतकोटिप्रविस्तारे रामायणमहार्णवे
।। ५ ।।
किं गीतमिह मुष्णाति तन्मे कथय
सुव्रत ।
आकर्ण्यादरिणः पृष्टं भरद्वाजस्य वै
मुनिः ॥ ६ ॥
हस्तामलकवत्सर्वं सस्मार शतकोटिकम्
।
ओमित्युक्त्वा मुनिः शिष्यं प्रोवाच
वदतां वरम् ॥ ७ ॥
हे महामुनिराज ! वह हमने सुनी है,
परन्तु रामायण के सौ करोड विस्तार में वह क्या कथा गुप्त है,
हे सुव्रत ! हमसे आप वर्णन कीजिये, इस प्रकार
भरद्वाज का प्रश्न सुनकर मुनिराज ने हस्तामलक के समान सम्पूर्ण रामचरित्र का स्मरण
किया, बहुत अच्छा यह वचन मुनिराज ने अपने शिष्य से कहा ।। ५-७
।।
भरद्वाज चिरं जीव साधु स्मारित-मद्य
नः ।
शतकोटिप्रविस्तारे रामायणमहार्णवे ॥
८ ॥
रामस्य चरितं सर्वमाश्चयं
सम्यगीरितम् ।
पंचविशतिसाहस्रं नृलोके
यत्प्रतिष्ठितम् ।। ९ ।।
हे भरद्वाज ! तुम बहुत दिनों तक जीओ,
हमको अच्छा चरित्र स्मरण कराया, सौ करोड के
विस्तार-वाले रामायण महासागर में राम का सब चरित्र आश्चर्य रूप है, जो पचीस सहस्त्र रामायण मनुष्य- लोक में प्रतिष्ठित है ।। ८-९ ।।
नृणां हि सदृशं रामचरितं वर्णितं
ततः ।
सीतामाहात्म्यसारं यद्विशेषादत्र
नोक्तवान् ॥ १० ॥
वह रामचरित्र मनुष्यों के समान
वर्णन किया है उनमें सीतामाहात्म्य विशेष करके नहीं कहा है ।। १० ।।
शृणुष्वावहितो
ब्रह्मन्काकुत्स्थचरितं महत् ।
सीताया मूलभूतायाः प्रकृतेश्चरितं
महत् ।। ११ ।।
हे ब्रह्मन् ! उस बड़े रामचरित को
सावधान होकर सुनिये, जो मूलप्रकृति
जानकी का चरित्र है ।। ११ ।।
आश्चर्यमाश्चर्यमिदं गोपितं
ब्रह्मणो गृहे ।
हिताय प्रियशिष्याय तुभ्यमावेदयामि
तत् ॥ १२ ॥
यह परम आश्चर्यरूप ब्रह्माजी के
स्थान में गुप्तरूप हैं, सो तुम हितकारी
प्रिय शिष्य के निमित्त मैं वर्णन करता हूँ ।।१२।।
जानकी प्रकृतिः सृष्टेरादिभूता
महागुणा ।
तपः सिद्धिः स्वर्गसिद्धि-
भूर्तिर्मूर्तिमती सती ।। १३ ।।
जानकी सृष्टि की प्रकृति रूप आदिभूत
महागुणसंपन्न है, तप की सिद्धि
स्वर्ग की सिद्धि ऐश्वर्यरूप मूर्तिमान् सती है।।१३।।
विद्याविद्या च महती गीयते
ब्रह्मवा- दिभिः ।
ऋद्धिः सिद्धिर्गुणमयी गुणातीता गुणात्मिका
॥ १४ ॥
ब्रह्मवादी इस ही को विद्या
अविद्यारूप से गाते हैं, यही ऋद्धि सिद्धि
गुणमयी गुणातीत गुणात्मिका है ।। १४ ।।
ब्रह्मब्रह्मांडसंभूता
सर्वकारणकारणम् ।
प्रकृतिविकृतिदेवी चिन्मयी चिद्विलासिनी
।। १५ ।।
ब्रह्म ब्रह्माण्ड का इस ही से
सम्भव है,
यही सर्व कारण की कारण है, यही देवी प्रकृति विकृतिस्वरूपा
चिन्मयी चिद्विलासिनी है ।। १५ ।।
महाकुण्डलिनी सर्वानुस्यूता
ब्रह्मसंज्ञिता ।
यस्या विलसितं सर्वं जगदेतच्चराचरम्
।। १६ ॥
यही सब ही प्रगट करनेवाली
महाकुण्डलिनी है, ब्रह्मसंज्ञा इसी की
है, यह चराचर जगत् इसी से विलसित है ।। १६ ।
यामाधाय हृदि
ब्रह्मन्योगिनस्तत्त्वदर्शनः ।
विघट्टयंति हृद्ग्रंथि भवंति सुख
मूर्तिकाः ।। १७ ।।
हे ब्रह्मन् ?
