अग्निपुराण अध्याय ९७
अग्निपुराण
अध्याय ९७ में शिव प्रतिष्ठा की विधि का वर्णन है।
अग्निपुराणम् सप्तनवतितमोऽध्यायः
Agni puran chapter 97
अग्निपुराण सत्तानबेवाँ अध्याय– शिव प्रतिष्ठा विधि
अग्नि पुराण अध्याय ९७
अग्निपुराणम् अध्यायः ९७ – शिवप्रतिष्ठाकथनम्
अथ सप्तनवतितमोऽध्यायः
ईश्वर उवाच
प्रातर्नित्यविधिं
कृत्वा द्वारपालप्रपूजनं ।
प्रविश्य
प्रग्विधानेन देहशुद्ध्यादिमाचरेत् ॥१॥
दिक्पतींश्च
समभ्यर्च्य शिवकुम्भञ्च वर्धनीं ।
अष्टमुष्टिकया
लिङ्गं वह्निं सन्पर्प्य च क्रमात् ॥२॥
शिवाज्ञातस्ततो
गच्छेत्प्रासादं शस्त्रमुच्चरन् ।
तद्गतान्
प्रक्षिपेद्विघ्नान् हुम्फडन्तशराणुना ॥३॥
भगवान् शिव
कहते हैं- स्कन्द ! प्रातः काल नित्य कर्म के अनन्तर द्वार देवताओं का पूजन करके मण्डप
में प्रवेश करे। पूर्वोक्त विधि से देहशुद्धि आदि का अनुष्ठान करे। दिक्पालों का शिव-
कलश का तथा वार्धानी (जलपात्र) - का पूजन करके अष्टपुष्पिका द्वारा शिवलिङ्ग की
अर्चना करे और क्रमशः आहुति दे, अग्रिदेव को तृप्त करे। तदनन्तर शिव की आज्ञा ले 'अस्त्राय फट्' का उच्चारण करते हुए मन्दिर में
प्रवेश करे तथा "अस्त्राय हूं फट्।' बोलकर
वहाँ के विघ्नों का अपसारण करे ॥ १-३ ॥
न मध्ये
स्थापयेल्लिङ्गं बेधदोषविशङ्कया ।
तस्मान्मध्यं
परित्यज्य यवार्धेन यवेन वा ॥४॥
किञ्चिदीशानमाश्रित्य
शिलां मध्ये निवेशयेत् ।
मूलेन
तामनन्ताख्यां सर्वाधारस्वरूपिणीं ॥५॥
सर्वगां
सृष्टियोगेन विन्यसेदचलां शिलां ।
अथवानेन मन्त्रेण
शिवस्यासनरूपिणीं ॥६॥
ओं नमो
व्यापिनि भगवति स्थिरेऽचले ध्रुवे ।
ह्रं लं ह्रीं
स्वाहा ॥
त्वया
शिवाज्ञया शक्ते स्थातव्यमिह सन्ततं ॥७॥
इत्युक्त्वा च
समभ्यर्च्य निरुध्याद्रौद्रमुद्रया ।
वज्रादीनि च
रत्नानि तथोशीरादिकौषधीः ॥८॥
शिला के ठीक
मध्यभाग में शिवलिङ्ग की स्थापना न करे; क्योंकि वैसा करने पर वेध दोष की आशङ्का रहती है। इसलिये
मध्यभाग को त्यागकर, एक या आधा जौ किंचित् ईशान भाग का आश्रय
ले आधारशिला में शिवलिङ्ग की स्थापना करे। मूल मन्त्र का उच्चारण करते हुए उस
(अनन्त) नाम-धारिणी, सर्वाधारस्वरूपिणी, सर्वव्यापिनी शिला को सृष्टियोग द्वारा अविचल भाव से स्थापित करे। अथवा
निम्नाङ्कित मन्त्र से शिव की आसन स्वरूपा उस शिला की पूजा करे- 'ॐ नमो व्यापिनि भगवति स्थिरेऽचले ध्रुवे ह्रीं लं ह्रीं स्वाहा।'
पूजन से पहले यों कहे- 'आधारशक्ति-स्वरूपिणि
शिले! तुम्हें भगवान् शिव की आज्ञा से यहाँ नित्य निरन्तर स्थिरतापूर्वक स्थित
रहना चाहिये।' ऐसा कहकर पूजन करने के पश्चात्
अवरोधिनी-मुद्रा से शिला को अवरुद्ध (स्थिरतापूर्वक स्थापित ) कर दे ॥ ४-८ ॥
लोहान्
हेमादिकांस्यन्तान् हरितालादिकांस्तथा ।
धान्यप्रभृतिशस्त्रांश्च
पूर्वमुक्ताननुक्रमात् ॥९॥
प्रभारागत्वदेहत्ववीर्यशक्तिमयानिमान्
।
भावयेन्नेकचित्तस्तु
लोकपालेशसंवरैः ॥१०॥
पूर्वादिषु च
गर्तेषु न्यसेदेकैकशः क्रमात् ।
हेमजं तारजं
कूर्मं वृषं वा द्वारसम्मुखं ॥११॥
सरित्तटमृदा
युक्तं पर्वताग्रमृदाथवा ।
प्रक्षिपेन्मध्यगर्तादौ
यद्वा मेरुं सुवर्णजं ॥१२॥
मधूकाक्षतसंयुक्तमञ्जनेन
समन्वितं ।
पृथिवीं
राजतीं यद्वा यद्वा हेमसमुद्भवां ॥१३॥
सर्ववीजसुवर्णाभ्यां
समायुक्तां विनिक्षिपेत् ।
स्वर्णजं
