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कर्मकाण्ड

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देवीरहस्य पटल ६०

देवीरहस्य पटल ६०    

रुद्रयामलतन्त्रोक्त देवीरहस्यम् उत्तरार्द्ध के पटल ६० में दशमी विधि निरूपण के विषय में बतलाया गया है।

देवीरहस्य पटल ६०

रुद्रयामलतन्त्रोक्तं देवीरहस्यम् षष्टितमः पटलः दशमीविधिः

Shri Devi Rahasya Patal 60   

रुद्रयामलतन्त्रोक्त देवीरहस्य साठवाँ पटल

रुद्रयामल तन्त्रोक्त देवीरहस्यम् षष्टितम पटल

देवीरहस्य पटल ६० दशमी विधि

अथ षष्टितमः पटलः

श्रीदुर्गारहस्यभूतं गुरुपूजनम्

श्री भैरव उवाच

अधुना कथयिष्यामि श्रीदुर्गाया रहस्यकम् ।

तत्त्वं मन्त्रस्य देवेशि दशमीपूजनं परम् ॥१॥

दीक्षागुरुः शिवे यस्तु दशमी स प्रकीर्तितः ।

पूजनं तस्य वक्ष्यामि सर्वतन्त्रेषु गोपितम् ॥ २ ॥

दीक्षां गृहीत्वा विधिवद् गुरोः कुलविचक्षणात् ।

तदाज्ञां शिरसादाय साधयेत् स्वमनुं ततः ॥ ३ ॥

दीक्षागुरु पूजन- भैरव ने कहा कि हे देवेशि ! अब मैं श्री दुर्गारहस्यभूत मन्त्र के तत्त्वस्वरूप दशमी-पूजन का वर्णन करूंगा। हे शिवे! जो दीक्षागुरु होता है उसी को दशमी कहते हैं। सभी तन्त्रों में गोपित गुरुपूजन का वर्णन अब मैं करता हूँ। कुलाचार-ज्ञानी गुरु से विधिवत् दीक्षा लेकर उनकी आज्ञा शिर पर धारण करके प्राप्त मन्त्र की साधना करे ।।१-३।।

देवीरहस्य पटल ६०- गुरुपूजनस्थानानि

एकदा पुण्यदिवसे मुहूर्ते शुभदे तथा ।

गुरुमानीय देवेशि शून्यगेहे चतुष्पथे ॥४॥

श्मशाने वा वने वापि स्वगृहे वापि पार्वति ।

तत्र भूमौ लिखेद्यन्त्रं यथावद् वर्ण्यते मया ॥ ५ ॥

गुरुपूजन-स्थान - हे देवेशि किसी पुण्यदिवस में शुभ मुहूर्त में गुरु को शून्यगृह, चौराहा, श्मशान, जङ्गल या अपने घर में सादर लाकर बैठाने के पश्चात् भूमि पर आगे वर्णित यन्त्र का अङ्कन यथावत् करे ।।४-५ ।।

देवीरहस्य पटल ६०- गुरुपूजनयन्त्रम्

बिन्दुत्रिकोणं वसुकोणबिम्बं वृत्ताष्टपत्रं शिखिवृत्तयुक्तम् ।

धरागृहं वह्नितुटीभिरीढ्यं यन्त्रं गुरोर्देवि मया प्रदिष्टम् ॥६॥

गुरुपूजन यन्त्र - हे देवि ! बिन्दु, त्रिकोण, अष्टकोण, अष्टदल, वृत्तत्रय, तीन रेखायुक्त भूपुर के योग से गुरुपूजन यन्त्र बनता है ।।६।।

देवीरहस्य पटल ६०- गुरु पूजन यन्त्र

देवीरहस्य पटल ६०- यन्त्रपूजनम्

सिन्दूरेण विलिख्यातः पूजयेच्चक्रमीश्वरि ।

गणेशधर्मवरुणाः कुबेरसहिताः शिवे ॥७॥

पूज्या द्वा: स्थाः सुपुष्पैश्च गन्धाक्षतपुरःसरैः ।

असिताङ्गो रुरुश्चण्डो क्रोधेशोन्मत्त भैरवौ ॥८ ॥

कपाली भीषणो देवि संहारोऽर्च्योऽष्टपत्रके ।

यन्त्र - पूजन- इस चक्र को सिन्दूर से अंकित करे। भूपुर के चारों द्वारों पर गन्धाक्षतपुष्प से गणेश, धर्म, वरुण और कुबेर का पूजन करे। अष्टकोण में असिताङ्ग, रुरु, चण्ड, क्रोधेश, उन्मत्त, कपाली, भीषण और संहारभैरवों का पूजन करे।। ७-८ ।।

