recent

Slide show

[people][slideshow]

Ad Code

Responsive Advertisement

JSON Variables

Total Pageviews

Blog Archive

Search This Blog

Fashion

3/Fashion/grid-small

Text Widget

Bonjour & Welcome

Tags

Contact Form






Contact Form

Name

Email *

Message *

Followers

Ticker

6/recent/ticker-posts

Slider

5/random/slider

Labels Cloud

Translate

Lorem Ipsum is simply dummy text of the printing and typesetting industry. Lorem Ipsum has been the industry's.

Pages

कर्मकाण्ड

Popular Posts

शैव रामायण अध्याय १२

शैव रामायण अध्याय १२  

शैव रामायण के अध्याय १२ में राम द्वारा अपने भाईयों एवं सीता के साथ सरयू नदी के तट पर यज्ञशाला एवं यज्ञवेदी का निर्माण, अतिथियों की विभिन्न पकवानों से सेवा, पुरोहितों को दक्षिणादान, राम द्वारा सैकड़ों अश्वमेघ यज्ञ करना, सौवें अश्वमेघ यज्ञ के समय राम का सीता को वाल्मीकि आश्रम में भेजना (परित्याग वर्णन), सीता की सुवर्ण प्रतिमा बनाकर यज्ञ की सम्पन्नता, अनन्तर हजार वर्ष तक पृथ्वी का पालन करने वाले राम द्वारा कुश एवं लव का राज्याभिषेक तथा राम का स्वर्ग प्रस्थान विवरण, राम के सामने सीता का पृथ्वी में प्रवेश होना, तदनन्तर वैकुण्ठ में राम-सीता का मिलन, रमा एवं विष्णु रूप में होने तक का वर्णन अभिहित मिलता है।

शैव रामायण अध्याय १२

शैव रामायण बारहवाँ अध्याय

Shaiv Ramayan chapter 12     

शैवरामायणम् द्वादशोऽध्यायः

शैवरामायण द्वादश अध्याय

शैव रामायण अध्याय १२  

ईश्वर उवाच

अथ रामो रघुपतिर्यजने कृतधीर्मुदा ।

सीतया सहितः श्रीमानश्वमेधे महाक्रतौ ।। १ ।।

कृत्वाथ ऋत्विग्वरणं वसिष्ठादीन्महामुनीन् ।

वसिष्ठो वामदेवश्च विश्वामित्रोऽथ गौतमः ।।२।।

जाबालिर्जमदग्निश्च मार्कण्डेयोऽपि मौद्गलः ।

कश्यपोऽत्रिर्भरद्वाजः सुतीक्ष्णोऽगस्त्यनारदौ ।। ३ ।।

रामादयो मुनिश्रेष्ठा रामस्य परमात्मनः ।

यथाशास्त्रमनुक्रम्य ह्यश्वमेधे महाक्रतौ ।।४।।

भगवान शङ्कर बोले- इसके बाद राम ने प्रसन्न होकर के प्रारम्भिक पूजन किया तदनन्तर सीता के साथ अश्वमेध यज्ञ करना प्रारम्भ किया। इसके लिए सर्वप्रथम उन्होंने वशिष्ठादि महामुनियों को ऋत्विक् रूप में वरण किया, जिसमें वशिष्ठ, वामदेव, विश्वामित्र, गौतम, जाबालि जमदग्नि, मार्कण्डेय, मुद्गल, कश्यप, अत्रि, भरद्वाज, सुतीक्ष्ण, अगस्त्य, नारद आदि महामुनियों ने परमात्मा स्वरूप राम के लिए शास्त्रीय विधि के अनुसार यज्ञ प्रारम्भ किया ।। १-४ ।

शालाश्च सरयूतीरे तासु वेदी प्रकल्प्य च ।

सीतया सहितं रामं सदीक्षामुपवेश्य च ।। ५।।

आदौ तु प्रातः सवनं पश्चान्माध्यंदिनं तदा ।

तृतीयं सवनं चेति कर्म कुयुर्यथाविधिः ।। ६ ।।

अश्वमेध यज्ञ करने के प्रसङ्ग में सर्वप्रथम, सरयू नदी के किनारे यज्ञशालाओं का निर्माण हुआ एवं उनमें यज्ञवेदी निर्माण किया गया । तदनन्तर दीक्षा लेकर सीता सहित राम यज्ञभूमि पर बैठे। प्रारम्भ में प्रात:कालीन यज्ञ किया गया । तदनन्तर मध्याह्न में माध्यंदिन यज्ञ सम्पन्न हुआ, तदनन्तर तृतीय सवन (यज्ञ) दोनों ने यथाविधि किया ॥५-६ ॥