राजतं वापि सर्वलोहसमुद्भवं ॥१४॥
सुवर्णं
कृशरायुक्तं पद्मनालं ततो न्यसेत् ।
देवदेवस्य
शक्त्यादिमूर्तिपर्यन्तमासनं ॥१५॥
हीरे आदि रत्न, उशीर (खश) आदि ओषधियाँ, लौह और सुवर्ण, कांस्य आदि धातु, हरिताल, आदि, धान आदि के पौधे
तथा पूर्वकथित अन्य वस्तुएँ क्रमशः एकत्र करे और मन-ही-मन भावना करे कि 'ये सब वस्तुएँ कान्ति, आरोग्य,
देह, वीर्य और शक्तिस्वरूप हैं'। इस प्रकार
एकाग्रचित्त से भावना करके लोकपाल और शिव सम्बन्धी मन्त्रों द्वारा पूर्वादि
कुण्डों में इन वस्तुओं में से एक-एक को क्रमशः डाले। सोने अथवा ताँबे के बने हुए
कछुए या वृषभ को द्वार के सम्मुख रखकर नदी के किनारे की या पर्वत के शिखर की
मिट्टी से युक्त करे और उसे बीच के कुण्ड आदि में डाल दे। अथवा सुवर्णनिर्मित मेरु
को मधूक, अक्षत और अञ्जन से युक्त करके उसमें डाले अथवा सोने
या चाँदी की बनी हुई पृथ्वी को सम्पूर्ण बीजों और सुवर्ण से संयुक्त करके उस मध्यम
कुण्ड में डाले । अथवा सोने, चाँदी या सब प्रकार के लोह से
निर्मित सुवर्णमय केसरों से युक्त कमल या अनन्त (शेषनाग) - की मूर्ति को उसमें
छोड़े ॥ ९ - १५ ॥
प्रकल्प्य
पायसेनाथ लिप्त्वा गुग्गुलुनाथवा ।
श्वभ्रमाच्छाद्य
वस्त्रेण तनुत्रेणास्त्ररक्षितं ॥१६॥
दिक्पतिभ्यो
बलिं दत्वा समाचान्तोऽथ देशिकः ।
शेवेन वा शिलाश्वभ्रसङ्गदोषनिवृत्तये
॥१७॥
शस्त्रेण वा
शतं सम्यग्जुहुयात्पूर्णया सह ।
एकैकाहुतिदानेन
सन्तर्प्य वास्तुदेवताः ॥१८॥
समुत्थाप्य
हृदादेवमासनं मङ्गलादिभिः ।
शक्ति से लेकर
मूर्ति पर्यन्त अथवा शक्ति से लेकर शक्ति- पर्यन्त तत्त्व का देवाधिदेव महादेव के
लिये आसन निर्मित करके उसमें खीर या गुग्गुल का लेप करे। तत्पश्चात् वस्त्र से
गर्त को आच्छादित करके कवच और अस्त्र-मन्त्र द्वारा उसकी रक्षा करे। फिर दिक्पालों
को बलि देकर आचार्य आचमन करे। शिला और गर्त के सङ्ग- दोष को निवृत्ति के लिये शिव मन्त्र
से अथवा अस्त्र-मन्त्र से विधिपूर्वक सौ आहुतियाँ दे । साथ ही पूर्णाहुति भी करे।
वास्तु देवताओं को एक- एक आहुति देकर तृप्त करने के पश्चात् हृदय- मन्त्र से
भगवान् को उठाकर मङ्गल वाद्य और मङ्गल-पाठ आदि के साथ ले आवे ॥ १६-१८अ ॥
गुरुर्देवाग्रतो
गच्छेन्मूर्तिपैश्च दिशि स्थितैः ॥१९॥
चतुर्भिः सह
कर्तव्या देवयज्ञस्य पृष्ठतः ।
प्रासादादि
परिभ्रम्य भद्राख्यद्वारसम्मुखं ॥२०॥
लिङ्गं
संस्थाप्य दत्वार्घ्यं प्रासादं सन्निवेशयेत् ।
द्वारेण
द्वारबन्धेन द्वारदेशेन तच्छिला ॥२१॥
द्वारबन्धे
शिखाशून्ये तदर्धेनाथ तदृते ।
वर्जयन्
द्वारसंस्पर्शं द्वारेणैव महेश्वरं ॥२२॥
देवगृहसमारम्भे
कोणेनापि प्रवेशयेत् ।
अयमेव
विधिर्ज्ञेयो व्यक्तलिङ्गेऽपि सर्वतः ॥२३॥
गृहे प्रवेशनं
द्वारे लोकैरपि समीरितं ।
अपद्वारप्रवेशेन
विदुर्गोत्रक्षयं गृहं ॥२४॥
गुरु भगवान्के
आगे-आगे चले और चार दिशाओं में स्थित चार मूर्तिपालों के साथ यजमान स्वयं भगवान् की
सवारी के पीछे-पीछे चले। मन्दिर आदि के चारों ओर घुमाकर शिवलिङ्ग को भद्र-द्वार के
सम्मुख नहलावे और अर्घ्य देकर उसे मन्दिरके भीतर ले जाय खुले द्वार से अथवा द्वार के
लिये निश्चित स्थान से शिवलिङ्ग को मन्दिर में ले जाय। इन सबके अभाव में द्वार बंद