देवीरहस्य पटल ६०- गुरुपूजनयन्त्रे गुरुपूजनम्

परमानन्दनाथं च प्रकाशानन्दनाथकम् ॥ ९॥

श्री भोगानन्दनाथं च समयानन्दनाथकम् ।

भुवनानन्दनाथं च सुमनानन्दनाथकम् ॥ १० ॥

गगनानन्दनाथं च श्रीविश्वानन्दनाथकम् ।

अष्टौ कुलगुरून् देवि पूजयेद् वसुपत्रके ॥११॥

मदनानन्दनाथं च श्रीलीलानन्दनाथकम् ।

महेश्वरानन्दनाथं पूजयेद्वै त्रिकोणके ॥१२॥

बिन्दौ गुरुं च संपूज्य गन्धाक्षतप्रसूनकैः ।

तत्र बिन्दौ गुरुं देवि स्थापयेद् भक्तिपूर्वकम् ॥ १३ ॥

सम्पूजयेत् स्वमूलेन दक्षिणां कालिकां यजेत् ।

महाकालं यजेत् तत्र कामं कामेश्वरीं तथा ॥ १४ ॥

यन्त्र में गुरु पूजन- अष्टदल में परमानन्दनाथ, प्रकाशानन्दनाथ, भोगानन्दनाथ, समयानन्दनाथ, भुवनानन्दनाथ, स्वात्मानन्दनाथ, गगनानन्दनाथ और विश्वानन्दनाथ-इन आठ कुलगुरुओं का पूजन करे त्रिकोण में मदनानन्दनाथ, लीलानन्दनाथ एवं महेश्वरानन्दनाथ का पूजन करे।

बिन्दु में अपने गुरु का पूजन गन्धाक्षतपुष्प से करे। हे देवि! गुरु का स्थापन भी बिन्दु में करे और भक्तिपूर्वक उनका पूजन करे वहीं पर अपने मूलमन्त्र से दक्षिण कालिका का पूजन करे। महाकाल का पूजन करे। कामदेव और कामेश्वरी का पूजन करे ।। ९-१४।।

गुरुं च परमं देवि परापरगुरुं तथा ।

परमेष्ठिगुरुं चैव स्वगुरोर्मूर्ध्नि पूजयेत् ॥ १५ ॥

संपूज्य विविधैः पुष्यैर्माल्यैराभरणोत्तमैः ।

दक्षिणाभिर्महेशानि भक्ष्यैर्भोज्यैश्च लेह्यकैः ॥ १६ ॥

चोष्यैः पेयैश्च खाद्यैश्च बलिं दत्त्वा च तर्पयेत् ।

आनन्दरससंपूर्ण गुरुं दृष्ट्वा महेश्वरि ।। १७ ।।

ततो देवि गुरुं नत्वा प्रार्थयेत् स्वमनोरथम् ।

य एवं पूजयेद् देवि स्वगुरुं पुण्यवासरे ॥ १८ ॥

स एवं भैरवः साक्षाद्विचरेद् भुवनत्रये ।

गुरु, परमगुरु, परापरगुरु और परमेष्ठिगुरु का पूजन मूर्धा में करे। विविध पुष्पों, माला, उत्तम आभरणों, भक्ष्य, भोज्य, लेह्य, चोष्य, पेय, खाद्य एवं दक्षिणा से इन सबों का पूजन करे। बलि देकर तर्पण करे। ऐसा माने कि गुरु आनन्दरस से पूर्ण हैं। हे महेश्वरि ! तब गुरु को प्रणाम करके उनसे अपने मनोरथ को बताये पुण्य वासर में जो इस प्रकार गुरु का पूजन करता है, वह साक्षात् भैरव होकर तीनों लोकों में विचरण करता है ।। १५-१८।।

