अग्निपुराण अध्याय १६४
अग्निपुराण अध्याय १६४ में नवग्रह हवन
का वर्णन है।
अग्निपुराणम् चतुःषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः
Agni puran chapter 164
अग्निपुराण एक सौ चौंसठवाँ अध्याय
अग्निपुराणम्/अध्यायः १६४
अग्निपुराणम् अध्यायः १६४ – नवग्रहहोमः
अथ चतुःषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः
पुष्कर उवाच
श्रीकामः शान्तिकामो वा ग्रहयज्ञं
समारभेत् ।
वृष्ट्यायुःपुष्टिकामो वा
तथैवाभिचरन् पुनः ॥०१॥
सूर्यः सोमो मङ्गलश्च बुधश्चाथ
बृहस्पतिः ।
शुक्रः शनैश्चरो राहुः केतुश्चेति
ग्रहाः स्मृताः ॥०२॥
ताम्रकात्स्फटिकाद्रक्तचन्दनात्स्वर्णर्कादुभौ
।
रजतादयसः शीशात्ग्रहाः कार्याः
क्रमादिमे ॥०३॥
सुवर्णैर्वायजेल्लिख्य
गन्धमण्डलकेषु वा ।
यथावर्णं प्रदेयानि वासांसि
कुसुमानि च ॥०४॥
गन्धाश्च वलयश्चैव धूपो देयस्तु
गुग्गुलुः ।
कर्तव्या मन्त्रयन्तश्च चरवः
प्रतिदैवतं ॥०५॥
आकृष्णेन इमं देवा अग्निर्मूर्धा
दिवः ककुत् ।
उद्बुद्ध्यस्वेति च ऋचो यथासङ्ख्यं
प्रकीर्तिताः ॥०६॥
बृहस्पते
अतियदर्यस्तथैवाल्पात्परिश्रुतः ।
शन्नो देवीस्तथा काण्डात्केतुं
कृन्वन्निमास्तथा ॥०७॥
अर्कः पालाशः खदिरो ह्यपामार्गोथ
पिप्पलः ।
उदुम्बरः शमी दूर्वा कुशाश्च समिधः क्रमात्
॥०८॥
एकैकस्यात्राष्टशतमष्टाविंशतिरेव वा
।
होतव्या मधुसर्पिर्भ्यां दध्ना चैव
समन्विताः ॥०९॥
गुडौदनं पायसं च हविष्यं
क्षीरयष्टिकं ।
दध्योदनं हविः पूपान्मांसं
चित्रान्नमेव च ॥१०॥
दद्याद्ग्रहक्रमदेतद्द्विजेभ्यो
भोजनं बुधः ।
शक्तितो वा यथालाभं सत्कृत्य विधिपूर्वकं
॥११॥
धेनुः शङ्खस्तथानड्वान् हेम वासो
हयस्तथा ।
कृष्णा गौरायसश्छाग एता वै दक्षिणाः
क्रमात् ॥१२॥
यश्च यस्य यदा दूष्यः स तं यत्नेन
पूजयेत् ।
ब्रह्मणैषां वरो दत्तः पूजिताः
पूजितस्य च ॥१३॥
ग्रहाधीना नरेन्द्राणा मुछ्रयाः
पतनानि च ।
भावभावो च जगतस्तस्मात्पूज्यतमा
ग्रहाः ॥१४॥
पुष्कर कहते हैं- परशुरामजी!