करनेवाली शिला से शून्य-मार्ग से अथवा उस शिला के ऊपर से होकर मन्दिर में प्रवेश का
विधान है। दरवाजे से ही महेश्वर को मन्दिर में ले जाय, परंतु उनका द्वार से स्पर्श न होने दे। यदि
देवालय का समारम्भ हो रहा हो तो किसी कोण से भी शिवलिङ्ग को मन्दिर के भीतर
प्रविष्ट कराया जा सकता है। व्यक्त अथवा स्थूल शिवलिङ्ग के मन्दिर प्रवेश के लिये
सर्वत्र यही विधि जाननी चाहिये। घर में प्रवेश का मार्ग द्वार ही है, इसका साधारण लोगों को भी प्रत्यक्ष अनुभव है। यदि बिना द्वार के घर में प्रवेश
किया जाय तो गोत्र का नाश होता है-ऐसी मान्यता है ॥ १९ – २४ ॥
अथ पीठे च
संस्थाप्य लिङ्गं द्वारस्य सम्मुखं ।
तूर्यमङ्गलनिर्घेषैर्दूर्वाक्षतसमन्वितं
॥२५॥
समुत्तिष्ठं
हृदेत्युक्त्वा महापाशुपतं पठेत् ।
अपनीय घटं
श्वभ्राद् देशिको मूर्तिपैः सह ॥२६॥
मन्त्रं
सन्धारयित्वा तु विलिप्तं कुङ्कुमादिभिः ।
शक्तिशक्तिमतोरैक्यं
ध्यात्वा चैव तु रक्षितं ॥२७॥
लयान्तं
मूलमुच्चार्य स्पृष्ट्वा श्वभ्रे निवेशयेत् ।
अंशेन
ब्रह्मभागस्य यद्वा अंशद्वयेन च ॥२८॥
अर्धेन
वाष्टमांशेन सर्वस्याथ प्रवेशनं ।
विधाय सीसकं
नाभिदीर्घाभिः सुसमाहितः ॥२९॥
श्वभ्रं
वालुकयापुर्य ब्रूयात्स्थिरीभवेति च ।
तदनन्तर पीठ पर, द्वार के सामने शिवलिङ्ग को स्थापित करके
नाना प्रकार के वाद्यों तथा मङ्गलसूचक ध्वनियों के साथ उस पर दूर्वा और अक्षत
चढ़ावे तथा 'समुत्तिष्ठ नमः' - ऐसा
कहकर महापाशुपत – मन्त्र का पाठ करे। इसके बाद आचार्य गर्त में रखे हुए घट को वहाँ
से हटाकर मूर्तिपालकों के साथ यन्त्र में स्थापित करावे और उसमें कुङ्कुम आदि का
लेप करके, शक्ति और शक्तिमान्की एकता का चिन्तन करते हुए
लयान्त मूल मन्त्र का उच्चारण करके, उस आलम्बनलक्षित घट का
स्पर्श पूर्वक पुनः गर्त में ही स्थापना करा दे। ब्रह्मभाग के एक अंश, दो अंश, आधा अंश अथवा आठवें अंश तक या सम्पूर्ण
ब्रह्मभाग का ही गर्त में प्रवेश करावे। फिर नाभिपर्यन्त दीर्घाओं के साथ शीशे का
आवरण देकर, एकाग्रचित्त हो, नीचे के
गर्त को बालू से पाट दे और कहे — 'भगवन्! आप सुस्थिर हो
जाइये ' ॥ २५ – २९अ ॥
ततो लिङ्गे
स्थिरीभूते ध्यात्वा सकलरूपिणं ॥३०॥
मूलमुच्चार्य
शक्त्यन्तं सृष्ट्या च निष्कलं न्यसेत् ।
स्थाप्यमानं
यदा लिङ्गं याम्यां दिशमथाश्रयेत् ॥३१॥
तत्तद्दिगीशमन्त्रेण
पूर्णान्तं दक्षिणान्वितं ।
सव्ये स्थाने
च वक्रे च चलिते स्फुटितेपि वा ॥३२॥
जुहुयान्मूलमन्त्रेण
बहुरूपेण वा शतं ।
कुञ्चान्येष्वपि
दोषेषु शिवशान्तिं समाश्रयेत् ॥३३॥
युक्तं
न्यासादिभिर्लिङ्गं कुर्वन्नेवं न दोषभाक् ।
पीठबन्धमतः
कृत्वा लक्षणस्यांशलक्षणं ॥३४॥
गौरीमन्त्रं
लयं नीत्वा सृष्ट्या पिण्डीञ्च विन्यसेत् ।
तदनन्तर लिङ्ग
के स्थिर हो जाने पर सकल (सावयव ) रूपवाले परमेश्वर का ध्यान करके, शक्त्यन्त-मूल- मन्त्र का उच्चारण करते हुए,
शिवलिङ्ग के स्पर्शपूर्वक उसमें निष्कलीकरण-न्यास करे। जब शिवलिङ्ग की
स्थापना हो रही हो, उस समय जिस-जिस दिशा का आश्रय ले,
उस-उस दिशा के दिक्पाल सम्बन्धी मन्त्र का उच्चारण करके पूर्णाहुति-
पर्यन्त होम करे और दक्षिणा दे। यदि शिवलिङ्ग से शब्द प्रकट हो अथवा उसका मुख्यभाग
हिले या फट-फूट जाय तो मूल मन्त्र से या 'बहुरूप' मन्त्र द्वारा सौ आहुतियाँ दे। इसी प्रकार अन्य दोष प्राप्त होने पर शिव शास्त्रोक्त