देवीरहस्य पटल ६०- गुरुप्रार्थनास्तुतिः

गुरुरेव परो मन्त्रो गुरुरेव परो जपः ॥ १९ ॥

गुरुरेव परा विद्या नास्ति किञ्चिद्गुरुं विना ।

यस्य तुष्टो गुरुर्देवि तस्य तुष्टा महेश्वरी ॥ २० ॥

येन सन्तोषितो देवि गुरुः स हि सदाशिवः ।

यन्न दृष्ट्यापि वै ब्रूयाद्गुरुस्तन्न समाचरेत् ॥ २१ ॥

पुण्यं वापुण्यमीशानि त्याज्यं ग्राह्यं कुलार्चिते ।

गुरुर्वदति यत् सद्यस्तत् कुर्यात् साधकोत्तमः ॥ २२॥

विना गुरूपदेशेन न सिद्ध्यति कलौ मनुः ।

तस्माद् गुरुं भजेद् भक्त्या तोषयेत् सततं गुरुम् ॥ २३ ॥

गुरोर्यत्र परीवादो निन्दा यत्र प्रवर्तते ।

कर्णौ तत्र पिधातव्यौ नो वा दूरं पलायनम् ॥ २४ ॥

गुरुर्देवि परो धर्मो गुरुरेव परा गतिः ।

गुरुमभ्यर्चयेन्नित्यं येन देवी प्रसीदति ॥ २५ ॥

गुरुप्रार्थना स्तुति - गुरु ही परम मन्त्र है। गुरु ही परम जप है। गुरु ही परा विद्या है। गुरु के बिना कुछ भी नहीं है। जिससे गुरु सन्तुष्ट हैं, उससे देवी भी सन्तुष्ट रहती है। जिससे गुरु सन्तुष्ट हो, वह साधक सदाशिव है। जहाँ गुरु की आज्ञा न हो, वहाँ कोई कार्य न करे। पुण्य या अपुण्य का त्याग या ग्रहण गुरु की आज्ञा के बिना न करे। श्रेष्ठ साधक गुरु के कथनानुसार कार्य करे। बिना गुरु के उपदेश के कलियुग में मन्त्र को सिद्ध नहीं होते। इसलिये भक्तिपूर्वक गुरु का भजन करे और सदैव गुरु रखे। सन्तुष्ट जहाँ गुरु के विरुद्ध वचन हो या जहाँ गुरु की निन्दा हो, उसे कानों में न जाने दे। अपितु वहाँ से दूर चला जाय। हे देवि! गुरु ही परम धर्म हैं, गुरु ही परम गति हैं, नित्य गुरु के पूजन से देवी प्रसन्न होती हैं ।। १९-२५ ।।

इतीदं दशमीतत्त्वं सर्वागमरहस्यकम् ।

सारात्सारतरं देवि गोपनीयं मुमुक्षुभिः ॥ २६ ॥

इतीद परमं तत्त्वं तत्त्वं सर्वस्वमुत्तमम् ।

दुर्गारहस्यसाराढ्यं गुह्यं गोप्यं च साधकैः ॥ २७ ॥

इति देवीरहस्याख्यस्तन्त्रोऽयं तन्त्रसागरः ।

सर्वस्वं मे रहस्यं मे सर्वागमनिधिः परः ॥ २८ ॥

श्रीदुर्गायास्तत्त्वभूतो मन्त्रराजमयो ध्रुवः ।

सिद्धिप्रदो महादेवि पूजनीयोऽस्ति साधकैः ॥ २९॥

इस प्रकार का यह दशमी तत्त्व सभी आगमों का रहस्य है। यह सारों का सार है। मुमुक्षुओं के लिये भी गोपनीय है। यह परम तत्त्व सभी तत्त्वों में उत्तम है। दुर्गारहस्य से पूर्ण यह साधकों के द्वारा गुह्य और गोपनीय है। यह देवीरहस्य नामक तन्त्र तन्त्रसागर है। यह मेरा सर्वस्व रहस्य है। यह सभी आगमों का भण्डार है। यह दुर्गातत्त्व का मन्त्रराज है। हे महादेवि! यह सिद्धिप्रद है और साधकों के द्वारा सदा-सर्वदा पूजनीय है ।। २६-२९।।

देवीरहस्य पटल ६०- देवीरहस्य श्रवण कृतज्ञत्वम्

श्रीदेव्युवाच

भगवन् भवता भक्त्या प्रसादोऽयं मयि कृतः ।

यत्त्वया वर्णितस्तन्त्रः श्रीदुर्गायाः कुलेश्वर ॥३०॥

क्रीतास्मि तव दास्यस्मि भक्तास्मि त्रिपुरान्तक ।

सर्वथा रक्षणीयास्मि किमन्यत् कथयामि ते ॥ ३१ ॥

श्री देवी ने कहा- भगवन्! मैंने आपकी जो भक्ति की, उसका ही यह प्रसाद है कि आपने दुर्गातन्त्र का वर्णन मुझसे किया। हे त्रिपुरान्तक! अब मैं आपकी क्रीतदासी एवं भक्त हूँ। आपके द्वारा सर्वथा रक्षणीया हूँ। इससे अधिक आपसे मैं और क्या कहूँ ।। ३०-३१।।

श्रीभैरव उवाच

इदं देवीरहस्याख्यं तन्त्रराजं महेश्वरि ।

अदातव्यमभक्तेभ्यो दुरात्मभ्यो महेश्वरि ॥ ३२ ॥

स्वपुत्रेभ्योऽन्यशिष्येभ्यो न देयं तु मुमुक्षुभिः ।

इदं हि सारं तन्त्राणां तत्त्वं सर्वस्वमुत्तमम् ।

रहस्यं देवि दुर्गाया गोपनीयं स्वयोनिवत् ॥ ३३ ॥

श्री भैरव ने कहा कि हे महेश्वरि! यह देवीरहस्य तन्त्रराज है। अभक्तों के लिये अदातव्य है। दुरात्माओं को भी इसे देना नहीं चाहिये और अपने दुष्ट पुत्र तथा दूसरे के शिष्य को भी नहीं देना चाहिये। मुमुक्षुओं को भी यह देय नहीं है। यह सभी तन्त्री का सार है। तत्त्वों का सर्वस्व है। इस दुर्गारहस्य को अपनी योनि के समान गुप्त रखना चाहिये।। ३२-३३।।

इति श्रीरुद्रयामलतन्त्रान्तर्गत श्रीदेवीरहस्ये दशमीविधि-निरूपणं नाम षष्टितमः पटलः ॥ ६० ॥

इस प्रकार रुद्रयामल तन्त्रोक्त श्रीदेवीरहस्य की भाषा टीका में दशमीविधि निरूपणं नामक षष्टितम पटल पूर्ण हुआ।

समाप्तमिदं देवीरहस्यतन्त्रम्॥

श्रीदेवीरहस्यम् समाप्त ॥

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