स्वाहाकारवषट्कारैः ऋग्यजुः साममन्त्रजैः ।

अग्निष्टोमातिरात्रौ च पौण्डरीकमतः परम् ।। ७ ।।

चयनं गारुडं होमं प्रकृतिविकृतीस्ततः ।

कोविदारैस्त्रिभिः षड्भिर्बिल्वौदुम्बरखादिरैः ।।८।।

वस्त्रालङ्करणोपेता यूपास्तत्रैकविंशतिः ।

रात्रावश्वस्य शुश्रूषां कुर्वती जानकी तदा ।। ९ ।।

ऋग्वेद, यजुर्वेद एवं सामवेद के मन्त्रों के द्वारा स्वाहा, वषट् इत्यादि ध्वनियों से सम्पृक्त, अत्यन्त पवित्र अग्निष्टोम यज्ञ रात्रि में तथा इसके बाद श्रेष्ठ पौण्डरीक यज्ञ सम्पन्न हुआ । गारुड़ होम का चयन करके प्रकृति एवं विकृति होम हुए। पहले तीन पण्डितों के द्वारा, फिर छ: पण्डितों के द्वारा विल्व, उदुम्बर एवं खदिर की लकड़ी से हवन हुआ, फिर वस्त्र एवं अलङ्करणों से सुशोभित इक्कीस पण्डितों के द्वारा यूप की क्रिया सम्पन्न की गयी।* इसके बाद रात्रि में जानकी सीता ने उस अश्व की सेवा शुश्रूषा की ।।७-९ ।।

* (यू-पक् पृषो. दीर्घः) यज्ञ की स्थूणा (यह प्रायः बाँस या खदिर वृक्ष की लकड़ी से बनायी जाती है) जिसके साथ बलि दिया जाने वाला पशु, अश्वमेध के समय बाँध दिया जाता है। कालिदास ने भी कुमारसम्भव (५/७३० में लिखा है- "अपेक्ष्यतेसाधुजनेन वैदिकी श्मशानः-शूलस्य न यूपसत्क्रिया । "

न्यवसत् सा ततो देवाः समाहूताः समाययुः ।

बबन्धुस्तत्रयूपेषु कुशाढ्ये त्रिशतं पशून् ।।१०।।

यूपाग्रे रज्जुभिर्बद्धं मन्त्रपूतं हयं ततः ।

छेदयित्वा वसिष्ठस्तद् वपामुधृ (?) त्य सर्त्विजः ।। ११ ।।

रात्रि में जानकी वहीं उस अश्व के पास रहीं, उसके बाद देवतागढ़ आहूत हुए और वहाँ पहुँचे। इसके बाद वहाँ यूप में कुश के द्वारा तीन सौ पशु बाँधे गये। उसके बाद यूप के अग्रभाग में रस्सी में बँधा हुआ एवं मन्त्र से पवित्र किया हुआ अश्व स्थापित किया गया। उसके बाद मधु के छिड़काव से वशिष्ठ ने उस सर्त्विज का छेदन किया ।। १०-११ ॥

आश्रावयेति मन्त्रेण हव्यवाहे व्यनिक्षिपत् ।

देहं निकृन्तनं कृत्वा ह्यङ्गैर्होममथाकरोत् । । १२ । ।

एवं शतत्रयस्यापि पशूनामङ्गहोमकम् ।

रामस्य ह्यमेधे ये द्रष्टुमभ्यागताः जनाः ।। १३ ।।

ब्राह्मणाः क्षत्रियाः वैश्याः शूद्रास्तत्र सविस्मयाः ।

अहोरात्रे ददावन्नमागतेभ्यः सुसत्कृतम् ।। १४ ।।

इसके बाद मन्त्रोच्चारण के बीच हव्यवाहों ने हवन किया, इसके बाद उस पशु के देह के अंगों को काट-काट कर अङ्ग होम किया गया। इस प्रकार तीन सौ पशुओं के अंगों को काट-काट कर पशुओं के अंग का हवन किया गया। राम के अश्वमेध यज्ञ को देखने के लिए आये हुए सभी लोगों - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र सभी आश्चर्यचकित हो गये । तदनन्तर अहोरात्रि में आये हुए लोगों का सत्कार कर उन्हें भोजन परोसा गया ।। १२-१४।।