शान्ति करे। उक्त विधि से यदि शिवलिंग में न्यास का विधान किया जाय तो कर्ता दोष का
भागी नहीं होता। तदनन्तर लक्षण स्पर्शरूप पीठबन्ध करके गौरीमन्त्र से उसका लय करे।
फिर पिण्डी में सृष्टि न्यास करे ॥ ३०-३४अ ॥
सम्पूर्य
पार्श्वसंसिद्धिं वालुकावज्रलेपनं ॥३५॥
ततो
मूर्तिधरैः सार्धं गुरुः शान्तिं घटोर्ध्वतः ।
संस्थाप्य
कलशैरन्यैस्तद्वत् पञ्चामृतादिभिः ॥३६॥
विलिप्य
चन्दनाद्यैश्च सम्पूज्य जगदीश्वरं ।
उमामहेशमन्त्राभ्यां
तौ स्पृशेल्लिङ्गमुद्रया ॥३७॥
ततस्त्रितत्त्वविन्यासं
षडर्चादिपुरःसरं ।
कृत्वा
मूर्तिं तदीशानामङ्गानां ब्रह्मणामथ ॥३८॥
ज्ञानी लिङ्गे
क्रियापीठे विनास्य स्नापयेत्ततः ।
लिङ्ग के
पार्श्वभाग में जो संधि (छिद्र) हो, उसको बालू एवं वज्रलेप से भर दे। तत्पश्चात् गुरु
मूर्तिपालकों के साथ शान्ति कलश के आधे जल से शिवलिङ्ग को नहलाकर, अन्य कलशों तथा पञ्चामृत आदि से भी अभिषिक्त करे। फिर चन्दन आदि का लेप
लगा, जगदीश्वर शिव की पूजा करके, उमा-
महेश्वर-मन्त्रों द्वारा लिङ्गमुद्रा से उन दोनों का स्पर्श करे। इसके बाद छहों
अध्वाओं के न्यासपूर्वक त्रितत्त्वन्यास करके, मूर्तिन्यास,
दिक्पालन्यास, अङ्गन्यास एवं
ब्रह्मन्यासपूर्वक ज्ञानाशक्ति का लिङ्ग में तथा क्रियाशक्ति का पीठ में न्यास
करने के पश्चात् स्नान करावे ॥ ३५-३८अ ॥
गन्धैर्विलिप्य
सन्धूप्य व्यापित्वे शिवे न्यसेत् ॥३९॥
स्रग्धूपदीपनैवेद्यैर्हृदयेन
फलानि च ।
विनिवेद्य
यथाशक्ति समाचम्य महेश्वरं ॥४०॥
दत्वार्घं च
जपं कृत्वा निवेद्य वरदे करे ।
चन्द्रार्कतारकं
यावन्मन्त्रेण शैवमूर्तिपैः ॥४१॥
स्वेच्छयैव
त्वया नाथ स्थातव्यमिह मन्दिरे ।
प्रणम्येव
वहिर्गत्वा हृदा वा प्रणवेन वा ॥४२॥
संस्थाप्य
वृषभं पश्चात्पूर्ववद्वलिमाचरेत् ।
न्यूनादिदोषमोषाय
ततो मृत्युजिता शतं ॥४३॥
शिवेन सशिवो
हुत्वा शान्त्यर्थं पायसेन च ।
गन्ध का लेपन
करके धूप दे और व्यापकरूप से शिव का न्यास करे हृदय मन्त्र द्वारा पुष्पमाला, धूप, दीप, नैवेद्य और फल निवेदन करे । यथाशक्ति इन वस्तुओं को निवेदित करने के
पश्चात् महादेवजी को आचमन करावे। फिर विशेषार्ध्य देकर मन्त्र जपे और भगवान् के
वरदायक हाथ में उस जप को अर्पित करने के पश्चात् इस प्रकार कहे- 'हे नाथ! जबतक चन्द्रमा, सूर्य और तारों की स्थिति
रहे, तबतक मूर्तीशों तथा मूर्तिपालकों के साथ आप स्वेच्छापूर्वक
ही इस मन्दिर में सदा स्थित रहें।' ऐसा कहकर प्रणाम करने के
पश्चात् बाहर जाय और हृदय या प्रणव- मन्त्र से वृषभ ( नन्दिकेश्वर) की स्थापना
करके, फिर पूर्ववत् बलि निवेदन करे। तत्पश्चात् न्यूनता आदि
दोष के निराकरण के लिये मृत्युञ्जय- मन्त्र से सौ बार समिधाओं की आहुति दे एवं
शान्ति के लिये खीर से होम करे ॥ ३९ – ४३अ ॥
ज्ञानाज्ञानकृतं
यच्च तत्पूरय महाविभो ॥४४॥
हिरण्यपशुभूम्यादि
गीतवाद्यादिहेतवे ।
अम्बिकेशाय
तद्भक्त्या शक्त्या सर्वं निवेदयेत् ॥४५॥
दानं महोत्सवं
पश्चात्कुर्याद्दिनचतुष्टयं ।
त्रिसन्ध्यं
त्रिदिनं मन्त्री होमयेन्मूर्तिपैः सह ॥४६॥
चतुर्थेहनि
पूर्णाञ्च चरुकं बहुरूपिणा ।
निवेद्य
सर्वकुण्डेषु सम्पाताहुतिसोधितम् ॥४७॥
दिनचतुष्टयं
यावत्तन्निर्माल्यन्तदूर्धतः ।