तत्त्वदर्शी योगी जिसको हृदय में धारणकर हृदय की अज्ञान- ग्रंथि
नष्ट कर सुखी होते हैं ।। १७ ।।
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति सुव्रत
।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदा प्रकृति
संभवः ।। १८ ।।
हे सुव्रत ! जब जब धर्म की ग्लानि
होती है,
तब तब अधर्म के नष्ट करने को प्रकृति का सम्भव होता है ।। १८ ।।
रामः साक्षात्परं ज्योतिः परं धाम
परः पुमान् ।
आकृतौ परमो भेदो न सीतारामयोर्यतः ॥
१९ ॥
राम साक्षात् परं ज्योति परंधाम
परपुरुष हैं, मूर्ति में सीताराम का कुछ भी
भेद नहीं है ।। १९ ।।
रामः सीता जानकी रामभद्रो
नाणुर्भेदो नैतयोरस्ति कश्चित् ।
सन्तो बुद्ध्वा
तत्त्वमेतद्विबुद्धाः पारं याताः संसृतेर्मृत्युवकात् ॥ २० ॥
राम, सीता, जानकी, रामभद्र इनमें अणुमात्र
भी भेद नहीं है सन्त इस तत्व को जानकर ज्ञान को प्राप्त होते हैं मृत्यु के
मुखजन्म मरण से छूट तत्त्वज्ञान को प्राप्त होते हैं ।। २० ॥
रामोऽचित्यो नित्यचित्सर्वसाक्षी
सर्वातः स्थः सर्वलोकैककर्ता ।
भर्ता हर्तानंदमूर्तिभूमा
सीतायोगाच्चत्यते योगिभिःसः ॥ २१ ॥
राम अचिन्त्य,
चित्स्वरूप सर्व के साक्षी सबके अंतःकरण में स्थित सब लोक के एक
कर्ता है, भर्ता हर्ता आनंदमूर्ति विभुमा सीता के योग से
जिनका चितन होता है ।। २१ ।।
अपाणिपादो जवनो ग्रहीता
पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्ण: ।
स वेत्ति विश्वं नहि तस्य वेत्ता तमाहुरन्यं
पुरुषं पुराणम् ॥ २२ ॥
भौतिक चरण हस्तादि से रहित होकर यह
सर्वत्र व्याप्तरूप गमन और सर्वत्र ग्रहण करनेवाले हैं यह विश्व को जानते हैं
परन्तु उनका जाननेवाला कोई नहीं है, उनको
अन्य और पुराणपुरुष कहते हैं ।।२२।।
तयोः परं जन्म उदाहरिष्ये
ययोर्यथाकारणदेहधारिणोः ।
अरु- पिणो रूपविधारणं पुनर्न णां
महानुग्रह एव केवलम् ॥ २३ ॥
उन दोनों के परम जन्म को कहूँगा,
जिस कारण उन दोनों ने देह धारण किया है उन अरूपी का देह धारण करना
केवल मनुष्यों के हित के ही निमित्त है ।। २३ ।।
पठन् द्विजो
वागृषभत्वमीयात्क्षत्रान्वयो भूमिपतित्वमीयात् ।
वणि- ग्जनः
पण्यफलत्वमीयाच्छृण्वन्हि शूद्रोहि महत्त्वमीयात् ॥ २४ ॥
इसके पढने से ब्राह्मण श्रेष्ठवाणी को
प्राप्त होता है क्षत्रिय पृथ्वीपति होता है, वैश्य
पुण्यफल को प्राप्त होता है, शूद्र सुनकर महत्त्व को प्राप्त
होता है ।। २४ ।।
इत्यार्षे श्रीमद्रामयाणे
वाल्मीकीये अद्भुतोत्तरकांडे आदिकाव्ये प्रथमः सर्गः ॥१॥
इस प्रकार वाल्मीकी श्रीमद्रामायण अद्भुतोत्तरकाण्ड
आदिकाव्य का प्रथम सर्ग पूर्ण हुआ ॥ १ ॥
आगे जारी...........अद्भुत रामायण सर्ग 2
0 Comments