अन्नकूटैश्बहुभिः पर्वता इव संस्थितैः ।

सूपैर्नानाविधैः शाकैर्हिङ्गूलवणमिश्रितैः ।। १५ ।।

मारीच्याम्राज्यसम्मिश्रैः रसालफलसंयुतम् ।

तिलमाषादिचूर्णाक्तैः रसैर्बहुभिरन्वितम् ।। १६।।

द्राक्षेक्षुरम्भापनसनारिकेलफलैर्युतम् ।

सिद्धार्थरससंयुक्तैश्चूतखण्डैरलङ्कृतम् ।।१७।।

वहाँ अनेक प्रकार के भोजन पर्वत की तरह ऊँचे अर्थात् अत्यधिक मात्रा में रखे गये थे। नाना प्रकार की दालें एवं सब्जियाँ थीं, जो हींग एवं लवण से मिश्रित थीं। मिर्च से युक्त आम के अचार एवं बहुत मात्रा में आम के फल रखे थे। तिल, माष के चूर्ण से युक्त बहुत से पेय पदार्थ थे । अंगूर, गन्ना, रम्भा, पनस (कटहल ) एवं नारियल के फल थे । सिद्धार्थरस से संयुक्त आम के छोटे-छोटे खण्ड (टुकड़े) वहाँ अलंकृत थे ॥१५-१७॥

सौवर्णे राजते रत्ने भाजने पर्णनिर्मिते ।

शाल्योदनं विनिक्षिप्य प्राज्यमाज्यपुटेषु च ।। १८ ।।

यथारुचि प्रभुञ्जध्वं भुञ्जध्वमिति चाब्रुवन् ।

गृह्यतां गृह्यतामन्नं भूयो भूयो ह्यपेक्षितम् ।। १९ । ।

पत्ते से निर्मित खाने के पात्र ऐसे लग रहे थे, जैसे वह सुवर्ण से बने हों और उनमें रत्न जड़े हों। पहले उनमें शालि का भात डाला गया, फिर पुटक (दोनें) में प्रचुर मात्रा में (अश्वमेधीय यज्ञ का हव्य) मास दिया गया। सभी लोगों ने यथा रुचि भोजन किया एवं खाते समय यह बोलते हुए देखे गये कि अरे और लीजिए और अन्न ग्रहण कीजिये, जो-जो आपको अपेक्षित हो ।। १८-१९॥

इति सर्वेषु तृप्तेषु भक्ष्यैरुच्चावचैरपि ।

हयमेधे महायज्ञे राघवः सी (त) या सह ।। २० ।।

दीक्षान्तेऽवभृतस्नातो शतकोटीः सुवर्णकाः (गाः) ।

आनीय ब्राह्मणेभ्यश्च ऋत्विग्भ्यः प्रददौ नृ (पः) ।। २१ ।।

राम और सीता द्वारा किये गये अश्वमेघ के महायज्ञ में खाने वाले सभी जोर-जोर से बोल रहे थे, कि सभी लोग आज तृप्त हो गये हैं। यज्ञपूर्ण करने के उपरान्त अवभृत स्नान कर दीक्षा देने के कार्यक्रम में सौ करोड़ सोने से अलंकृत की हुई गायों को ऋत्विकों और ब्राह्मणों को बुला-बुला कर राजा राम द्वारा दीक्षा रूप में प्रदान किया गया ॥ २०-२१ ॥

अध्वर्यौदा (? द्गा) तृहोतृभ्यो दशकोटिसुवर्णकम् ।

बहुमान्य (न्) दा भूपान् नानाद्वीपेभ्य आगतान् ।। २२ ।।

अध्वर्यु जनों होत्रियों एवं उस समय नाना द्वीपों से आये हुए बहु सम्मानित राजाओं को दस करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ प्रदान की गयीं ॥२२॥

यथार्हमर्हणं (कृ) त्वा पुरस्कृतिं च समन्वितान् ।

सुग्रीवराक्षसेन्द्रं च प्रस्थाप्य परिवारकैः ।। २३ ।।

मैं आपका हूँ, ऐसी भ्रातृता दिखाते हुए राम ने विविध उपहारों के साथ सुग्रीव एवं राक्षसराज पुष्कराक्ष को परिवार के साथ विदा किया ॥ २३॥

सी (त) या सह रामोऽपि (सोदरैः स) हितोऽनघः ।

(दश) वर्षसह (स्त्रा) णि ह्ययोध्यां पालयन् पुरीम् ।। २४ ।।

चक्रे रामोऽश्वमेधानामेकोन (शत) मेव सः ।

अ (न्तिमे) जानकीं हित्वा वाल्मीकेराश्रमं प्रति ।। २५ ।।

सीता के सहित राम अपने भाईयों के साथ दस हजार वर्ष तक अयोध्या नगरी का पालन करते रहे। राम ने निन्यान्वे अश्वमेध यज्ञ किया लेकिन अन्तिम सौंवे अश्वमेध यज्ञ के समय उन्होंने जानकी का परित्याग कर उन्हें वाल्मीकि आश्रम छोड़ दिया ।।२४-२५॥