निर्माल्यापनयं
कृत्वा स्नापयित्वा तु पूजयेत् ॥४८॥
पूजा
सामान्यलिङ्गेषु कार्या साधारणाणुभिः ।
विहाय
लिङ्गचैतन्यं कुर्यात्स्थाणुविसर्जनं ॥४९॥
असाधारणलिङ्गेषु
क्षमस्वेति विसर्जनं ।
इसके बाद यों
प्रार्थना करे- 'महाविभो ! ज्ञान अथवा अज्ञानपूर्वक कर्म में जो त्रुटि रह गयी है, उसे आप पूर्ण करें।' यों कहकर यथाशक्ति सुवर्ण,
पशु एवं भूमि आदि सम्पत्ति तथा गीत- वाद्य आदि उत्सव, सर्वकारणभूत अम्बिकानाथ शिव को भक्तिपूर्वक समर्पित करे। तदनन्तर चार
दिनों तक लगातार दान एवं महान् उत्सव करे। मन्त्रज्ञ आचार्य को चाहिये कि उत्सव के
इन चार दिनों में से तीन दिनों तक तीनों समय मूर्तिपालकों के साथ होम करे और चौथे
दिन पूर्णाहुति देकर, बहुरूप सम्बन्धी मन्त्र से चरु निवेदित
करे। सभी कुण्डों में सम्पाताहुति से शोधित चरु अर्पित करना चाहिये। उक्त चार
दिनों तक निर्माल्य न हटावे । चौथे दिन के बाद निर्माल्य हटाकर स्नान कराने के
पश्चात् पूजन करे। सामान्य लिङ्गों में साधारण मन्त्रों द्वारा पूजा करनी चाहिये।
लिङ्ग-चैतन्य को छोड़कर स्थाणु-विसर्जन करे । आसाधारण लिङ्गों में 'क्षमस्व' इत्यादि कहकर विसर्जन करे ।। ४४-४९अ ॥
आवाहनमभिव्यक्तिर्विसर्गः
शक्तिरूपता ॥५०॥
प्रतिष्ठान्ते
क्वचित्प्रोक्तं स्थिराद्याहुतिसप्तकं ।
स्थिरस्तथाप्रमेयश्चानादिबोधस्तथैव
च ॥५१॥
नित्योथ
सर्वगश्चैवाविनाशी दृष्ट एव च ।
एते गुणा
महेशस्य सन्निधानाय कीर्तिताः ॥५२॥
ओं नमः शिवाय
स्थिरो भवेत्याहुतीनां क्रमः ।
एवमेतञ्च
सम्पाद्य विधाय शिवकुम्भवत् ॥५३॥
कुम्भद्वयञ्च
तन्मध्यादेककुम्भाम्भसा भवं ।
संस्नाप्य
तद्द्वितीयन्तु कर्तृस्नानाय धारयेत् ॥५४॥
दत्वा बलिं
समाचम्य वहिर्गच्छेत्शिवाज्ञया ।
आवाहन, अभिव्यक्ति, विसर्ग,
शक्तिरूपता और प्रतिष्ठा - ये पाँच बातें मुख्य हैं। कहीं-कहीं
प्रतिष्ठा के अन्त में स्थिरता आदि गुणों की सिद्धि के लिये सात आहुतियाँ देने का
विधान है। भगवान् शिव स्थिर, अप्रमेय, अनादि,
बोधस्वरूप, नित्य, सर्वव्यापी,
अविनाशी एवं आत्मतृप्त हैं। महेश्वर की संनिधि या उपस्थिति के लिये
ये गुण कहे गये हैं। आहुतियों का क्रम इस प्रकार है - ॐ नमः शिवाय स्थिरो भव
नमः स्वाहा ।' - इत्यादि । इस प्रकार इस कार्य का
सम्पादन करके शिव कलश की भाँति दो कलश और तैयार करे। उनमें से एक कलश के जल से
भगवान् शिव को स्नान कराकर, दूसरा यजमान के स्नान के लिये
रखे। (कहीं-कहीं 'कर्मस्थानाय धारयेत्।' ऐसा पाठ है। इसके अनुसार दूसरे कलश का जल कर्मानुष्ठान के लिये स्थापित
करे, यह अर्थ समझना चाहिये।) इसके बाद बलि देकर आचमन करने के
पश्चात् शिव की आज्ञा से बाहर जाय ॥ ५०-५४अ ॥
जगतीवाह्यतश्चण्डमैशान्यान्दिशि
मन्दिरे ॥५५॥
धामगर्भप्रमाणे
च सुपीठे कल्पितासने ।
पूर्ववन्न्यासहोमादि
विधाय ध्यानपूर्वकं ॥५६॥
संस्थाप्य
विधिवत्तत्र ब्रह्माङ्गैः पूजयेत्ततः ।
अङ्गानि
पूर्वयुक्तानि ब्रह्माणी त्वर्चना यथा ॥५७॥
एवं
सद्योजाताय ओं ह्रूं फट् नमः ।
ओं विं
वामदेवाय ह्रूं फट्नमः ।
ओं बुं अघोराय
ह्रूं फट्नमः ।
ओं तत्पुरुषाय
वौमीशानाय च ह्रूं फट् ॥
याग मण्डप के
बाहर मन्दिर के ईशानकोण में चण्ड का स्थापन-पूजन करे। फिर मण्डप में धाम के गर्भ के