लक्ष्मी,
शान्ति पुष्टि, वृद्धि तथा आयुकी इच्छा
रखनेवाले वीर्यवान् पुरुष को ग्रहों की भी पूजा करनी चाहिये। सूर्य, सोम, मङ्गल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु तथा केतु-इन नवग्रहों की क्रमशः स्थापना करनी चाहिये। सूर्य की
प्रतिमा ताँबे से, चन्द्रमा की रजत (या स्फटिक से), मङ्गल की लाल चन्दन से, बुध की सुवर्ण से, गुरु की सुवर्ण से, शुक्र की रजत से, शनि की लोहे से तथा राहु-केतु की सीसे से बनाये; इससे
शुभ की प्राप्ति होती है। अथवा वस्त्र पर उन-उनके रंग के अनुसार वर्णक से उनका
चित्र अङ्कित कर लेना चाहिये। अथवा मण्डल बनाकर उनमें गन्ध (चन्दन-कुङ्कुम आदि) से
ग्रहों की आकृति बना ले। ग्रहों के रंग के अनुसार ही उन्हें फूल और वस्त्र भी देने
चाहिये। सब के लिये गन्ध, बलि, धूप और
गुग्गुल देना चाहिये। प्रत्येक ग्रह के लिये (अग्निस्थापनपूर्वक) समन्त्रक चरु का
होम करना चाहिये। 'आकृष्णेन रजसा०' (यजु० ३३।४३) इत्यादि सूर्य देवता के, 'इमं देवाः०'
(यजु० ९।४०; १०।१८) इत्यादि चन्द्रमा के,
'अग्निमूर्धा दिवः ककुत्०' (यजु०
१३।१४) इत्यादि मङ्गल के, उद्बुध्यस्व० (यजु० १५।५४; १८।६१) इत्यादि बुध के, 'बृहस्पते अदित यदिर्यः ०' (यजु० २६।३) इत्यादि
बृहस्पति के, 'अन्नात्परिश्रुतो०' (यजु० १९।७५) इत्यादि शुक्र के, 'शं नो देवीः०'
(यजु० ३६।१२) इत्यादि शनैश्चर के, 'काण्डात्
काण्डात्०' (यजु० १३।२०) इत्यादि राहु के और 'केतुं कृण्वन्नकेतवे०' (यजु० २९। ३७) इत्यादि
केतु के मन्त्र हैं। आक, पलास, खैर,
अपामार्ग, पीपल, गूलर,
शमी, दूर्वा और कुशा-ये क्रमशः सूर्य आदि
ग्रहों की समिधाएँ हैं। सूर्य आदि ग्रहों में से प्रत्येक के लिये एक सौ आठ या
अट्ठाईस बार मधु, घी, दही अथवा खीर की
आहुति देनी चाहिये। गुड़ मिलाया हुआ भात, खीर, हविष्य (मुनि-अन्न), दूध मिलाया हुआ साठी के चावल का
भात, दही-भात, घी-भात, तिलचूर्णमिश्रित भात, माष (उड़द) मिलाया हुआ भात और
खिचड़ी- इनका ग्रह के क्रमानुसार विद्वान् पुरुष ब्राह्मण के लिये भोजन दे। अपनी
शक्ति के अनुसार यथा प्राप्त वस्तुओं से ब्राह्मण का विधिपूर्वक सत्कार करके उनके
लिये क्रमशः धेनु, शङ्ख, बैल, सुवर्ण, वस्त्र, अश्व, काली गौ, लोहा और बकरा ये वस्तुएँ दक्षिणा में दे।
ये ग्रहों की दक्षिणाएँ बतायी गयी हैं। जिस-जिस पुरुष के लिये जो ग्रह अष्टम आदि
दुष्ट स्थानों में स्थित हों, वह पुरुष उस ग्रह की उस समय
विशेष यत्नपूर्वक पूजा करे। ब्रह्माजी ने इन ग्रहों को वर दिया है कि जो तुम्हारी
पूजा करें, उनकी तुम भी पूजा (मनोरथपूर्तिपूर्वक सम्मान)
करना। राजाओं के धन और जाति का उत्कर्ष तथा जगत्की जन्म-मृत्यु भी ग्रहों के ही
अधीन है; अतः ग्रह सभी के लिये पूजनीय हैं ॥ १-१४॥
इत्याग्नेये महापुराणे नवग्रहहोमो
नाम चतुःषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः ॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'नवग्रह-सम्बन्धी हवन का वर्णन' नामक एक सौ चौंसठवाँ
अध्याय पूरा हुआ ॥ १६४॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 165
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