सीताप्रतिनिधि कृत्वा सुवर्णप्रतिमां तदा ।

अश्व (मेध) चकारासौ भ्रातृभिः सहितः शुचिः ।। २६ ।।

पश्चाद् वर्षसहस्रञ्च पालयन् पृथिवीमिमाम् ।

अयोध्यायां विनिक्षिप्य पुत्रो कुशलवाविह ।। २७ ।।

सौंवे अश्वमेध यज्ञ के समय राम ने सीता की सुवर्ण प्रतिमा बनवाकर के सीता को प्रतिनिधि बना करके, भाईयों के साथ पवित्रतापूर्वक अश्वमेधयज्ञ सम्पन्न किया । तदनन्तर एक हजार वर्ष तक इस पृथ्वी का पालन करते हुए उन्होंने अयोध्या का राजसिंहासन अपने पुत्रों कुश एवं लव को दे दिया ।। २६-२७॥

सोदरैः सहितो रामः साकेते पुरवासिभिः ।

तृणपाषाणवृक्षाद्यैः स्नात्वैव सरयूजले ।। २८ ।।

निजनामयशो भूमौ स्थापयित्वा दिवं ययौ ।

रामस्य पुरतः सीता प्रविवेश धरातलम् ।। २९ ।।

पुनर्वैकुण्ठमासाद्य चिक्रीडे रमया सह ।

वैदेहीरूपया रामो विष्णुरूपेण सर्वदा ।।३०।।

तृण, पाषाण एवं वृक्षादि के द्वारा (सहयोग से) सरयू नदी के जल में स्नान करके अपने भाइयों सहित राम पुरवासियों के साथ बहुत दिन साकेत में रहे एवं अनन्तर में राम के सामने ही सीता ने धरातल में प्रवेश कर लिया तथा राम भी अपने नाम एवं यश को पृथ्वी में स्थापित कर स्वर्ग चले गये । इस प्रकार पुनः वह स्वर्ग पहुँचकर लक्ष्मी के साथ आनन्दपूर्वक रहने लगे । लक्ष्मी वैदेही रूप में एवं राम विष्णु रूप में सर्वदा तो थे ही ।।२८-३०।।

ईश्वर उवाच

श्रीरामविजयं नाम पवित्रं पापनाशनम् ।

रामस्य चरितं पुण्यं सहस्रग्रीवमर्दनम् ।। ३१ ।।

शिव जी पार्वती जी से बोले कि श्रीरामविजय नाम की यह कथा अत्यन्त पवित्र और पापों का विनाश करने वाली है, जिसमें सहस्रग्रीव (सहस्रकण्ठ) का मर्दन एवं श्रीराम के पुण्य चरित्र का वर्णन मिलता है ।।३१।।

ये शृण्वन्ति सदा भक्त्या ये लिखन्ति मनीषिणः ।

ये वाचयन्ति सततं मुच्यन्ते सर्वपातकात् ।। ३२ । ।

जो इस रामकथा को भक्तिपूर्वक सुनते हैं और जो मनीषी लिखते हैं तथा जो निरन्तर इसका वाचन करते हैं, वह सम्पूर्ण पापों से छूट जाते हैं ॥३२॥

एतन्मया निगदितं तुभ्यं पर्वतनन्दिनि ।

शैवमेनं वदिष्यन्ति अद्य प्रभृतिः मानवाः मा (गधाः) ।। ३३ ।।

भगवान शिव ने हिमालय की पुत्री पार्वती से कहा कि यह सम्पूर्ण कथा मैंने तुम्हें सुनायी है । शैव उपासक एवं अन्य मनुष्यगण आज से लेकर इस रामकथा को कहेंगे, मूर्ख लोग तो विल्कुल भी नहीं ॥ ३३ ॥

इति श्रीशैवरामायणे पार्वतीश्वरसंवादे सहस्त्रग्रीवरामचरिते द्वादशोऽध्यायः ।

इस प्रकार शिवपार्वती संवाद रूप में प्राप्त शैवरामायण का सहस्रग्रीवचरित नामक बारहवाँ अध्याय समाप्त हुआ।

इति श्रीशैवरामायणम् ॥

इति शुभम् ।

No comments:

vehicles

[cars][stack]

business

[business][grids]

health

[health][btop]