बराबर उत्तम पीठ पर आसन की कल्पना करके, पूर्ववत् न्यास, होम, आदि का अनुष्ठान करे। फिर ध्यानपूर्वक 'सद्योजात'
आदि की स्थापना करके, वहाँ ब्रह्माङ्गों द्वारा
विधिवत् पूजन करे। ब्रह्माङ्गों का वर्णन पहले किया जा चुका है। अब जिस प्रकार
मन्त्र द्वारा पूजन किया जाता है, उसे सुनो - 'ॐ वं सद्योजाताय हूं फट् नमः ।' 'ॐ विं वामदेवाय हुं
फट् नमः । ॐ वुं अघोराय हूं फट् नमः ।' इसी प्रकार 'ॐ वें तत्पुरुषाय हूं फट् नमः ।' तथा 'ॐ वों ईशानाय हूं फट् नमः ।'- ये मन्त्र हैं* ॥ ५५-५७॥
* इन मन्त्रों के विषय में पाठभेद मिलता है।
सोमशम्भु की 'कर्मकाण्ड-क्रमावली
में ये मन्त्र इस प्रकार दिये गये हैं- ॐचें सद्योजाताय हूं फट् नमः । ॐचैं
तत्पुरुषाय हूं फट् नमः । ॐ चों प्रशमनाय हूं फट् नमः ।
जपं विवेद्य
सन्तर्प्य विज्ञाप्य नतिपूर्वकं ।
देवः
सन्निहितो यावत्तावत्त्वं सन्निधो भव ॥५८॥
न्यूनाधिकञ्च
यत्किञ्चित्कृतमज्ञानतो मया ।
तवत्प्रसादेन
चण्डेश तत्सर्वं परिपूरय ॥५९॥
वाणलिङ्गे
वाणरोहे सिद्धलिङ्गे स्वयम्भुवि ।
प्रतिमासु च
सर्वासु न चण्डोऽधिकृतो भवेत् ॥६०॥
अद्वैतभावनायुक्ते
स्थण्डिलेशविधावपि ।
अभ्यर्च्य
चण्डं ससुतं यजमानं हि भार्यया ॥६१॥
पूर्वस्थापितकुम्भे
न स्नापयेत्स्नापकः स्वयं ।
स्थापकं
यजमानोपि सम्पूज्य च महेशवत् ॥६२॥
वित्तशाठ्यं
विना दद्याद्भूहिरण्यादि दक्षिणां ।
इस प्रकार जप
निवेदन करके, तर्पण
करने के पश्चात् स्तुतिपूर्वक विज्ञापना देकर चण्डेश से प्रार्थना करे - 'हे चण्डेश! जबतक श्रीमहादेवजी यहाँ विराजमान हैं, तबतक
तुम भी इसके समीप विद्यमान रहो। मैंने अज्ञानवश जो कुछ भी न्यूनाधिक कर्म किया है,
वह सब तुम्हारे कृपाप्रसाद से पूर्ण हो जाय। तुम स्वयं उसे पूर्ण
करो।' जहाँ बाणलिङ्ग (नर्मदेश्वर) हो, जहाँ
चल लोहमय (सुवर्णमय) लिङ्ग हो, जहाँ सिद्धलिङ्ग (ज्योतिर्लिङ्गादि)
तथा स्वयम्भूलिङ्ग हों, वहाँ और सब प्रकार की प्रतिमाओं पर
चढ़े हुए निर्माल्य में चण्डेश का अधिकार नहीं होता है। अद्वैतभावनायुक्त यजमान पर
तथा स्थण्डिलेश- विधि में भी चण्डेश का अधिकार नहीं है।* चण्ड का पूजन करके स्त्रापक (अभिषेक करनेवाला गुरु) स्वयं ही
पत्नी और पुत्रसहित यजमान को पूर्व स्थापित कलश के जल से स्नान करावे । यजमान भी
स्त्रापक गुरु का महेश्वर की भाँति पूजन करके, धन की कंजूसी
छोड़कर, उन्हें भूमि और सुवर्ण आदि की दक्षिणा दे ॥ ५८-६२अ ॥
मूर्तिमान् विधिवत्पश्चात्जापकान् ब्राह्मणांस्तथा ॥६३॥
देवज्ञं
शिल्पिनं प्रार्च्य दीनानाथादि भोजयेत् ।
यदत्र
सम्मुखीभावे स्वेदितो भगवन्मया ॥६४॥
क्षमस्व नाथ
तत्सर्वं कारुण्याम्बुनिधं मम ।
इति विज्ञप्तियुक्ताय
यजमानाय सद्गुरुः ॥६५॥
प्रतिष्ठापुण्यसद्भावं
स्फुरत्तारकसप्रभं ।
कुशपुष्पाक्षतोपेतं
स्वकरेण समर्पयेत् ॥६६॥
तत्पश्चात्
मूर्तिपालकों तथा जपकर्ता ब्राह्मणों का,ज्योतिषी का और शिल्पी का भी भलीभाँति विधिवत् पूजन करके दीनों
और अनाथों आदि को भोजन करावे। इसके बाद यजमान गुरु से इस प्रकार प्रार्थना करे - 'हे भगवन्! यहाँ सम्मुख करने के लिये मैंने आपको जो कष्ट दिया है, वह सब आप क्षमा करें; क्योंकि नाथ! आप करुणा के सागर
हैं, अतः मेरा सारा अपराध भूल जायें।'
इस प्रकार प्रार्थना करनेवाले यजमान को सद्गुरु अपने हाथ से कुश, पुष्प और अक्षतपुञ्ज के साथ प्रतिष्ठाजनित पुण्य की सत्ता समर्पित करे,
जिसका स्वरूप चमकते हुए तारों के समान दीप्तिमान् है ॥ ६३- ६६ ॥
ततः
पाशपतोपेतं प्रणम्य परमेश्वरं ।
ततोऽपि
बलिभिर्भूतान् सन्निधाय निबोधयेत् ॥६७॥
स्थातव्यं
भवता तावद्यावत्सन्निहितो हरः ।
गुरुर्वस्त्रादिसंयुक्तं
गृह्णीयाद्यागमण्डपं ॥६८॥
सर्वोपकरणं
शिल्पी तथा स्नापनमण्डपं ।
अन्ये देवादयः
स्थाप्या मन्त्रैरागमसम्भवैः ॥६९॥
आदिवर्णस्य
भेदाद्वा सुतत्त्वव्याप्तिभाविताः ।
साध्य
प्रमुखदेवाश्च सरिदोषधयस्तथा ॥७०॥
क्षेत्रपाः
किन्नराद्याश्च पृथिवीतत्त्वमाश्रिताः ।
स्नानं
सरस्वतीलक्ष्मीनदीनामम्भसि क्वचित् ॥७१॥
तदनन्तर, पाशुपत मन्त्र का जप करके, परमेश्वर को प्रणाम करने के अनन्तर, भूतगणों को बलि
अर्पित करे और इस प्रकार उन सबको समीप लाकर यों निवेदन करे- 'आपलोगों को तबतक यहाँ स्थित रहना चाहिये, जबतक
महादेवजी यहाँ विराजमान हैं।' वस्त्र आदि से युक्त याग-
मण्डप को गुरु अपने अधिकार में ले तथा समस्त उपकरणों से युक्त स्नापन- मण्डप को
शिल्पी ग्रहण करे। अन्य देवता आदि की आगमोक्त मन्त्रों द्वारा स्थापना करनी
चाहिये। सूर्य के वर्णभेद के अनुसार उन देवता आदि के वर्णभेद समझने चाहिये। वे
अपने तैजस तत्व में व्याप्त हैं- ऐसी भावना करनी चाहिये। साध्य आदि देवता, सरिताएँ, ओषधियाँ, क्षेत्रपाल
और किंनर आदि-ये सब पृथ्वीतत्त्व के आश्रित हैं। कहीं-कहीं सरस्वती, लक्ष्मी और नदियों का स्थान जल में बताया गया है॥६७-७१॥
भुवनाधिपतीनाञ्च
स्थानं यत्र व्यवस्थितिः ।
अण्डवृद्धिप्रधानान्तं
त्रितत्त्वं ब्रह्मणः पदं ॥७२॥
तन्मात्रादिप्रधानान्तं
पदमेतत्त्रिकं हरेः ।
नाट्येशगणमातॄणां
यक्षेशशरजन्मनां ॥७३॥
अण्डजाः
शुद्धविद्यान्तं पदं गणपतेस्तथा ।
मायांशदेशशक्त्यनतं
शिवा शिवोप्तरोचिषां ॥७४॥
पदमीश्वरपर्यन्तं
व्यक्तार्चासु च कीर्तितं ।
कूर्माद्यं
कीर्तितं यच्च यच्च रत्नादिपञ्चकं ॥७५॥
प्रतिक्षिपेत्पीठगर्ते
च पञ्चब्रह्मशिलां विना ।
भुवनाधिपतियों
का स्थान वही है, जहाँ उनकी स्थिति है। अहंकार, बुद्धि और प्रकृति- ये
तीन तत्त्व ब्रह्मा के स्थान हैं। तन्मात्रा से लेकर प्रधान-पर्यन्त तीन तत्त्व
श्रीहरि के स्थान हैं। नाट्येश, गण, मातृका,
यक्षराज, कार्तिकेय तथा गणेश का अण्डजादि
शुद्ध विद्यान्त तत्त्व है। मायांश देश से लेकर शक्ति- पर्यन्त तत्त्व शिवा,
शिव तथा उग्रतेजवाले सूर्यदेव का स्थान है। व्यक्त प्रतिमाओं के
लिये ईश्वर- पर्यन्त पद बताया गया है। स्थापना की सामग्री में जो कूर्म आदि का
वर्णन किया गया है तथा जो रत्न आदि पाँच वस्तुएँ कही गयी हैं, उन सबको देवपीठ के गर्त में डाल दे, परंतु पाँच ब्रह्मशिलाओं
को उसमें न डाले ॥ ७२-७५अ॥
षड्भिर्विभाजिते
गर्ते त्यक्त्वा भावञ्च पृष्ठतः ॥७६॥
स्थापनं
पञ्चमांशे च यदि वा वसुभाजिते ।
स्थापनं
सप्तमे भागे प्रतिमासु सुखावहं ॥७७॥
धारणाभिर्विशुद्धिः
स्यात्स्थापने लेपचित्रयोः ।
स्नानादि
मानसन्तत्र शिलारत्नादिवेशनं ॥७८॥
नेत्रोद्घाटनमन्त्रेष्टमासनादिप्रकल्पनं
।
पूजा
निरम्बुभिः पुष्पैर्यथा चित्रं न दुष्यति ॥७९॥
मन्दिर के
गर्भ का छः भागों में विभाजन करके छठे भाग को त्याग दे और पाँचवें भाग में देवता की
स्थापना करे। अथवा मन्दिर के गर्भ का आठ भाग करके सातवें भाग में प्रतिमाओं की
स्थापना करे तो वह सुखावह होता है। लेप अथवा चित्रमय विग्रह की स्थापना में
पञ्चभूतों की धारणाओं द्वारा विशुद्धि होती है। वहाँ स्नान आदि कार्य जल से नहीं, मानसिक किये जाते हैं । वैसे विग्रहों को
शिला एवं रत्न आदि के भवन में रखना चाहिये। उनमें नेत्रोन्मीलन तथा आसन आदि की
कल्पना अभीष्ट है। इनकी पूजा जलरहित पुष्पों से करनी चाहिये, जिससे चित्र दूषित न हो ।। ७६- ७९ ॥
विधिस्तु
चललिङ्गेषु सम्प्रत्येव निगद्यते ।
पञ्चभिर्वा
त्रिभिर्वापि पृथक्कुर्याद् विभाजिते ॥८०॥
भगत्रयेण
भागांशो भवेद्भागद्वयेन वा ।
स्वपीठेष्वपि
तद्वत्स्याल्लिङ्गेषु तत्त्वभेदतः ॥८१॥
सृष्टिमन्त्रेण
संस्कारो विधिवत्स्फाटिकादिषु ।
किञ्च
ब्रह्मशिलारत्नप्रभूतेश्चानिवेदनं ॥८२॥
अब चल लिङ्गों
के लिये स्थापना की विधि बतायी जाती है। गर्भस्थान के पाँच अथवा तीन भाग करके एक
भाग को छोड़ दे और तीसरे या दूसरे भाग में चल लिङ्ग की स्थापना करे। इसी प्रकार
उनके पीठों के लिये भी करना चाहिये । लिङ्गों में तत्त्वभेद से पूजन की प्रक्रिया में
भेद होता है। स्फटिक आदि के लिङ्गों में इष्टमन्त्र से (अथवा सृष्टि मन्त्र से)
विधिवत् संस्कार होना चाहिये । इसके सिवा वहाँ ब्रह्मशिला एवं रत्नप्रभूति का
निवेदन अपेक्षित नहीं है । ८०-८२ ॥
योजनं
पिण्डिकायाश्च मनसा परिकल्पयेत् ।
स्वयम्भूवाणलिङ्गादौ
संस्कृतौ नियमो न हि ॥८३॥
स्नापनं
संहितामन्त्रैर्न्यासं होमञ्च कारयेत् ।
नदीसमुद्ररोहाणां
स्थापनं पूर्ववन्मतं ॥८४॥
पिण्डिका की
योजना भी मन से ही कर लेनी चाहिये । स्वयम्भूलिङ्ग और बाणलिङ्ग आदि में संस्कार का
नियम नहीं है।* उन लिङ्गों को
संहिता-मन्त्रों से स्नान करना चाहिये। वैदिक विधि से ही उनके लिये न्यास और होम
करना चाहिये। नदी, समुद्र तथा रोह- इनके स्थापन कराने का विधान पूर्ववत् है ॥ ८३-८४ ॥
* पाठान्तर के अनुसार वहाँ पीठ के ही संस्कार का
नियम है, लिङ्ग का नहीं।
ऐहिकं मृण्मयं
लिङ्गं पिष्टकादि च तक्षणात् ।
कृत्वा
सम्पूजयेच्छुद्धं सीक्षणादिविधानतः ॥८५॥
समादाय ततो
मन्त्रानात्मानं सन्निधाय च ।
तज्जले
प्रक्षिपेल्लिङ्गं वत्सरात्कामदं भवेत् ॥८६॥
विष्ण्वादिस्थापनं
चैव पृयङ्मन्त्रैः समाचरेत् ॥८७॥
इहलोक में जो
मृत्तिका आदि के अथवा आटे आदि के शिवलिङ्ग का पूजन किया जाता है, वह तात्कालिक होता है। अर्थात् पूजन-काल में
ही लिङ्ग निर्माण करके वीक्षणादि विधान से उनकी शुद्धि करे। तत्पश्चात् विधिवत्
पूजन करना चाहिये। पूजन के पश्चात् मन्त्रों को लेकर अपने-आप में स्थापित करे और
उस लिङ्ग को जल में डाल दे। एक वर्ष तक ऐसा करने से वह लिङ्ग और उसका पूजन
मनोवाञ्छित फल देनेवाला होता है। विष्णु आदि देवताओं की स्थापना के मन्त्र अलग
हैं। उन्हीं के द्वारा उनकी स्थापना करनी चाहिये ॥ ८५- ८७ ॥
इत्याग्नेये
महापुराणे शिवप्रतिष्ठा नाम सप्तनवतितमोऽध्यायः ॥९७॥
इस प्रकार आदि
आग्नेय महापुराण में 'शिवप्रतिष्ठा की विधि का वर्णन' नामक सत्तानवेवाँ
अध्याय पूरा हुआ ॥ ९७ ॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 98
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